साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????शरीर का रहस्य????

हे मेरे प्रिय यक्षगणो! मैं तो केवल आप लोगों को ही सम्बोधित कर रहा था। परंतु अभी ऐसा ज्ञात हो रहा है, जब मैं यहां आया था, उस समय आपकी संख्या न्यून थी। अब आपकी संख्या में चार गुना वृद्धि हो गई। देवगण भी अपना स्वरूप बदलकर, विभिन्न रूपों में इस रहस्य को सुनने आ गए हैं। यह संपूर्ण हिमालय आप लोगों का ही कार्यक्षेत्र है। संख्या की वृद्धि के अनुरूप आपके महल का भी विस्तार स्वतः बढ़ता जा रहा है। उन्हें बैठने की सुख-सुविधा भी स्वतः प्रदान होते जा रहा है। फिर भी दो-चार व्यक्ति के बैठने का स्थान खाली रहता है। शान्ति में कहीं व्यवधान नहीं हो रहा है। यह सब कुछ आप लोगों के लोक की विशेषता है।

समाज को क्षति खासकर आध्यात्मिक जगत् को जितना नुकसान तथाकथित विद्वान, (पुरोहितों, मुल्ला, काजी, पादरी) से हुआ है उतना गंवार अनपढ़ से नहीं हुआ हैं। चूंकि ये अक्षरज्ञान के साथ ही धूर्त हो गए। ये शिक्षाज्ञान के साथ ही नैतिकता, आध्यात्मिकता को एक किनारे कर रहे हैं। किसी भी तरह सुख-सुविधा एवं सम्पत्ति इकट्ठा करने में लगे हैं। विश्वस्तर पर अध्यात्म का जन्म अधिकांशतः अनपढ़ों या विरक्तों द्वारा हुआ है।

मैंने दिव्य गुप्त विज्ञान में शरीर में स्थित सभी चक्रों का एवं चक्रों की स्थिति देवी देवता का वर्णन किया है। महर्षि पातंजलि ने अपने योग में पिपिलिका मार्ग का वर्णन किया है। जैसे चींटी वृक्ष के पत्ते से यात्रा प्रारंभ करती है एवं जड़ तक जाना चाहती है, भले ही इसमें कई जन्म लेना पड़े। मैं विहंगम मार्ग का वर्णन करता हूं। जैसे राजा वायुयान पर सवार होता है, चंद घंटों पूरे अपने गंतव्य स्थल को पहुंच जाता है। विहंगम का अर्थ पक्षी होता है। पक्षी उड़कर वृक्ष के किसी शाखा पर बैठ जाता है।

इस पृथ्वी पर संभवतः प्रथम बार दिव्यास्त्रों से एवं देवास्त्रों के माध्यम से सीधे जड़ से अर्थात् परम पिता परमात्मा से यात्रा प्रारंभ कर पत्ते तक जाने का विधि मेरे द्वारा दिया गया है। सभी दिव्यास्त्र देवास्त्रों का प्रयोग मूल में ही करें। प्रधान कार्यालय में ही सभी ध्यान की ऊर्जा को भेजें। वहां से जहां जरूरत समझी जाएगी। वहीं पर उस ऊर्जा को भेजा जाएगा। जिससे शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक ऊर्जा में समन्वय स्थापित होता है। व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर दूसरे को भी मदद प्रदान कर सकता है।

जो भी इस साधना के रहस्य को समझना चाहता है, कल यहां उपस्थित हो जाए। मैं आपको उस दिव्य ऊर्जा को दिखाकर, दिव्यास्त्र देवास्त्र के साथ आपको सबल एवं सशक्त बना दूंगा। जिससे आप कहीं भी हों, किसी कार्य में हों, आपका सौधा संबंध गुरु गोविंद से हो।

इसके लिए अपनी चाल चरित्र, चिंतन को राजा के अनुरूप करना होगा। मन
को दरिद्रता, लोलुपता, मोह, मद, अहंकार से बाहर निकलना ही होगा। पृथ्वी के समस्त तपस्वी मूलाधार चक्र पर जाप ध्यान कर गणेश एवं ऋद्धि-सिद्धि को प्रसन्न करते हैं। फिर स्वाधिष्ठान चक्र पर ब्रह्म एवं सरस्वती को प्रसन्न करते हैं। जन्मों के तप से कुण्डिलिनी यदि जागृत हो गई तब वह मूलाधार में रुक जाती है। यदि साधक की कोई कामना, वासना, आकांक्षा शेष रह गई है, तब वह उसे पूरा कर पुनः वापस चली जाती है। वासना गिर गई है, हालांकि तप से वासना सूक्ष्म रूप से बलवती होती है। तब साधक मूलाधार चक्र पर आता है। जो चार दल कमल है। वह उसी चक्र पर जन्म भर घूम सकता है। जिसे जगत् के लोग समाधि समझेंगे। आप भी ऋद्धि-सिद्धि के चक्कर में जन्मों-जन्म फंसे रह सकते हैं। या अधोगति में गिर सकते हैं। (चक्रों के संबंध में मेरी पुस्तक 'क्रांति महाजीवन' देख सकते हैं), स्वाधिष्ठान पर छः दल कमल अर्थात् छः लोक हैं। आप उन्हीं लोकों में घूम सकते हैं। आपकी क्षमता ब्रह्मा के सदृश्य हो जाएगी। आप संसार में पूजित होंगे।
उसके आगे आप मणिपुर चक्र में पहुंचेंगे जहां दस दल कमल के मध्य में भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ हैं। आप यहां दसों दल पर जन्मों-जन्म यात्रा कर सकते हैं। लक्ष्मी की कृपा आप पर रहेगी। आप ऐश्वर्य सम्पत्ति के मालिक बन जाएंगे। इसके आगे अनहद चक्र है। इसे हृदयचक्र भी कहते हैं। पृथ्वी के अधिकांश साधक यहीं ध्यान करते हैं। यहां द्वादश दल कमल है। इस पर षट्कोण बनता है। शिव-शक्ति का युग्म स्थल है। यह शरीर रूपी सृष्टि का मध्य भाग भी है। अतएव यहां गुरुत्वाकर्षण का दबाव बनता है। अधिकांश गुरु स्वयं यही अपने-अपने इष्ट देवता का ध्यान कराते हैं तथा ध्यान हेतु अपने शिष्यों को उत्प्रेरित करते हैं। साधक यहां जन्मों-जन्म रुका रह जाता है। वह संसार-चक्र में अनवरत ऊपर-नीचे होते रहते हैं। जैसे कोई चरखी पर बैठा है। देव सृष्टि का यही अन्तिम बिंदु है। अतएव देवतागण भी साधक को मधुर प्रलोभन एवं ऐश्वर्य प्रदान करने का आश्वासन देते हैं। यहां द्वादश दल कमल है। यहां के अधिपति भगवान शंकर है। अपनी पत्नी उमा के साथ यहां विराजमान हैं। यहां से ऊपर जाना अत्यंत दुष्कर है। साधक के साधना का अस्सी प्रतिशत ऊर्जा तथा समय यहां तक खर्च हो जाता है। यदि किसी तरह इससे ऊपर आ भी गए तो विशुद्ध चक्र है। यहां भी आदि शक्ति है। जिन्हें परमा प्रकृति, दुर्गा, भवानी आदि रूपों से जानते हैं। यहां सोलह दल कमल है। यहीं से प्रकृति अपने नीचे के सारे लोकों एवं लोकपालों को नियंत्रित करती है। यहीं से स्वर उत्पन्न होता है। यहां से कुछ ऊपर ब्रह्म है। अर्थात् हठयोगी, तपस्वी, वनखण्डी, त्यागी, महात्यागी, प्राणायाम के द्वारा इंगला पिंगला को सम करते हैं। तब सुषुम्ना में पहुंचते हैं। जहां से त्रिवेणी संगम पर पहुंचते हैं। ये साधक यहां से अपने संकल्प एवं साधना के द्वारा अपने अन्तिम लोक त्रिवेणी से थोड़ा दाएं ऊपर सहस्रार है। जहां ब्रह्म (काल निरंजन, क्षर पुरुष) निर्गुण रूप में रहते हैं। यहां घंटा-शंख का आवाज भी सुनाई पड़ता है। वही आवाज पुरोहित वर्ग अपने मंदिरों में भी करता है। यही महाविष्णु, महाशंकर भी रहते हैं। इनके साथ वही शक्ति, प्रकृति इनके अर्द्धांगिनी के रूप में रहती है। इस ब्रह्म के क्षेत्र का यही सर्वोच्च स्थान है। जीव सृष्टि के प्रलयकाल तक यही निवास करता है। जैसे ही ब्रह्म परब्रह्म में विलीन होंगे। जीव पुनः चौरासी में वापस आएंगे। इस पृथ्वी पर या आपके देवलोक तक यही साधना है। ॐ का गमन यहाँ तक है।

मन मतंगी गुरु, विभिन्न मंत्र दिया करते हैं- जैसे— ॐ नमः शिवाय ॐ नारायणाय, सतनाम, ज्योति निरंजन रंरकार- ओंकार, सोहं शक्ति, अकाल मूर्त शब्द स्वरूपी राम, इत्यादि दिया करते हैं। उन सबकी अन्तिम पहुंच यहाँ तक है। चूंकि पृथ्वी के सभी सम्प्रदायों, पंथों के गुरु किसी न किसी रूप में किसी दे देवता की उपासना करते हैं या बताते हैं। जो देवी-देवता की उपासना नहीं करता है वह निराकार ब्रह्म का करता है। ओंकार का करता है। जिसकी अन्तिम पहुंच यही है। इस रहस्यमयी यात्रा का अन्तिम पड़ाव यही है। यहां से मुक्ति पूर्ण मुक्ति नहीं है। हमारे पंतजलिजी का योग दर्शन भी यही है।

जो उस परम पुरुष के संबंध में ज्ञान देता है, जो आदि मूल है, वही सद्गुरु कहलाता है। वह अति साधारण प्रतीत होता है। आपके साथ ही सहज भाव में रहेगा। सहज भाव से सभी कार्य करेगा। सहज ही समाधि में चला जाता है, न वह मंदिर, मस्जिद जाता है। न तीर्थ-व्रत करता है। न उपवास कर अष्टांग भोग से आंख, कान ही बंद करता है। फिर आप उसे कैसे पहचानेंगे? आपकी आदत है- अपने से विपरीत ध्रुव पर रहने वाले साधक को पहचानना जो या तो कांटों पर लेटा है। या एक पैर पर खड़ा है। दोनों हाथ ऊपर उठाया है। गर्मी की अग्नि में खड़ा है। शरद ऋतु में जल में खड़ा है। वह हर समय आपसे विपरीत हो। अपने शरीर का शत्रु हो । दमन प्रवृत्ति में हो। वही आपको समझ में आता है। देवतागण भी उसे अपना स्वर्ग प्रदान करते जितना शरीर को कष्ट दिया है। उसी के अनुरूप स्वर्ग में सुख भोगेगा, फिर चौरासी में डाल दिया जाएगा।

सद्गुरु चलते-फिरते, कार्य करते, बातें करते निरंतर समाधि में रहेगा। आंख खुली है, वह उसी परम पुरुष की लीला देख रहा है। वह हर समय उसी के साथ रहता है।

सद्गुरु अपने साधकों को सीधे कूटस्थ ब्रह्म रूपी एयरपोर्ट पर लाता है। साधक वायुयान से यात्रा पर आगे जाता है। फिर उससे थोड़ा ऊपर आज्ञाचक्र है। वहां से ऊपर गुरु पर्वत है। गुरु शब्द स्वरूपी, प्रकाश स्वरूपी वहीं विराजता है। जो साधक को मंत्र मिला है, उसी का जाप उससे स्वतः होता रहता है। गुरु द्वार बन जाता है। वहीं पर ब्रह्म अक्षर पुरुष बाहर आता है। साधक को वायुयान से बाहर निकालता है। स्वागत करता है। जिससे ब्रह्मरंद्र खुल जाता है। एकादश द्वार खुलता है। ब्रह्म (निरंजन) का सिर वहां से हटता है। उनके सिर के ऊपर से अक्षर पुरुष कैवल्य शरीर में उस आत्मा को निःक्षर पुरुष के सत्लोक में लेकर चला जाता है। वही हंस स्वरूपी आत्मा सैकड़ों सूर्यों से भी ज्यादा प्रकाशमान हो जाता है। वह अमृत रूपी मानसरोवर में स्नान कर पूर्ण आनंद को उपलब्ध हो जाता है। यही पूर्ण मुक्ति है।

त्रिकुटी से ही दाएं मुड़ने पर माया महल है। प्रकृति का साम्राज्य है। वहां डाकिनी विशाल रूप में रहती है। आपको सुख की, रिद्धि-सिद्धि की विभिन्न प्रकार के चमत्कार से भर देगी। उसी से ऊपर निरंजन ब्रह्म (काल) है। जो सूर्य की तरह चमक रहे हैं। वहां निर्गुण रूप में हैं। सभी कुछ परम पुरुष के सत्यलोक की तरह निर्माण कर रखा । साधक अपनी चरमावस्था समझकर, यही मुक्ति समझकर हजारों वर्षों तक पड़ा रहता है। उन्हें भान तब होता है जब निरंजन का भी समय समाप्त होता है। उन्हें चौरासी में भेजा जाता है। तब उन्हें याद आता है। मैं कहां भूला था। सद्गुरु के परिचय बिना मैं यहीं भ्रम में पड़ा रहा।

क्रमशः....