साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी  कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

परशुराम वाच

          मैं जमदग्नि पुत्र परशुराम हूं।आप सभी मेरा नमन स्वीकार करें। यहां के उपस्थित सदस्य न कोई निम्न है न कोई श्रेष्ठ है। हम सभी आत्म शरीरी, ब्रह्म शरीरी है। हमारा ना कोई शत्रु है न कोई मित्र है। सभी की मंगल कामना करना हमारा स्वभाव है। कतिपय लोग विकार जगत के विकास में रोड़ा बनकर व्यवधान कर देते हैं। वे विकास की गति को रोक देते हैं। स्वार्थी जन समाज से संपूर्ण सुख- सुविधा को अपने हस्तगत कर लेते हैं। अपने एवं अपने परिवार के सुख- सुविधा के लिए घिनौनेे स्तर की नीति का निर्धारण करते है। इनका दांत गरीब- निरीह के रक्त से रंजीत हो जाता है। पृथ्वी की सारी सुख - सुविधा इनके पास ही दौड़ती जाने को मजबूर हो जाती है। जैसे सारी नदियां समुद्र की तरफ भागती है। वह स्वार्थी व्यक्ति अपनी रक्षा-संरक्षा-सुरक्षा हेतु लंबी फौज खड़ी कर लेता है। उसके मात्र भोजन पर करोड़ों खर्च होने लगते हैं। सारी सत्ता उसके सुख-सुविधा के पीछे भागती है। वह व्यक्ति बेताज का देवेन्द्र बन जाता है।


            दूसरी तरफ गरीब के बच्चे को सुखी रोटी मोहाल होती है। रास्ते पर वे वैसे ही चलते हैं जैसे एक नर-कंकाल चलता है। उनका वर्तमान खिसक गया है। भविष्य उड़ गया है। उनके समान ही उनके बच्चे रोटी के बिना दम तोड़ देते हैं। वह पथराई आंखों से देखने को मजबूर है। उसके लिए न भाग्य है। न कोई भाग्य-विधाता। राजपथ पर जैसे ही उस स्वार्थी सत्तासीन व्यक्ति की सवारी निकलती है। हजारों सैनिक, सैकड़ों गाड़ियां उस राजपथ पर दौड़ने लगती है। जिसके नाम पर, जिसके लिए वह पथ बना है। उसे डंके के चोट से दूर भगा दिया जाता है। जो भाग नहीं पाता, उसे कुत्ते-बिल्ली की तरह उठाकर निर्मम हाथों से फेंक दिया जाता है। वही सत्ताधारी जब सभा मंच पर आसीन होता है तब गरीब-दलितों के लिए घड़ियाली आंसू बहाता है। तालियां बजती है। गगनभेदी जयकारा लगाता है। उसका बाह्म रूप नारायण का है। जबकि उसका वास्तविक रूप राक्षस का है। यही है राक्षस संस्कृति। यही है मेरे चिंता का विषय। ये शक्ति, संपत्ति और सत्ता के नशे में मदहोश हो गए है।


       मेरे साथ भी विचित्र विडम्बना है —स्वामी जी! जब पृथ्वी पर मैं अवतरित हुआ तो समतामूलक समाज की संरचना का स्वप्न ‌‍‌ देखा था। उस समय का पुरोधा वर्ग हमारा साथ नहीं दिया। उल्टे प्रचारित किया गया कि क्षत्रियों को इक्कीस बार नि:शस्त्र किया। राजा विष्णु का प्रतिनिधि होता है। राजा सहस्त्रार्जुन का वध मैंने पिता के अपमान के बदले किया था। तब पुरोधा वर्ग हमें राज हत्यारा घोषित कर दिया तथा पाप से मुक्ति हेतु मुझे तप में जाने को बाध्य किया। मैंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। परंतु घृणा से घृणा नहीं मिटाई जा सकती है। हिंसा से प्रेम-शांति के पुष्प को नहीं सींचा जा सकता है। आर्यावर्त के सारे पुरोधा वर्ग मेरे खिलाफ हो गए। दूसरी तरफ वही लोग राजा के खानदान को भी मेरे विरुद्ध भड़काते थे। नहीं चाहते हुए भी इक्कीस  बार सहस्त्रार्जुन की गद्दी के उत्तराधिकारी को मारना पड़ा।इनके गद्दी पर किसको बैठाएं। 
          मैंने किसी को क्षत्रधर्म के लिए प्रशिक्षित नहीं किया था। मैं स्वयं विरक्त ब्रह्मण धर्म का अनुसरण किया था। इसलिए सत्तासीन हो नहीं सकता था। यहां मेरे सामने समस्या थी। जिस ब्राम्हण को मैं राजगद्दी पर बैठाता उसे राज धर्म का ज्ञान नहीं होता उल्टे पुरोहित वर्ग उसे समाज से बहीष्कृत कर देते हैं। तुम ब्रह्मा नहीं हो। दूसरे तरफ क्षत्रिय भी स्वीकार नहीं करते। उनके खिलाफ जबरदस्त विद्रोह खड़ा हो जाता। जिससे बार-बार वे गद्दी को छोड़ भागने को बाध्य हो जाते। जो मेरे समर्थक हुए पुरोहित वर्ग उसे अपने समाज से बहिष्कृत कर दिए। क्षत्रिय स्वीकार नहीं किए।अतएव राज सत्ता  संभालने ,चलाने में असमर्थ हो गए।वे ब्राह्मण धर्म से च्युत भी हो गए।अन्त में वे कृषि कार्य या वाणिज्य का सहारा लिए परंतु वैश्य वर्ग भी अपने में उन्हें आत्मसात नहीं किया। जिससे वे अलग ही अभिजात्य वर्ग बनकर रह गए।
            आज तक मैं अपनी आत्म व्यथा को व्यक्त नहीं किया हूं—स्वामी जी। यही कारण है कि विभिन्न प्रकार के व्यक्ति अपने अपने मन के अनुसार मेरे आंकलन किए हैं। उस समय का पुरोहित वर्ग मुझे क्षत्रियहंता के रूप में प्रचारित किया है। राजा की हत्या करना ब्रह्महत्या के पाप से भी बड़ा माना जाता था। चूंकि राजा विष्णु का प्रतिनिधि होते हैं। ऐसा शास्त्र कहता है। वह नि:स्वार्थ भाव से प्रजा का सेवा करता है। सत्ता के मद से मतवाला नहीं होता है। तभी तो एक राजा हाथी पर बैठा अपने सेवक–सैनिकों के साथ जाता है। उसी मार्ग पर एक लंगोटीधारी, हाथ में कमंडल लिए दिखाई पड़ता है। वह राजा हाथी से नीचे उतरता है। लंगोटीधारी ब्राह्मण के पैर में अपना मुकुट–माथा रखता है। वह लंगोटीधारी विरक्त उस राजा को आशीर्वाद देता है। राजा अपने लश्कर के साथ सम्मान पूर्वक उस ब्राह्मण के लिए रास्ता छोड़ देता है। यही है ब्रह्म तेज। यही है—क्षात्र धर्म। लेकिन जब वह लंगोटीधारी ही हाथी पर बैठ जाए। वह राजमुकुट अपने सिर पर रख ले तब कौन रास्ता छोड़ेगा। कौन प्रणाम करेगा? ब्राम्हण धर्म च्युत हो गया।


        पुरोधा वर्ग को राजा से संरक्षण प्राप्त था। प्रचार उनके पक्ष में था। उस समय के प्रमुख स्वयंभू पुरोधा प्रमुख थे—वशिष्ठ, वामदेव जी तथा गौतम–सदानंद जी। दूसरी तरफ थे याज्ञवल्क्य और भारद्वाज जी। ये ही लोग राजनीति का निर्धारण करते थे इन्हीं लोगों का उस समय सत्ता–शक्ति एवं संपत्ति पर अधिकार था। ये लोग आर्यवर्त के राजाओं को कूपमंडूक बनाकर रखे थे।

क्रमशः...