साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

मैं शालीनता से पूछा कहां अचार्यवर ---पहले आप आसन ग्रहण करें। मेरे भी मन के संशय को दूर करें। कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत हुआ ही नहीं। श्रीकृष्ण ने महाभारत में गीता कहा ही नहीं। कुछ कहते हैं कि शिव से गीता ब्रह्मा के द्वारा कही। कुछ कहे हैं कि ये सब उपमाएं साधक सिद्ध एवं गुरु के लिए की गई हैं। ये नाना प्रकार के गीता का अर्थ प्रचारी करते हैं। आप तो उस समय थे। अभी, हमारे सामने हैं। उसकी वास्तविकता क्या है? यह बताने की कृपा करें।

द्रोणाचार्य बोले—प्रभु! हमारा बताना और आपका जानना दोनों एक है। आप भी उस समय थे। सभी कुछ जानते हैं। आपने तो कृष्ण से कृष्ण के जन्म का रहस्य ही मूछ लिया है। वे आपको बताए हैं कि मेरे बड़े भाई हैं- आसन, यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, इन्हीं छः भाई को कंस भगवान शंकर की कृपा से प्राप्त कर लिया था। देवता गुरु नहीं हो सकते। चूंकि वे स्वयं अमुक्त हैं। देवताओं के हाथ में यही छ होता है। जो अपने भक्तों को प्रदान करते हैं। इनके अहंकारवश वे उग्र हो जाते हैं। अहंकार में अनर्थ करने लगते हैं। कालान्तर में उन्हें राक्षस कहते हैं। उन्हें मारने के लिए ही नारायण को किसी न किसी रूप में आना पड़ता है। गुरुत्व तो मनुष्य योनि की उपलब्धि है। मनुष्य योनि को यही विशेष उपहार है- परमात्मा का।

गुरु मनुष्य को देवता नहीं बनाता बल्कि अपने स्वरूप बना लेता है। गुरु भक्त ही अवतार कहलाते हैं। जिस अवतार की देवतागण स्तुति करते हैं। यह सब मेरे सामने दृष्टिगोचर हो रहा है।

जो व्यक्ति भगवान कृष्ण के उस समय निंदक रहे हैं। या मेरे समान विरक्त में तन-मन-धन से लड़े हैं। वे अधोगामी हो गए। परंतु लम्बे अन्तराल के बाद प्रभु अनुकंपा से मनुष्य शरीर को प्राप्त हो गए। उनके मन ही मलिन वासना अभी गई नहीं है। हां पूर्व जन्म कृति सिद्धियां जो राक्षसों को तांत्रिकों को होती ही हैं। वे भी इनके गहने संस्कार बैठे रहे। वे भी साथ आ गई हैं। मन, माया नहीं मरती है। शरीर ही मरता है। शरीर मिलते ही वही मन, वही माया, आशा, तृष्णा उसे घेर लेती हैं। जो गुरु के शरण में जाने से रोक लेती है। यदि चला भी गया तो वह गुरु से अपने ही मन के तुष्टि पर हस्ताक्षर लगाना चाहता है। यदि लग गई तो ठीक है। नहीं लगा तो अपनी अलग दुकान खोल लेते हैं। मन मायावी लोगों में बहुत जल्दी फंसता है। चूंकि मन-माया के साथ ही सुख भोगता है। आत्मा के साथ उसका अस्तित्व समाप्त होने लगता है। वहां दो नहीं बचता है। एक ही रह जाता है।

वे लोग प्रभुकृपा से मानव शरीर धारण किए हैं। उनके अचेतन मन में दुःसंस्कार बैठा है। अवसर पाते ही निकल आया। अब सशरीर कृष्ण नहीं हैं। उनका मंदिर है। गीता है। उनके भक्त हैं। फिर विद्रोह की ज्वाला उनके अंतर्मन में धधक उठी। उनमें ऐसी क्षमता है नहीं कि दूसरा गीत गा सके। दूसरी गीता कह सके। जैसे अन्य संतों में हुई है। ये मतिहीन हैं। राक्षस प्रकृति के थे। फिर उसी रूप में पैदा हुए हैं। उसी गीता का सहारा लिये। अपनी जागतिक चमत्कार को उपयोग में लाए फिर लिख मारे-महाभारत का युद्ध हुआ ही नहीं। यदि हुआ भी तो अठारह अध्याय गीता युद्धभूमि में नहीं कह सकते। इसमें समय बहुत लगेगा। जो संभव नहीं है। गीता तो हमने कही है। मेरे कहने के बाद सत्ययुग आएगा। आगे मैं ही नारायण के रूप में आने वाला हूं। तुमने किसी खूबसूरत लड़की को फंसा रखा है। उसे सान्त्वना दे दिया तुम ही लक्ष्मी के रूप में आने वाली हो तो कोई कहता कि यह साधक सिद्ध की कथा है। इससे युद्ध का कोई वास्ता नहीं है। स्वामीजी ! ये उक्तियां कोरी मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। ये मायावी जन हैं। अपने माया के वागप्रगल्भ में भोली-भाली जनता को भटका कर उसका जन्म बर्बाद कर रहे हैं। उनका जन्म तो बर्बाद ही हुआ। इसको भी भटका कर बर्बाद कर रहे हैं। मैं अपनी आंखों से देख रहा हूं। जो-जो भी इस तरह की अनर्गल कथाएं गढ़ी हैं। वे पुरुषार्थहीन हैं। प्रमादी हैं। धन के लिए अपने आत्मा को बेचा है। वे सभी रौरव नामक नरक से निकले थे। पुनः अपनी करनी के चलते वहीं पहुंच रहे हैं। इनका हजारों जन्म ऐसे ही व्यर्थ जाएगा। स्वामीजी! ये बेचारे कृष्ण बन नहीं सकते। चक्र सुदर्शन देखते ही इनकी धोती खुल जाएगी। तब ये बातूनी तो बन ही जाएंगे। इनके स्वभाव के कायर, पापी, दम्भी, अकर्मण्य इनके साथ जुट जाएंगे। जो केवल अधर्म का प्रचार-प्रसार करेंगे। अधर्मी लोग इन्हें दान भी देंगे। ये उन्हें स्वर्ग का लाइसेंस देंगे। जैसे एक गुरु पत्थर की नाव पर सवार हो, और शिष्य भी उसी नाव पर सवार हो जाए। देखने में, सुनने में पत्थर की नाव मजबूत- सुंदर लगेगी, लकड़ी की नाव से। तंत्र में भी जीत जाएगा। परंतु वह नाव एक कदम भी यात्रा नहीं करती। जैसे ही जल में उतारेंगे गुरु शिष्य समेत वह नाव किनारे ही डूब जाएगी।

भगवान कृष्ण ने गीता कही है। विराट रूप दिखाया है। मैं मोहवश नहीं देख सका हूं। परंतु मैं इस घटना को असत्य नहीं कह सकता। ये सारे दृश्य एवं ध्वनि अभी भी आकाश में मौजूद हैं। यदि आपमें साहस है तो आप सुन सकते हैं। महर्षि वेद व्यास को अतीन्द्रिय प्राप्त थी। उन्होंने देखा है। सुना है। उनका हाथ लिखा है। यही कारण है कि कर्तापन से नकार गए हैं। चूंकि कर्ता तो कोई और है। मेरी आंख, मेरा कान, मेरा हाथ तो माध्यम है। मैं भी उनके सानिध्य में रहा हूं। मुझे भी अब अतीन्द्रिय मिल गई है। दूरदृष्टि प्राप्त हो गई है। दूर श्रवण भी प्राप्त है। मैं सभी कुछ देख रहा हूं। सुन रहा हूं। परंतु हमें दिव्यदृष्टि अभी नहीं प्राप्त हुई है। उसी दृष्टि के लिए आपके यहां आया हूं।

"द्रोण की व्यथा"
   क्रमशः.....