साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

सामने मधुर फल, फूल, खान एवं पेय पदार्थ रखे थे। सभी अपने आपमें अति सुंदर, स्वादिष्ट प्रतीत हो रहे थे। मैं ध्यान लगाकर परम पुरुष को अर्पित किया। एवं थोड़ा-थोड़ा सभी से एक-दो स्वर्ण चम्मच से निकाला। सभी का स्वाद अपने आपमें अविस्मरणीय था। पेय क्या-अमृत था। अमृत मय पेय पीकर मेरा तन-मन

तृप्त हो गया। फिर कुछ सत्संग की बातें हुई। मेरी विश्राम करने की इच्छा हुई। तुरंत दाईं तरफ एक कक्ष खुला। मैं उसमें गया। श्वेत मखमल युक्त पलंग लगा था। दीवारें मानो हीरे-मोती की थीं। खिड़की से बादल पर्वत-फल-फूलों के बाग नजर आ रहे थे। मैं पलंग पर बैठ गया। बैठते ही मानो एक फुट नीचे चला गया। पूर्ण आरामदेय। मैं एक घंटा विश्राम करने के बाद तरोताजा हो गया। बाहर निकला देखा देवराज इन्द्र मेरा इंतजार कर रहे थे। वे बोले-ऋषिवर आप कौन-कौन-सा लोक घूमना चाहेंगे? मेरे मुंह से निकला जैसी आपकी इच्छा ?

अग्निदेव के साथ मैं पितृलोक में गया। विभिन्न आकार के भवन निर्मित थे। खाद्य पदार्थ रखे थे। आगे जाने पर एक बहुत बड़ा सभागार मिला। जिसमें प्रवेश किया। सभी लोग विभिन्न तरह के वेश-भूषा में थे। किसी का चेहरा मलिन था। किसी का उज्ज्वल। कोई प्रसन्न था। कोई दुःखी था। वे हम को देखकर खड़े हो गए। एक महात्मा प्रवचन दे रहे थे। वे आकर हमें अभिवादन करते हुए बोले- स्वामीजी आप यहां। आप हमें नहीं पहचाने -मैं सत् मित्रानन्द हूं। आपका ही गुरु भाई। देखिए गुरुदेव ने हमें भी उस परम पुरुष की भक्ति दी थी। मैं देवपूजा से ऊपर नहीं जा सका। अतएव मैं स्वर्ग में आ गया हूं। ये पितर लोग हैं। आपके पितर नहीं हैं। बल्कि आपकी जन्मभूमि एवं ननिहाल के कुछ लोग हैं। वे आपकी बातें करते हैं। उनसे मिलाता हूं।

मैं वहीं बैठ गया। एक व्यक्ति मलिन चेहरे में मेरे सामने आए वे पूछे कि आप हमें नहीं पहचानते हैं। मैं आपका मामा हूं। 'देखिए मेरी पूंजी सभी खा गए। मुझे पिण्डदान भी नहीं दिए। क्या आप देंगे।' मैं नमस्कार में हाथ उठा लिया। पीछे से एक आदमी आकर बोला- "मैं आपका ममेरा भाई हूं। मैं उन्हें पहचान गया।" मैंने कहा- "देखिए आप लोग भजन नहीं किए। न ही अपने धन का दान किए। आपका धन आपके ही परिवार के लोग लूट-खसोट कर बंदरबांट कर दिए हैं। अब आप लोग भजन करें। सत्मित्रानन्द ने कहा मुझे आते ही ये लोग अपना परिचय दिए। मैं इन्हें पूजा की विशेष विधि बता दिया। परंतु ये सदैव अपने घर, बहुपुत्री, पौत्री के चिन्ता में आतुर रहते हैं। साथ ही सम्पति हड़पने वाले को दण्ड भी देना चाहते हैं। रह-रहकर आपकी याद करते हैं।"

मैं उन दोनों (मामा एवं भाई) को वहीं पितरलोक में ही दीक्षा दिया। दीक्षा देते ही उनके चेहरे की कान्ति बदल गई। आभा से भर गए। वे प्रसन्न हो गए। मैंने कहा—'"आप भजन कर अपना भविष्य सुधार लीजिए। जिससे अगला जन्म अच्छा मिले। आप जन्म लेकर परमात्मा का भजन करें। सभी अपने ही कर्मों का फल पाता है। मैं पृथ्वी पर जाते ही आपको पिण्डदान अर्पित करूंगा।"

मैं वहां से चलने को जैसे ही तैयार हुआ-दो और व्यक्ति मिले। वे मेरे ही जन्म भूमि के थे। मेरे रिश्ते में बाबा लगते थे। उसमें एक प्रकाश पूर्ण आभा से युक्त मेरे गुरुदेव के शिष्य थे। दूसरे मलिन चेहरे के शिव के भक्त थे। मैं तुरंत पहचान गया। उन्हें भी भक्ति का उपाय बताया। शिवभक्त से मैंने कहा कि आपको तो कोई कष्ट नहीं था। दान-पुण्य कर सकते थे परंतु कुछ नहीं किए बल्कि दूसरे का हक-हिस्सा लेने के चक्कर में रहते थे। अब क्या फायदा है? वे बोले-"देखो आपके बाबा हरिभक्त थे। दानी थे प्रतापी थे। उन्हीं के ये शिष्य हैं। हम लोगों ने उनसे मिलने की प्रार्थना की। तब ये बोले कि वे तो सद्गुरु थे। आप लोग चूक गए। वे सतलोक में हैं। वहां मैं नहीं जा सकता हूं। उन्हीं के प्रभाव से आपके परिवार के लोग पितरलोक में न आकर ऊपर के लोकों में चले गए। तभी मेरी जन्मभूमि की आठ-दस मलिन आत्माएं आ गईं। सभी पश्चात्ताप में थे। एक नौकरी में बहुत पैसा कमाए थे। वे अत्यंत दुःखी थे। मैंने कहा, क्या आपकी लूट की कमाई काम आ रही है? वे फफक कर रोने लगे। मैं देखता हूं। मेरी कमाई का कोई हिस्सा दान-पुण्य में नहीं खर्च हुआ। न ही साधु-संतों की सेवा की गई। मैं अधोगति में गया। मेरा परिवार भी अधोगति को जा रहा है। आप कृपा करें। उन्हें भी मंत्र दिया तथा पृथ्वी पर जाकर पिण्डदान, तर्पण देने का आश्वासन दिया। मैं सभी को पांच मिनट सम्बोधित किया- आप लोगों का पुनः जन्म आपके ही कर्मों के होगा। आप संसार में जाकर मायामोह, चोरी-लूट, पलटवार में फंस जाते हैं। संसार एवं सम्पत्ति को सत्य समझ लेते हैं। उसका परिणाम आपको मिल रहा है। अब आप यही भक्ति कर दृढ़ कर लें कि जाने पर भजन करेंगे। धन प्राप्त होने पर सद्गुरु के चरणों में नदी की तरह अर्पित करेंगे। सूर्य की तरह उदार होंगे। पृथ्वी के तरह धैर्य रखेंगे। इसी संकल्प के साथ आप जन्म लें। फिर अपने मलिन संस्कारों को अपने कर्मों से धो दें। जिन्हें-जिन्हें मंत्र दिया। उनका रूप तेजोमय हो गया।"

क्रमशः.....