साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप कुमार नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
इस जगत् में सद्गुरु का आगमन कभी-कभी होता है। जब वह आता है। तब उसे कोई पहचानता नहीं है। उसके जाने के बाद परस्पर रूढ़ हो जाते हैं। मनुष्य इस जगत् में इतना उलझ गया है कि वह उस वृक्ष का ओर-छोर ही नहीं देख पाता है। यदि कभी किसी गुरु, पुरोहित से जिज्ञासा व्यक्त करता है, तब वह भी चूंकि उसी तरह की माया में फंसे मरकट है, वह उसे किसी देवी-देवता के अनुष्ठान एवं अमुक फल की प्राप्ति का लालच देता है। विभिन्न प्रकार की पुराण की कथाएं सुनाता है। भवानी कठोर तप कर रही है तब तप में क्या मांगी-तो शादी। मनु सत्रूप कठोर तप कर रहे हैं तो वे क्या मांगे— पुत्र मानसिक विस्तार की कथाएं सुनाकर स्वयं एवं श्रोता को उलझाए हुए हैं। चूंकि इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं। जागतिक वृक्ष के विस्तार के विरुद्ध दिशा में है। मनुष्य का परम कर्तव्य होता है कि अपने उद्गम को खोजे। इसे खोजने के पहले उसे संसार के माया- प्रपंच को दृढ़ विरक्ति रूपी शस्त्र से काटे। कमजोर विरक्ति से तो व्यक्ति देवी- देवताओं द्वारा प्रदत्त लोभ-लालच या दण्ड में फंस जाता है उसे दृढ़ विरक्ति का सहारा लेकर दृढ़ वृक्ष के मूल को खोजना ही होगा। यही शास्त्रोक्त पूजा होगा।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निर्वतन्ति ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रापद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ 4 ॥
अर्थात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहां जाकर लौटना न पड़े और जहां उस भगवान की शरण ग्रहण कर ली जाए। जिसे अनादिकाल से प्रत्येक वस्तु का तथा विस्तार होता आया है।
साधक ब्रह्म (क्षर पुरुष, काल निरंज, अवतारादि) तक ही पूजा-अर्चना करता है। जिनके अधीनस्थ ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। छोटे छोटे देवी-देवता तो टहनियां हैं। सभी को काल निरंजन समय-समय पर ग्रास बनाता ही है। चूंकि सभी माया से कलवित हैं। वह माया साधारण नहीं है। बल्कि महाठगिनी है। उसके हाथ में भी त्रिगुन फांस है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही उसके हाथ के फांस हैं इनसे विभिन्न प्रकार के जागतिक भोग्य वस्तु प्रदान करती है। अपनी मधुर वाणी में, मुस्कान में, चितवन में सहज ही बड़े-बड़े योगी, यति, वैरागी को फंसा ली है। उसके फांस से हजारों जन्मों एवं करोड़ों वर्षों से मुक्त नहीं हुए बल्कि उसको पूजा-अर्चना में ही अपने को धन्य समझते हैं।
कृष्ण उस परम सत्य को खोल रहे हैं। चूंकि उनसे अक्षर पुरुष पूछता है कि तुम वास्तविक सत्य को नहीं बताते हो। वे बता तो रहे हैं लेकिन उसमें अपना
वर्चस्व छिपाकर रखे हैं कि कहीं अर्जुन उससे भी बाहर नहीं निकल जाए।
उस वृक्ष के मूल के उद्गम को अवश्य खोजना चाहिए, जिससे सृष्टि हीअनादिकाल से निकल रही है। वहां जाने पर व्यक्ति का आवागमन समाप्त हो जाता है। वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। सद्गुरु ही उस परम सत्य का मूल दर्शाता है। वही उस स्रोत को उद्गम तक ले जाने में सक्षम है। अतः अन्य देवगण उस
मूल उद्गम की तरफ गमन करें।
" निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्म नित्या विनिवृत्त कामा द्वन्द्वै निर्मुक्तः सुख दुःख संज्ञै र्गच्छन्यमूढाः पदमत्यर्य तत् ॥ 5 ॥ "
अर्थात् जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है। जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोह रहित होकर परम पुरुष की शरणागत होना जानते हैं, वे ही उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।
माया का सबसे बड़ा बंधन है---झूठी प्रतिष्ठा, अहंकार। पुत्रमोह, पत्नीमोह, धनमोह को ही प्रतिष्ठा का आभूषण समझ बैठा है। जो गुरु तथाकथित ऋद्धि- सिद्धि, धन-दौलत या संसार के लिए ही पूजा-पाठ कराते हैं उनकी संगति से बचना होगा। चूंकि ये आपका हजारों जन्म बर्बाद कर दिए। अब इसे कुसंगत समझ कर त्याग दें। ये भौतिक काम, भोग को बढ़ावा देने वाले उत्तेजक तत्त्व की तरह हैं। इनके संग से सदा सुख-दुःख बना ही रहेगा। इसका कोई अन्त नहीं है। यह सभी माया का वृहद् खेल है। इस द्वंद्व से बाहर निकलना होगा।
अब जब सद्गुरु की शरण में चले जाएंगे तब वह विहंगम मार्ग से, वायुयान से उस उद्गम स्थान पर लेकर चला जाएगा। जहां सत्पुरुष का लोक है। वही सत्लोक कहलाता है। जहां आनंद ही आनंद है। उसी लोक की कामना से काल निरंजन, ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी भक्ति करते हैं। उन्हीं का ध्यान धरते हैं। यही शाश्वत सत्य है।
आप लोगों को गीता के उदाहरण से इसलिए समझाए कि वही कृष्ण ब्रह्म है। उन्हें कालों के काल कहते हैं। वही निरंजन है। वे ही अक्षय पुरुष में हो जाते हैं। उनका भी लोक उनमें प्रवेश कर जाता है। उन्हीं के अंतर्गत लोकपाल है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। उस ब्रह्म के अंदर समा जाते हैं। ब्रह्मा की सृष्टि उनमें प्रवेश कर जाती है। इस तरह अक्षय पुरुष निःक्षर पुरुष परमपिता परमात्मा में प्रवेश कर जाते हैं।
इस पृथ्वी पर प्रथम बार सद्गुरु कबीर इस सत्य को उद्घाटित किए हैं। फिर आप पूछेंगे कि भगवान कृष्ण ने भी तो किया है। हां किया है, लेकिन सभी सत्यों
को बताने के बाद भी अर्जुन कर्मों से, माया से मुक्त नहीं हुआ, चूंकि अर्द्ध सत्य ही बताया। चूंकि अन्त में कृष्ण ने धीरे कह दिया कि अन्तिम सत्य 'मैं' ही हूं। ये सभी मुझमें ही विलीन हो जाते हैं। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। सत्य इसलिए है कि वह कृष्ण उसी क्षर, ब्रह्म ज्योति निरंजन लोक से आगे हैं। ये उसी का अवतार हैं। उसे ही सत्य बता रहे हैं। अपने लोक को परम धाम कह दिए। यही कारण है कि जो-जो कृष्ण से प्रथम बार गीता सुना सभी अधोगामी हुए। आप लोग स्वयं देखें, विचार करें। अर्जुन सुने हैं। भीष्म पितामह सुने हैं। संजय सुने हैं, धृतराष्ट्र सुने हैं। महाभारत का स्वर्गारोहण के पन्ने पलटें या आप लोग स्वयं अपने प्रज्ञाचक्षु से देख लें। यह सही है कि यह राजयोग है। जिसे राजा की तरह सोचने वाले, राजा की तरह रहने वाला, राजा की तरह कार्य करने वाला ही राजयोग कर सकता है। अब समय के अनुसार सद्गुरु कबीर साहब इसे सहजयोग में बदल दिए। छः सौ वर्षों के बाद उसे मुझे और नए रूप डालना पड़ा। सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-
अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकि डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार ॥
निःक्षर पुरुष, सत् पुरुष जड़ है अक्षर पुरुष (परब्रह्म) जमीन से ऊपर का तना है। डार है— ज्योति निरंजन। तीनों देवता - ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश शाखा हैं। छोटी-छोटी टहनियां देवी-देवता हैं। पत्ते संसारी जीव हैं। उन्होंने आगे एक की ही साधना के संबंध में कहा है-
एक साधै सब सधै, सब साधै एक जाय ।
माली सींचै मूल को, फूलै फलै अघाय ॥
उस एक की साधना करने पर सभी अपने आप सिद्ध हो जाते हैं। सभी पत्ते, देवी-देवता की साधना करने पर वह एक परम पुरुष छूट जाता है। आप उससे चूक जाते हैं। लख चौरासी के चक्कर में पड़ जाते हैं। जैसे माली वृक्ष की जड़ में पानी देता है। वह वृक्ष स्वतः फल-फूल से भर जाता है। जिस दिन माली जड़ पर पानी छोड़ पत्तों पर पानी छिड़कते हैं। वह जड़ सूख जाएगा। वृक्ष स्वतः सूख जाएंगे। पतझड़ में सभी पत्ते गिर जाते हैं। फिर भी माली जड़ को सेवा करता रहता है। उससे पत्ते, फूल स्वतः आ जाते हैं। एक परम पुरुष की भजन करने पर ये सभी सांसारिक मायाबद्ध देवी-देवता उस भजनानन्दी की सेवा में जुट जाते हैं। ये तभी तक आपको तंग करेंगे तथा अपने लोक से बाहर नहीं जाने देना चाहेंगे जब तक कि आपका परिचय सद्गुरु से नहीं हुआ है। जैसे ही आप पूर्ण गुरु से पूर्ण दीक्षा ग्रहण कर, अपने समस्त कर्मों को उन्हें सौंप देते हैं। उन्हीं के आदेशानुसार उस परम पुरुष का भजन करने लगते हैं। फिर ब्रह्म (काल निरंजन) समेत सभी देवी- देवता आपकी सेवा, सुरक्षा में तैनात हो जाते हैं।
आपके घर जैसे ही राष्ट्रपति आने को होते हैं, तमाम अधिकारी जिनसे आपका कभी परिचय भी नहीं है। वे स्वयं आने लगते हैं। राष्ट्रपति के आते ही आपके तथा आपके घर की समस्त संरक्षा सुरक्षा की जिम्मेदारी कनिष्ठ से वरिष्ठ अधिकारी स्वयं ले लेते हैं आपको किसी सिपाही, पुलिस, दरोगा या जिलाधिकारी या मंत्री की स्तुति नहीं करनी पड़ती है। यदि उस राष्ट्रपति से आपका सीधा संबंध हो गया तब सभी अधिकारी आपकी स्तुति करेंगे। आपके आदेशानुसार कार्य कर आपको खुश रखने में ही अपना भलाई समझेंगे।
क्रमशः...