साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

स्वामीजी ! आप सभी कुछ जानते हुए भी पूछ रहे हैं। जब दो शेर आपस में जिस जंगल में लड़ते हैं। तब उस जंगल के सारे पशु-पक्षी उनके चीत्कार सुनकर, दहाड़ सुनकर भाग जाते हैं। कुछ की हृदय गति रुक जाती है। कुछ वहीं बेहोश होकर गिर जाते हैं। उनकी बेहोशी तब खुलती है जब शेरों का युद्ध समाप्त हो गया होता है। अब उनसे कोई पूछता है, क्या दो शेरों का युद्ध हुआ था। वे बेचारे खरगोश, शृगाल, लोमड़ी, मेंढक क्या युद्ध के संबंध में बताएंगे। लोमड़ी एवं श्रृंगाल जरूर अपना गाल बजाएंगे कि मेरे रहते ऐसा कैसे हो सकता है। इस जंगल का राजा तो मैं हूं। जो भी होगा वह मेरी इच्छा से होगा। वैसे ही वह युद्ध था। वीरों का। मानव शरीर में भी श्रृंगाल, खरगोश, लोमड़ी का आगमन होता है। ये बेचारे वही हैं। दया के पात्र हैं। ये सदा से अपना गाल बजाएंगे। इनके श्रोता कोई शेर नहीं हो सकता— श्रोता भी शृगाल, खरगोश, लोमड़ी इत्यादि जीव-जन्तु होंगे। जिनकी संख्या जंगल में सदैव से अधिसंख्य होती है। शेरों को लेहड़ा नहीं होता, न हंसों की पातिया होती है, न साधुओं की जमात होती, न लालो (कोहेनूर) को बोरे में भरा जाएगा। कंकड़-पत्थर, पशु-पक्षी, बकरे, गदहों की ही संख्या सदैव से ज्यादा होती है। जबसे इस विश्व में वोट की राजनीति शुरू हो गई, तब से इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। शेर का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है।

हे प्रभु! केवल मैं ही बोलते जा रहा हूं। आप हमारी आंखों को खोलें। जिससे दिव्य दृष्टि प्राप्त कर अपने मोह से छुटकारा पा सकूं। यह मोह मेरे अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया।

हे आचार्यवर! द्रोणाचार्य ! तिमिरांध को विछिन्न करने हेतु सूर्य प्रातः ही प्रत्येक दरवाजे पर थपकी देता है। हम अपने प्रमाद में दरवाजा खोलना तो दूर अपने पर्दे से दरवाजे-खिड़की को ठीक से ढक देते हैं। किसी छिद्र से भी प्रकाश नहीं आ सके। अपने को रात्रि-अंधेरा समझाकर गहरे निद्रा में चले जाते हैं। जब सूर्य अस्ताचल को चला जाता है तब हम उठते हैं। सूर्य डूबने का अफसोस करते हैं। अपने से छोटे को डांटते हैं, तुमने हमें जगाया नहीं। अब दीपक जलाना। दीपक जलाने का कृत्रिम उपाय करते हैं। दीपक के साथ तेल और बत्ती तीन वस्तु . है। तब उसे जलते हुए दीपक के पास ले जाते हैं। दोनों दीपक कुछ झुकते हैं। होती जलते हुए दीपक की लौ दूसरे दीपक के बत्ती से मिलता है। वह भी जल उठता है। यदि उसमें तेल है, बत्ती नहीं है। तब भी नहीं जलेगा। बत्ती है तेल नहीं है, तब भी नहीं जलेगा। जलेगा भी तो शीघ्र बुझ जाएगा। दोनों हैं साफ-सुथरा दीपक नहीं है, तब भी नहीं जलेगा। जब तीनों का संयोग हो जाता है। और एक जलते हुए दीपक के पास जाता है। तब वह भी जल उठता है। वह दीपक घोर अंधकार में भी प्रकाश
 कर देता है। उसके प्रकाश में वस्तुएं दृष्टिगोचर होने लगती है। ठीक उसी प्रकार है आर्यवर। हर पुरुष में चित्तरूपी दीपक है। वृत्तिरूपी बाती है। जिज्ञासा रूपी तेल है। साफ-सुथरा बिना छिद्र का दीपक ही पात्रता है। जलता हुआ दीपक ही गुरु है। जैसे अधिकारी पूर्ण पात्र गुरु के सानिध्य में जाता है। तब गुरु अपनी वाणी से जिज्ञासु की बुद्धि को जाग्रत करता है। तब साधक का अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो जाता है। वह अहोभाव से भर जाता है।

वह साधक शरीरगत इन्द्रियों के व्यवहार को साक्षी होकर देखता है। उसका देहाभिमान गिर जाता है। वह बोधमान पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, चार - अंतः करण और उसकी चतुर्दश पदार्थों को उदासीन रूप से साक्षी भाव से अनुभव करता है। वही पुरुष अपना-पराया, बन्धन-मोक्ष, भय-अभय, जन्म-मरण, प्रवृत्ति- निवृत्ति को जान लेता है। वह मुक्त हो जाता है।

दूसरे के धर्मों को अपना मानना ही संसार है। अपनी पत्नी, पुत्र, पौत्र, मान- अपमान, सुख-दुख, हर्ष, शोक, देखना-सुनना तथा आना-जाना ये सभी इन्द्रिय और मन के धर्म हैं। आत्मा के नहीं। जैसे आप समझ लेते हैं कि यह मेरा धर्म नहीं है। आप दक्ष हो गए। गुरु दीक्षा में यही देता है। इन्द्रियां जहां चेष्टा करती हैं, वहां प्रारब्ध के भोगे के बिना शान्त नहीं होतीं।

जैसे जहां अग्नि जलाते हैं, वहां बिना जलाये किसी को नहीं छोड़ती। प्रारब्ध को भोगकर अग्नि की तरह अपने आप शान्त हो जाती हैं। या गुरु कृपा रूपी वर्षा से अग्नि भी शान्त हो जाती है एवं इन्द्रियां भी शान्त हो जाती हैं। अतएव आप उदासीन होकर इनका तमाशा देखते रहे। चूंकि यह आत्मा खाता हुआ भी नहीं खाता है। देखता हुआ भी नहीं देखता है। सुनता, चलता, लेन-देन करते हुए भी नहीं करता है। इसलिए विवेकवान एकरस, निर्विकार रहता है।

आत्मदर्शी जिज्ञासु का जप-तप, व्रत भी बदल जाता है। जैसे बार-बार अपने से पूछना ऐसा पूछे कि शरीर का कण-कण प्रश्न करे- "मैं कौन हूं ? यही जप हैं। फिर जब आप पर गुरु अनुकंपा होगी तब आपके अंदर से उत्तर आएगा। अथवा गुरु प्रसाद दीक्षा के समय ही मिल जाता है कि आप कौन, उस मंत्र का अनवरत अजपा करते रहना ही जाप है। यही कारण है कि दीक्षा के बाद ही किसी व्यक्ति को दिन कहते हैं।

जाप करते-करते आप आज्ञाचक्र पर रुक जाएंगे। जिसके नीचे त्रिकुटी है। त्रिवेणी संगम है। वहां से आपका त्रिनेत्र खुल जाता है। फिर त्रिकालज्ञ हो जाते हैं। सभी कुछ चलचित्र के सदृश्य प्रकट हो जाता है। इससे दो अंगुल ऊपर आज्ञा- चक्र पर रुक जाना, उस प्रकाश स्वरूप आत्मा को ज्यों का त्यों अर्थात् संशय विपर्यय से रहित होकर उसे जानना ही जप है।उसका मन अमन हो गया। चंचलता गिर गई।

क्रमशः...