साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????काशी????
ऋग्वैदिक काल में राजा देवोदास काशी बसाये थे। जो राजघाट से अस्सी घाट तक गंगा के किनारे ही था। जहाँ धर्मपूर्वक रहकर तपस्या करते थे। इधर भगवान शंकर की पत्नी पार्वती कहती कि हमारी सभी बहनें अपने-अपने राज्य में रहती हैं। मैं ही पिता के घर रहती हूँ। हे भगवान! आप भी कहीं अन्यत्र चलें। भगवान शंकर सूर्य को भेजे कि आप इस पृथ्वी पर पवित्र जगह की खोज करें। सूर्य घूमते-घूमते काशी आए। यहाँ की पवित्रता देखकर यहीं रुक गये। लोलार्क कुण्ड के नाम से विख्यात हुआ। वे नहीं लौटे। तब गणेश को भेजे। वे भी काशी में ही रुक गये। इस तरह कार्तिक एवं अन्य देवताओं को भेजे; सभी कहीं-न-कहीं काशी की पवित्रता देखकर ध्यान में मग्न हो गये। कोई नहीं लौटा। तब भगवान शंकर स्वयं खोजते हुए काशी आये। सभी इन्हें काशी में मिल गये। उन्होंने पूछा तो इन सभी ने उत्तर दिया-भगवान! इससे उत्तम पवित्र जगह पृथ्वी पर अन्यत्र नहीं मिला। आपके द्वारा बताये गये तंत्र के द्वारा हम लोग साधना में लग गये। दूसरा यहाँ का राजा देवोदास चन्द्रवंशीय राजा है जो अत्यन्त पावन एवं दानी है। उन्हें हटाना भी अपराध है। अतएव हम लोग भी यहाँ आकर सत् चित्त् आनन्द में निमग्न हो गये।
भगवान शंकर प्रात:काल स्नान कर विप्र रूप में राजा के सामने याचना किये। राजा देवोदास ने कहा-विप्र दान माँगो । सुबह पूजा से उठता हूँ तो जो दान माँगता है, वही प्रदान करता हूँ। ब्राह्मण भी मामूली नहीं था। वे बोले-राजन! सोच लो जो माँगूंगा वह दे देगा न। राजा ने कहा-माँगो तो। मैं देना ही जानता हूँ। ब्राह्मण ने कहा-हमें काशी दे दो। राजा ने कहा-तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। तुम अपना परिचय दो। उन्होंने अपना स्वरूप दिखाया।
राजा देवोदास ने कहा-हे भगवान! आप तो देना जानते हैं। माँगना कब से शुरू किये। भगवान बोले-हे राजन! तुम्हारी माँ पार्वती के रहने के लिए माँगना पड़ा। राजा देवोदास ने तत्क्षण काशी के पंडितों को बुलाया कि संकल्प करा दो काशी दान कर दूँ। परन्तु कोई ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ। तब गणेश जी ने यह कार्य किया। राजा देवोदास काशी दान देकर पत्नी के साथ इस पार आ गए। जहाँ वर्तमान सद्गुरु धाम आश्रम है। यहीं झोंपड़ी लगाकर तपस्या करने लगे।
भगवान शंकर पार्वती को लाये। गृहप्रवेश कराने हेतु पुनः ब्राह्मण नहीं आए तब गणेश जी ने यह कार्य करना प्रारम्भ किया। माता पार्वती बड़ी बहन गंगा को मंगल बेला में बुलाने गई। तो गंगा ने कहा कि पेड़ के नीचे रहने वाला महल में तथा महल में रहने वाला पेड़ के नीचे रहता है। माँ हर समय अपने पुत्र के साथ रहती है। मैं तो उस धर्मात्मा देवोदास के यहाँ निवास करूँगी। तब माता पार्वती भी बड़ी बहन गंगा के साथ काशी से गंगा पार राजा देवोदास के यहाँ पहुँची। राजा
ने माताओं का स्वागत किया।
जब पार्वती जी नहीं पहुँची तो गृहप्रवेश का मुहुर्त निकल गया। भगवान शंकर इस पार आकर डमरू बजाकर वेद ध्वनि उत्पन्न किये जिससे उस जगह का नाम डुमरी पड़ा। तब माता पार्वती ने कहा कि मैं पुत्र देवोदास के साथ ही रहूँगी। आप काशी में रहें। आपके एवं आपके भक्तों के भरण-पोषण के लिए मैं यहाँ 'अन्नपूर्णा' के रूप में रहूँगी।
आज का सद्गुरु धाम आश्रम गंगातट डुमरी वही स्थल है जहाँ माँ गंगा-पार्वती के साथ राजा देवोदास सपत्नी तपस्या में रहे। कालान्तर में श्री हनुमान जी ने भी यहीं तपस्या की। पुनः उसी स्थान पर रामानन्द जी ने हनुमान जी की मूर्ति रखी। जिनकी पूजा तुलसीदास ने भी की। संत कबीर साहब भी अपना वस्त्र दान देकर यहीं जंगल में ध्यान में लीन हो गये। तब भगवान अन्न-धन उनके घर पहुँचाए। वह पवित्र स्थल आज भी विराजमान है। जहाँ आप ध्यान में तत्क्षण पहुँच जाते हैं।
????शिव एवं तंत्र????
आप देखते हैं कि शिव के द्वारा दिया गया तंत्र मानव-मानव में कोई भेद नहीं करता। सब की ही एक जाति एक ही लक्ष्य होता है-परम पुरुष । तंत्र कहता है कि प्रारम्भिक अवस्था में सभी पशुवत् हैं। पशुपति ही आराध्य गुरु हैं। साधना का लक्ष्य होता है-ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित होना। जबकि देव यक्ष संस्कृति अपने को जातीयगत श्रेष्ठता का आधार मानती, जिससे सामाजिक कुरीति को बढ़ावा मिलता है। तंत्र कोई धर्म नहीं है। यह तो एक जीवन आदर्श (Vital principal) तथा साधना क्रम (Spiritual cult) है। जिससे साधक सुप्त जीवन शक्ति को जगाकर ब्रह्म भाव में लीन हो सके। सच पूछा जाये तो तंत्र वेद से पुरातन है। वेद जबकि सैद्धान्तिक एवं अनुष्ठान मूलक (Theoretical and revalistic) है। तंत्र जीवन मूलक ।
????अगस्त्य एवं वशिष्ठ का आगमन????
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अगस्त्य पहले ऋषि थे, जो देव संस्कृति के प्रचार हेतु विन्ध्य पर्वत के दक्षिण तक यात्रा किये। वे रक्ष संस्कृति में देव संस्कृति के प्रचार निमित्त दक्षिण में ही रह गये। वशिष्ठ दूसरे ऋषि थे। जो देव संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु मानव संस्कृति के मध्य में ही रुक गये। वे अयोध्या को ही अपना केन्द्र बना लिए। अयोध्या के राजा ने उदारतावश विद्वान समझकर उन्हें पठन-पाठन का काम सौंप दिया। वशिष्ठ तंत्र विधि को चीन के भू-भाग में सीख लिए थे। अयोध्या आने पर और भी तंत्र हासिल कर लिए। परन्तु उनमें तथाकथित श्रेष्ठता का अहंकार हर समय रहता था। चूँकि यह अहंकार देव संस्कृति की धरोहर है। इसी अहंकारवश "राजानिमि" से तू-तू-मैं-मैं हो गयी। वशिष्ठ क्रोध में आकर अपने ही पालक राजा को शरीर परित्याग का श्राप दे बैठे। यह धृष्टता देखकर महाराजा निमि भी वशिष्ठ को शरीर परित्याग का श्राप दे दिए। इसलिए अभी तक कहा जाता है कि महाराज निमि अपने वचन पर अटल रहे एवं दोबारा शरीर ही नहीं धारण किये। वे मनुष्यों के पलक पर निवास करने लगे, परन्तु वशिष्ठ देव संस्कृति के अनुरूप छल से छद्म वेश में पुनः अयोध्या आ धमके। इस बार प्रचारित करा दिया कि मेरा जन्म मित्र-वरुण उर्वशी नामक अप्सरा से हुआ है। खैर जो हो पहले तो मानव संस्कृति के लोग अप्सरा को वेश्या से ज्यादा स्थान नहीं देते थे। न ही अपने यहाँ किसी को इस तरह की अप्सरा बनने दिया, परन्तु यह भी भारत खण्ड के लिए दुःखद बात थी कि धीरे-धीरे देव ऋषि तंत्र विद्या सीखकर भारत खण्ड में भ्रमण करने लगे एवं तंत्र के माध्यम से देव संस्कृति (मांस, मंदिरा, अप्सरा, झूठ बोलना, कार्य पूर्ति हेतु किसी भी साधन का प्रयोग करना) का प्रचार सूक्ष्म रूप से शुरू कर दिया।
जब मानव संस्कृति एवं रक्ष संस्कृति बदसूरत होने लगी। तंत्र विद्या का दुरुपयोग होने लगा। वर्ण व्यवस्था का जन्म के आधार पर निर्धारण होने लगा। यहाँ के काले चमड़े के ऋषि या व्यक्ति को शूद्र कहकर दुत्कार पड़ने लगी। अपने ही घर में बेगाना होने लगे। चूँकि देव संस्कृति का प्रचार माध्यम बहुत बड़ा था। अपने को स्थापित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। जो इनके सिद्धान्त के अनुकूल नहीं था। परन्तु अब हो भी क्या सकता था ? यहाँ के बहुत सारे राजागण भी तथाकथित यज्ञ यानी जिस पशु के मांस खाने की इच्छा हुई, उसका यज्ञ प्रारम्भ कर देते। जैसे गोमेघ से लेकर अश्वमेघ तक ही नहीं रहा, जीभ की लोलुपता तो इसे बढ़ाकर नरमेघ तक खींच कर ले आयी। मदिरा के नाम पर सोमयज्ञ का प्रावधान किया गया। अप्सरा का भारत भूमि पर भी आगमन शुरू हो गया। देव ऋषि का वर्चस्व बढ़ता गया। तंत्र साधक भी बद से बदतर होते गये। तंत्र में भी मांस-मदिरा का प्रावधान कर दिया गया। चूँकि मानव-मन अब अधोगति की तरफ बढ़ने लगा। अब तंत्र में भी कौल तंत्र आ गया। चोल तंत्र आ गया। तंत्र भोग प्रधान हो गया। यह सब देव संस्कृति के द्वारा आविष्कृत एवं प्रचारित था। अधिकांश मानव एवं रक्ष संस्कृति के ऋषि मूक दृष्टा बनकर रह गये। अब इनके आश्रम में पढ़ने जाना विद्यार्थी भी नहीं चाहते। चूँकि नीरसता थी। राजाओं से भी उपेक्षित होते गये। मानव संस्कृति पूरी तरह कलुषित होने लगी। देव ऋषि का हर समय स्वर्ग (चीन-रूस) जाना बना रहता। प्रतिभा सम्पन्न राजा को अपने वाहन से स्वर्ग भेजते रहते। वे भी वहाँ का भौतिक सुख भोग कर कर्तव्य पथ से विचलित होने लगे। साधारण जनता भी मात्र तथाकथित ऋषि एवं राजा की साधन मात्र बनकर रह गयी। अमुक यज्ञ में इतना द्रव्य चाहिये, पशु चाहिये, नौकर चाहिये, दास एवं दासी चाहिये, बाध्य होकर यहाँ की निरीह जनता पूर्ति की साधन बनती। कुछ कर सकती नहीं। चूँकि धन सम्पन्न व्यक्ति को वैश्य कह दिया गया। उसे किसी तरह धन कमाकर तथाकथित देव ऋषि के इशारे पर राजा को देना है। बाकी निर्धन को शूद्र कह दिया गया। सबल सशक्त को जिससे उन ऋषियों को भय था, को क्षत्रिय कह दिया गया। वे ऋषि हर समय पर क्षत्रियों को खुश करने के लिए नथा-नया उपक्रम करते, जिससे वे भौतिक भोग में फंसे रहते। स्वयं भौतिक सुख-साधन जुटाने एवं राज्य के संचालन का अगुआ बन गये। इस तरह अब उन्होंने स्वयं को यज्ञ एवं शिक्षा का विधाता (ब्राह्मण) मान लिया तथा राज्य सत्ता से चिपके रहे। इससे वे ही राजा के मुख्य सचिव भी बन गये। जिसे बाद में पुरोहित कहा गया। यानी पुर का हित करने वाला। घुमा-फिरा कर सारे शासन की बागडोर अपने हाथ में रख ली। बाद में नीति की जरूरत पड़ी तो स्वयं नीति निर्धारक भी बनकर आगे आ गए। अब आप इस भू-खण्ड की दशा का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। यहाँ की नैतिकता सिसक उठी।
????भारतीय मनीषी विश्वरथ????
उस वक्त भारतीय मनीषी अत्रि, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, दधीचि, दत्तात्रेय, वशिष्ठ, गौतम, अम्बरीष, ऋषभ, गर्ग, वाल्मीकि इत्यादि किंकर्तव्यविमूढ़ बने हुए थे। इन्हीं विषम परिस्थितियों में महर्षि विश्वरथ का उदय होता है। विश्व रथ अपने युवा अवस्था में ही देव-यक्ष के क्रिया-कलाप से क्षुब्ध हो गये। इनका राज्य वर्तमान गाजीपुर का था। इनके पिता का नाम गाधि था। जिनके नाम पर गाधीपुर बसाया गया। बाद में वही गाजीपुर कहलाने लगा। वहाँ अभी भी किले का अवशेष विद्यमान है। इस राज्य का एक सिरा अयोध्या से लगता था तथा दूसरा गोरखपुर से। विश्वरथ ने अयोध्या के वर्तमान राजा सत्यव्रत से सम्बन्ध स्थापित किया। सत्यव्रत को समाज में उत्पन्न हो रही विकृतियों के सम्बन्ध में याद दिलाया। सत्यव्रत भी कर्तव्यनिष्ठ राजा थे। अतएव विश्व-रथ की बात ही नहीं माने वरन् उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। उन्ही के दिशा-निर्देश में राज्य का कार्य संचालन करना भी शुरू कर दिया। जो वशिष्ठ को अत्यन्त नागवार लगा। एक दिन विश्व-रथ अयोध्या में धर्म-अधर्म पर चर्चा कर रहे थे। लोगों को मानव संस्कृति के प्रति सजग कर रहे थे। वे कह रहे थे तुम सब उस विराट परमपुरुष से उत्पन्न हो। वह विराट तुम्हारे अन्दर छिपा है। जिसे अन्तर्मुखी साधना से प्राप्त किया जा सकता है। यदि यज्ञ करना ही है तो इस शरीर को ही यज्ञ की वेदी समझ लो। इस वेदी में आत्मा रूपी अग्नि को प्रज्वलित कर लो। उस अग्नि के प्रज्वलित होते ही तुम अपने आप में प्रकाशित हो जाओगे। पाओगे उस अनन्त को। उसी अग्नि में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार इत्यादि समिधा का हवन कर दो। प्राप्त कर लो समाधि को। यही यज्ञ श्रेयस्कर होगा, श्रेष्ठ होगा। मिथ्या देव-जाल में पड़कर अपना जीवन बरबाद मत करो। उठो अब समय आ गया है। प्रभात होने वाला है। भोगवृत्ति को परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। जब वशिष्ठ को ज्ञात हुआ कि हमारे यज्ञों का खण्डन हमारे ही भू-भाग में शुरू हो गया तो अत्यन्त चिन्तित हो गये। देव संस्कृति से सम्बन्ध टूटता नजर आया। अतएव उत्तेजित मुद्रा में अपने सौ बच्चों के साथ विश्वरथ पर टूट पड़े। उन्होंने कहा तुम क्षत्रिय हो, राजा हो, राज्य करो। धर्म तुम्हारा विषय नहीं। धर्म पर कुछ भी बोलना तुम्हारा अनाधिकार चेष्टा करना है। क्या अधिकार है तुम्हारा देव धर्म पर ? लौट जाओ अपने राज्य में। यदि इस तरह की कुचेष्टा कभी भी भविष्य में तुम्हारे द्वारा की गयी तो तुझे राज्य छोड़ना पड़ेगा। धर्म पर वही बोल सकता है जिसका धर्म से सम्बन्ध है। मैं विद्यालय चलाता हूँ। अयोध्या के सारे बच्चों को मेरे यहाँ मेरे पुत्र ही पढ़ाते हैं। नीति मैं बनाता हूँ, धर्म की व्याख्या मैं करता हूँ। तू लोगों को धर्म पर ही मूर्ख बनाता है। क्या है तुम्हारे पास ऋद्धि-सिद्धि ? मैं तो तंत्र योग से क्षणमात्र में पूरे अयोध्या को समाप्त कर सकता हूँ। या चाहूँ तो तंत्र रूपी कामधेनु से अयोध्या में दूध की नदी बहा सकता हूँ। उच्च वर्ण का हूँ। इस नगर का पुरोहित हूँ। इसका हित सोचना मेरा कर्तव्य है न कि तुम्हारा। तू अत्यन्त नीच है। तू लोगों का धर्मभ्रष्ट करना चाहता है। विश्व का अमंगल चाहने वाला है। अतएव आज से तुम्हारा नाम विश्वरथ न होकर विश्व-अमित्र होगा। विश्व-रथ नाम तुम्हारा इसलिए दिया गया था कि इस विश्व को तू अपने ज्ञान रूपी रथ पर आरुढ़ कर आगे बढ़ायेगा परन्तु तूने धर्म पर बोलकर धृष्टता की है। विश्व का दुश्मन है। अमित्र है। आज से विश्व के लोग तुझे विश्व-अमित्र के नाम से जानेंगे।
विश्व-रथ ने नम्र भाव से प्रति उत्तर देना चाहा कि महाराज जाति कब से आ गयी ? कहाँ से आ गयी? कौन लाया है? आप इस तरह हमारी मानव संस्कृति को मत तोड़ो। बँधे रहने दो, एक ही सूत्र में। देखो तुम ही वेश्या पुत्र हो। तुम्हें विद्वान समझकर ही अयोध्या में शिक्षण कार्य दिया गया। धीरे-धीरे यहाँ की राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति में भी हस्तक्षेप ही नहीं किया वरन् उसे बुरी तरह प्रभावित भी किया। यहाँ के ऋषि, जन-साधारण प्रजा या राजा तक एक पत्नी से शादी करते हैं। पति-पत्नी दोनों मिलकर पूरा होते हैं। दोनों साथ-साथ पूर्णत्व को प्राप्त करते हैं। यही है हमारा मानव धर्म। आप ही बोलो, आपकी कितनी स्त्रियाँ है? कौन-कौन हैं? इसका पता सत्यव्रत को भी नहीं है। आप यज्ञ के माध्यम से पशु की बलि देते हो। सोमरस बनवाते हो। देव एवं यक्षों को आमन्त्रित करते हो। क्या यह उचित है? क्या होगा मानव सभ्यता का भविष्य ? कभी आपने हमारे स्थान पर खड़ा रहकर सोचा है? हमारी सभ्यता, संस्कृति बदसूरत होती जा रही है। नवयुवक कुंठा के शिकार होते जा रहे हैं। भारत भू-खण्ड का भविष्य अन्धकारमय होता जा रहा है। आप ही बताओ, आपके विद्यालय से आज तक कौन विद्यार्थी ऐसा निकला है जो धर्म की धुरी हो, धर्म का नियामक हो। अस्त्र-शस्त्र का ज्ञाता हो। शरीर में ओज हो। पुरुषत्व हो। स्वयं अपने एवं अपनी संस्कृति के विषय में सोचने में सक्षम हो। यदि उचित दिशा-निर्देशन हो ही जाता तो हम लोग इस तरह सोचने को बाध्य नहीं होते। उल्टे आपने हमारा ही अन्न खाकर, हमारे भू-भाग में रहकर हमें आपस में तोड़ना सिखाया, तथाकथित ऊँच-नीच का पाठ पढ़ाया। हमें ही विश्व अमित्र कह दिया। खैर आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूँ, होगा वही जो आप चाहते हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अभी तक आपका भी अन्वेषण मानव हित के लिए कुछ भी नहीं है। अभी तक आपके द्वारा मानव संस्कृति को अतुलनीय क्षति हुई, परन्तु वर्तमान अवधि में अवश्य ही आप शक्तिशाली हो। चूँकि देव यक्ष लोग आपके साथ हैं। अयोध्या अभी दीन-हीन बना हुआ है। हर स्थिति में आपकी तरफ मुखातिब हो रहा है। आपने इसका अपना कुछ रहने ही नहीं दिया। अभी अयोध्या की स्थिति अत्यन्त दीन-हीन अकिंचन् सी हो गयी है। न कोई प्रबुद्ध रह गया है। न ही इसका अपना कोई चरित्र। जबकि मानव संस्कृति की सबसे बड़ी धरोहर चरित्र ही है। यहीं की नारियाँ सतीत्व जानती हैं। यहीं के पुरुष ब्रह्मत्व जानते हैं। देव यक्ष संस्कृति में सतीत्व, चरित्र, ब्रह्मचर्य नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। वहाँ सभी कुछ भोग्या-भोग ही है, जिसके प्रचारक होकर आप यहाँ केन्द्र स्थापित किये हैं। आपका आश्रम तप-स्थल न होकर भोग-स्थल हो गया, जहाँ से आप सृजन करते हो, केवल भोग-वृत्ति का। आज जरा ठण्डे मन और मस्तिष्क से सोचो, किसका कल्याण होगा इससे ? हाँ आपका प्रचार तंत्र (आकाशवाणी) वाहन तंत्र (विमान) अवश्य विकसित हैं जिससे आप झूठ को सत्य का जामा पहना देते हो। सत्य बेचारा मूकदर्शक बनकर रह जाता है। यह भी सम्भव है हमारे इस नम्र निवेदन को कल और अच्छी तरह से प्रचारित करा दें। अपने लेख में इसे और तरह से उद्धृत करा दें। चूँकि लेखन तंत्र भी तो आपके ही हाथ है।
????वशिष्ठ का क्रोधित होना????
वशिष्ठ के लिए यह अत्यन्त असहनीय हो गया। अपने ही ऊपर से सत्यासत्य का पर्दा उठते नज़र आया। ये सोचने लगे यदि इसे अभी दमन नहीं किया गया तो विद्रोह सम्भव है। अतः सत्यव्रत को फटकारते हुए बोले- राजन् इस विश्व-अमित्र को शीघ्र ही राज्य से निष्कासित कर दो। हम से शास्त्रार्थ करने के पहले कह दो तप करे। मैं इस तरह के दुष्टों से मिथ्या बातें नहीं करता। इसकी उम्र तो अभी हमारे लघु पुत्र के बराबर भी नहीं। यह बहुत धृष्टता करता है। छोटे-मुँह बड़ी बातें। इसे अभी, इसी क्षण राज्य की सीमा से बाहर करो अन्यथा हमारे श्राप के भागी बनोगे। इसे कह दो हमारे विद्यालय परिवार पर उँगली उठाने के पहले एक भी विद्यार्थी को पढ़ा कर तो देख ले। यह बात करने में चतुर परन्तु इसकी प्रत्येक ६क्षणी हलाहलयुक्त है। यह राज्य भी चाहता है, अस्त्र-शस्त्र भी, तंत्र भी। जो असम्भव है। बड़ी-बड़ी बातें करता है। यदि कुछ कर सकता है तो पहले करके दिखा। मिथ्या कपोल से क्या फायदा। फिर विश्वरथ से बोले-क्यों अयोध्यावासी को दिग्भ्रमित करते हो ? अब बस करो अपनी बकवास। शीघ्र निकल जाओ, अयोध्या की सीमा से बाहर विश्व-अमित्र।
अब विश्व-रथ खिन्न मन, उदास स्थिति में अयोध्या से अपने राज्य में लौट आये। सोचने लगे सचमुच हमारा अपना अन्वेषण तो कुछ भी नहीं है। क्या मैं ऋषि नहीं बन सकता ? क्या सचमुच मैं विश्व अमित्र ही हूँ? क्या विश्व-मित्र नहीं बन सकता ? क्या इस दल-दल से मानव संस्कृति को नहीं बचा सकता? क्या मैं मात्र मूक दर्शक ही रह जाऊँगा ? क्या सब कुछ भाग्य एवं नियति के ही भरोसे छोड़कर बैठ जाना पौरुषेय है? क्या सचमुच हमारे अन्दर कुछ है? उधर सत्यव्रत चाहते हुए भी कुछ प्रत्युत्तर नहीं दे सके। मन कुण्ठित हो रहा था।
क्रमशः....