साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष श्री कबीर सिंह छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

विश्वमित्र का गृह त्याग

मन-ही-मन यह सोचते हुए कि मैं एवं अयोध्या पूरी तरह दल-दल में फाँस गया है। अब फसते ही जाना भविष्य है। कुछ नज़र नहीं आता। भविष्य मुर्झाया हुआ प्रतीत हो रहा है। तंत्र के नाम पर अविद्या तंत्र का प्रचार-प्रसार हो रहा है। युवा मन उसी कुष्ठा से प्रसित होता जा रहा है। विश्व-रथ यह ठीक ही समझ रहे थे। यदि किसी को गुलाम बनाना है तो उसकी सभ्यता, संस्कृति को बदल दी। बह व्यक्ति, वह देश सदा के लिए मानसिक रूप से युगों-युगों तक गुलाम हो जायेगा। आत्म-सम्मान खो देगा। वंश भोग रूपी दरिया में बहते ही जायेगा। अनन्त काल तक। ये दोनों अपने-अपने शयन कक्ष में रात्रि-भर सोचते हैं। दोनों की सोच एक थी। उद्देश्य एक था, परन्तु दिशाएँ भिन्न थीं। विश्व-रथ रात्रि भर सोचने के बाद प्रातः मलीन नहीं था। ओज से भरा था। नयी आशा की किरण नज़र आ रही थी। चेहरा मुस्करा रहा था। सम्भवतः अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का कोई सूत्र पा लिया था। अतएव सुबह ही अपने मन्त्री को सन्देश भिजवा दिया कि आज राज्यारोहण समारोह होगा। अपने लड़के को राज्य तिलक देकर मैं तप के लिए प्रस्थान करूंगा। राज्य की जनता अवाक् रह गयी। आखिर इतने अच्छे शासक कर्तव्यनिष्ठ, धर्मपरायण, प्रजा के दुःख से दुखी, प्रजा के ही सुख से सुखी, प्रजा से पुत्रवत सम्बन्ध रखने वाले को हो क्या गया ? हम लोग तो सोच रहे थे कि हमारी विश्व समस्या को अपने ज्ञान रूपी रथ पर बैठाकर हांक ले जायेंगे अपने गंतव्य स्थल तक। पर हो क्या गया? खैर सोच के धनी, दृढ़प्रतिज्ञ विश्व-रच विश्व के मंगल कामना हेतु छोटे देश को परित्याग करना ही श्रेयस्कर समझे। प्रजा एवं देश के कर्मचारियों के नहीं चाहते हुए भी अपने अतारह वर्षीय पुत्र को राज्याधिकारी बना दिया। अपना मुकूट उसके माथे पर रख दिया। साथ ही बोते-देखो बास-वहो करना जिसमें राज्य को प्रजा का मंगल हो। मानव संस्कृति एवं तंत्र विद्या को अपनाते हुए पूर्णरूपेण धर्म में अवस्थित होकर धर्म का राज्य करना। जिससे मैं निश्चिंत होकर तप कर सकूँ। कुछ पास। जिससे सम्पूर्ण विश्व का मंगल हो सके। जिससे इस पृथ्वी पर समरसता की ज्ञान गंगा बह सके। जिस गंगा में सभी स्नान कर सम्यक ज्ञान को उपलब्ध हो सकें। यही है हमारा लक्ष्य।

विश्वमित्र का तप करना

विश्व-रथ, विश्व-अमित्र रूपी श्राप ले विश्व मंगल की कामना में विभिन्न जंगलों में तप करते हुए कण्डव वन पहुँच गये। वे हर समय स्थान बदलते रहते, चूंकि वशिष्ठ के इशारे पर देवेन्द्र उनके तप (अन्वेषण) में बाधा उपस्थित करते। कण्डव वन में घोर तप में लीन हो गये। इधर देवेन्द्र ने अपने दूतों से खोज कराना शुरू कर दिया। चूंकि वे जानते थे कि इसका तप रूपी अन्वेषण देव संस्कृति के लिए महंगा पड़ सकता है। अतएव किसी भी तरह विघ्न उपस्थित करना एवं उन्हें बदनाम करना अपना कर्तव्य समझ लिए थे। उनके तप से कण्डव वन में एकाएक आमूल परिवर्तन-सा आ गया। पेड़-पौधे अपना समय भूलकर फल प्रदान करने लगे। हवा में शीतलता आ गयी। पशु-पक्षी परस्पर बैर भूलकर एक साथ रहने लगे। विश्व-रथ के चारों तरफ प्रकाश की आभा बन गयी। जीव-जन्तु उनके दर्शन मात्र से धन्य होने लगे। सिंह से लेकर खरगोश तक उनके सान्निध्य के लिए तड़प उठे। मानो तप रूपी पवित्र प्रेम की नदी बह चली। उसी नदी में वहाँ से कुछ दूर रह रहे ऋषि कण्डव भी बह गये। वे अपने परिवार एवं शिष्यों समेत उनके दर्शन को पहुँचे। विश्व-रथ मौन सत्संग का ही लाभ सबको देते। अपने अन्दर के अन्वेषण में सतत् लीन रहने लगे। इनकी ख्याति सहसा बढ़ गयी। कोई बाबाजी गज़ब का तप कर रहा है। मानो उसके इशारे पर सृष्टि सब कुछ करना चाहती है। उसका न कोई नाम है, न कोई घर। बस तप ही मानो सब कुछ है।

वशिष्ठ द्वारा सत्यव्रत को राज्यच्युत करना एवं स्वयं राजा बनना

इधर सत्यव्रत वशिष्ठ की प्रतिदिन की मनमानी से खिन्न हो गया। एक दिन उनके आश्रम में जाकर उन्हें समझाने का प्रयास किया परन्तु परिणाम निकला उल्टा ही। वशिष्ठ समझ गये कि इसकी भी बुद्धि मारी गयी है। यह हमारे यज्ञ में रुचि नहीं रखता, उल्टे हमें परित्याग करने का उपदेश देता है। वशिष्ठ उन्हें स्वर्ग भेजने का लालच दिए परन्तु वह भोगवादी स्वर्ग जाने से स्पष्ट शब्दों में मनाही कर दिए। वशिष्ठ समझ गये कि अब कुछ करना ही पड़ेगा। अतएव उस राज्य के सभी सभासदों को यज्ञ एवं तथाकथित स्वर्ग के लालच में मिला लिए। दूसरे ही दिन सभागार में सत्यव्रत के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया गया कि वह राजा भ्रष्ट हो गया है। धर्म में अभिरुचि नहीं रखता। यज्ञ नहीं मानता। स्वर्ग की कामना नहीं करता। नर्क से नहीं डरता, वेद नहीं मानता। अत: यह इस पवित्र नगरी के राज्य का उत्तराधिकारी होने के लायक नहीं है। उन्हें पदच्युत कर दिया गया। पुनः वशिष्ठ ने सोचा कि यदि यह इस नगर में रहा तो कभी भी विद्रोह करा सकता है। अतएव उसे निष्कासन की भी सज़ा सुना दी। राजा सत्यव्रत को राज्य छोड़ना पड़ा। वे अपने गुरु की खोज में जंगल-जंगल भटकने लगे। ऋषि-मुनि के आश्रम पर कंद-मूल खाकर जीवन-यापन करने लगे। गुरु के बताये तंत्र को जीवन में उतारने का प्रयास करने लगे। धीरे-धीरे मन तप में रमने लगा। इनकी भी तप की ख्याति बढ़ने लगी। इधर वशिष्ठ स्वयं अयोध्या के राजा बन बैठे। अब अयोध्या ने देवेन्द्र एवं यक्षेन्द्र की राजधानी का रूप धारण कर लिया। यज्ञ के नाम पर नये-नये दुष्कर्म होने लगे। यहाँ स्वेच्छाचार बढ़ गया। तब जनता का ध्यान टूटा। जगह-जगह वशिष्ठ के खिलाफ सभायें होने लगीं। वशिष्ठ को बाहर करने की आवाजें उठने लगीं। अब कोई कानून व्यवस्था नाम की चीज नहीं रह गयी। सभी मनमानी करने को स्वतंत्र हो गये। पारिवारिक बन्धन ध्वस्त हो गया। सारी जनता ने एकत्र होकर वशिष्ठ को घेर लिया एवं स्पष्ट शब्दों में कहा, तुम हमारा राजा वापस करो या तुम यहाँ से वापस जाओ। इस उग्र रूप को देखकर वशिष्ठ एक बार काँप गये। उन्होंने झूठा आश्वासन दिया कि सत्यव्रत तप में गये हैं। वे तुरन्त ही आकर गद्दी सम्भालेंगे। उन्हें हटाया नहीं गया बल्कि स्वेच्छा से गये हैं। जन-प्रतिनिधि अब यह मानने को तैयार नहीं थे। वशिष्ठ ने जन आक्रोश शान्त करने हेतु अपने बड़े लड़के के साथ अयोध्या के जनप्रतिनिधि को उनके तपस्थल के लिए रवाना किया। साथ ही शक्ति को समझा दिया कि सत्यव्रत को यह जानकारी दे देना कि वशिष्ठ स्वयं आपको राज्य लौटाना चाहते हैं एवं अब आप धर्मज्ञ की तरह पिताश्री के आदेशानुसार राज्य का संचालन करें। पिताश्री ने भी आपकी इच्छाओं का सम्मान करने का वादा किया है। इस तरह शक्ति अयोध्या के जन-प्रतिनिधि के साथ जाकर समझा-बुझा कर सत्यव्रत को लाये एवं पुनः उन्हें राज्यारूढ़ किया।

विश्वमित्र एवं मेनका

उधर विश्व-रथ अपने अलौकिक तप शक्ति से कण्डव वन को आलोकित 
किये थे। इस आलोक को वशिष्ठ बर्दाश्त नहीं कर सके। अतएव स्वर्ग (चीन) में जाकर देव-यक्ष की सामूहिक सभा की। जिसका विचारणीय विषय था- "विश्व अमित्र को भ्रष्ट करना।" किसी भी तरह उसकी योग-तप शक्ति को, अन्वेषण को नष्ट करना। अन्यथा पूरे विश्व से देव संस्कृति समाप्त कर सकता है। यह व्यक्ति सदाशिव से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। चूंकि सदाशिव सौधे थे, भोले-भाले थे। उन्हें किसी भी तरह खुश किया जा सकता है। उन्हें भुलवाया जा सकता है परन्तु यह तो किसी के भुलावे में भी आने वाला नहीं। युद्ध में मारा भी नहीं जा सकता चूंकि यह अप्रतिम योद्धा भी है। यह भी ठीक ही कहा गया है कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।" उनके सामने सारी समस्याओं का समाधान है- "काम", "मदिरा" जैसे आधुनिक देवता (नेतागण) भी इसी अस्त्र-शस्त्र का सहारा ले कोई काम सम्पन्न कराना चाहते हैं। बस सर्वसम्मति से आदेश दिया गया कामदेव को कि तुम अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ, सेना (अप्सरा) लेकर शीघ्र कण्डव वन को प्रस्थान करो। किसी भी तरह विश्व-अमित्र को भ्रष्ट करो। पृथ्वी पर यह बता दो कि वशिष्ठ यों ही इसे अमित्र नहीं कहे हैं। कामदेव पहुँच जाते हैं ऋषि आश्रम के पास। उनके तप-तेज को देखकर पहले घबरा जाते हैं। उनको कामशक्ति उनके तेज़ को देखते ही पथरा जाती है। यानी रम्भा रूपी अप्सरा पत्थरवत् हो जाती है। जबकि पूरा जंगल ही काममय हो गया है। सभी एक-दूसरे को देखकर मोहित हो रहे हैं। पशु-पक्षी तक मोह से ग्रस्त होकर सर्वत्र काम ही काम देख रहे हैं। उधर विश्व-रथ एकासन पर अविचल निर्विघ्न ध्यानरत हैं। अपने आप में आनन्दित है। जो साधक अपने अन्दर की स्त्री को देख लेता है क्या उसे बाह्य स्त्री अच्छी लगेगी? क्या जो साधक अपने अन्दर को स्त्री से मिलकर अर्द्ध-नारीश्वर को साक्षात्कार कर लिया, उसे बाहर का काम मोहित कर सकता है? कदापि नहीं। कामदेव को इसका अनुभव भी शिव के साथ है। चूंकि शिव का ज्ञानरूपी त्रिनेत्र खुलते ही कामदेव भस्म हो गये थे। किसी भी विद्या तंत्र के साधक का ज्ञान रूपी त्रिनेत्र खुलने पर काम भस्म हो जाता है। काम को टिकने का कोई उपाय ही नहीं है। यदि काम टिक गया तो त्रिनेत्र को उपलब्ध नहीं हुआ है। जैसे अन्धकार-प्रकाश दोनों एक साथ नहीं रह सकते। उसी तरह ज्ञान काम एक साथ नहीं रह सकते। ज्ञान के साथ तो रहता है शुद्ध वैराग्य। तब वह उपलब्ध हो जाता है-शुद्ध ब्रह्मचर्य को। जहाँ से प्रेम का निर्झर स्वतः ही निकल पड़ता है, जिस निर्झर का जल चाहे जो जी भर कर पीये।

कामदेव को कोई युक्ति नहीं सूझ रही है। अतएव देवेन्द्र एवं वशिष्ठ के परामर्श से लोकनिन्दा कराने हेतु दूसरी ही रणनीति अपनाई गयी। वह रणनीति सदाशिव से भी भिन्न एवं अत्यन्त खतरनाक रूपकी मेनका को समझाया गया कि तू तपस्वनी का रूप ग्रहण कर उस व्यक्ति सेना की दीक्षा ग्रहण कर, परतू सावधान हूँ थी साधना मत करना। वह साधना आपत खतरनाक है। अन्यया तू नहीं बचेगी। साधना तुम्हारा चाटक। प्रेम-प्रसंग का खिलवाड़ मादा। तुम उसमे मत फेसना बल्कि उसे पीसाना। जब वह ध्यानस्य हो जाये तब तुम आस-पास अन्य ऋषि आश्रम में जाकर अपने को उनकी पत्नी बताना। आस-पास के गाँव नगर में भी जाकर अपना सम्बन्ध उनसे बताना। साधना का नाटक रहेगा। उसके खिलाफ दुस्प्रचार जयादा रहेगा। तुम्हारी मदद में स्वयं कामदेव हर समय रहेंगे। इनको पत्नी रति हमारे साथ स्वर्ग में रहेगी। इस तरह मेनका ने अपने को बलि का बकरा समझकर ऋषि के चरणों में जाकर प्रणाम किया। सामने ही हाथ जोड़कर बैठ गयी। भानो ऋषि से तप-साधना की प्रार्थी हो। सन्ध्या समय जब उनका ध्या टूटा। वे सोधे नदी के किनारे गये जहाँ स्नान कर सूर्य का तर्पण कर पुन: अपने आसन पर बैठ गये। मेनका अब उनके आश्रम पर झाडू देने लगी एवं रात्रिभर उनके उठने का इन्तजार करती रही। वह जहाँ भोग प्रधान जगहों में रही, उसके विपरीत यहाँ कभी मच्छर काटते तो कभी कोड़े का भ्रम, तो कभी बाघ सिंह किसी तरह रात्रि व्यतीत की, परन्तु वह महायोगी पुनः प्रातः चार बजे उठा एवं नदी में स्नान कर सूर्य को तर्पण किया। तब तक मेनका उनका ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए उनको लंगोटी वगैरह साफ करने का उपक्रम करने लगी, परन्तु विश्व-रय बिना बोले आश्रम पर आकर पुनः ध्यानस्थ हो गये। अब मेनका बहुत कठिनाई में पड़ गयी। क्या करे ? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। अन्दर ही अन्दा भयभीत रहती। परन्तु अब दो-चार दिन में वह जान गयी कि किस समय ऋषि उठते हैं, किस समय स्नान तर्पण करते हैं। उसी समय वहाँ जाना उचित समझती। बाकी समय कुछ ही दूरी पर अवस्थित कामदेव के अस्थायी निर्मित टेण्ट के महल में रहने लगी। वहाँ भोग का सब साधन मौजूद था। वहाँ संचार-सुविधा वगैरह सव थी। दिन के समय कामदेव एक दिशा में, तो मेनका दूसरी दिशा में (आस-पास के गाँव में) उस ऋषि के विषय में कोरी कल्पित कहानियाँ प्रेम-प्रसंग जा-जाकर सुनाने लगे। मिथ्या भ्रामक प्रचार करने लगे। लोग उस तपस्वी के सम्बन्ध में पहले तो सुनकर मिथ्या ही समझे परन्तु अपने सुन्दर रूप, वाक्पटुता की क्षमता से दोगे ने लोगों को बुरा सोचने पर मजबूर कर ही दिया। इधर विश्व रथ का जब धयान एक दिन टूटा तो अनायास उसका सेवा भाव देखकर पूछ ही डाले। तुम कौन हो देवी? क्यों यहाँ आयी हो। बस मानो मेनका का तप पूरा हो गया। वह तो मार बात ही करना चाहती थी। नम्र भाव से बोली ऋषिवर मैं एक अभागिन औरत हूँ।


भाग्य को भारी है। ऋषिपुत्र हूँ। आपका नाम सुनकर तंत्रविद्या सीखने के लिए आयी है। परन्तु आप हर समय ध्यान में रहते हैं, इसलिए मैं आस-पास सफाई करना ही अपना धर्म समझती हूँ। सोचा जच ऋषिवर प्रसन्न होंगे। हमें भी तंत्र विधि भाकर अनुग्रहीत करेंगे। ऋषिवर उसे उचित पात्र समक्ष आश्रम का द्वार उसके लिए खोल दिए। अब वह स्नान को जाते तो वह जया की तरह नदी तट पर जाती। उनका संगोट साफ करती। आश्रम में झाडू लगाती। जब ध्यान में जाते तो वह आस-पास के गाँव में जाती। रात्रि पहर कामदेव के साथ विश्राम करती। इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गये। विश्व रच समझे कि वह उचित सुपात्र साधिका है। तब दिन में जब ध्यान टूटता यदि वह वहाँ रहती, तब उससे कुछ परमात्म चिंतन की चारों करते। वे तो अब ज्ञान के अविरल झरना हो गये थे। जो झरता रहता, सामने चाला चाहे पी ले या स्नान कर ले या किनारे बैठकर मात्र देखने का उपक्रम करे। पान्तु उनका तप-ज्ञान देखकर मेनका टूट सो गयी थी। उसका मन भोग से विमुख-सा होने लगा था। अब वह भी साधना में उतर जाना चाहती थी। अब उसका ध्यान भी तड़क-भड़क जीवन से हटने सा लगा था। एक दिन वह कामदेव से कहने लगी अब आप स्वर्ग लौट जायें। हमें छोड़ दें इस जंगल में। जहाँ शेष जीवन तप में व्यतीत करूंगी। यह सुन कामदेव शोक संतप्त हो गये। तुरन्त अपना सन्देश देवेन्द्र को दिए। देवेन्द्र शीघ्र ही रात्रि प्रहर तक पहुँच गये। मेनका से पूछा-क्या मेनका तुम पर हम गर्व करते हैं। परन्तु अभी तक यह छोटा सा काम नहीं कर पायी। उल्टे तू ही टूट गयी। बारह वर्ष का समय भी समाप्त हुआ। यदि तुम टूट गयी तो देव संस्कृति ही टूट जायेगी। तुम ही तो हमारी संस्कृति की अप्रतिम धरोहर हो। मेनका गम्भीर स्वर में बोली वह व्यक्ति साधारण योगी ही नहीं। वह तो ब्रह्म

स्वकार हो गया है। एकाग्रचित उसे देखने मात्र से मन निर्मल हो जाता है। भाव

शुन्यता आ जाती है। देखिये, मैं माँ भी कामदेव के सम्बन्ध से बनने वाली हूँ।

अतएव मूत्र में ममत्व का भी जन्म हो रहा है। आपके स्वर्ग में माँ बनने ही नहीं

दिया जायेगा। अतएव मुझे क्षमा करें। मुझे नहीं तो मेरी भावी सन्तान के नाम पर

ही सही। अब देवेन्द और ही चक्कर में पड़ गये। तब तक सुबह होने को आ गयी।

ऐनका प्रतिदिन के नियमानुसार ऋषि आश्रम पहुँच गयी। जहाँ वे स्नान को चले

गये थे। मेनका उनकी सेवा में लग गयी। मन ही मन ऋषि सेवा एवं स्वयं भी

रूप में जीवन बिताने का संकल्प लेने लगी। इधर देवेन्द्र की चिन्ता बढ़ गयी।

आए इस दिन उन्हें एक राह सूझी कि कामदेव कुछ चन्द माह यहाँ रुकें

एवं आस-पास प्रचारित करा दें कि विश्व रथ को मेनका के गर्भ से सन्तान होने वाली है। ज्योंही बच्चे का जन्म हो वे सावधानीपूर्वक मेनका को साथ लेकर ऋषि की ध्यानावस्था में बच्चे को उनके आश्रम में छोड़कर मेनका को मेरे यहाँ वापस भेज दें। अन्यथा हो सकता है ममता के दुष्कर्म में फँस जाये। अत: कामदेव से बोले- संतानोत्पत्ति के बाद मैं वहीं से तुम्हारी पत्नी रति को भेज दूंगा। तुम कुछ दिन रुक कर चारों तरफ यह प्रचारित कर देना कि ऋषि के आश्रम में जाकर देखो। उन्हें मेनका से एक बच्चा हुआ है। मेनका भी अब उनके दुष्कर्मों से तंग आकर भाग गयी। यह ऋषि नहीं लम्पट दुष्कर्मी है। यह समझा कर देवेन्द्र चले गये। रात्रि में जब मेनका आयी तो देवेन्द्र के सम्बन्ध में जानना चाहा। कामदेव मौन रहकर ही टाल गये।

मेनका का कामदेव के द्वारा पुत्री को जन्म देना 

समयानुसार मेनका को कामदेव एवं रति के सान्निध्य में पुत्री उत्पन्न हुई।

मेनका अपनी पुत्री के प्रेम ममत्व में विह्वल हो गयी। उसके जीवन में प्रथम कर ममता का जन्म हुआ था। इसी से जब तक किसी भी औरत को बच्चा नहीं होता तच तक वह वास्तविक ममत्व को नहीं पहचानती। नारी में पूर्णत्व नहीं आता। नारी सुजन शक्ति होती है। सृजन उसका स्वभाव होता है। जो नारी स्वयं सृजन कर सकती है वह पत्थर की मूर्ति क्यों बनायेगी ? इसी से बड़े-बड़े मूर्तिकार, चित्रकार, संगीतज्ञ पुरुष ही हुए हैं। नारी नहीं। चूंकि पुरुष में सृजन की क्षमता है ही नहीं। अतएव वह सृजन बाहर खोजता है। वह बहिर्मुख हो जाता है। नारी गर्भ में बच्चे के आते ही उसे अलग नहीं समझती। वह उसके ही शरीर का अभिन्न अंग हो जाता है। जब वह जागती है तो, वह भी जागता है। जब वह सोती तो वह भी सोता है। जब वह खाती है तो वह भी खाता है। अपने अन्दर पूर्ण बच्चे का सृजन अपने ही श्वास अपने ही खून से करती है। यही है प्रकृति को सृजन क्षमता। सन्तान का सृजन करते ही स्त्री में परिवर्तन हो जाता है। जो पहले थी, अब वह नहीं है। उसकी चंचलता शान्ति में बदल जाती है। उसका प्यार-ममत्व में बदल जाता है। उसका क्रीच स्नेह में रूपान्तरित हो जाता है। वह घटना मेनका के साथ भी हुई। परन्तु पिता कामदेव को कोई आकर्षण नहीं था उस पुत्री से। यही अन्तर है एक माँ और पिता मैं। पिता का ध्यान ह. समय अपने तथाकथित पद-प्रतिष्ठा पर रहता है। समाज के सामने एक दूसरा ही नकाब होता है। अतएव किसी तरह मेनका को बेहोश कर विमान से स्वर्ग भेज दिया गया। शेष कार्य स्वयं कामदेव रति के माध्यम से पूरा कर, वे भी स्वर्ग को चले गये। यही है देव चरित्र। झूठी प्रतिष्ठा के चलते अपने सन्तान रक्त का भी ख्याल नहीं। क्या होगा उसका भविष्य ? चूंकि सन्तान उसकी कामना नहीं, वह तो उनके ऐश का बाईप्रोडक्ट् है। कामवासना का प्रतिफल है।

 शकुन्तला

जब वह बच्ची क्रन्दन करती है, जिसे इस पृथ्वी पर आते ही माँ-बाप परित्याग कर भाग खड़े हुए। अपना पाप दूसरे के सिर मढ़ दिया। आस-पास दुष्प्रचार भी कर दिया। आखिर इस चच्ची का क्या दोष है? जो माँ का स्तन-पान भी नहीं कर सकी। महा-तपस्वी का ध्यान टूटता है। वह उस अबोध बच्ची को अपने आश्रम में देख चर्चीक जाते हैं। वह रोती ही जाती है। विश्व-रथ पुनः ध्यान करते, संकल्प लेते हैं। आखिर यह बच्ची कैसे आ गयी? कौन है वह ? देव माया तो नहीं। ध्यान से सब कुछ जान लेते हैं, देख लेते हैं। मन-ही-मन देव माया को देखकर मुस्कुरा देते हैं। कह उठते हैं- कितने निष्ठुर हो तुम ? कितने हृदयहीन हो ? यही है तुम्हारी सभ्यता ? यही है तुम्हारी संस्कृति ? ठीक है। जब हमारा नाम दे ही दिया। हमारी पुत्री बना ही दिया तो मैं इतना कायर नहीं हूँ, भिखारी नहीं हूँ। यह आज से मेरी हो पुत्री है, रहेगी। देखें कि देवेन्द्र से तो यह पक्षी ही करुणामय है, जो अपने पंख से बच्ची को छाया प्रदान कर रही है। अतएव अब यही पक्षी इसकी माँ हुई। माँ ही तो छाया प्रदान करती है। अब तुम्हारा नाम होगा इस शंकु पक्षी के नाम पर शकुन्तला । यानी तुम शंकु नामक पक्षी के तल में पड़ी हो। विश्व-रथ उस बच्ची को अपनी गोद में उठा लेते हैं। पिता का प्यार देते हैं। वह बच्ची चुप हो जाती है। आतुर आँखों से देखने लगती है। विश्व-रथ को इस बच्ची के पालन-पोषण की चिन्ता होती है। कहाँ रखें? किसे पालन-पोषण हेतु दें? कौन ममत्व अब इसे प्रदान कर सकता है? इत्यादि प्रश्न उनके मन में आने लगे। तब तक कण्डव ऋषि अपने परिवार के साथ यह घटना देखने ही आ गये। चूंकि उनसे भी कहा गया था, परन्तु कण्डव ऋषि भी अपने तप बल से सत्य को जान गये। विश्व-रथ कण्डव को देख प्रसन्न हुए एवं उन्होंने उस बच्ची को ग्रहण करने का आग्रह किया। कण्डव ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। परन्तु पिता के रूप में उस बच्ची का नाम अपने साथ जोड़ने में असमर्थता व्यक्त की। चूंकि उन्हें भी बदनामी का भय था। विश्व-रथ ने उनकी दुविधा को देख तुरन्त हल कर दिया, कण्डव तुम दुनिया वालों से कह देना, यह मेरी ही पुत्री है। मुझे अत्यन्त प्यारी है। इसके मंगल भविष्य के लिए मैं आशीर्वाद देता हूँ। इस वचन एवं आशीर्वाद के साथ शकुन्तला को कण्डव ऋषि को सौंप देते हैं। अब विश्व-रथ देवेन्द्र एवं वशिष्ठ की छाया से बहुत दूर चले जाना चाहते थे। स्थान का परित्याग कर दिया फिर भ्रमण करने लगे। अन्जान जगहों पर अन्जान की तरह। अपने में मस्त थे। अपने में आनन्दित थे। उन्हें न कोई चाह थी न ही कामना। घूमते-घूमते एक दिन पहुँच गये पुष्कर।

क्रमशः...