साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

#"उत्तरायण"#   

बार-बार मैं कहीं रहा, कोई न माने बात।
जब उसके हित की कहूं:, तब पुनि-पुनि मारे लात।।

सभी अपने अहंकार की पूर्ति चाहते हैं। सद्गुरु अपने शिष्य को मान-प्रतिष्ठा रूपी विष कैसे देगा? वह तो पाखंडी गुरु ही देने में समर्थ है। वही उसे प्रिय कर प्रतीत होता है। मैंने तो कहा था कि मेरे शरीर छोड़ने के बाद मेरे पीछे संप्रदाय नहीं बनाया जाए। मेरी मूर्ति ना बनाई जाए। पर कौन सुनता है। मुझसे वास्ता किसी को नहीं है। उसे अपनी दुकानदारी एवं अपने अहम की पूर्ति से वास्ता है। उस युग में अकेले पाखंड का नाश कर दिया। मुल्ला-पुरोहित चीत्कार कर उठे। सभी मिलकर मुझे काशी से बाहर निकालने का दुश्चक्र रचे। जिसमें वे सफल भी हुए। अब वे ही मेरी प्रतिमा बना रहे हैं। मेरी पूजा-अर्चना कर रहे हैं---

अहं अगिन ह्रदय दहै, गुरु से चाहे मान।
तिनको यम न्योता दिया,होहुं भोर निहमान।।

उनकी आंखों पर पट्टी बंध गई है। वे प्रतिदिन यम की तरफ गति कर रहे हैं।
आज कबीरपंथी लगभग 10 करोड़ है। जब मैं अकेला हुंकार करता था तो पृथ्वी कांपती थी। अब 10 करोड़ हुंकार करते हैं। तब एक पत्ता भी नहीं हिलता है। यह सभी अपनी रोटी सेकते हैं। इन्हें धर्म से दूर-दूर तक संबंध नहीं है। ये पूरे राजनेता हैं। पूरी पृथ्वी को बदलने के लिए 100 सदविप्र  काफी है। ये 10 करोड़ क्या कर रहे हैं?
स्वामी जी इन्हें छोड़ो। उधर देखकर मुझे हंसी भी आती है। दुख भी होता है।

गहन मौनता छा गई है। मैं सदगुरु कबीर साहब के चरणो में गिर गया। उनकी अन्तर्वेदना को समझ गया। वे हमें जमीन पर से उठाकर अपने अंक में भर लिए। मैं उन के अंक में नन्हे शिशु की तरह लिपट गया। अपनी सुधि-बुद्धि भूल ही गया था। तंद्रा टूटी-वत्स तुम्हें काम करना है। मैं तुम्हारे शरीर का प्रयोग करूंगा। तुम पापाचार, तिमिरांध को मिटाने हेतु आगे बढ़ते चलो।

सर्वत्र खामोशी! चुप्पी! शांत! धीरे-धीरे गुरुदेव के साथ-साथ सभी चित्र अंतर्ध्यान होने लगे। मैं मंदिर के प्रांगण की तरफ मुड़ा-जो दिव्य आत्माएं खड़ी थी: सभी हाथ जोड़कर अभिनंदन कर रही थी। स्वामी जी! आप धन्य हो। आप का अवतरण सार्थक है।

#"गंगा तट"#

मैं आश्रम के मुख्य द्वार पर आ गया। तभी एक दिव्य आत्मा झुक कर नमस्कार की तथा नम्र स्वर में बोली--"स्वामी जी आपके लिए गंगा तट पर कुछ आत्माएं इंतजार कर रही है।'"मैंने कहा--"किस तरफ?"वह बोली--"आप जहां आश्रम बनाने जा रहे हैं। काशी विश्वनाथ की नगरी के सामने। आपका परिचय महाराज!"''मैं गणपति हूं।"

गणपति नाम सुनकर मैं चौंक गया। जाना-पहचाना नाम लगता है। आगंतुक महोदय से निवेदन-स्वामी जी शीघ्रता कीजिए। हम सभी उस परमपिता परमात्मा की ही कृति हैं। उसकी रचना विचित्र है। उसकी रचना को जो विषय से देखता है उसे धन्यवाद देता है। वह आनंद से भर जाता है।


##"सूक्ष्म काशी की यात्रा"##

हम दोनों गंगा तट पर पहुंच गए। काशी के समानांतर प्रकाश से चकाचौंध हो रहा था। जगह-जगह स्वास्तिक चिन्ह बने थे। मंगल-धुनि हो रही थी। प्रणव का उच्चारण हो रहा था। आज मैंने प्रणव  का ज्योतिर्लिंग साकार रूप में देखा। जिसे दिव्य गुप्त विज्ञान में प्रकाशनार्थ प्रदान किया है। इसका वास्तविक चित्र बनाना अत्यंत दुरूह कार्य है उसे तो देखा जा सकता है। फिर भी साधारण लोगों के लिए चित्रित कर दिया हूं। हमारे आश्रम की जमीन पर विशाल पंडाल लगा था जिसके अंदर-बाहर से स्वर्णमयी प्रकाश निकल रहा था।

हम लोग एक द्वार पर पहुंचे। द्वारपाल खड़ा होकर नमन किया। द्वार खोलकर एक तरफ हो गया। हजारों की संख्या में  दिव्या आत्माएं स्वर्णिम वस्त्र-आभूषणादि में शोभायमान थी। एक बड़ा मंच बना था। जिस पर राज्य सी ठाट-बाट में कोई सम्राट बैठा था। बगल में उसकी राजरानी बैठी थी।

मैं दंड की तरह गिर कर सभी का नमन किया। सभी खड़े होकर पुष्प वर्षा कर हमारा स्वागत किए। जाने-अनजाने चेहरे लग रहे थे। मैं अपने मन-मस्तिष्क पर जोर दे रहा था। उन्हें पहचानने में अपने को असमर्थ पा रहा था।

जो व्यक्ति हमें लेने गया था, वही एक उच्च स्थान पर खड़ा होकर परिचय कराना प्रारंभ किया।

मैं ऋषि कश्यप पुत्र गणपति, स्वामी जी को लेने गया था। स्वामी कृष्णायन जी जिसके लिए आप सभी वर्षों से इंतजार कर रहे थे। वह आज आपके बीच है। हमारी कुछ बाध्यताएं है। हम जिस शरीर के (आत्मा शरीर, ब्रह्म शरीर) है: उसी शरीरी प्राणी से मिल सकते हैं। खुलकर बातें कर सकते हैं। अन्यथा दूसरे शरीरी से बातें करने हेतु हमें नीचे उतरना पड़ता है। जैसे भंगी का कार्य करने हेतु भंगी का वस्त्र धारण करना पड़ता है। आत्म शरीर से स्थूल शरीर तक जाने में पांच प्रकार के आवरण पहनना पड़ता है। जो हम लोगों के लिए कष्ट पूर्ण प्रतीत होता है। इसे आप ऐसे समझें--कोई उच्च अधिकारी अपने समान अधिकारी से खुलकर वार्ता करता है। फिर अपने से नीचे से बातें करने में पर्दा करता है। वहां तो अहंकार पद-प्रतिष्ठा का प्रश्न है। परंतु यहां आनंद हमारा स्वभाव है। जो आनंद को उपलब्ध हो जाता है उससे हमें मिलने में आनंद प्रतीत होता है। हर कार्य समान स्तर पर अच्छा प्रतीत होता है। हम लोग इसी दिन के इंतजार में थे कि स्वामी जी कब इस शरीर में आएंगे। आज हम लोग स्वामी जी को अपने सदृश्य शरीर में उपस्थित पाकर अत्यंत हर्षित हैं।