साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

काशी में विभिन्न प्रकार के साधक सिद्ध हजारों वर्षों से अपने-अपने साधना में लीन है। चूंकि इस भूमंडल का केंद्र बिंदु कहीं भी हो सकता है। इसी सिद्धांत पर ज्ञान-गंगा मठ, दूसरा सिद्ध विज्ञान आश्रम और तीसरा योग सिद्धाश्रम है। ये आश्रम अत्यंत विशाल है। उसमें शिक्षा हेतु अनेक विभाग हैं। प्रत्येक विभाग हेतु अलग-अलग आचार्य एवं निदेशक हैं। यह सभी ब्रह्मीभाव प्राप्त उच्च कोटि के ज्ञान योगी है। वे कालजयी है। ये हर समय आत्म शरीर में रहते हैं। इनका भौतिक और सूक्ष्म शरीर अलग अलग रहता है। ये लोग साधना आत्म शरीर में रहकर करते हैं। वही सूक्ष्म शरीर से संचार विचरण करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर यदा-कदा भौतिक शरीर का भी उपयोग करते हैं। जो शिष्य या भक्त भौतिक शरीर से ऊपर नहीं उठ पाया है। उनके कल्याण के लिए, परिस्थितिवश, करुणावश, भौतिक शरीर ग्रहण लेते हैं। अन्यथा उनका भौतिक शरीर निष्क्रिय भाव से पड़ा रहता है।
     ऐसे योगी का सूक्ष्म शरीर अति शक्तिशाली और प्रखर होता है। जिससे वे अपने भक्तों के अपने भक्तों के कल्याण हेतु क्षण भर में हजारों मिलो की यात्रा  कर लेते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अपने संकल्प शक्ति से आस-पास के अणुओं को संग्रहित कर भौतिक शरीर ग्रहण कर लेते हैं। फिर उस अणु को वायुमंडल में छोड़कर सूक्ष्म शरीर से अंतर्ध्यान हो जाते हैं। ऐसे ही शरीर के कलि-काल में मालिक थे---सदगुरु कबीर।
        अमावस्या की रात्रि थी। मैं अमावस्या के पूजा पाठ से निवृत्त हो, शिष्यों को भेजकर गंगा तट आश्रम से काशी में प्रवेश करने के समय का इंतजार कर रहा था। सभी सो गए। अर्ध रात्रि का समय था। घोर अंधेरा था। मैं भौतिक शरीर को अपने बिस्तर पर सुरक्षित रखकर सूक्ष्म शरीर से बाहर निकला ही था की एक शुभ्राज्योति सामने प्रकट हुई। वह दंडवत करते हुए निवेदन की स्वामी जी शीघ्रता करें। मैं काशी का क्षेत्रपाल भैरव हूं। काल भैरव। देखें आपके दरवाजे पर दो श्मशानी कुत्ते बैठे हैं। ये आपके भौतिक शरीर की रक्षा करेंगे। आप हमारे साथ चले।


       मैं उनके साथ चल दिया। एक ऐसे ही स्थान पर पहुंचा, जहां की जमीन स्फटिक के समान दूधिया प्रकाश से पूर्ण था। वहां सूर्य चांद की रोशनी नहीं थी। भैरव जी एक तरफ खड़े हो गए। कुछ ही क्षण में वहां रंग-बिरंगा प्रकाश निकलने लगे। उस प्रकाश से रंग बिरंगे चिंगारियां निकल रही थी। जो आकाश को स्पर्श कर रही थी। मैं अपलक देख रहा था। कुछ देर के बाद चिंगारियां निकलना बंद होने लगी। वही रश्मिया घनीभूत होने लगी। देखते ही देखते एक आयताकार आकार प्रकट होने लगा। वह क्रमशः बढ़ने लगा। वह एक विशाल महल का रूप ग्रहण कर लिया।
         उस महल का कांच का दरवाजा खुला उससे अनिंद्य सुंदरियां बाहर निकलने लगी। एक-एक अंग मानो तराशा गया हो। वह कुल 8 थी। उनसे भी शुभ्र प्रकाश निकल रहा था। मानो चंद्रमा ही सुंदरी का रूप ग्रहण कर लिया हो। सभी के होठों पर मुस्कान थी। हाथ में माला था। वे मेरे तरफ बढ़ती आ रही थी। नजदीक आकर मेरे गले में श्वेत गजरे की माला डालती गई। उसमें सुगंध भी विचित्र थी। मैं उस सुगंध में सभी कुछ भूलता जा रहा था। तभी भैरव जी ने कहा स्वामी जी यही आपका स्थान है। मैं चौका---मेरा। हां स्वामी जी! आपका। अर्थात काल भैरव का। आप भी बहुत दिन काशी में आत्म शरीर में निवास किए हैं। आपका आश्रम भी आपको दिखाऊंगा। आप अवश्य उसे पहचान जाएंगे।
         उस आश्रम में प्रवेश किया। रास्ता, दीवार, सीढ़ियां सभी श्वेत पारदर्शी स्फटिक की बनी मालूम हो रही थी। सभी अपने प्रकाश से प्रकाशित थी। जगह-जगह अप्सरा से भी सुंदर युवतियां स्वागत में खड़ी थी। सभी आरती का थाल लिए थी। उस थाल से भी रहस्यमय प्रकाश एवं सुगंध निकल रहा था। कुछ दूरी तय करने के बाद एक विशाल आंगन में आए। जहां विभिन्न प्रकार के पुष्प लगाए गए थे। वहां लगभग सौ सन्यासी बैठे थे। सभी आंखें बंद किए ध्यान में थे। हम लोगों के पहुंचते ही एकाएक सभी की आंखें खुल गई। उनके आंखों से सूर्य-चंद्र-सा प्रकाश निकल रहा था। उस प्रकाश में उष्मा नहीं थी वरन् शीतलता एवं आकर्षण था। मनमोहक रूप था सभी का। उन सभी का उम्र लगभग 20 से 25 वर्ष का लग रहा था। सभी लोग हाथ ऊपर उठाएं एवं उनके हाथों में अज्ञात से, शून्य से पुष्प आ गए। सभी ने वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए मुझ पर पुष्प बरसाए।
        एक सन्यासी उठ खड़े हुए। वे विनम्र भाषा में बोलना शुरू किए। आज हम लोग अत्यंत प्रसन्न हैं कि हमारे बीच स्वामी जी आए हैं। जो कुछ वर्ष पहले ही पृथ्वी पर खास उद्देश्य पूर्ति हेतु स्वयं गए थे। वे निष्काम भाव से अपने कार्य में लगे हैं। हमारे स्वामी काल भैरव जी स्वयं स्वामी जी को साथ लाए हैं। हम आप सभी की तरफ से भैरव-भैरवी के तरफ, समस्त आश्रम वासी की तरफ से स्वामी जी का स्वागत करते हैं। उन से विनम्र निवेदन करते हैं
कि हम लोगों को भी अपने आशीर्वचन से संबोधित करेंगे। तालियां बजने लगी।
          एकाएक आंगन फैलने लगा। कुछ ही क्षण में वह जगह तीन-चार गुना बड़ी हो गई। एक तरफ भैरव गण, दूसरे तरफ भैरवी गण आकर स्थान ग्रहण कर लिए। कोई किसी से बातें नहीं करता न कोई किसी की तरफ देखता है। सभी के चेहरे पर मुस्कान है। सभी आनंदित है। सभी प्रसन्न है। सभी सुंदर है। अति सुंदर है। उनके चेहरे पर वासना का दूर-दूर तक संबंध नहीं है। मैं उन लोगों के स्थान एवं उम्र के संबंध में सोचने लगा।


      भैरव जी खड़े होकर बोले स्वामी जी! आप हमारे आश्रमवासी के उम्र के संबंध में सोच रहे हैं। काशी के हर प्राणी की उम्र स्थिर है। सभी कारण शरीर, आत्म शरीर में है। कोई चाह नहीं है। अतएव सभी सुंदर है। हमारा आवास स्थान काशी ही है। जिसके अधिष्ठाता भगवान शंकर है। यहां विभिन्न पंथों के अनुयायी है। किसी को किसी से द्वेष नहीं है। यहां द्वेष या घृणा शब्द ही नहीं है। सभी में आत्मवत प्रेम है। हम लोग हजारों वर्षों से  यहां हैं। हां हमारी इच्छा होती है कि हम लोग भी मानव शरीर ग्रहण करते एवं पृथ्वी पर लोक कल्याण के लिए जाते। हम लोगों को भगवान शंकर के द्वारा आदेश ही नहीं निकला। यदि ये आदेश भी कर देते तो अज्ञात शक्ति/परमात्म शक्ति रोक देती। यदि किसी को किसी कारणवश मिल भी जाता तो उसके उपयुक्त मां बाप नहीं मिलते। फिर हम सभी इसी शरीर में इसी स्थान में मस्त रहते। परमात्मा की कृपा या स्वयं नारायण स्वरूप आत्मा ही स्वेच्छा से संसार में जाती है एवं स्वेच्छा से जाती है। उसी को संसार अवतार महती या सद्गुरु कहती। उनमें से आप एक हैं। हम लोग आपके सेवा में उपस्थित है। आप हमें संबोधित करने की कृपा करें।

क्रमशः.....