साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????भृकुटी के बीच अवधान????

     भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करी। फिर सहस्त्रार तक रूप को श्वास-तत्व से, प्राण से भरने दो। वहाँ वह प्रकाश की तरह बरसेगा।

यह तंत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर करना है। वही मुख्य ग्रन्थि है। अब वैज्ञानिक कहने लगे हैं, वही चुम्बकत्व शक्ति है। जहाँ साधक अवधान करता है। वह भी अपनी तरफ खींचता है। वैज्ञानिक इसको पाइनियल ग्रन्थि नाम दिए हैं। दार्शनिक इसे त्रिनेत्र कहते हैं। यह ग्रन्थि युगों से बेकार पड़ी है। उधर ध्यान ही नहीं दिया। अतएव निष्क्रिय पड़ी है। साधक को वहीं अवधान करना है फिर तो सक्रिय स्वतः हो जाती है। जब साधक यहाँ अवधान उपस्थित करता है तब त्रिनेत्र खुल जाता है। यहाँ से साधक कुछ भी कल्पना करता है वह सत्य में परिणत होने लगता है। सम्मोहन की कला भी यहीं से की जाती। समाधि भी यहीं से होती है। शिव यहीं से युगों की समाधि ले लेते हैं। यही विधि मिस्त्र में, यूनान में प्रचलित है। भारतीय लोग अब इसे वहाँ से आयात कर रहे हैं। यूनान का पैथागोरस इसी से बहुत बड़ा रहस्यवादी बन गया जो वहाँ के श्रेष्ठतम लोगों में से एक था।

साधक सर्वप्रथम पद्मासन, सिद्धासन या जैसे आराम से बैठना चाहें, बैठ जायें। दोनों आँखों को बन्द कर दें। अब दोनों आँखों से जो ऊर्जा बाहर बह रही थी उसे बन्द कर भृकुटियों के मध्य में लगा दें। जो जन्मों से निष्क्रिय है। एकाएक सक्रिय हो उठेगा। अवधान ही इसका आहार है। अब अवधान दोनों आँखों के मध्य घूमेगा। ज्यों ही मध्य बिन्दु पर पहुँचेगा, बस स्थिर हो जायेगा। वही वास्तविक बिन्दु है। अब भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करें। अगर अवधान प्राप्त हो जाये तो पहली बार एक-एक अद्भुत रहस्य सामने आता है। अब विचार चल भी रहा है तो सिनेमा की तरह साक्षी बन देख रहे हैं। पहले पहल साक्षी का भाव उत्पन्न हो रहा है। यहाँ साक्षीत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। अब अवधान को स्थिर कर विचार को, मन के सामने करना है फिर सहस्त्रसार तक रूप को श्वास तत्व से, प्राण से भरने देना है। तब वहाँ वह प्रकाश की तरह बरसता है। श्वास तत्व यहाँ माध्यम है। प्राण तत्व का। यह विचारणीय विषय है। जो श्वास हम लेते हैं, वैज्ञानिक उसे ऑक्सीजन हाइड्रोजन इत्यादि कहते हैं परन्तु अब शिव कहते हैं श्वास तो माध्यम है। हम प्राण तत्व लेते हैं।

अब प्रश्न उठता है प्राणतत्व है क्या ? वैज्ञानिक प्राण तत्व जैसी कोई चीज़ मानते नहीं। शिव आज से दस हजार वर्ष पूर्व की प्राणतत्व की बात कहते हैं। अभी तक वैज्ञानिक इस प्राणतत्व को पकड़ नहीं पाये। आप बाह्य दृष्टिकोण से देखें एवं अनुभव करें। जब आप किसी प्राणवान महात्मा के पास जायेंगे तो आप अनायास यह ही प्रफुल्लित हो जायेंगे, फूल की तरह खिल जायेंगे या उसके साधना कक्ष में जाकर बैठते हैं तो आप को शान्ति महसूस होती है परन्तु यह अनुभव तब होता है जब आप में थोड़ी-सी भी सम्भावना है। पात्रता है अन्यथा कुपात्र को उद्वेलित कर देता है। बेचैनी सी पैदा कर देता है। भागने के लिए। यही कारण है। कि सिद्ध महात्मा के आसन पर कोई नहीं बैठता। उसका कपड़ा कोई नहीं पहनता। साधारण व्यक्ति के लिए यह उलटा ही परिणाम पैदा करता है। विकर्षण पैदा कर देता है। पागलपन पैदा कर देता है। जिससे वह वहाँ से भाग खड़ा होता है। वहीं सम्भावित साधक के लिए उछाल पैदा कर देता है। सीधे ध्यान धारणा में ला खड़ा कर देता है। यही कारण है कि गुरु के साथ भीड़ इकट्ठी हो जाती है परन्तु सद्गुरु के साथ रहने की हिम्मत किसी-किसी में होती है साधारण व्यक्ति हर समय हर क्षण बेचैन रहेगा। उसे भागने के सिवाय दूसरा रास्ता ही नहीं। भीड़ तो व्यासों के साथ होती है। नाच-मण्डली के साथ होती है। सद्गुरु के साथ साधक, संस्कार युक्त त्यागी, वीतरागी ही टिक सकता है। हाँ अभी के जर्मन मनोवैज्ञानिक विलियम रेख ने प्राण तत्व पर शोध किया है। उन्होंने इसे आरगोन एनर्जी (जैविक ऊर्जा) कहा है। वह भी कहता है आप श्वास लेते हैं तो हवा तो आधार मात्र है परंतु उसके भीतर जो जीवन शक्ति है, आरगोन है। वह भौतिक नहीं है। उसके भीतर कुछ अलौकिक तत्व चल रहा है। उसी को शिव प्राण तत्व कहते हैं।

    समाधि कुछ और नहीं बस इसी प्राण तत्व का खेल है जिस प्राणतत्व को समाधि वाले भी नहीं बता पाते। यह तो अभ्यास की कला है। आप कैसे प्राणतत्व को ग्रहण करें। जहाँ हवा प्रवेश नहीं करती, वहाँ भी प्राणतत्व प्रवेश करता है। आपने कितने ही साधु, महात्माओं को देखा होगा, सप्ताहों की, महीनों की समाधि सेते जय समाधि से निकलते हैं तो पीला चेहरा हो जाता है। जैसे आप मेढ़क को देख कहोगे बरसात खत्म होते ही जमीन की गहरी से गहरी पर्त में चला जाता है। वह भी उसकी एक तरह समाधि ही है। पूरा 6 माह से नव माह तक अन्दर ही रहता है। बरसात के आगमन पर स्वतः पीला-पीला बाहर निकलता है। वह कहीं से न कहीं से जमीन के अन्दर ही प्राणतत्व ले रहा है। हमने सुना है मिस्र में एक व्यक्ति 1880 में जमीन के अन्दर 40 वर्षों तक समाधि लिया। जो व्यक्ति उसे जमीन में गाड़ा था वह उसे निकालने के लिए नहीं रहा। उसके लड़के ही रहे। सभी सोचने लगे वह मर गया होगा। सड़ गया होगा। परन्तु कौतुहलवश 1920 में निश्चित समय पर खोदा गया। वह व्यक्ति बिल्कुल पीला जीवित था। बाहर आया। इसके बाद भी अपनी दस वर्ष की आयु जिया वैज्ञानिकों, डॉक्टरों के लिए कौतुहल हो गया। सभी पूछे हवा तो वहाँ गयी नहीं कैसे जिन्दा रहा। वह भी कहा हमें पता नहीं परन्तु प्राणतत्व हम को मिल रहा था। भृकुटी के मध्य में श्वास के सार तत्व (प्राण) को देख सकते हैं। उस प्राण को देखना ही क्रान्तिकारी घटना है। क्रान्तिकारी परिवर्तन है। पूर्ण परिवर्तन है।

     शिव आगे कहते हैं "सहस्त्रसार तक रूप को प्राण से भर जाने दो।" जब साधक प्राण देख लेता है। तब उसकी कल्पना भी सत्य होती है। जो कल्पना करता है वही सत्य में बदल जाता है। अब भृकुटियों के बीच स्थिर हो प्राण का अनुभव करते हुए रूप को भरने दें। अब आप कल्पना करें प्राण पूरे मस्तिष्क में भर रहा है। सहस्त्रसार में भर रहा है। बस भर जाता है। अब साधक देखता है सहस्त्रसार से प्रकाश की वर्षा हो रही है। यह भी अनहोनी घटना है। अब साधक वह नहीं होता जो कुछ क्षण पहले यात्रा पर निकला था। वह बिल्कुल दूसरा होता है। नया जन्म लेकर। नया प्राण लेकर खिले हुए कमल की तरह वापस आता है। इसी से शुद्धता पर जोर दिया गया है। यदि मन शुद्ध नहीं है तब वह दुर्वासा की तरह, परशुराम की तरह श्राप की वर्षा करा देगा। शुद्ध है तब बुद्ध की तरह, कबीर की तरह बुद्धत्व से भर देगा। इसी से शिव कहते हैं यह संसार परमात्मा की माया के सिवाय कुछ भी नहीं। सद्गुरु कबीर भी कहते हैं "दस अवतार ईश्वरी माया" अवतार तक ईश्वर की माया ही है। वह तो सदा है, सनातन है। उसका स्वप्न ही सत्य में बदल जाता है। यह साधना अत्यन्त ही उच्चकोटि की सर्वमंगलमयी है।

????दो श्वासों के मध्य????

   "सांसारिक कामों में लगे हुए, अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ। इस अभ्यास से थोड़े दिनों में ही नया जन्म होगा।"

   इस सूत्र में शंकर पार्वती से कहते हैं कि सांसारिक कामों में लगे रहना है। इन कामों को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं कामों में ही ध्यान को उपलब्ध हो जाना है। यह कुछ विचित्र बात लग रही है चूँकि हमारे तथाकथित धर्मगुरु संसार छोड़ने को कहते हैं। अन्यत्र जाने को कहते हैं। परन्तु शंकर ऐसा करने से मना करते हैं एवं कहते हैं उन्हीं कामों में ही उपलब्धता सम्भव है। श्वास आ रहा है, जा रहा है, जब श्वास भीतर आता है इसके पहले कि वह लौट जाए, जहाँ एक अन्तराल हो बस वहीं सांसारिक कार्य करते हुए अवधान को टिका देना है। जब अवधान टिक गया तब सांसारिक कार्य व्यवधान उत्पन्न नहीं करता। बल्कि उसी स्थिति में ही इसे साधना है। साधक को मात्र सजग रहना है। वह चल रहा है, खा रहा है, पढ़ रहा है, सो रहा है या सफाई कर रहा है, सजग है दो श्वासों के अन्तराल के प्रति अब अस्तित्व के ही दो तल हो जायेंगे। एक करने का तल दूसरा होने का तल। एक परिधि होगा तो दूसरा केन्द्र। परिधि पर सांसारिक काम करना है एवं केन्द्र के प्रति सजग रहना है। तब सारा सांसारिक कार्य नाटक होगा, लीला होगा, जीवन का दृश्य ही बदला होगा। अब केन्द्र पर अवधान हो गया परिधि पर कभी राम का तो कभी कृष्ण या मुहम्मद की लीला हो सकती है। इसी से कृष्ण के चरित्र को लीला कहते हैं चूँकि कृष्ण सदा केन्द्र पर स्थिर थे एवं परिधि पर उनका खेल जारी था। वह खेल ही लीला हो गया। जब व्यक्ति केन्द्र के प्रति सजग रहता है तब परिधि पर अपने आप लीला प्रतीत होती है। अब उसे चिन्ता नहीं है कि सीता का अपहरण हुआ या लक्ष्मण को बाण लगा। वह निश्चित है। बाहर की उथल-पुथल रुक गयी। बाहर का सारा व्यतिक्रमण रुक गया। केन्द्र पर स्थिर हो गया। थीर हो गया। इसको लगातार करना है। ज्यों ही अवधान श्वास को श्वासों के बीच टिकाता है। बस कुछ ही दिनों में नया जन्म होता है। अब साधक वह नहीं होता है जो कुछ दिन पहले था। अब सब कुछ नियति के अनुसार होता है। वह मात्र प्रतीक हो जाता है। माध्यम हो जाता है।

????स्वयं का मालिक????

    ललाट के मध्य में सूक्ष्म श्वास (प्राण) को टिकाओ। जब वह सोने के क्षण में हृदय में पहुँच जायेगा तब स्वप्न और स्वयं पर अधिकार हो जायेगा।

     भगवान शिव का यह सूत्र अत्यन्त क्रान्तिकारी है। यह गहराई की तरफ बढ़ता जा रहा है। यह सूत्र त्रिनेत्र की तरफ इंगित कर रहा है। ललाट के मध्य में श्वास को टिकाने के लिए कहते हैं। साथ ही सोने के क्षण में हृदय तक पहुँच जायेगा। यानी यह विधि सोते वक्त ही करना श्रेयस्कर है चूँकि शिव प्रत्येक विधि अलग-अलग समय के लिए कह रहे हैं। इस विधि को सोते समय ही प्रयोग किया जाये। जब नींद आ रही हो, चेतना लुप्त हो रही हो तब साधक को श्वास के प्रति सजग हो जाना है। श्वास एक तरह से वाहन का काम करता है प्राण का श्वास प्राण को हृदय तक ले जाता है एवं खाली लौट आता है। प्राण अत्यन्त सूक्ष्म है। जब वह हृदय तक जाता है तब अनुभव करना है। प्राण हृदय तक आकर ही शरीर में फैल जाता है इसे भी सजग होकर अनुभव करना है। जब साधक हृदय तक प्राण को आते देख लेता है एवं नींद को भी देख रहा होता है तब सारा खेल ही सपना हो जाता है। यह सपना त्रिनेत्र के चलते होता है। गहरी नींद में ये दोनों नेत्र त्रिनेत्र में ही विश्राम करते हैं। आप कभी भी किसी बच्चे की सोते में, उसकी पलकों को उठाकर देखें। पुतलियाँ बिल्कुल ऊपर नज़र आयेंगी। उसी त्रिनेत्र में रहने के कारण सपने सत्य मालूम होते हैं।

गहरी निद्रा मृत्यु भी है। यह रोज़-रोज़ की मृत्यु है। आदमी जितनी भी गहरी निद्रा में जाता है वह उतना ही नयी शक्ति से भरकर वापस आता है। जिसे नींद ही नहीं आती वह पागल हो जाता या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। मृत्यु अत्यन्त गहरी निद्रा है। जब व्यक्ति 80 साल या 100 साल तक काम करते-करते थक जाता है शरीर अब ऊर्जा ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता तो मृत्यु को उपलब्ध होता है।

अब नया जन्म लेता है। नयी क्षमता, नयी उमंग, काम करने की नयी शक्ति होती है। जब श्वास लेते हैं तो प्राण अन्दर जाता है। जिसे हृदय ग्रहण कर लेता है। शरीर थक जाने पर वह प्राण को ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता। अतएव साधक मृत्यु से पहले ही मृत्यु का ठीक-ठाक समय जान सकता है चूँकि प्राण श्वास के मध्य से अन्दर न जाकर अब बाहर आने लगता है। नदी की धारा अब उल्टी बहने लगती है। जो प्राण श्वास के मध्य से अन्दर जा रहा था। अब बाहर आने लगा। अब साधक समझ जाता है कि हमारी मृत्यु कब होगी। चूँकि अब स्वप्न का मालिक है। मृत्यु का मालिक है। यानी सभी कुछ साक्षी के सदृश देख रहा होता है। बुद्ध इस, जन्म के पूर्व ही कह चुके थे। मेरा जन्म कहाँ होगा। माता-पिता कैसे होंगे। माँ स्वप्न कैसे देखेगी। मेरा जन्म ताल वृक्ष के नीचे होगा। जन्म के बाद सात कदम चलूँगा। जन्म के बाद माँ की मृत्यु हो जायेगी । इत्यादि । सारी बातें सत्य हुई। जब साधक अपने स्वप्न का मालिक हो जाता है तब दूसरे के स्वप्न का भी मालिक हो जाता है। जन्म-मृत्यु को साक्षी बनकर देखता है या जन्म अपनी इच्छा के अनुसार ग्रहण करता है। जहाँ से उसे उचित सुविधा मिले एवं वह बुद्धत्व को ग्रहण कर ले। व्यक्ति न स्वप्न को पैदा कर सकता है न ही इच्छानुसार स्वप्न देख ही सकता है लेकिन जब साधक नींद में उतरते समय यह अनुभव कर रहा है कि हृदय प्राण भर रहा है तब उसकी मिलकियत हो जाती है - स्वप्न पर। इसी से सूत्र में कहा गया है "नींद और मृत्यु पर अधिकार हो जायेगा।" अब मालूम हो गया मृत्यु एक लम्बी नींद है। अब वह सहयोगी होगी, सुन्दर होगी। इसी से लगभग जैन मुनियों के सम्बन्ध में भी मिलता है कि जन्म कैसे लेंगे, कब लेंगे। राम, कृष्ण के सम्बन्ध में भी मिलता है। कबीर के सम्बन्ध में भी ज्ञात था। यह शिव की इसी क्रिया की देन है।

क्रमशः...