साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज जी की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज जी की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

   मृत्यु का अर्थ है--जन्म लेना। मृत्यु के द्वार से ही जब जीवन का प्रवेश मिलता है। जन्म का अर्थ है--मृत्यु को प्राप्त करना। जन्म-मृत्यु के मध्य भाग ही जीवन है। जन्म अतीत हो गया। मृत्यु भविष्य है। जीवन वर्तमान है। मृत्यु से लगभग एक घंटा पहले व्यक्ति मूर्छा में चला जाता है। जन्म के पहले भी मूर्छा में चले जाते हैं। जो व्यक्ति मृत्यु के समय भी पूरी चेतना अवस्था में रहता है। वह देखता है कि व्यक्ति द्वारा पूरे जीवन में किया गया कर्म चेतन मन एकत्र करता है। चेतन उसे अर्ध चेतन को सौंप देता है। अर्ध चेतन अचेतन में विलीन हो जाता है। जीवात्मा के साथ छाया की तरह अचेतन मन शरीर से बाहर निकल जाता है। यह सिद्ध की स्थिति है।


      मन की आवश्यकता शरीर है। मरते ही तत्काल मन को शरीर चाहिए। यही कारण है पुनर्जन्म का।
      आत्मा का संबंध मन से है। मन शरीर और आत्मा के बीच पुल का कार्य करता है। शरीर से मन का संबंध तोड़ने के प्रयास को ही तपश्चर्या कहते हैं। यह अत्यंत कठिन एवं संदेहास्पद विधि है।
      आत्मा से मन को तोड़ने के प्रयास को ही ज्ञान कहते हैं। या मन से आत्मा के संबंध को तोड़ने का नाम ही सांख्य  है। शरीर से मन के संबंध को तोड़ने के प्रयास का ही ह
नाम हैं--योग।
       स्वामी जी! आप अमावस्या एवं पूर्णिमा के रात्रि सूक्ष्म काशी की यात्रा करें। यह काशी कैसी है? इसकी व्यवस्था कैसी है? कितने आश्रम है? सभी कैसे सुव्यवस्थित चलते हैं। इसे आप स्वयं देख ले। फिर भी  सभी कुछ दृष्टिगोचर हो जाएगा। जिससे आप अपने पार्थिव शरीर का उपयोग आत्म शरीर या ब्रह्म शरीर में स्थित रहकर सुगमता पूर्वक करेंगे। सांसारिक लोगों को भी दिव्य संदेश देंगे। मैं सोचता हूं, अब सभा की कार्यवाही स्थगित की जानी चाहिए।
        सम्राट देवोदास अपने स्थान पर खड़े हो गए। उनके साथ ही सभी अपने अपने स्थान से खड़े हो गए। उन्होंने संक्षिप्त में सभी का धन्यवाद किया। फिर  गुरु वंदना के साथ सभा की कार्यवाही स्थापित की गई। माल्यार्पण के साथ मेरी विदाई की गई। मुझे अमावस्या एवं पूर्णिमा के रात्रि आने का निमंत्रण भी प्राप्त हुआ।


        देखते ही देखते सभी कुछ एकाएक समाप्त हो गया। दूर-दूर तक चांदनी रात्रि, गंगा का विस्तृत मैदान अकेला नितांत अकेला मैं। ऐसा भान होते ही मैं अपने शरीर के समीप पहुंचा,  जो मृतक की तरह पड़ा था। मैं इधर उधर देखा---बेचारा शरीर पड़ा है। कुछ ही दूरी पर मेरी दृष्टि गई। दो व्यक्ति दंड लिए खड़े थे। वे दोनों झुक कर प्रणाम किए। फिर स्वत: बोले----स्वामी जी! हम लोग भगवान आशुतोष के गण हैं। आप के पार्थिव शरीर की रखवाली करने या रक्षा करने का भार हम लोगों को सौंपा गया है।


        मैं उन्हें धन्यवाद दिया एवं अपने शरीर रूपी गृह में प्रवेश कर गया। शरीर उठ बैठा। घड़ी देखा प्रातः का 4:00 बज रहा था। कुछ देर ध्यान किया एवं  नित्य क्रिया में लग गया।

 क्रमशः.......