साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

भूताकाश से भूतावरण हट जाने पर वही चित्ताकाश है। चित्ताकाश से गुणावरण हट जाने पर वही चिदाकाश है। चिदाकाश निर्मल है। उसमें कोई आवरण नहीं है।
जो साधक गुरु आज्ञा सिर पर धारण कर कार्य करता है तब प्रकृति का आकर्षण उस पर काम नहीं करता है। दूसरा पहलू है----जब पुरुष प्रकृति का त्याग कर उसको अपना साथी बना लेता है। परंतु साधारणतया यह संभव नहीं है क्योंकि पुरुष चित्र है प्रकृति उचित है अतएव यदि संभव हो तब पुरुष प्रकृति को भी जिनमें बनाकर अपने साथ ले चले उस समय पुरुष चिद्रूप हैं। प्रकृति भी चिन्मयी है। दोनों नित्य संगी है। अब तक अभिन्न है। कौन किसे आकर्षित करेगा? प्रकृति माता की संतान होकर श्री पुरुष जगत में आया है।जगत से अलग हो जाने के समय प्रकृति को छोड़ने पर भी उसका आकर्षण रह जाता है। अर्थ एवं प्रकृति का त्याग नहीं करना चाहिए। पुरुष प्रकृति का साथ रहना स्वभाव है। दोनों साथ-साथ रहते हुए पूर्णा अवस्था में सहज प्रवेश कर जाते हैं।

रात जब योग-युक्तावस्था में रहता है, तब समस्त विश्व में ही उसकी सत्ता प्रकट रहती है। केवल परिमित देह मात्र में नहीं।जो साधक भक्त है उनकी रक्षा की आकांक्षा पहले से ही रहने के कारण विपत्ति के क्षणों में गुरु उसी स्थान में प्रकट हो जाते हैं, चाहे रूप निराकार हो या साकार।स्थूल रूप में भी प्रकट होकर गुरु उनकी रक्षा करते हैं। इससे गुरु का समाधि या योग भंग नहीं होता है। अखंड निष्क्रिय रहने पर भी प्रत्येक क्षण क्रियाशील रहता है।जिससे गुरु अपने शिष्यों की हर क्षण रक्षा करता है।उसे परोक्ष रूप से शिक्षा देते हुए उससे जगत में कल्याण मूलक कार्य कराता है। जो शिष्य अपना अस्तित्व अलग सोच लेता है, इसमें अहंकार की वृद्धि ही समझना चाहिए। चतुर गुरु अपने प्रिय शिष्यों का अहंकार ऐन-केन-प्रकारेण अवसर पाते ही तोड़ता रहता है। सद विप्र के पथ पर अग्रसर टी प्रदान करते रहता है। गुरु का स्थूल शरीर विश्व के किसी भी भाग में हो, वह क्षण भर में विश्व के किसी भी भाग में अपने प्रिय शिष्य के आवाहन या मार्गदर्शन हेतु उपस्थित हो जाता है।एक क्षण में हजारों जगह उपस्थित होकर हजारों तरह के भक्तों को विभिन्न प्रक्रिया समझा सकता है। यह शिष्य के पात्रता पर निर्भर करता है।

साधक चित्ताकाश मैं अवस्थित होकर चिदाकाश में स्वयं को विलीन कर लेता है। चित्ताकाश मैं भी आलोक में परम प्यारा सतोगुण का पर्दा रहता है। जिस पर दे को योगी जन्म जन्मो जन्म हटाना पसंद नहीं करते। गुरु अनुकंपा से ही यदा-कदा पर्दा हट जाने पर इसी ब्रह्मारंध से मुक्त चिदाकाश का दर्शन हो जाता है। परंतु यह दर्शन विज्ञान-चक्षु का व्यापार है। दिव्य चक्षु का नहीं। दिव्य चक्षु चिदाकाश और उसकी अनंत विभूतियों का दर्शन करके शांत हो जाते हैं।चिदाकाश दर्शन में समर्थ नहीं होते हैं।

यह दर्शन अभेद दर्शन है। दिव्य दर्शन में ज्योति का प्राधान्य रहता है। चिन्मय दर्शन में ज्योति नहीं रहती है। विशुद्ध प्रकाश रहता है।

साधारणतः सभी व्यक्ति अंधकार में भूताकाश में ही रहते हैं। यहां अंधकार का ही साम्राज्य है। प्रकाश यात्रा का आगंतुक धर्म है। प्रकाश के लिए आपको प्रयत्न करना पड़ता है। परंतु अंधकार स्वत:आग है। यही अज्ञान का निदर्शन है। यही कारण है कि ह्रदयाकाश  अंधकार से भरा दिखाई पड़ता है। जैसे ही गुरु अनुकंपा रूपी आलोक प्रज्वलित होता है। वैसे ही धीरे-धीरे प्रकाश फैलता है। तब प्रकाश की व्यापक रूप ही दिखाई पड़ता है।

यही आलोक चिदाकाश  है। इसी का नाम ज्ञान है। इसका दर्शन ऊध्वनेत्र से होता है। चित्ताकाश का मध्य नेत्र से तथा भूताकाश का अभिनेत्र से दर्शन होता है।चिदाकाश के दर्शन का मार्ग है---ब्रह्मरंध्र, चित्ताकाश का मार्ग है-भ्रूमध्य स्थित दिव्य चक्षु तथा भूत्ताकाश का मार्ग है इंद्रियां।

चिदाकाश ही गुरु पद है। जहां सर्वदा प्रकाश है। यही दर्शन ब्रह्मा दर्शन है। ज्ञान के उदय से भूताकाश के अलोकिक होने पर जिस चक्षु का उन्मिलन होता है, वही पिंड से ब्रह्मांड में जाने का द्वार है। ब्रम्हांड मार्ग को ही सूर्य मंडल मार्ग भी कहते हैं। इसी से चिदाकाश में प्रवेश होता है। गुरु कृपा से यहां पर ही परब्रह्मा और शब्द ब्रह्म कि अभिनेता का बोध होता है। वही पूर्ण ब्रह्म ज्ञान है। यह दृश्य द्रष्टा का ही 'स्व-भाव' 'है। दोनों चिद एक रस है। महाशक्ति ही मधुर मिलन में एक अद्वैतत्व अनादि दिव्य मिथुन रूप से प्रकाशमान  है।

यही दर्शन विराट दर्शन , विश्व दर्शन या विश्व सृष्टि दर्शन है। इसे ही योगी ब्रह्मा तांत्रिक, पराशक्ति, बुद्ध परम शून्य, शंकराचार्य पूर्ण करते हैं।

हे मेरे परम पूज्य ऋषिवर, आप प्रकाश मार्तण्य है।आपको ही आलोक पक्ष का अनुगमन करते हुए सदविप्र समाज सेवा की स्थापना किया। जो तथाकथित वर्ण, संप्रदाय,उच्च या हीन भावना से मुक्त परम पुरुष का साकार रूप गुरु के आज्ञा का अनुसरण करते हुए अपने उद गम अर्थात परमपिता के साम्राज्य के मालिक बनने। जहां ना कोई शोषक होगा। ना शोषित। सभी अपने लक्ष्य के प्रति सजग होंगे। यह कार्य कठिन अवश्य प्रतीत होता है। लेकिन आपके आशीर्वाद से असंभव नहीं है।

   क्रमशः......