साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????यमपुरी????-

अग्नि देव ने कहा, स्वामी जी आप मृत्यु देवता को साकार करना चाहते हैं। न। चलिए। वह लोक पितर लोक से दक्षिणायान में है। उधर मुड़ते ही प्रकाश की किरण बुझने लगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया अंधेरा छाता गया। घोर अधरा था अग्निदेव के शरीर से निकलने वाले प्रकाश में मैं आगे बढ़ रहा था। इतना सघन अंधेरा था कि मेरे शरीर से निकली-प्रकाश कुछ ही दूरी पर समाप्त हो रही थी। मार्ग कंटकपूर्ण था। शुष्क पर्वत । मृत धरती। भयावह वातावरण।

अग्नि देव ने कहा, स्वामी जी इस लोक में आने पर अपना भी पुण्य क्षय होता है। मैं चौका- ऐसा क्यों जैसे कोई बादल इस मरूभूमि पर कितना ही व करे, क्या पानी का पता चलेगा। सभी सोख लेता है? काल की नगरी पापपूर्ण लोगों की यातना की नगरी है। मैंने अपने प्रकाश क्षेत्र को देवास्त्रों से घेर दिया। जिसे अग्नि देव समझ गये। वे हंस कर बोले, तब स्वामी जी अपने देवास्त्रों से अपने को सुरक्षित कर लिये। हमें भी कर दीजिए ना। मैंने वैसा ही किया। उनका प्रकाश क्षेत्र | तुरंत बढ़कर गया। वे नमस्कार करके उन देवास्त्रों को सीखने का अनुरोध किये। मैंने कहा, हे देव अभी हम लोग मृत्यु लोक के रास्ते में है। आप इसे सीखने के लिए मानव शरीर में पृथ्वी पर आना उन्होंने ऐसा ही करने का वादा किया।

आगे एक बहुत बड़ा खड्ड था जिसका आदि अन्त नहीं था। नीचे देखने पर दिखाई नहीं पड़ता था। न उसका कोई किनारा था। अग्नि देव ने कहा, स्वामी जी मृत्युलोक के कैद खाने का यही दीवार है जिसे बंदीगण किसी तरह पार नहीं कर सकते है। मैंने कहा हम लोगों की आगे की यात्रा कैसे होगी ? अग्नि देव ने कहा, यहां से आगे । यमदेवता की आज्ञा एवं उनकी ही वाहन की जरूरत होगी। ऐसा ही विधान है। अग्नि देव, वहाँ कुछ देर रुक कर ध्यान मुद्रा में बैठ गये। मैं भी ध्यान से देखने लगा। अरे ये तो संदेश भेज रहे हैं। यम देव! मैं इन्द्रदेव के आदेश से स्वामी जी को लेकर आया हूं। आप से स्वामीजी मिलेंगे एवं आपके लेख का निरीक्षण करेंगे। आपको पूर्व में सूचना मिल गयी होगी। उधर से आवाज आई, अग्नि देव क्षमा करेंगे। सूचना आई थी। नरक, यातना, दण्ड, कोलाहलपूर्ण वातावरण में मुझे विस्मृत हो गया था। मेरा वाहन पहुंच रहा है।

मैं आंख खोल कर खड़ा हो गया। अग्नि देव मुस्कुराते हुए मेरे तरफ देखे। मैंने कहा सूचना हो गई। वाहन आ रहा है। हां स्वामी जीं। देखते ही देखते एक विशाल वाहन काला आकर सामने रुका। उससे काला कलूटा विशाल - काया का पुरुष हाथ में गदा, त्रिशूल, तलवार लिये उतरा। वह हमें एवं अग्निदेव प्रणाम कर अपने वाहन पर सवार होने को निवेदन किया। मैं उस वाहन को चारों तरह से देखा। वह स्वचालित वाहन देखने पर काला पर्वत मालूम हो रहा था। आगे कुछ पतला था। पीछे चौड़ा पीछे एण्टीना की तरह रूप निकाला है। आगे का हिस्सा उठा है। यह तो पृथ्वी के महीष (भैंसा) से मिलता जुलता है। हम लोग उसके ऊपर बैठ गये। गदी भी काला ही था। आराम देह। वह वाहन तेज गति से चल दिया। मैंने नीचे देखा परंतु गठ्ठा अन्त नहीं दिखाई दिया। कुछ देर चलने के बाद हम लोग उसे पार किया। उसके पार करते ही गंदा वायु नाकों में आने लगा। मैंने नाक बंद कर लिया। अग्निदेव ने कहा, मल-मूत्रों की नदी है। यहां के वामी लोगों की जन संख्या काफी है। ये दण्डित होते हैं। इनमें अपवित्रता है। इन्हें महीनों स्नान करने को नहीं मिलता है न ही इन्हें पानी पीने को मिलता है। ये भूखे प्यासे छटपटाते हैं। यत्र-तत्र गंदा करते हैं। इन्हीं का मल मूत्र बह कर गंदगी का सम्राज्य फैला दिया है। मैंने कहा क्या यही वैतरणी है। हां यही है वैतरणी ।

नीचे देखा, कुछ लोग उसी नदी में डूब रहे हैं। कुछ छटपटा रहते हैं। कुछ रो रहे हैं। कुछ वही खा रहे हैं। कुछ वहीं गंदगी पी रहे हैं। कुछ चिल्ला रहे हैं। यह वीभत्स दृश्य देख कर मैं कांप गया। बहुत कष्ट है इन्हें ।

यमदूतों ने कहा, स्वामी जी हम लोग तो इसी में रहते हैं। इन्हें देखते देखते आदी हो गये हैं। यह दुःख तो कुछ नहीं है आगे दुःख का सिलसिला है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेंगे, दुख कष्ट भी बढ़ेगा। मैंने कहा, अरे भाई तुम लोगों को दया नहीं आती है। यमदूत बोले, इसमें हम लोग दया करने वाले कौन हैं? हम लोग को दया का अधिकार नहीं मिला है। जो जैसा करके अपना प्रमाण पत्र लाया है। उसे उतना ही उसी तरह का साधन हम मुहैया करते हैं। हम लोग भी उस परमपुरुष का करिंदा मुलाजिम मात्र है। उसे एक दिन भी कम करने, या एक दिन ज्यादा करने का अधिकार नहीं है।

वाहन रुक गया। यम गण नीचे हम लोग नीचे उतरे। सामने बहुत बड़ा कुरूप भवन दिखाई दे रहा था। उस भवन की आकृति डरावनी थी। मानो काटने दौड़ रही हो। आंखों में, शरीर में चुभने लगा ऐसा प्रतीत हो रहा था। नहीं चाहते हुए भी भवन के नजदीक पहुंचा। देखा कि एक श्याम वर्ण पुरुष खड़ा है। उनके बायें एक औरत भी है। दोनों सामने आकर प्रणाम करते हुए माल्यार्पण किये। बोले, स्वामी जी मैं यम देवता हूं। काल देवता हूं। सूर्य पुत्र हूं। ये हैं मेरी पत्नी यमी। हम दोनों यमपुरी में आपका स्वागत करते हैं। हमारे नगर में तो पापी लोग आते हैं। आप एवं अग्नि देव कैसे आ गये? क्या आज से यमपुरी का काया  कल्प होने वाला है। मैंने कहा, नहीं यमराज जी ऐसा नहीं है। मेरी प्रबल इच्छा थी आपको नमस्कार करने एवं आपसे मिलने की। मैं अपने संकल्प वश आया हूँ। आपके लोक को देखना है। कुछ देर आप से बातें भी करनी है।

यमराज (काल देवता) अपने महल के अन्त: पुर में ले गये। जहां बैठने एवं ठहरने का वृहद् भवन था। लेकिन सभी की आकृति भयावनी एवं रंग काला ही था। हम लोग बैठ गये। उन्होंने कुछ खाने-पीने को पूछा परंतु वहां के वातावरण से मेरा जी मिचला रहा था। मैंने घूमने का इरादा भी छोड़ ही दिया था। वे समझ गये। बोले, स्वामी जी मेरे दो रूप हैं। मैं इस रूप से यमराज हूं। यह यमपुरी है। यहां विभिन्न प्रकार के दण्डों का प्रावधान है। दूसरा मेरा ही रूप है धर्म राज का। इससे थोड़ा ऊपर है। जैसे मैं धर्मराज एवं यमराज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उसी तरह स्वर्ग नर्क भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।