साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

राम हनुमान परिचय

   राम महात्मा शबरी का आशीर्वाद ग्रहण कर आगे बढ़ जाते हैं। हालाँकि पत्नी वियोग में अत्यन्त चिन्तित हैं। सर्वत्र पशु-पक्षी, लता वृक्ष सब में उन्हें काम ही काम नज़र आता है। वाल्मीकीय रामायण में तो काम से आसक्त हो गये हैं। तुलसी दास जी इसे रामचरितमानस में समझाते हुए कहते हैं कि मृगी भी उपहास कर रही है कि ये तुम्हें नहीं मारेंगे, ये तो सोने का मृग खोज रहे हैं।
"हमहि देखि मृग निकर पहरी। मृगी कहहि तुम्ह कहं भय नाहि। तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए॥"

    इतना ही नहीं राम नारी पर ही अविश्वास कर उठते हैं। कहीं सीता स्वयं भागकर तो नहीं चली गयी। चंचल मन कुछ भी सोच सकता है- 
"सखिअ नारि जदपि उर माही।" जुवती शास्त्र नृपति बस। देखडू तात बसंत सुहावा। प्रिया, हीन मोहि भय उपजावा ॥"

    इसे यों समझा जा सकता है जब साधक का भक्ति, विवेक, निष्कामरूपी, योगात्मा साथ छोड़ देती है तो केवल ज्ञान-वैराग्य से भी काम नहीं चलता। ज्ञान विक्षिप्त हो जाता है। मोह ग्रस्त हो जाता है। साधक काम का रूपान्तरण नहीं करके दमन करता है तो वह भी विस्फोट कर उठता है एवं सर्वत्र काम ही काम नज़र आता है। योग जाप भूल जाता है, अब इससे बचने के लिए वैराग्य मात्र उपदेश या ढांढ़स दे सकता है। समझा सकता है। ज्ञान को वापस अपने स्वरूप में आने के लिए सत्संग अत्यन्त जरूरी है। जिसमें अपूर्व धैर्य हो, साहस हो, बल हो, ज्ञान वैराग्य भक्ति एवं निष्काम योग की प्रतिमूर्ति हो। यदि साधक का उचित समय पर इस तरह के साधक, साधु संन्यासी से मित्रता, सम्बन्ध हो जाता है तब तो आप कल्याण समझो। अन्यथा अधोगति गमन तो निश्चित ही है। शबरी दर्शन एवं प्रसाद पाने का फल तुरन्त मिल जाता है। राम पम्पासर जाते हैं। हनुमान संन्यासी के रूप में आते हैं। रूप में क्या आते, वे तो साक्षात् साधु संन्यासी थे ही। राम से सम्बन्ध होता है। उसी क्षण कह देते हैं-हे राम ! अब आप विकल न होवें। मैं सुग्रीव का मन्त्री हूँ। आपका कार्य निश्चित ही हो जायेगा। सीता की खोज हम लोग 24 घण्टे में कर लेंगे। राम तुरन्त कह उठते हैं है हनुमान! हम दोनों भाई वानर राज सुग्रीव की शरण में ही आये हैं। उनसे हमारी मित्रता करायें। हनुमान कहते हैं, हे राम ! आपकी एवं सुग्रीव की समस्या एक है। दोनों में मित्रता भी स्वाभाविक है। खैर हनुमान सुग्रीव-राम मित्रता अग्नि की साक्षी में करा देते हैं। दोनों एक दूसरे का कार्य पूरा कराने का वादा करते हैं। तब हनुमान- "उभय दिसि की सब कथा सुनाई। पातक साखी देव करि जोरी प्रीति दृढ़ाई ॥" यहाँ यह समझ लेना उचित है कि हनुमान, बालि, सुग्रीव बन्दर नहीं थे। ये लोग चन्द्रवंशीय थे। पीत वर्ण के थे। तथाकथित इतिहास वेत्ता, पुराणवेत्ताओं ने द्वेष से इन्हें वानर बना दिया, पूँछ लगा दी। परन्तु इनकी औरत तारा वगैरह को नारी रूप में छोड़ दिया। इनके राज-काज, शासन, कर मनोवांछित ही छोड़ दिए। इसी तरह जामवंत भी आदिवासी थे। काले थे। इन्हें भालू बना दिया। ये अत्यन्त शक्तिशाली थे। इनकी लड़की जाम्बवती से कृष्ण की शादी भी हुई है। क्या भालू की लड़की भालूनी से कृष्ण ने शादी की।इसी तरह नल-नील भी चन्द्रवंश के थे। ये अभियंता के गुण से परिपूर्ण थे। यह भी सम्भव हो विश्वमित्र चन्द्रवंशीय गुरु थे अतएव राम अपने गुरु के है खानदान के ऋषि, मानव से सम्पर्क करते हों। यह भी राजनीतिक कूटनीति है। सकती है।

विपत्ति काल में धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा होती है परन्तु जिसके पास वे चारों रहें तब न मदद या परीक्षा की बात होगी। हनुमान राम के साथ स्वयं जुड़ जाते हैं जो धर्म की प्रतिमूर्ति हैं। वे कभी भी अधीर नहीं हुए। सीता का पता भी धीर, गम्भीर स्थिति में करते हैं एवं लंका दहन भी। शत्रु के गढ़ में जाकर भी। युद्ध में मेघनाद द्वारा राम-लक्ष्मण दोनों को दो-दो बार शक्तिबाण लगता है। मूर्छित होते हैं। जामवंत विभीषण से घायलावस्था में पूछते हैं। सभी घायल हैं, मूर्छित हैं। हनुमान जी कहाँ हैं? वे स्वस्थ तो हैं। विभीषण पूछते हैं। हे जामवंत जी! आप मूर्छा से उठते ही राम-लक्ष्मण को नहीं पूछते हनुमान को ही क्यों पूछते हैं? जामवंत कहते हैं यदि हनुमान जिन्दा रहेंगे तो सभी को जिन्दा कर लेंगे। इनमें अपूर्व धर्म है, क्षमता है। इसी से मैंने इन्हीं का कुशल-मंगल पूछा। इन्हें मैं नज़दीक से जानता हूँ। हनुमान तुरन्त कह उठते हैं। "जी हाँ मैं हाज़िर हूँ।" हनुमान शत्रु के घर से सुखेन वैद्य को लाते हैं। कालनेमि के मुँह से निकल कर भरत का बाण खाकर भी संजीवनी बूटी लाते हैं और राम-लक्ष्मण को होश दिलाते हैं। राम को नागपाश में बाँधा जाता है और हनुमान के द्वारा बिना किसी से परामर्श लिए गरुड़ के माध्यम से फाँस काटा जाता है। राम-लक्ष्मण को अहिरावण के द्वारा पाताल ले जाकर देवी को बलि दिया जा रहा है उचित समय पर अकेले जाकर अहिरावण का वध कर दोनों भाई को सम्मान के साथ वापस लाते हैं। हनुमान जी जिस के साथ रहते हैं उसकी धर्म के साथ निष्काम सेवा करते हैं। ये कमजोर का ही पक्ष पकड़ते, उसे मजबूत सशक्त बना देते। सुग्रीव बालि से कमजोर थे। उनकी अन्तिम अभिलाषा थी राज्य एवं पत्नी प्राप्ति। उनकी मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। अब सोचते हैं हमारी जरूरत यहाँ नहीं है। निष्काम योगी, सेवक, कभी हाथ पर हाथ रखे नहीं बैठता। दूसरों की सेवा में ही अपने को अर्पित कर देता है। राम से मिलते हैं। उनकी सीता को वापस कराते हैं। साथ ही सीता खोज के रास्ते में विभीषण मिल जाते हैं। उन्हें भी दीक्षा देते एवं श्री राम के सान्निध्य में ला खड़ा कर देते हैं। उनकी इच्छा थी लंकापति बनने की। यह भी पूरा करा देते हैं परन्तु अहं का बोध छू तक नहीं रहा है। उन्हें बदले में कुछ चाहिये ही नहीं। राम का राज्यारोहण होता है। राम अब उन्हें छोड़ते ही नहीं। राम ने हनुमान को पहचान लिया, सोचा बिना हनुमान के मेरा भी अस्तित्व खतरे में है। हनुमान ने भी राम को पहचान लिया, सोचा इन्हीं के माध्यम से वृहद सेवा सम्भव है। अतएव अयोध्या में निवास करने लगे। राम के राज्य केबाद वे हिमालय जाकर तप में लग गये। जहाँ आज भी तप में रत हैं।

???????? राम का मित्र धर्म से संबंध ????????

     आपने देख लिया कि राम का सम्बन्ध धर्म रूपी हनुमान से बिना किसी अग्नि साक्षी के हो जाता है। इस सम्बन्ध में किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं पड़ती। यह सम्बन्ध किसी नीति के तहत, किसी विधि विधान के तहत नहीं होता है। स्वेच्छा से एक-दूसरे से अभिन्न हो जाते हैं। धर्म-साधक की साधना पर निर्भर करता है। मित्र रूपी मदद सुग्रीव होते हैं।

"मित्रता बड़ा अनमोल रत्न है। कब तौल सकता इसे धन है।"

      यह अत्यन्त ही कीमती है। यह धन-सम्पत्ति से खरीदा नहीं जा सकता। यह सम्बन्ध परिस्थिति पर निर्भर करता है। चतुर साधक मित्र का पूरा पता कर हाथ बढ़ाते हैं। अन्यथा मित्रता में जान भी देनी पड़ सकती है, धन-प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है। वह मित्र-मित्र नहीं रह जाता। वह संघतिया हो जाता है। वह साथ-साथ रहेगा, खायेगा। साथ-साथ सोयेगा। साथ रहकर ही अवसर पाते ही घात कर देता है। इन्हीं की संख्या सदा से ज्यादा रही है। ऐसे दोस्तों से इतिहास सड़ रहा है। अतएव मित्रता भी जान-समझकर करना श्रेयस्कर है। राम शबरी के द्वारा, कबन्ध के द्वारा, हनुमान के द्वारा जान गये हैं। जटायु से भी उचित निर्देशन प्राप्त कर चुके हैं। तब हाथ बढ़ाते हैं मित्रता का। दोनों में मित्रता होती है अग्नि को साक्षी रखकर। अग्नि यानी प्रकाश, तेज, सत्य को साक्षी रखकर मित्रता होती है अटूट।

      आप देखते हैं जितनी पार्टनरशिप, हिस्सेदारी लिखा-पढ़ी से होती हैं वे कितने दिन चलती हैं। जितनी शादियाँ कोर्ट-कचहरी में लिखा-पढ़ी कानूनी परामर्श से होती हैं, कितने दिन चलती हैं। कानून से शुरू होकर कानूनी दौड़ में ही समाप्त हो जाती हैं। वहाँ समर्पण नहीं होता, चालाकी होती है। जो शादियाँ अग्नि, गुरु की साक्षी में होती हैं, वहाँ दोनों जीवनभर एक-दूसरे से अलग होने का नाम नहीं लेते बल्कि भला हो या बुरा दूसरे जन्म में भी साथ-साथ रहने का वादा करते हैं। चूँकि सत्य में समर्पण होता है, श्रद्धा होती है, सुख-दुख दोनों का साझा होता है। एक दूसरे को अब अलग करना उतना ही दुष्कर है जैसे एक सिक्के के दोनों पहलू को। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे लगते हैं। जैसे राम, सीता के बिना। राम-सुग्रीव में मित्रता हो जाती है। साथ होते हैं धर्म, धर्मज्ञ, वैराग्य तथा अन्य वानर रूप समूह
सलाहकार।

     मित्रता की सन्धि होते ही सुग्रीव कहते हैं-
   "कह सुग्रीव नयन भरि वारी। मिलिहि नाथ मिथिलेश कुमारी।।"

    सुग्रीव अब मित्र रूपी राम का दुःख अपना दुःख समझ आँख में आँसू घर कर कहते हैं, अवश्य ही जानकी मिलेगी। इतना ही नहीं तुरन्त इसका सबूत पेश करते हैं-

"राम-राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पटडारी। मांगा राम तुरन्त तेहि दीन्हा। पट उर लायी सोच अति कीन्हा ॥"

     जिसे देखकर राम चिन्तित हो जाते हैं। उन सामानों को एक वियोगी की तरह हृदय से लगाकर अति सोच में पड़ जाते हैं। विलाप करने लगते हैं। तब सुग्रीव जी कहते हैं-

हे राम कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहूं सोच मन आनहू धीरा ॥

   सोच, चिन्ता का परित्याग करें। चिन्ता और चिता दोनों समान हैं। मन में धर्म लायें। आप को बुद्धिहीनता का काम शोभा नहीं देता। मुझे भी पत्नी का विरह हुआ है। मैं तो साधारण वानर जाति हूँ, सो मैं अपनी स्त्री को याद नहीं करता हूँ और न ही धर्म को ही छोड़ता हूँ। आप तो मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। यह आँसू जो बिना रुके बह रहे हैं। धैर्यपूर्वक रोकें। वेदों में कहा है कष्ट, दीनता, भय, संकट में अपने धैर्य को न खोने से मनुष्य दुःखी नहीं होता, मूर्ख के समान व्याकुल न होइए। शोक में पड़कर अपना जीवन नष्ट न कीजिये। मैं मित्रता की दृष्टि से कहता हूँ। मेरी बात को ग्रहण कीजिये। सुग्रीव के इस प्रकार समझाने पर राम ने ठण्डी साँस ली। सुग्रीव का आलिंगन किया।

     रामचन्द्र का विलाप जब बन्द होता है तो सुग्रीव अपनी दुर्दशा सुनाते हैं। उनकी भी पत्नी का हरण हुआ है। अतएव राम इस दुःख को भली-भाँति समझते हैं। "दुखियों के दुःख दुखिया जाने, और न जाने कोय।" राम-सुग्रीव का दुःख दूर करने का वादा करते एवं उसे कार्यरूप में परिणत भी करते हैं। बालि को छिपकर मारते हैं। अब तारा विलाप करती है। विलाप का सिलसिला जारी रहता है। कभी पत्नी के लिए तो कभी पति के लिए। एक-दूसरे को समझाते भी रहते हैं। राम का ज्ञान अब झरने लगता है-

"छिति जल पावक गगन समीरा। पंच तत्व रचित अधम शरीरा। प्रगट सो तनु तब आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥"

      पाँच तत्व का बना यह अधम शरीर है। यह तुम्हारे आगे है। जीव तो नित्य है वह तो मरता ही नहीं। तुम क्यों रोती हो। क्या यह उपदेश अपने पर नहीं उतारा जा सकता ? क्या यह दूसरे को उपदेश देने मात्र के लिए है। खैर राम अपनी कूटनीति से मित्रता को पूरा करते हैं। सोचते हैं कि इस राज्य की प्रजा को भी ठीक रखना होगा क्योंकि मेरे साथ सभी को जाना ही होगा युद्ध में। यह सोच हनुमान जामवंत से परामर्श ले सुग्रीव को राजा, अंगद को युवराज तथा तारा को पटरानी बना देते हैं। सभी अपना पूर्व का दुःख भूल जाते हैं एवं खुश हो राज्य सुख भोगने लगते हैं।

    राम-लक्ष्मण के साथ प्रवर्षण पर्वत पर निवास करने लगते हैं। वर्षाऋतु आती है जो राम के लिए कष्टकारक है। सोचते हैं सुग्रीव अपनी पत्नी के साथ राज्य सुख भोग रहा है। मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। लक्ष्मण समझाते हैं। हनुमान सांत्वना देते हैं। हे भाई! वर्षा बीत जाने दो। परन्तु राम का पत्नी वियोग विलाप में बदल जाता है।

"धन-घमण्ड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।" राम बादल से भी भयभीत हैं। पशु से भी, वृक्ष से भी। एक दिन उन्हें एक वर्ष सा प्रतीत होता है। अतएव विकल हो कहते हैं।

"सुग्रीवहुं सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी ॥"

    सुग्रीव हम को भूल गया है। अब वह राज, खज़ाना एवं पत्नी प्राप्त कर चुका है। हमें याद नहीं करता। अत्यन्त क्रोध में विक्षिप्त होकर कहते हैं।

"जेहि साधन मारा मैं बालि। तेहि सर हनौ मूढ़ कहुं काली। जासु कृपा छूटहि मदमोहा। ता कहूँ उमा कि सपनेहूं कोहा ॥"

      जिस बाण से बालि को मारा उसी से सुग्रीव की हत्या कर दूँगा। खैर जो हो राम का क्रोधित होना स्वाभाविक है। सुग्रीव समय के इन्तजार में हैं वर्षाऋतु समाप्त होते ही मित्र के काम में जुट जाते हैं। वे कहते हैं-

"सुनहू नील, अंगद, हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना। सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहूँ। सीता सुधि पूंछेहु सब काहू ॥ मन क्रम वचन सो जतन विचारेहु। रामचन्द्र का काज संवारेहु। भानु पीठि सेइअउर आगी। स्वामिहि सर्वभाव छल लागी ॥"

 ???? धर्म यानी जामवंत ????

     जामवंत जी जिसे भालू बना दिया गया। केवल शरीर के आधार पर चूँकि उन का शरीर काला था। आदिवासियों के राजा थे। सुग्रीव से मैत्री सम्बन्ध था। ये कम बोलते थे। परन्तु समय पर उचित दिशा-निर्देश देते थे। इसी से सुग्रीव ने इन्हें मतिधी एवं सुजान शब्द से विभूषित किया। ये कभी किसी भी विषम परिस्थिति में भी घबराते नहीं थे। धीर गम्भीर रहते थे। अच्छी सम्मति देते जिससे सफलता मिले। एवं नीति युक्त भी हो। समुद्र के नज़दीक सभी लोग मुश्किल में पड़ जाते हैं कि लंका कैसे जायें। सीता कहाँ होगी। जटायु रूपी पूर्व संचित पुण्य ने सीता हरण के समय मदद की एवं वही पूर्व रचित पुण्य जटायु के बड़े भाई सम्पाती केरूप में फिर मिल जाता है। स्पष्ट देखकर कह देता है है वीर वानरों, देखो सीता लंका की अशोकवाटिका में सोच मग्न है।

"मैं देखऊं तुम्ह नाहीं गीयहि दृष्टि अपार।"

     मैं देख रहा हूँ। अब तुम लोग लंका जाने की तैयारी करो। विजय तुम्हारे साथ है। यही करता है पूर्व संचित पुण्य। परन्तु कौन जाये, कौन नहीं। अनिर्णय की स्थिति हो जाती है तब जामवंत कहते हैं

"कहई रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेछु बलवाना ॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना ॥ कवन सो काज कठिन जग माही। जो नहि होई तात तुम्ह पाही॥"

      हनुमान को पूर्णरूपेण मात्र जामवंत ही जानते एवं समझते थे। कहते हैं तुम पवन के समान गति कर सकते हो। बुद्धि, बल, विवेक, विज्ञान (ज्ञान) का खजाना हो। इस संसार में कोई भी कार्य तुम्हारे लिए कठिन नहीं है जो तुम नहीं कर सकते हो। धैर्य उचित समय पर, उचित स्थान पर, उचित निर्देशन देता है तभी तो हनुमान जी कह उठते हैं-

"सिंहनाद करि बारहि बारा। लीलहि नाथऊ जलनिध खारा ॥ सहित सहाय रावनहिमारी। आनऊं इहां त्रिकूट उपारी ॥"

       मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ। रावण को उसके सहायकों के साथ मार सकता हूँ। त्रिकूट पर्वत को उखाड़ कर ला सकता हूँ। हे जामवंत जी! हमें उचित निर्देश दें मुझे क्या करना है। ये निर्देश देते हैं-

एतना करहू तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहू सुधि आयी ॥"

      इस तरह धर्म रूपी जामवन्त युद्ध भूमि में भी समय-समय पर राम को उचित सलाह तथा निर्देशन देते हैं। जिससे राम विजय को प्राप्त होते हैं। वे राम के राज्यारोहण में भी सम्मिलित हो नीतिगत बातों का सुझाव देते हैं। परन्तु पुराण तथा रामायण, वे तो इस धर्मविद् महात्मा को भालू तक बनाने में नहीं हिचके।

???? साधक की स्थिति ????

      जब साधक का संयोग धर्म, विवेक, निष्काम कर्मरूपी आत्मा श्रद्धा से छूट जाता है तब उसे विलाप ही हाथ लगता है, दुर्भाग्य आ घेरता है। अतएव सावधान हो साधक, इन सबका परित्याग किसी भी परिस्थिति में नहीं करें। राम का साथ वैराग्य ने कभी नहीं छोड़ा यही कारण है कि कठिनाई के बावजूद भी हनुमान रूपी धर्म निष्काम योग मिल गये। धर्म रूपी जामवन्त, विवेक रूपी मित्र सुग्रीव मिल गये। जब ये सब के सब मिल ही गये तब साधक रूपी ज्ञान का काम आसान हो जायेगा। सम्भव है श्रद्धा, भक्ति रूपी विभीषण भी मिल जाये। विभीषण के मिलते ही राम का कार्य स्वतः सिद्ध हो जाता है। अन्यथा राम कहीं विलाप कर रहे हैं तो भरत रूपी भक्ति बिना ज्ञान-वैराग्य के कहीं बिलख रहे हैं। विवेक रूपी शत्रुध्न कहीं शत्रुओं से घिरे पड़े हैं तो निष्काम रूपी आत्मा (सीता) कहीं और विरह-वेदना में तड़प रही है। सभी अलग-अलग हैं। सीता की विरह वेदना भी अन्तिम शीर्ष पर है। तो भरत की कम कैसे ? राम को तो आप ने देखा ही। सभी तड़प रहे हैं। सभी अधूरे हैं। ज्ञान को वैराग्य सँभाल रहा है तो भक्ति को विवेक। परन्तु निष्काम योग रावण के चंगुल में पड़ा अशोक वाटिका में भी शोक संतप्त है। चारों न खाते, न ही पीते, न ही सोते हैं। सभी की विरह-वेदना चरमशीर्ष पर है। परन्तु साधक स्थिर बुद्धि, शान्त मन से काम लेता है तब वह इन चारों को उपलब्ध हो स्वराज्य (आत्मपद) को उपलब्ध हो सकता है। इन परिस्थितियों में बुद्धि स्थिर कैसे रहेगी ? मन कैसे शान्त होगा ? सन्त दर्शन, सत्संग से बुद्धि साफ हो जाया करती है। जैसे दर्पण पर धूल कण भी गिर जाते हैं, दर्पण गन्दा हो जाता है, वह दर्पण उसे ही अपना स्वभाव जान बैठे यही भारी भूल होगी। जैसे ही दर्पण से धूल झड़ जाती है वह स्वच्छ हो जाता है। जो चाहे अपना चेहरा देख सकता है। उसी तरह गुरु जन सत्संग से, अपनी अनुकम्पा से बुद्धि स्थिर कर मन को शान्त कर देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप साधक कालान्तर में अयोध्या (जहाँ युद्ध नहीं होता हो निरन्तर शान्ति हो आनन्द हो) को उपलब्ध हो जाता है। चूँकि यह साधक का स्वभाव ही है। हाँ गुरु पर अटूट श्रद्धा प्रेम रहे तब ही काम बन सकता है। अन्यथा विक्षिप्त होना विलाप करना तो पड़ ही सकता है साधक को किसी भी परिस्थिति में इन चारों का साथ नहीं छोड़ना चाहिये। तभी तो हनुमान चालीसा भी यहीं से प्रारम्भ होती है-

"श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि । बरनऊ रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि ॥"

     गुरु के चरण कमल रूपी रज से मन रूपी दर्पण को धो लो, पोंछ लो, तब रघु के वर का (जिवालाक) वरण हो सकता है जो चारों फलों को स्वतः प्रदान कर देता है। वही चार फल हैं, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, विवेक ।
क्रमशः....