साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

हनुमान का लंका जाना

    हनुमान, अंगद, जामवंत अपने सहायकों के साथ सीता का पता लगाने दक्षिण दिशा को प्रस्थान करते हैं। चूँकि धर्म, मित्र ही राम पत्नी सीता की खोज कर सकते हैं। इनके नहीं रहने पर ही हरण सम्भव है। इन लोगों को सम्पाती के द्वारा यह स्पष्ट पता चल जाता है कि सीता लंका की अशोक वाटिका में त्रिजटा के द्वारा सेवित सोच में है। अब प्रश्न उठता है लंका कौन जाये ? कैसे पहुँचा जाये। सभी समुद्रके किनारे आसन पर बैठ जाते हैं। कोई रास्ता नहीं देख अपनी मृत्यु निश्चित समझते हैं। सभी सोच में हैं। तब जामवंत अपनी सूझ-बूझ से धर्म का परिचय देते हैं, हनुमान मौन थे। मित्र-प्रतिनिधि अंगद उतावले थे-लंका पहुँचने को। जामवंत बताते हैं-"हे हनुमान! आप सिद्ध साधक, सर्वगुण सम्पन्न हैं। आप के सिवाय और कोई रास्ता नजर नहीं आता। आप शीघ्र लंका के लिए प्रस्थान कर अपनी सूझ-बूझ का परिचय दें।" हनुमान उचित मार्ग-निर्देशन प्राप्त कर रूप बदल कर प्रस्थान कर जाते हैं। समुद्र तटीय राजा जो समुद्र राज के नाम से विख्यात था। जैसे हिमाचल राजा की लड़की पार्वती थी। जैसे भारत-सुन्दरी यानी भारत में जो सर्वश्रेष्ठ सुन्दर लड़की हो। उसी तरह समुद्र राजा थे। जो महाराज रावण के ही अधीनस्थ थे। समुद्र तटीय भाग से लंका की सुरक्षा का भी दायित्व इन पर ही था। किसी को किसी भी परिस्थिति में लंकापति के किसी आदेश के बिना नहीं जाने देते थे। लंकेश के द्वारा समुद्र पर पुल बना हुआ था। जिसके अग्र भाग की रखवाली समुद्र राज करते थे। मध्य भाग में सुरसा थी। लंका के पुल के मुख्य द्वार पर लंकीनी थी। इस तरह सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध था। हनुमान रूप बदलकर उधर से पुल पर पहुँचे गये। मध्य भाग में सुरसा से पकड़ लिए गये परन्तु अपना परिचय विभीषण के मित्र के रूप में देकर आगे बढ़ गये। ज्यों ही लंका के मुख्य द्वार पर पहुँचते हैं जहाँ से लंका का परकोट शुरू होता था। लंकिनी रूपी राडार की पकड़ में आ जाते हैं। वह स्वचालित यंत्र था, जो पकड़कर मुख्यालय को सूचित कर देता था। हनुमान की बुद्धि ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण थी। वे उसके स्विच को दबाकर बन्द कर देते हैं जिससे वह काम करना बन्द कर देता है। हनुमान लंका में प्रवेश कर जाते हैं।

हनुमान द्वारा विभीषण को मंत्र देना

     हनुमान को यह पूर्व में ही सम्पाती के द्वारा ज्ञात हो गया है कि सीता अशोक वाटिका में है। जो लंका का अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए अतिथिगृह था। उसकी सुन्दरता, शोभा और सुरक्षा का वर्णन भी अतुलनीय था। वहाँ सीता ध्यान, धारणा, पूजा में निर्विघ्न रहती। जिसकी सेवा में औरतें ही रहती थीं। त्रिजटा मशहूर विद्वान नीतिज्ञ, धर्म परायण महिला थी। जो हर समय सीता की देखभाल पुत्रीवत करती थी। परन्तु सीता दुःखी थी चूँकि उसके ज्ञान, वैराग्य, विवेक, भक्ति का हरण हो चुका था। त्रिजटा स्वयं वैराग्य, विवेक एवं भक्ति की मूर्ति थी, जो सीता को सम्बल देती थी। फिर भी ज्ञान रूपी राम के अभाव में बेचैन रहना स्वाभाविक ही है। हनुमान को यह सब ज्ञात हो गया था। अतएव वे ऐसे व्यक्ति की खोज करते हैं जो उनके कार्य में सहायक हो सके। जिसके माध्यम से वे लंका में निडर,निःसंकोच घूम सकें। जो राजनैतिक दृष्टिकोण से महत्वाकाँक्षी हो। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से श्रद्धावान हो। ऐसे व्यक्तियों में विभीषण का नाम लंकावासी के द्वारा सुझाया गया। वे सीधे विभीषण के गृह पहुँचते हैं। उनको अपना परिचय दे, मन्त्रणा करते हैं। विभीषण तुरन्त तैयार हो जाते हैं। मानो पहले से ही मन बना कर बैठे हों। अवसर की खोज में हों।

"लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥

तुम्हरो मन्त्र विभीषण माना।"

    विभीषण हनुमान को लंका में निर्भीक घूमने का आदेश दे देते हैं। साथ ही आयुध भण्डार के प्रमुख स्थानों का मानचित्र भी मुहैया करते हैं। विभीषण लंकापति के बाद दूसरे स्थान पर थे। उनके अधीन गृह, शिक्षा, धर्म, विज्ञान, संचार इत्यादि प्रमुख मंत्रालय था। रावण के अतिविश्वासी थे तथा वे भी रावण को बाह्य हाव-भाव से पिता तुल्य आदर देते थे। मंदोदरी को माता तुल्य। कोई किसी को सन्देह की दृष्टि से नहीं देखता था। सभी प्रसन्न अपने-अपने व्यवस्थित काम में लगे रहते थे। हनुमान के एक झटके एवं प्रलोभन से विभीषण ने हथियार डाल दिए। इसी क्षण हनुमान से राम मिलन, राज्यारोहण का मन्त्र ग्रहण कर लेते हैं।

हनुमान द्वारा लंका को जलाना

    हनुमान लंका का परिभ्रमण करते हैं। शस्त्रागार देखते हैं। युद्ध की कला, रक्षा की व्यवस्था से परिचित होते हैं। जब सब देख सुन सन्तुष्ट हो जाते हैं तब सीता से मिल अपना सन्देश देते हैं। सीता भी रावण की सुरक्षा-व्यवस्था देख, विधि-व्यवस्था देख कहती हैं- हे हनुमान! ये लोग अत्यन्त शक्तिशाली, धर्म निपुण, कर्तव्यपरायण हैं। इनसे युद्ध करना आसान नहीं। हनुमान भी चिन्तित हैं। अतएव सोचते हैं जाते-जाते क्यों न आयुध भण्डार को जला दिया जाये। सुरक्षा-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया जाये। विभीषण की सहायता प्राप्त कर जगह-जगह आयुध भण्डारों में आग लगा देते हैं। पूरी सुरक्षा-व्यवस्था चरमरा जाती है। कोई गुप्तचर सूचना तक नहीं देते-महाराज रावण को। वे विभीषण के उत्तरदायित्व पर सन्देह करते हैं। अपने पुत्र मेघनाथ, जो प्रतिरक्षा मन्त्री था, को भेज हनुमान को बन्दी बनाते हैं। उनसे परिचय पूछने के बाद उनका लंका आने, अग्निकाण्ड का उद्देश्य पूछते हैं। इस बीच रावण के प्रमुख राष्ट्र नागरिकगण, मन्त्रीगण हनुमान को मृत्यु दण्ड देने को कहते हैं। विभीषण उस समय सभा के मध्य में पहुँच इसे अनीति कहते हुए हनुमान को बन्धन मुक्त कराते हैं। इससे लंका में असन्तोष फैल जाता है। विभीषण को राष्ट्रद्रोही, देशद्रोही मानकर वहाँ की जनता विभीषण के खिलाफ हो जाती है। रावण बाध्य होकर विभीषण को मन्त्रिमण्डल से बर्खास्त कर देते हैं। उनके पुत्र सत्यकेतु को यही पदभार दे दिय जाता है। विभीषण पुत्र सत्यकेतु भी पिता के इस घिनौने कार्य से खिन्न था। वह प्रथमतः उन्हें बन्दी बनाने के लिए अपने सचिव से मन्त्रणा करता है। किसी लड़ विभीषण को पता चल जाता है, उन्हें अपने ही पुत्र के बदले व्यवहार से चिन्ता हो जाती है। अतएव रात्रिपहर ही अपने विमान से उड़कर लंका से बाहर आ जाते हैं।

हनुमान का संदेश एवं युद्ध तैयारी

    हनुमान लंका से लौटकर अपने जामवन्त, अंगद इत्यादि व्यक्तियों से मिल सन्देश देते हैं। सभी खुशी-खुशी राम सुग्रीव के पास आकर हनुमान का वृतान्त सुनाते हैं। हनुमान के दिशा-निर्देशन पर पूरी वानर सेना, ऋक्ष सेना कूच कर जाती है। समुद्र के नज़दीक जा डेरा डालती है। समुद्र पार जाने एवं युद्ध करने की मन्त्रणा होती है। इसी बीच विभीषण, लंका के लिए राष्ट्रद्रोही, राम के लिए श्रद्धा के प्रतिरूप आकर शरणागत होते हैं। हनुमान जी पूर्व में सब कुछ राम को बता ही चुके थे। इससे चतुर राम हनुमान की सलाह पर, बिना पाये लंका का राजतिलक दे देते हैं। जिससे विभीषण की महत्वाकांक्षा सातवें आसमान पर चली जाती है। विभीषण हर हालत में बिना किसी नुकसान के लंका पर विजय का आश्वासन देते हैं। राम अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं चूँकि अब इन्हें वैराग्य, धर्म, मित्र, श्रद्धा सभी कुछ एक साथ उपलब्ध हो जाता है। अब वे लंका रूपी स्वर्ण माया नगरी पर आक्रमण करने में समर्थ हो जाते हैं। विभीषण का भाग जाना जैसे ही उनके पुत्र को पता चलता है वह अपना जासूस भेजकर सत्यता को प्रमाणित करता है। लंका के चारों तरफ सुरक्षा की व्यवस्था मजबूत करता है। समुद्र राज को आदेश देता है किसी भी हालत में राम को रास्ता न दें। आपकी चूक के कारण हनुमान प्रवेश कर गया था। आप चौकन्ना रहें। समुद्र राज के द्वारा आश्वासन मिलता है, आप निश्चिन्त रहें। उधर सीता की सुरक्षा की व्यवस्था भी कड़ी कर दी गयी।

समुद्र में रास्ता माँगना

    राम अपने सलाहकारों समेत समुद्र राजा के यहाँ गये। उनसे अनुनय-विनयपूर्वक रास्ता माँगने लगे। राम बोले- "हे राजन! आप बहादुर, दृढ़ तथा स्थितप्रज्ञ व्यक्ति हैं। आप हमें लंका जाने का द्वार छोड़ दें।" समुद्र राज स्पष्ट शब्दों में कहते हैं "हे राम ! यह समुद्रीय मार्ग महाराज रावण के द्वारा निर्मित है। जिससे मानव संस्कृति का सम्बन्ध जुड़ा है। महाराज रावण का मुख्यालय लंका है। उनका कार्य क्षेत्र पूरीमानवता ही है। तभी तो उन्होंने यहाँ से मिथला तक राज पथ का निर्माण किया है। रास्ते में राजपथ पर ही मानव ऋषियों को बसाया एवं विश्वविद्यालय खोले। इन्हों के कार्यक्षेत्र में शबरी, अत्रि, भारद्वाज, विश्वमित्र, जनक हैं। जो जगह-जगह शिक्षण संस्थान चलाते हैं। सभी को समान अधिकार दिए हैं। सृष्टि में प्रथम बार औरतों को समान अधिकार दिया गया। चाहे शासन व्यवस्था हो, चाहे शिक्षण। औरतों को छूने तक की हिम्मत किसी नागरिक में नहीं है। वे कहीं भी, किसी भी समय निर्भीक भ्रमण कर सकती हैं। महाराज रावण की अन्तिम इच्छा स्वर्ग पर सीढ़ी बनाने की है। वह अब मिथला से त्रिविष्टप तक ही बनानी है। पहाड़ी रास्ता है फिर भी देव अभियंता ने पाँच वर्ष का समय मांगा है। धन कुबेर के द्वारा उपलब्ध कराया जायेगा। वह भी अब चंद दिनों में पूरा कर लिया जायेगा। हे राम ! आपके यहाँ बहुपत्नी व्यवस्था है। औरतों से आप लोग गुलाम की तरह पेश आते हैं। आपसे इतना बड़ा राजपथ बनाना भी सम्भव नहीं है। आप तो अपने यहाँ सरयू तथा गंगा पर पुल नहीं बना सके। महाराज रावण के यहाँ सभी धर्मपरायण हैं। एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करते हैं। अपने उसूल-नियम से पीछे नहीं रहते। सुनते हैं कि आप धोखे से मारते हो, छिप कर मारते हो। दो व्यक्ति युद्ध में हैं तो तीसरे पर आक्रमण कर देते हो। रात्रि में युद्ध करना, औरतों पर हथियार उठाना, युद्ध से विमुख व्यक्ति पर हथियार उठाना, यहाँ मनाही है। अतिथि को अपने प्राण से भी ज्यादा प्यार करते हैं। आप हमारे अतिथि हैं। अतएव आप सभी लोग सम्मान के साथ भोजन ग्रहण करें। हमें इस दुष्कर्म के लिए मत बाध्य करें। हे राम, यह भी सुना है कि आपने विभीषण को अपनी तरफ राज्य का लोभ देकर मिला लिया है। क्या यह उचित है? क्या यह नीतिगत है? एक तरफ तो आप बड़े पुत्र हैं अतएव अयोध्या के राज्य के आप अधिकारी अपने को बताते हैं। दूसरी तरफ धोखे से बड़े भाई को मारकर छोटे को राज्य देते चलते हैं। क्या यही मर्यादा है। यह भी सुना है कि माता तुल्य तारा को सुग्रीव की पटरानी बना दिया। क्या यही दुष्प्रवृति यहाँ भी लायेंगे ? राम कहते हैं- हे राजन! क्या आपने नहीं सुना है कि सीता का हरण रावण के द्वारा किया गया है? क्या यह नीतिगत बात है? कई बार सन्देश भेजने पर भी वह उसे नहीं लौटाता। क्या यह उसकी कुदृष्टि का परिचायक नहीं है। समुद्र राज कहते हैं- हे राम ! यह बात सत्य है कि देव संस्कृति से सम्बन्ध कर रावण ने उचित नहीं किया। देव संस्कृति के लोग ही उनके नाम को बदनाम करते तथा उनके सलाहकार बन उन्हें पथभ्रष्ट करते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि सीता पर उनकी कुदृष्टि नहीं हो सकती, सीता तो उनके पुत्र के पुत्रवधू यानी नतनी के उम्र की भी नहीं है। महाराज रावण वृद्ध हो चुके हैं। शरीर थक गया है। अब आप ही सोचेंकि श्मशान पर जाता व्यक्ति कहीं किसी औरत पर कुदृष्टि डाल सकता है। जो महाराज रावण जवानी में देवकन्या, देव अप्सरा से सम्बन्ध नहीं किये। क्या मृत्यु के मुख में जाते रावण ऐसा कर सकते हैं। ऐसा न कहो? आपको भी दोष लगेगा। सीता उनकी पुत्री तुल्य है। उन्हें सम्माननीय ढंग से रखे हैं। आपने उनकी बहन का कान, नाक काटकर बदसूरत कर दिया। उनकी बहुत सारी सेना का नाश कर दिया। क्या रावण आपको दण्ड देने, सबक सिखाने हेतु यह भी नहीं कर सकते। आपके पास जंगल में है क्या? औरत ही है जिसकी आप घर-सम्पत्ति की तरह रखवाली करते हैं। उसी पर ज्यादा आप आसक्त हैं। यही सोच महाराज आपकी पत्नी को उठा लाये। क्या आप से वहीं युद्ध नहीं कर सकते थे। क्या आपकी अयोध्या पर नहीं चढ़ाई कर सकते थे परन्तु महाराज अहिंसक हैं। ऋषभ देव के शिष्य हैं। उनकी पत्नी सतसुकृति की शिष्या है। वे हिंसा नहीं करना चाहते। इसी से आपको मानसिक प्रताड़ना देने के लिए ऐसा किये हैं। यदि आप नम्र भाव से उनसे अपनी सीता की माँग करें, तो सम्मान के साथ वापस कर देंगे।

हे राम ! आप उन्हें कलंकित न करें। उनके बुढ़ापे का ज़रा ख्याल रखें। यदि कुदृष्टि से ही सीता को लेकर जाते, तो कुकर्म में कितना समय लगता? सुकर्म में समय लगता है। वे इस तरह भी अब अपने बड़े पुत्र इन्द्रजीत को राज्य सौंप शरीर छोड़ना चाहते हैं। विभीषण इससे भी उ‌द्विग्न हैं। वे राज्य लोभी तथा चरित्रहीन हैं। पद, अर्थ, कामपूर्ति हेतु विभीषण कुछ भी कर सकते हैं। अतएव हे राम आप ओछेपन से सम्पर्क न करें। वे अपनी तरह ही पूरे दुनिया को देखते हैं। अभी भी महाराज रावण आपसे युद्ध नहीं चाहते। वे मानवता के पुजारी है। अन्यथा मैं स्वयं आपसे उनके पक्ष में युद्ध शुरू कर देता। उनका आदेश है राम को समझा-बुझा दो। आपके सम्मान में कोई कमी नहीं करने का भी उन्हीं का आदेश है। आप अकेले नम्रतापूर्वक उनसे मिलें। सीता उनकी पुत्री से भी बढ़कर हैं। एक बार आप उनको आमन्त्रित कर देख लें। सदाशिव भी उन्हें तंत्र सिखाते हैं। आप उन्हीं के माध्यम से जरा आमन्त्रण देकर तो देख लें।

राम समुद्र राज की बात सुन दूसरे दिन शिव पूजन का अनुष्ठान कर देते हैं। रावण को निमन्त्रण ही नहीं भेजते, उन्हें ही पूजा कराने की सूचना भेजते हैं। महाराज रावण पुष्य नक्षत्र में सीता को लेकर आते हैं। शिवलिंग की स्थापना रामेश्वरम् नाम से कराते हैं। बिना दक्षिणा लिए राम को आशीर्वाद देते हैं- हे राम ! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो। तुम्हारी विजय हो। क्या पुत्री सीता मेरे साथ वापस लंका जायेगी या तुम्हारे साथ ? सीता कुछ दिन और अशोक वाटिका में रहने की इच्छा व्यक्त करती है। अतएव महाराज रावण अपने साथ लेकर चले जाते हैं। यह देखराम चिन्तित हो जाते हैं। विभीषण तथा ब्रह्मा उन्हें युद्ध के लिए उद्वेलित कर देते हैं। धर्मराज भी समझाते हैं कि हे राम ! रावण शरीर छोड़ना चाहते हैं परन्तु आप माध्यम तो बनें। इधर राज्याकांक्षी विभीषण उद्वेलित हो उठते हैं। राम को किसी भी तरह प्रातःकाल तक तैयार कर लेते हैं। राम पुनः समुद्र से रास्ता माँगने जाते हैं। इस क्रम में तीन दिन बीत जाते हैं। अन्त में विभीषण परामर्श देते हैं। रात्रि में ही समुद्र राजा को बन्दी बना लिया जाये। उनका राजकोष भी ले लिया जाये। तब रास्ता अपने आप मिल जायेगा। यही होता है। बात करते-करते रात्रि हो जाती है। उधर उनकी प्रजा पूरी बन्दर मण्डली के भोजन तथा रात्रि विश्राम की व्यवस्था में लगी रहती है। इधर राम-लक्ष्मण, विभीषण राजा पर अत्यन्त क्रोधित हो बाण तान लेते हैं। निहत्थे राजा को बन्दी बना लेते हैं। पूरे कोष पर अधिकार कर लेते हैं तथा पुल का दरवाजा खोल दिया जाता है। रातों-रात सारी सेना लंका में उतार दी जाती है।
क्रमशः.....