साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

राम-रावण युद्ध

    राम लंका में सुरक्षित पहुँच जाते हैं। उनके साथ धर्म, निष्काम योग रूपी हनुमान हैं। मित्र सुग्रीव तो, धर्म की धुरी जामवंत, निर्माण रूपी कर्तव्यपरायण नल-नील, श्रद्धासमर्पण रूपी विभीषण हैं। सभी को साथ ले लंका के सुबेल पर्वत पर राम पहुँच जाते हैं। वहीं डेरा डाल राम सभी का समुचित आदर कर मन्त्रणा करते हैं। उधर लंकेश अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों से व्यर्थ युद्ध नहीं करने का आदेश देते हैं। आयी हुई सेना का भी खाने-पीने, ठहरने की उचित व्यवस्था का प्रबन्ध किया जाता है। राम एवं वानर गण सुन्दर लंका को देखकर मोहित हो जाते हैं। ऐसी निर्माण कला, महल, सड़क, पार्क, बगीचा, वन, उपवन, सरिता, तालाब, पशु-पक्षी सभी का निर्माण मानो प्रकृति ने स्वयं किया हो। ऐसा नगर त्रिलोक में कहीं भी नहीं था। इससे भी सिद्ध होता है कि हनुमान के द्वारा केवल आयुध-शस्त्रागार के ठिकानों पर ही आग लगाई गयी थी। लोहा तथा सोना, हीरा, मोती से निर्मित लंका का जलना भी स्वाभाविक नहीं है। खैर जो हो यह हरि लीला है। लीला में दोनों तरफ के पात्र सामने स्टेज पर भयंकर लड़ाई लड़ते हैं। एक-दूसरे की जान के प्यासे होते हैं परन्तु परदे के पीछे दोनों प्रसन्नचित्त साथ-साथ रहते हैं। इसी से इसे लीला कहते हैं। करने वाले पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। देखने वाले इसे ही सत्य समझ कर आँसू बहाते हैं। करने वाले आँसू बहाने वाले पर सोचते हैं। बन्दर सेना लंका पर आक्रमण कर देती है। युद्ध शुरू हो जाता है। दोनों पात्र अपना-अपना पाठ शुरू कर देते हैं। मेघनाद राम-लक्ष्मण को दो-दो बार नागफाँस में बाँध देताहै, लक्ष्मण को मूर्छित भी कर देता है। गरुड़ से हनुमान नागफाँस कटवाते हैं तो कभी लक्ष्मण की मूर्छा, शबरी के फेंके गये प्रसाद को जो संजीवनी बूटी के रूप में पैदा हो जाता है, को देकर दूर की जाती है। हनुमान द्वारा धूम्राक्ष का वध किया गया। इस तरह वज्रदन्त, अकम्पन, प्रहस्त भी युद्ध में मारे जाते हैं। अहिरावण राम-लक्ष्मण को उठाकर ले जाता है, जिन्हें हनुमान के द्वारा छुड़ाया गया। नरान्तक, त्रिशिरा, अतिकाय, सत्यकेतु भी मारे जाते हैं। पुनः मेघनाद वानरी सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। कुम्भकरण रूपी निद्रा से युद्ध होता है तो इन्द्रजीत माया की सीता का वध कर राम के सामने फेंक देता है। राम विकल हो क्रन्दन करने लगते हैं। विभीषण के द्वारा सान्त्वना दी जाती है। चूँकि वे जानते थे कि किसी भी परिस्थिति में सीता को कोई हाथ नहीं लगायेगा। भले ही पूरी लंका बर्बाद हो जाये। रावण नीतिज्ञ थे। राम को विश्वास हो जाता है। पुनः युद्ध करने लगते हैं। मेघनाथ को पूजा, ध्यान यज्ञ करते हुए ही विभीषण की मदद से लक्ष्मण मार देते हैं। जबकि वह स्थान और समय दोनों उचित नहीं था। मकराक्ष कुम्भ भी मारे जाते हैं। इस तरह युद्ध में दोनों तरफ के पात्र कभी हँसते तो कभी विलाप करते हैं। अन्त में युद्ध में आते हैं महाराज रावण। भयंकर युद्ध होता है। लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं। हनुमान जामवंत होश दिलाते हैं। रावण युद्ध में सभी को त्रस्त कर देते हैं। उन पर बाण काम ही नहीं करता। सिर कटता, भुजा कटती, किन्तु पुनः आ जाता। यह तप का प्रभाव था। अन्त में विभीषण की मदद से राम रावण को मारने में सफल हो जाते हैं। रावण घायल अवस्था में भी राम पर अपशब्द का प्रयोग नहीं करते बल्कि राम के पूछे जाने पर नीति शास्त्र ही सिखाते हैं।

    रावण की नाभि में अमृत था। यानी खेचरी सिद्ध व्यक्ति थे। वे मरते नहीं। शरीर का परित्याग करते हैं।

"नाभि कुण्ड पियुष बस याके। नाथ जिअत रावनु बल ताके ॥"

   जब रावण का शरीर घायल हो गया। अहंकार गिर गया तब सुना कि राम प्रचार कर रहे हैं कि मैंने रावण को मार दिया। तब वह कहता है कि कौन किसको मारता, कहाँ मरता, ज्ञानीजन आत्मपद में स्थित हो शरीर बदल लेते हैं।

"कहाँ रामु रन हतौं पचारी।"

    अतएवं रावण आत्म में स्थित हो, रामाकार हो शरीर छोड़ते हैं। रावण तपनिष्ठ विद्वान्, धर्मपरायण होते हुए अहंकारी हो गये थे। विभीषण श्रद्धा के पात्र होते हुए भी महत्वाकाँक्षी एवं राज्य के लोलुप थे। कुम्भकरण निष्काम कर्म होते हुए भी निद्रा तथा भूख के वशीभूत थे। नरांतक शरीर अहिरावण सर्वसम्पन्न होते हुए भी लक्ष्मी (धन) के भूखे तथा कर्मकाण्डी थे। मेघनाद अप्रतिम योद्धा, तपस्वी होते हुए भी पितृ मोह में फँसा था। खरदूषण वगैरह क्रोध, असन्तोष के प्रतीक थे। जिन्हेंज्ञान रूपी साधक को अपने सहयोगियों के साथ उन्हीं के घर पर जाकर मारना पड़ता है। तब उन्हें मिलती है अपनी खोयी हुई सीता।

   राम का अयोध्या आना

    सीता के उपलब्ध होते ही साधक ज्ञान वैराग्य के पंख रूपी पुष्पक विमान से धर्म, मित्र, श्रद्धा, ऋद्धि-सिद्धि के साथ अयोध्या आ जाते हैं। जहाँ अब युद्ध की सम्भावना नहीं है। साधक शान्त हो जाता है जिससे भक्ति रूपी भरत स्वागत करता है तो विवेक रूपी शत्रुध्न डोलाता है। अब अंग-प्रत्यंग आनन्द से प्रफुल्लित हो उठता है। हनुमान रूपी धर्म भी नाच उठता है। धर्म भी मूकदर्शक हो जाता है। मित्र सुग्रीव, श्रद्धा विभीषण भी उपहार प्रदान करता है। अब होती जय जयकार राम कौ। हो जाता है निर्विघ्न राज्यारोहण। सभी प्रजा रूपी साधक का रोम-रोम आनन्द से नाच उठता है। पूरा ब्रह्माण्ड ही मानो साधना में उतर आया हो। मानौ अब वही सृष्टि का नियंता हो। सभी प्रफुल्लित आनन्दित हो उठते हैं। अब हो जाता है स्वतः ही राम राज्य।

    वह साधक क्षणमात्र में पूरी सृष्टि से मिल लेता है या सभी को अपने में ही देखता है। यह रहस्य अन्य कोई कैसे जान सकता है।

"छन माहि सबहि मिले भगवाना।

उमा मरम यह काहू न जाना ॥"

    अब साधक के शरीर रूपी अयोध्या में नित नये मंगलोत्सव होने लगते हैं। सभी हर्षित हो उठते हैं।

"नित नव मंगल कौशल पुरी।

हर्षित रहहिं लोग सब कुरी॥"

   अब साधक का ईश्वर तथा जीव का अद्वैत भाव भी समाप्त हो जाता है।

"जो सब के रह ग्यान एकरस।

ईश्वर जीवहि भेद कहहू कस॥"

    साधक सोऽहमस्मि यानी यह जो अखण्ड वृत्ति है वही परम प्रचण्ड दीपशिखा है। इस प्रकार जब आत्मानुभव के सुख का अन्दर प्रकाश फैलता है तब संसार के मूल, भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है। यथा-

"सोऽहयस्मि इति वृति अखण्डा। द्वीप शिखा सोई परम प्रचण्डा।

आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा। तब भव भूल भेद भ्रम नासा ॥"
    यदि साधक रामायण के पात्रों को अपने अन्दर ही समझने का कष्ट करे तो वास्तविक परिवर्तन सम्भव है। रामायण का अर्थ भी राम का घर, राम का मन्दिर ही होता है। हम मात्र रामायण का पाठ कर या रामायण की पूजा कर इतिश्री समझ लेते हैं। जो बहुत धार्मिक है वह रामलीला का गठन कर पूरी तरह बहिर्मुख होने का उपक्रम कर लेता है। बहिर्मुख व्यक्तियों से बहुत ही नुकसान हुआ है इस जगत् को। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर राम-रावण युद्ध हो रहा है। जो भी व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेता है उसके अन्दर रामत्व की विजय होती है। जो भी व्यक्ति इनसे हार जाता है उसके अन्दर रावणत्व विजयी हो जाता है। अभी इस पृथ्वी पर इन्हीं की संख्या अधिकतम है। हम ऊपर-ऊपर से धार्मिक हैं, नीतिज्ञ हैं, निष्पक्ष हैं। निष्काम योगी हैं। अवसर आते ही सभी भाग खड़े होते हैं। सामने होते हैं काम, क्रोध, अहंकार, लोभ फिर जनमानस में, स्टेज पर प्रवचन देंगे इनके विरोध में। अन्तः मन काम करता है इनके पक्ष में। यही है अधिकतम जनमानस की स्थिति। रामत्व को उपलब्ध हुआ जा सकता है। उपलब्ध होना ही तंत्र है। जीवन जीने की कला है। रामत्व उपलब्ध व्यक्ति ही समाज सेवा में भी सार्थक भूमिका निभा सकता है। आप अपने में रामत्व को उतारने हेतु तंत्र की कला को पहचानें अन्यथा राम-राम कहते जीवन चला जायेगा। चले थे कुछ पाने परन्तु गँवाना ही पड़ता है। राम के रामत्व को ठीक से समझने के लिए उचित गुरु-निर्देश में तंत्र में, उतरना ही श्रेयस्कर है।

  राम दरबार

     राम दरबार में सभी लोग प्रसन्न हैं। सानन्द हैं। भगवान राम अपने सभी भाइयों एवं उनकी पत्नियों से पूछते हैं कि आपको क्या चाहिए? एक-एक कर क्रमशः सभी भाई से पूछते हैं। सभी प्रसन्नता से सिर हिलाकर उत्तर देते हैं। हमारे पास सभी कुछ है। आप हैं बस यह काफी है। तत्क्षण माण्डवी कहती है- हे भगवन, मैं कुछ माँगना चाहती हूँ, आप वादा करें कि देंगे ही। भगवान कहते हैं, तुम मेरी पुत्री तुल्य हो। निस्संकोच माँगों मैं तत्क्षण प्रदान करूँगा।

    माण्डवी कहती है कि हे प्रभु! आप अपना वल्कल हमें प्रदान करें। यह मैं सूर्य वंश की परम्परा आज तक नहीं समझ सकी कि जो वृद्ध पिताश्री वल्कल वस्त्र पहनना चाहते हैं। वे संन्यासी का जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। उन्होंने मृत्यु को स्वीकार किया। जिन्हें राज मुकुट दिया जाना था, राजसी वस्त्र पहनना था, वे वल्कल वस्त्र धारण कर जंगल के लिए प्रस्थान कर गए। अतएव मैं वही वल्कल वस्त्र लेना चाहती हूँ जिससे भावी सूर्य वंश उसे न धारण कर सके। भगवान राम के आँखों में आँसू आ गये। अपने पुत्री तुल्य माण्डवी की माँग पूरी नहीं कर सके।

    इस बात को मोड़ते हुए भरत जी भाई लक्ष्मण से बोले-कि अपनी यात्रा का कोई ऐसा दृष्टांत बताएँ जो आपकी यात्रा में स्मरणीय है। चूँकि आपने भगवान केसाथ चौदह वर्ष तक यात्रा ही की। 
  लक्ष्मण सोच समझ कर बोले कि एक दिन मेघनाद ने मुझ पर शक्ति बाण चालाया था। मैं बेहोश था। भक्त हनुमान जी ने मुझे गोद में उठा कर भगवान राम के गोद में रख दिया। यह यात्रा मैंने नहीं की परन्तु यात्रा पूरी हुई। मेरी यही यात्रा स्मरणीय है। सभी भाव से भर गये। सभी की आँखें नम हो गर्यो। हाँ यही यात्रा वास्तविक है।

    शत्रुघ्न जी ने हनुमान जी से पूछा कि आप अपना संस्मरण बताने की कृपा करें। हनुमान जी ने कहा कि भाई लक्ष्मण को शक्ति बाण लग गया था। मैं संजीवनी बूटी लाने के लिए हिमालय पर आ गया था। अर्द्ध रात्रि को प्रभु विलाप कर रहे थे। मैं उस समय पर्वत लेकर अयोध्या के ऊपर से उड़ रहा था। मेरे मन में अहंकार का जन्म हो गया कि यदि मैं नहीं रहता तो लक्ष्मण की मृत्यु हो जाती। प्रभु के प्रत्येक कार्य में मैं ही मददगार हुआ। मेरे मन में अहंकार का उदय होना था कि भरत भाई का बाण मेरे हृदय में लगा। मैं घायल मूर्छित होकर अयोध्या के धरती पर गिर गया। मैंने सुना था कि भगवान अपने प्रिय भक्त के मन में अहंकार उदय होते ही उसे साफ कर देते हैं।

      मुझे होश आया। भरत जी ने अपना परिचय दिया। मैंने अपने कार्य एवं लक्ष्मण जी के शक्ति बाण के सम्बन्ध में बताया। अब भरत जी भाई के वियोग में विलाप करने लगे। मैं अभागा हूँ। पापी हूँ। भगवान के हर कार्य में बाधा उत्पन्न करता हूँ। है हनुमान जी! शीघ्र ही आप मेरे बाण पर बैठें। मैं आपको लंका में भेज दूँ। मैंने कहा आप धैर्य रखें। भगवान ही सभी कुछ करते हैं। मेरा नाम होता है। साथ ही मेरे अहंकार को भी धोते हैं। सामने श्वेत वस्त्र में अश्रुपूरित नेत्रों वाली महिला कौन है? भाई यही है कलंकिनी कैकयी। जिसके कारण सम्पूर्ण अयोध्या वीरान हो गई। हम लोगों की स्थिति यह बन गयी। मैंने जाकर माता कैकयी का पैर स्पर्श किया-पूछा माता जी राम जी को कुछ संदेश देना है।

     हाँ पुत्र हाँ। मैं ही अभागिन हूँ। परन्तु मेरे ज्येष्ठ पुत्र राम से कह देना कि मेरी पुत्री जानकी एवं पुत्र लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे। मैं उसे राज तिलक करना चाहती हूँ। यदि वह युद्ध से थक गया है, तो मुझे संदेश देना। मैं क्षत्राणी हूँ। युद्ध करना जानती हूँ। महाराज के साथ देवासुर संग्राम में गयी हूँ। देवताओं को भी विजयी कराया है। मैं युद्ध भूमि में उतर जाऊँगी। रावण के साथ सारी सेना पर भारी पदूँगी। मैं मति मंद हैं। भाग्य की मारी हूँ। परन्तु पुत्र राम, लक्ष्मण, पुत्र वधू जानकी मुझे प्राणों से प्यारे हैं। यदि इन्हें कुछ हो गया तो मैं काल से भी युद्ध करूंगी।

    हनुमान जी आगे बढ़े-श्वेत वस्त्र में गौर वर्ण वाली श्वेत केशी महिला के पासजाकर खड़े हुए। भरत जी ने कहा यही माँ सुमित्रा है। लक्ष्मण की माता श्री। मैंने उनका भी पैर स्पर्श कर प्रणाम किया। उनसे पूछा माता श्री आपको कुछ संदेश देना है। हाँ पुत्र। आज मैं प्रसन्न हूँ। मेरा पुत्र बड़े पुत्र राम की रक्षा में घायल हुआ है। यदि राम घायल हो जाते तब मैं कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहती। लक्ष्मण से कह देना कि मेरे दूध की लाज रखना। सीता-राम की आन-शान पर किसी तरह की आँच न आवे। उन्हें मैं अपने आँखों से राजगद्दी पर बैठा देखना चाहती हैं। यही मेरी अन्तिम अभिलाषा है। इसे पूरा करा दें।

हनुमान जी आगे बढ़े। भरत जी ने कहा यही है-राज माता कौशल्या। पर्स तपस्वनी। भरत की भी माता। मैंने उन्हें भी पैर छूकर प्रणाम किया। पूछ माता श्री आपको कुछ संदेश देना है। हाँ पुत्र! राम से कह देना कि हमारे दूध की लाज रखेगा। उसे अयोध्या आना है तो मेरे प्यारे पुत्र लक्ष्मण एवं पुत्र वधू जानकी के साथ आये अन्यथा वह वापस ही क्यों आयेगा ?

हमें यह सुन कर देखकर आश्चर्य भी हुआ और हर्ष भी। इस राम परिवार को कौन हरा सकता है? सभी एक चट्टान की तरह अटल हैं। मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा- "जहँ सुमति तहँ सम्पति नाना।"

भगवान राम भी अपने समाज में प्रति दिन सत्संग करते हैं। वे कहते हैं- (ऊ

का०रा०च० मा०)

"बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सद ग्रंथन्हि गावा। साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाई न जेहि परलोक सँवारा॥"

अर्थात बड़े भाग्य से मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह

शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधना का धाम है। मोक्ष का द्वार है। इसको

पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया उसका तो यह जीवन व्यर्थ ही गया।

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरूत अनुग्रह मेरो ॥

करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥

यह मनुष्य का शरीर सागर से तारने के लिए जहाज है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्‌गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार हैं। इस प्रकार दुर्लभ साधन सुलभ

होकर मनुष्य को प्राप्त हो गये हैं।

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाई। सो कृत निंदक मंद मति आत्माहन गति जाई ॥

जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मन्द-बुद्धि है और आत्म-हत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।

इस सत्संग में गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मण और अन्य गण मान्य जन आये थे। जिसे सुनकर सब ने भगवान राम के पैर पकड़ लिये एवं समर्पित हो गये।
   सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपा धाम के॥ जननी जनक गुरु बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥ हे कृपा निधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई, सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं।

एक दिन एकान्त पाकर अकेले वशिष्ठ मुनि आए एवं भगवान राम से बोले- राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपा सिंधु बिनती कछु मोरी ।। देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदय अपारा ॥

अर्थात् वशिष्ठ मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपा सागर श्रीराम जी ! मेरी विनती सुनिये ! आपके आचरणों को देख-देख कर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है।

महिमा अमित बेद नहि जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ।। उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा ॥

हे भगवान! आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ? पुरोहिती कर्म बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं।

जब न लेउँ मैं तब विधि मोही। कहा लाभ आगे सुत तोही ॥ परमात्मा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा ॥

जब मैं पुरोहिती का काम नहीं लेता था, तब ब्रह्मा जी ने मुझे कहा था- हे पुत्र ! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल भूषण राजा होंगे।

वशिष्ठ जी आगे कहते हैं है राम। जिस पर आपकी कृपा हो वही श्रेष्ठ है। जिसके हृदय में आपके प्रति प्रेम है वही भक्त है। आप से एक ही वर माँगता हूँ, कृपा कर दीजिये। प्रभु आपके चरण कमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में कभी न घटे।

इससे यह परिलक्षित होता है कि वशिष्ठ जी ने अपना कर्मकाण्ड छोड़ कर श्री राम को सद्‌गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया।

"नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।

जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥" सद्‌गुरु कबीर ने भी कहा है- "वशिष्ठ गुरु कीन्ह रघुनाथा।"

गुरु ही मानव संस्कृति की श्रेष्ठ धरोहर है। जिसने राम राज में उच्चतम स्थिति को प्राप्त किया। चूँकि गुरु के ही खड़ाऊँ की पूजा होती है। भरत जी यह पहले ही कर चुके थे। भगवान राम ने गुरु परम्परा के माध्यम से परम पुरुष को उपलब्ध होने के तंत्र को अग्रगति प्रदान की। हम जैसे ही समय के सद्‌गुरु को समर्पित होते हैं, वह हमारे योग्य तंत्र विधि को प्रदान करता है। जिससे सच्चा साधक (शिष्य) शीघ्र ही विकास के उच्चतम शिखर आत्मोपलब्धि को प्राप्त कर लेता है। जहाँ शिष्य गहन परितोष का अनुभव करता है। गुरु को संसार के तथाकथित आदशों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वह शिष्य की चिंता करता है कि कैसे एवं किस तंत्र विधि से वह अपने स्वरूप को उपलब्ध हो सकता है। यही विधि है तत्कालीन सद्‌गुरु भगवान राम की।

क्रमशः....