साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

इसे गुरु अनुकंपा ध्यान कहते हैं जो मन चंचल है, उसका आधार जरूर स्थिर होगा। गाड़ी दौड़ती है, परंतु जिस पर दौड़ती है, वह सड़क जरूर स्थिर है। गाड़ी के मध्य धुरा जिस पर चक्का दौड़ता है, वह स्थिर होता है। जिस छूट पर बछड़े दौड़ते हैं, वह खूंटा स्थिर है। सागर के ऊपर लहरों की उत्ताल तरंगें उठती हैं, गिरती हैं, लेकिन सागर अन्तः तल स्थिर होता है। बच्चा दौड़ता है, तो वह खड़ा भी हो सकता है। इससे आप ऐसा समझें कि मन में स्थिर होने की शक्ति मौजूद है, तभी वह चंचल हो सकता है। अन्यथा मन-मन करते सुर, नर, मुनि में गिर जाते हैं। मन-मन करते परेशान रहते हैं। चूंकि मन के दस द्वार हैं। जैसे चक्का चलता है उसका आधार धुरा स्थिर है। उसी तरह मन का भी आधार स्थिर है। चंचल मन को शान्त होने के लिए एक देशीय मन को व्यापक रूप से सत्तावान होने के लिए कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि उसका आधार ही शान्त है। आप इसकी चंचलता के जड़ में पहुंच जाएं; फिर आप शान्त हो जाएंगे। जैसे आप समुद्र तल पर बोरिंग कर दीजिए फिर चाहे जितने बड़े मोटर से पानी निकालिए, पानी खत्म नहीं होगा। समस्त सम्भावनाओं का क्षेत्र आज्ञाचक्र है। आत्मा है। वहीं रुक जाना ही समुद्र तल पर पहुंच जाना है। यह विज्ञान समस्त ज्ञान के द्वार को खोलता है। आज्ञाचक्र शान्त प्रशान्त चेतना में पुरुषत्व का साक्षित्व और प्रकृति की क्रियाशीलता दोनों साथ-साथ जगती है। जिससे आधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों का विकास बराबर होता है। साधक प्रकृति और पुरुष की नित्य ध्यान करता हुआ अपने जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। वह अपने जीवन में शान्ति, आनंद को उतार कर दूसरे के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। यही तप है ।

अव व्रत क्या है? जब साधक आनंद में स्थिर हो जाता है। वह सांसारिक वृत्तियों से नहीं गिरता है। सुख-दुःख में समभाव हो जाता है। गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा हो जाती है। उसे किसी कीमत पर दांव पर नहीं लगाता है। जो हो रहा है वह उसकी अनुकंपा का फल है ब्राह्मी भाव चलायमान नहीं होता है। पंच कोशों से तादात्म्य कर लेता है। यह व्रत है।

दान क्या है? गुरु द्वारा प्रदत्त शक्ति को, विद्या को गुरु के निर्देशन पर अधिकारी गुरु शरणागत व्यक्ति को आत्मा का साक्षात्कार कराकर उनको संशय- विपर्यम से रहित निर्भर कर देना ही दान है। उसकी योग्यता के अनुसार दिव्यास्त्र, देवास्त्र प्रदान कर उसे भी सेवा, सुमिरण के लिए प्रेरित करते रहना ही व्यापक दान है। सद्गुरु किसी भी शिष्य से इसी दान की आकांक्षा करता है। जब तक उसे इस

तरह का पुत्र, शिष्य नहीं मिलता है, वह चिंतित रहता है। अपने काम में अपने को

अपूर्ण समझता है। इन जप, तप, दान करने से ही ब्रह्म विद्या, दृढ़ होती है। वह अपने कर्तव्य को पूरा कर लेता है। वही शिष्य गुरुॠण से उऋण होता है। साधक ऐसा ज्ञानवान पुरुष अपने प्रारबद्ध के अनुसार इच्छा, अनिच्छा पर सुख-दुःखों को भोगता है, अपने गुरु भक्ति से, अपने स्वरूप से कदाचित् विचलित नहीं होता है। द्रोणाचार्य ने कहा, हे प्रभु! आपके उपदेश से मन शान्त हो गया। अब इसके व्यावहारिक पक्ष को अपने में उतारना चाहता हूं। इसके पूर्व एक संशय उत्पन्न हो गया है। इसका निवारण चाहता हूं।

आपके विचार से कृष्ण समय के सद्गुरु थे। फिर उन्हें उस समय मैं क्यों नहीं पहचाना? क्यों नहीं उनके शरण में आत्म समर्पण किया? क्यों मुझे अभी तक भटकना पड़ रहा है? उस समय का पुरुष वर्ग क्या उच्च वर्ग के लोगों ने कृष्ण को क्यों नहीं गुरु माना? उनका गीता एवं विराट रूप सुनते तथा देखते हुए भी क्यों नहीं देखा ? उस समय भी हम लोग तथाकथित कुलगुरु या तथाकथित शास्त्री, वेदांती के पीछे क्यों भागते रहे ?

उत्तर- हे आचार्यवर! ध्यान से सुनो। आपके अंदर से प्रश्न ऐसे निकलते हैं, जैसे युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के मन से या जैसे वृक्षों के तनों से पत्ते निकलते हैं। आप एक साथ अनेक प्रश्नों का उत्तर चाहते हैं। इसका अर्थ है, आप अंदर से व्याकुल हो गए हैं। समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहते हैं। जो समय बीत गया उस पर घोर पश्चात्ताप कर रहे हैं।

समय के सद्गुरु को कोई भी कभी भी नहीं पहचानता है। संपूर्ण सृष्टि में कुछ लोग पहचान लें वह काफी है। समय का सद्गुरु अति कारुणिक, दयालु होता है। वह सामने से गृहस्थ नजर आता है। उद्योगी दृष्टिगोचर होता है। पीछे से विरक्त दिखाई देता है। वह करुणावश समय से पहले आ जाता है। उस समय जनमानस उन्हें सहने के लिए तैयार नहीं होता है। सभी सामने से देखते हैं। वह उनके नजरों में उलझे ज्यादा संग्रही, गृहस्थ दूसरा दिखाई ही नहीं देता है। फिर पीछे मुड़कर देखने का कौन साहस करता है। वह अपने से आक लेता है कि हमसे भी बड़ा स्वार्थी है। संग्रही है। जबकि उसका संग्रह लोकहित में होता है। जैसे ही वह पूर्व स्थान को छोड़ता है। फिर वह नहीं देखता। पीछे से पूर्ण विरक्त है।

साधारण गुरु, धर्म गुरु, पुरोहित समय के साथ आता है। वह थोथा होता है। दूर-दूर तक उसे धर्म से, भगवान से संबंध नहीं होता है। वह लंगड़ा होता है। बैसाखी के सहारे चलता है। परमात्मा एवं आत्मा के संबंध में रेडीमेड उत्तर रामायण, पुराण, वेद से देता है। यही उसकी बैसाखी होती है। यह भी उसे उत्तराधिकार में मिलती है। उसके पास लम्बे समय तक गुड़विल होती है। पूर्व के सद्गुरु के लाश पर मंदिर बनाकर उन्हीं के वाणी को अपने ढंग से तश्तरी में पेश करना जानता है। यह मुर्दा होता है। जगत् को मुर्दे से भय नहीं होता है। वह मुर्दे को पूजना जानती है। वह राख होता है। राख को मस्तक पर मलना जानता है। उसे पोटली में बांधकर बक्से में रखना जानता है। समय के नब्ज को जानता है। उससे समाज में कोई क्रान्ति की सम्भावना नहीं है। कोई भय नहीं है। सभी मुर्दे-मुर्दे से समझौता करने के आदी हैं।

क्रमशः.....