साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
???? अंदर से आवाज आई। कृष्णा कृष्णा बाहर क्यों वर्षा में भीग रहा है? किवाड़ खुला है। अंदर आ जाओ। मैं धीरे से किवाड़ खोला। अंदर गया। तिल के तेल में छोटा सा दीपक जल रहा था। अंदर स्वर्णिम प्रकाश फैल रहा था। गुरुदेव पद्मासन मैं बैठे थे। मैं उनके खड़ाऊं पर सष्टांग प्रणाम किया। उन्होंने आशीर्वाद मुद्रा में अपना हाथ सिर पर रखते हुए बोले-ओह। बैठ जाओ। भीगा वस्त्र पहन रखा है। रात्रि का नौ बज रहा है। आश्रम में कोई नहीं है। जबसे तुम समाधि में पहुंचे हो, तभी से इन्द्र देवता का आगमन हुआ है। वे तुम्हारा स्वागत कर रहे हैं। नागदेवता भगवान भूतनाथ के प्रतिनिधि है। वर्षा की वजह से आज जल्दी ही सभी लोग चले गये।
मैं तो गुफा में तुम्हारे ही साथ था। फिर यहां आने की क्या जरूरत थी। आज तुम्हारी साधना पूर्ण हुई। क्या तुम कुछ पीना चाहते हो ? इतने में दरवाजा खुला। एक अत्यंत सुंदर लड़की अंदर प्रवेश की उसके गौर वर्ण के प्रकाश से मंदिर प्रकाशित हो गया। वह गुरुदेव को नमन की गुरुदेव ने कहा मां तुम मेरी मां हो। दादी हो। मेरे पूर्वजों की बहू हो। मेरे लिए वंदनीय हो। इस कुर्सी पर विराजो। वह मुस्कराते हुए बोली, स्वामीजी आप ठीक कहते हैं। परंतु बुद्ध पुरुष इन बंधनों, रिश्तों से ऊपर होते हैं। आप बहुत ऊपर हैं। आपका शिष्य भी आपका स्वरूप ग्रहण कर लिया।
गुरुदेव गम्भीर होकर बोले- मां। मैं मां-पुत्र का रिश्ता नहीं निभा सकता हूँ। तुम मेरे पूवर्ज राजा शांतनु की वधू हो। भीष्म पितामह की मां हो। मैं नित्य तुम्हारे अंदर अपनी गंदगी धोता हूं। तुम पुत्रवत मेरा पालन करती हो देखो इस अंधेरी रात में जब कि सभी छिपे हैं। तुम भीगती हुई अपने पुत्र के लिए करुणावश कुछ खाद्य पदार्थ लाई हो। एक हाथ में स्वर्ण थाल जिसमें पावष होगा। दूसरे हाथ में स्वर्ण पात्र जिसमें अमृत रस होगा। तुम धन्य हो मां कृपया बैठ जाओ। गुरुदेव दोनों हाथ ऊपर उठा कर दोनों पात्र को पकड़ना चाहें। मां ना-ना करते हुए मेरे सामने जमीन पर बैठ गयी। मैं चुप देख रहा था। सुन रहा था। गुरुदेव अपने आसन से उठकर मेरे पीछे जमीन पर बैठ गये। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था मैं एकाएक अपना सिर मां के गोद में रख दिया। मां शीतल हाथों से मेरा सिर सहलाती रही। पता नहीं कितना समय बीता। मां गंगा मेरा सिर ऊपर उठाकर बोली, स्वामीजी। आप यह खीर खा लो। मैं अपने हाथों से बनाई हूं।
मैं उनके हाथों से स्वर्ण थाल ले लिया। उसके ऊपर दूसरा स्वर्ण थाल रख कर ढका गया था। ऊपर का पात्र हटाकर गुरुदेव के सामने रख दिया। मां के दूसरे हाथ से स्वर्ण पात्र लेकर उसे भी गुरुदेव के सामने रख दिया। मैं दोनों के मध्य से हटते हुए एक किनारे बैठ गया। मां मुस्कराते हुए मेरे नजदीक खिसक आई। पुत्रवत अपना दोनों हाथ मेरे सिर पर घुमाते हुए बोली। आप कितने महान हो। गुरु भक्त हो मेरे द्वारा प्रदत्त प्रसाद भी गुरुदेव को अर्पित कर दिया। तुम्हारी विश्व- व्यापी कामना गुरुदेव अवश्य पूर्ण करेंगे।
गुरुदेव बोले, आप इसे ग्रहण करो। एक तरफ गुरुदेव दूसरे तरफ मां गंगा । दोनों का बार-बार आग्रह हो रहा है। आप इसे ग्रहण करे। मां का प्यार है। ममता है। मैं प्रथम गुरुदेव को प्रणाम किया। फिर मां को स्वर्ण चम्मच से प्रसाद देने लगा। वह पायष था अमृत। जैसे-जैसे ग्रहण करता वैसे वैसे शरीर नये ऊर्जा से, उमंग से, उत्साह से भरते जा रहा था मैं प्रसन्नतापूर्वक प्रसाद पा लिया। पुनः अमृत से भरा गिलास भी खाली कर दिया। हाथ धोने के लिए बाहर निकलना चाहा। परंतु मां हाथ आगे बढ़ाई। उसके एक हाथ में स्वर्ण लोटा था। जिसमें गंगा का निर्मल जल भरा था। दूसरे हाथ में चांदी का बड़ा कटोरा था। बोली आप हाथ इसमें धोइये। मैं न चाहते हुए भी ऐसा ही किया। मां पुत्रवत अपने ही आंचल से मेरा मुंह पोंछी तथा हाथ पोछने के लिए आंचल ही आगे बढ़ा दी। मैं ऐसा नहीं करना चाहता था। वह मेरा हाथ स्वयं अपने आंचल से पोंछ दी। इसके साथ ही वह सारे पात्रों को लेकर जय गुरुदेव कहते हुए बाहर निकल आई। दरवाजा स्वतः बंद हो गया।
गुरुदेव बोले- मैं शौच को जा रहा हूं। प्रातः का तीन बजने वाला है। मैं चौंक गया। क्या प्रातः हो गया। संध्या का नौ बज रहा था जब मैं आया था। पर इस दृश्य में तीन बज गया। समय इतना छोटा होता है। या समय में पंख लग गया है। मैंने भी गुरुदेव का ही अनुसरण किया।
????सिद्धाश्रम से विरक्ति आसक्ति????
????जयेष्ठ पूर्णिमा 1974 की रात्रि थी। काशी में कबीर जयंती धूम-धाम से मनायी गयी थी। मैं दिन में काशी कबीर चौरा से ही लौटा था। मन विरक्ति से भरा था। अपना पराया दिखाई दे रहा था। सांसारिक संबंध साम, दाम, दण्ड, विभेद पर टिका हुआ दिखाई दे रहा था। पारिवारिक संबंध भी अर्थ पर टिका प्रतीत हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया। एक तरफ मैं अध्यात्म के शीर्ष पर पहुंच गया था दूसरी तरफ संसार में बुरी तरह विफल समझा जा रहा था। चूंकि अपने परिवार आस-पड़ोस में मैं विज्ञान से उच्चतम शिक्ष प्राप्त कर नौकरी छोड़ कर साधुता के चक्कर में पड़ा था। शादी हो चुकी थी। सभी को छोड़ कर विरक्त भाव से घूम रहा था। मेरे परिवार के, मेरे गांव के आस-पास के, रिश्ते के सभी मुझे हेय नजर से देख रहे थे। यह पढ़-लिखकर कुछ कर सकता था। पागल की तरह साधुओं के चक्कर में घूमता है। मेरे परिचित लोग मुझसे बातें करना ही बंद कर दिये थे। मेरे लिए यह स्थिति उत्तम थी। मैं पूर्ण विरक्त था ।
मुझे ऐसा भान हो रहा था कि जगत् का प्रत्येक सदस्य अर्थ से जुड़ा है। किसी को दूर-दूर तक परमात्मा का प्यास नहीं है। मैं ही एक पागल हूं। जो अपने में मस्त हूं। दूसरे तरफ मैं शक्ति से ओज से भरा था। ऐसा प्रतीत होता था कि जगत मेरे इशारे पर चल रहा है। चलेगा। जगत् का केंद्र बिंदु मैं ही हूं। परमपुरुष पूर्ण रूपेण मुझ में ही रहता है। यह भी कहना द्वैत का भान है। जो मैं सोचता वह कार्य रूप में परिणत हो जाता था। जिसे कुछ कहता वह पूरा हो जाता था। दूसरी तरफ समाज से वितृष्णा होने लगी। आज निश्चित कर लिया था कि सद्गुरु देव का आश्रम छोड़कर मैं सुदूर हिमालय के किसी कंदरा में बैठ कर समाधि में शेष जीवन व्यतीत करूंगा।
अर्द्ध रात्रि का समय था । चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशमय था। आकाश साफ था। मेरे आंखों में मात्र हिमालय दिखाई दे रहा था। मैं तुरंत तिल के तेल का दीपक जलाया। गुफा में ही गुरुदेव के नाम से पत्र लिखा। जिसका सारांश था, गुरुदेव जगत् स्वार्थ पर खड़ा है। सभी स्वार्थवश एक दूसरे से जुड़े हैं। यदि स्वार्थ पूरा हो
गया नहीं पूरा हुआ दोंनो स्थिति में संबंध-विच्छेद होता है। यहां 36 का रिश्ता है। इन परिस्थितियों में मैं हिमालय जा रहा हूं। यह भी सत्य है कि इस पृथ्वी पर आपके सिवा मेरा कोई दूसरा नहीं है। परमात्मा को भी दूसरे स्थान पर मानता हूं। हर समय आप एवं आपका ही शब्द मेरे मन-मस्तिष्क, हृदय में गूंजता है। आप हमें क्षमा करेंगे। रात्रि का बारह बज रहा है। आज मैं अनजान, अज्ञात हिमालय की गोद में सदा के लिए जा रहा हूं। आपका आशीर्वाद हमारे साथ रहेगा ही।
मैंने अपना खड़ाऊं बगल में, दबाया, एक धोती, एक लंगोटी, एक गमछा, एक जलपात्र लेकर धीरे से गुफा से बाहर निकला। गुफा पर सांकल चढ़ा दिया। सोचा गुरुदेव ढाई-तीन बजे जागते हैं। शौच के बाद नेती, धोती, बस्ती करते हैं। तब गंगाजी जाते हैं। इतने समय में मैं दूर चला जाऊंगा। मैं गुफा से ही गुरुदेव की तरफ मुंह कर साष्टांग प्रणाम किया। कानों में आवाज सुनाई दी कृष्णा-श्रीकृष्ण। मैं चौंक गया। यह क्या? मैं सम्मोहित होकर उनके कक्ष के तरफ बढ़ता गया। अंदर से आवाज आई। किवाड़ खुला है। आ जाओ। मैं किवाड़ को धक्का दिया, खुल गया। साहेब बंदगी की। उन्होंने कहा दीपक जला दो। मैं दीपक जला दिया। फिर बोले हमारी मसहरी उठा दो। वे अंदर पद्मासन पर बैठे थे। मैं आज्ञा का पालन करता गया। मेरी सोच शक्ति समाप्त हो गयी थी। तुम मेरे लिए जो पत्र लिखा है वह लेते आओ। मैं गुफा में लौटकर गया। पत्र लाया। उन्होंने कहा, तुम्हारा पत्र- लिखना, मेरा पढ़ना, साथ-साथ हुआ है। इसे दीपक को समर्पित कर दो। मैं वैसा ही किया पत्र जल गया।
गुरुदेव ने कहा, सामने बैठ जाओ मैं पद्मासन में चुप बैठ गया। उन्होंने कहा, क्या जगत् के प्रति तुम्हारा उत्तरदायित्व समाप्त हो गया ? जिस पृथ्वी पर पैदा हुआ है, उनके प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है? क्या अपने शेष संस्कारों को समाप्त कर लिया? क्या तुम्हारे प्रति कुछ लोगों की अपेक्षाएं हैं-वह पूर्ण हो गया ? हिमालय में जन्म लिये सिद्धार्थ उन्हें बुद्धत्व मिला गया में क्या भगवान महावीर, राम कृष्ण, कबीर, नानक, रामानन्द जी हिमालय में गये हैं किसको हिमालय में रामत्व, कृष्णत्व, बुद्धत्व मिला है। वहां ठंडक मिलेगी। साधारण औरते भी अप्सरा प्रतीत होती हैं। साधु-संत चले थे हरि भजन को, ओटने लगते हैं, काम, क्रोध, लोभ रूपी कपास। तुम्हें क्या करना है? यह मैं जानता हूं। जब यह समझ गया है कि तुम्हारे लिए केवल मैं ही हूं। यह अत्यंत अच्छी बात है। गुरु के प्रति समर्पित भाव ही सर्वोत्कृष्ट है। लोग देवी, देवता, आकाशीय, भगवान के प्रति विश्वास, आस्था तो व्यक्त करते हैं। लेकिन गुरु के प्रति समर्पण तो करोड़ों में एक को होता है जो गुरु को अपना जीवन अर्पित करता है, वही भगवान बनता है। वही संत बनता है। वही सर्व समर्थ बनता है। पूर्ण परमात्मा उसी में उतरता है। अतएव तुम्हें मेरे आदेश का इंतजार करना होगा। तुम गुफा में लौट जाओ।
एक महीने के बाद गुरुदेव ने कहा, तुम्हें पटना जाना है। कल चले जाओ। तुम्हें उद्योग स्थापित करना है। आश्चर्य यह अति आश्चर्य था। मेरे लिए। मेरे परिवार, गांव, रिश्ते के लोग नौकरी किये या खेती। इसके अलावा दूसरा कोई काम नहीं। वह भी उद्योग यह कैसे संभव था।
गुरु आदेश से मैं दूसरे दिन अहरौरा स्टेशन चलने के लिए तैयार हो गया। गुरुदेव को प्रणाम कर आदेश लेने गया। वहां गुरुदेव की एक शिष्या रहती थी। जिसके हाथ आश्रम का मालिकाना था उससे कहा- इन्हें दस रूपये दे दो। वह दस रुपये का एक नोट दी। मैं उसे लेकर गुरुदेव के चरणों में रख दिया। आशीर्वाद लेकर बिना मन का चल दिया। अहरौरा स्टेशन पर मात्र जनता ट्रेन आती है। वह हावड़ा तक जाती है। मैं उसका इंतजार करने लगा। मेरे पास एक पैसा भी नहीं था। अब मैं सोच रहा था कि टी टीई जिस डिब्बे में हो उसी में मैं बैठूंगा। जिससे वह बिना टिकट का हमें पकड़ लेगा। मुगलसराय स्टेशन पर लाकर जेल भेज देगा। फिर एक माह बाद मैं आश्रम में लौट आऊंगा। परंतु अब पतंग की डोरी तो गुरुदेव के हाथों में हो गई थी। जनता ट्रेन आ गई। रुकी। मैं दृष्टि दौड़ाया कि टीटीई किधर है ? तब तक एक टीटीई मेरी तरफ ही तेजी से आ रहा था। वह सामने आकर मेरे पैर छुआ, स्वामीजी गुरुदेव आश्रम पर है न? आप कहां चलेंगे? मैं उपेक्षा से बोला, मैं तुम्हें नहीं पहचानता हूं। वह बोला गाड़ी खुलने वाली है। आप आ जाए। बैठे। मैं अन्यमनस्क कोच में बैठ गया। वह हमारे सामने बैठ गया। मैंने उससे कहा, आप को मैं नहीं पहचानता हूं। मेरे पास टिकट भी नहीं है। वह बोला कोई बात नहीं है। मैं इलाहाबाद से आ रहा हूं। मुगलसराय तक चलूंगा। मुझे ऐसा भान हो रहा था कि गुरुदेव ने कुछ आदेश दिया हैं। वह हमें पूरा करना है।
गाड़ी मुगलसराय पहुंच गई। टीटीई उतरकर चले गये। मैं प्लेटफार्म पर उतर कर अन्य टीटीई के सामने घूमने लगा कि कोई भी तो टिकट मांगेगा। जब कोई नहीं मांगा तब मैं स्वतः उनके पास गया। जहां तीन टीटीई खड़े थे। मैंने कहा, महाशय मैं टिकट नहीं लिया हूं। आप हमें पकड़ें। मैं इसी गाड़ी से आया हूं। दो तीन बार कहा, तब एक झल्ला कर बोला, अरे बाबा जाओ न। अपना काम करें। कौन आपसे टिकट मांगता है। मैं निराश होकर अपने कोच में बैठ गया। गाड़ी खुलने लगी। तभी वह टीटीई आ गया। स्वयं बोला, स्वामीजी हमारी ड्यूटी पटना तक हो गई। चलो आपको पटना छोड़ आयें यह भाग्य दुबारा नहीं मिलेगा। उदास मन से मैं गाड़ी में आगे बढ़ने लगा। वह किसी स्टेशन पर मूंगफली तो कहाँ केला, कहीं अमरूद खदीद कर खिलाता रहा। मैं उससे बातें करना बंद कर दिया। संध्या चार बजे मेरी ट्रेन पटना स्टेशन पर पहुंची। गाड़ी से उतरा। कहाँ जाना है? कहां ठहरना है? कोई निश्चित नहीं। वह व्यक्ति मुझे मुख्य द्वार से बाहर किया तथा एक दर्जन केला, एक किलो सेब 500 रुपये मेरे थैले में जबरदस्ती डाल दिया। मैं बाहर हनुमान जी के मंदिर में गया। दर्शन किया। चबूतरे पर बैठकर विचार करने लगा। रात्रि में कहां रुंकूं। वह व्यक्ति भी मेरे साथ हनुमान मंदिर में आया। वह अंदर चला गया। मैं कुछ देर तक बाहर बैठा रहा। वह वापस नहीं आया। जबकि एक ही दरवाजा था मंदिर छोटा है। कहां जायेगा ? कुछ देर के बाद एक पुजारी आया, वह बोला स्वामीजी यह प्रसाद लें प्रसाद ऐसा क्यों? वह बोला हनुमानजी ने भेजा है। वह पूरे एक किलो प्रसाद सामने रख कर चला गया। मैं उसे भी झोले में रख कर चल दिया। जब गांधी मैदान पहुंचा तो एक बेंच पर बैठ गया। सोचा पटना नगरी में मेरे परिचित, सगे-संबंधी तो बहुत हैं। लेकिन किसी के यहां जाना ठीक नहीं है। बस गुरु शरण में, गुरु के भरोसे ही रहना उचित है। संध्या सात बज गये। मैं पैदल गंगा किनारे आ गया। शौच होकर स्नान किया। गांधी मैदान में पूजा-पाठ ध्यान किया। फल पाकर वहीं घास में सो गया।
प्रातः पुनः उठकर गंगाजी चला गया। स्नानादि से निवृत्त होकर गुरु-पूजा की। मिष्ठान्न एवं फल का आहार लेकर सामने उद्योग भवन में चला गया। वहां उद्योग हेतु आवेदन पत्र दिया। निवास गांधी मैदान ही रखा।
संक्षेप में कहानी है कि जिस अधिकारी के यहां याचिका जाती, उससे मैं कठोर शब्दों में बोलता कि वह मेरा प्रोजेक्ट रिजेक्ट कर दे। उल्टे वह हमारा अनुगामी बन जाता परिचय बढ़ने लगा हमारे लिए पटना में रहने की व्यवस्था भी लोगों ने कर दी। कोई पैसा भी लगाने लगा। इस तरह नहीं चाहते हुए भी सभी कार्य सम्मानपूर्वक होने लगा। मैंने आवेदन उसी दिन (बाबा वैजनाथ धाम) के लिए दिया। सोचा कि सिद्धाश्रम से संबंध काट लूं। आपने पूर्व परिचितों से दूर रहूं। सम्बन्धित अधिकारियों ने मुझसे बिना पूछें जसीडीह अपने काटकर बक्सर लिख दिये। बक्सर में भूमि आवंटित कर दी गयी। इस तरह देखते ही देखते बिना अर्थ, पैरवी, का उद्योग खड़ा हो गया। चल निकला। अधिकारी गण जिसके यहां संचिका जाती, वे शिष्य बनने लगे। सम्मानपूर्ण ढंग से बिना अनुभव का उद्योग चलने लगा। सिद्धाश्रम से जुड गया।????
क्रमशः......