साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????????ज्ञाता ही ज्ञेय है????????

"आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो सन्धि स्थलों पर केन्द्रित होकर ज्ञाता को जान लो।"
में शिव भक्ति की बात कह रहे हैं। इसके पूर्व के सूत्रों में वैज्ञानिक इस सूत्र में बातें की थीं। यह करो, ऐसा हो जायेगा। अब कहते हैं आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो सन्धि स्थलों पर केन्द्रित होकर ज्ञाता को जान लो। साधारण-जन के लिए यह बात सोचनीय है क्योंकि भक्ति तो राम के लिए हो सकती है। कृष्ण के लिए हो सकती है। बुद्ध के लिए या मुहम्मद के लिए हो सकती है। स्व के लिए भक्ति कैसे हो सकती है। परन्तु तंत्र इस शरीर को ही मन्दिर मानता है। तंत्र कहता है जो मन्दिर आदमी बनाता है। वह पत्थर, मिट्टी का है। जो मन्दिर परमात्मा बनाता है वह जीता जागता है। उस मन्दिर में परमात्मा स्वयं बैठा रहता है। जब आप चलते है, परमात्मा चल रहा होता है। जब आप खाते हैं, सोते हैं, स्नान करते हैं। परमात्मा ही कर रहा होता है। जब आप श्वास ले रहे हैं, परमात्मा ही ले रहा होता है। इसी से भारतीय महात्मा सन्त कहते हैं पहले अपने शरीर से प्रेम करो। ऐसा प्रेम करो मानों वह प्रेमिका हो। यह शरीर स्वयं अपने आप में चमत्कार है। चूंकि परमात्मा का जो घर ठहरा। निराशावादी में अपराध भाव होता है। वे इसे पार्यों का भण्डार, गन्दगी का ढेर मानते हैं। तंत्र इसे चमत्कार मानता है। इसे जरा ध्यान से समझना होगा। भीतर जाने वाले श्वास को दो सन्धि स्थलों पर केन्द्रित हो जाना है। बस ज्ञाता को जान लेना है ज्ञाता ही ज्ञेय है। उसे जानने के बाद कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता यह अत्यन्त भक्तिपूर्वक ही सम्भव है। श्वास हृदय तक जब जाता है तब हृदय प्राण को पी जाता है। वही प्राण पूरे शरीर में फैल जाता है। हृदय से ही प्रेम उत्पन्न होता है। श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा ही भक्ति का रूप ग्रहण करती है। अतएव हृदय की अहम् भूमिका है। यहाँ मस्तिष्क को कुछ विश्राम के लिए छोड़ना होगा। अन्यथा वह श्रद्धा की जगह सन्देह पैदा कर सकता है। अतएव भक्ति को अहम् भूमिका होनी चाहिये तब ज्ञाता को जाना जा सकता है।
भारतीय सोच में एवं पश्चिमी सोच में यही बुनियादी फर्क है। हालाँकि अनुभूति एक ही है। अपने-अपने ढंग से पहुँचने की बातें कहते हैं। चूंकि दोनों के साथ दो तरह के व्यक्ति थे अतएव दो तरह से बात को कहना पड़ा। भारतीय बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम या बुद्ध के सारे के सारे तीर्थकर सामन्तों के घर से आये हैं। राज परिवार से आये हैं। धन-सम्पत्ति से ऊब कर आये हैं। चूंकि पूर्वकाल में पूरब समृद्ध था। अतएव वे स्वर्ग से समझौते को तैयार नहीं है। भक्ति करो स्वर्ग को प्रज्ञात हो जाओगे। ये निर्वाण से, मुक्ति से कम पर बात नहीं करना चाहते। ये स्वर्ग का सुख भोग रहे थे। धन, पद, प्रतिष्ठा, काम से ऊब गये थे। अब ये वस्तुएँ इन्हें नहीं लग रही थीं। उनके साथ भी इसी तरह के व्यक्ति थे। अतएव ये कहते है-तुम भक्ति करो, ध्यान करो एवं निर्वाण को उपलब्ध हो जाओ अन्यथा तुम्हें पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहना होगा। अब हद हो गयी, बार-बार वही धन-सम्पत्ति, पति-पत्नी, राजा-रानी। कितने बार यह काम चलेगा। ये सभी स्वर्ग से ऊब चुके हैं। ये शिक्षित है, सभ्य है, परिष्कृत है। इसी तरह की जमात भी इनके साथ है। बुद्ध से ज्यादा परिष्कृत व्यक्ति खोजना असम्भव है। उसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। कृष्ण में कुछ भी जोड़ने की सम्भावना नहीं है। यदि पुनः वे आते तो उससे आगे कुछ भी नहीं जोड़ सकते। सभी अत्यन्त शिक्षित, साशय, परिष्कृत है। धनी हैं, राज-परिवार के ही नहीं, राजा हैं। अब इन्हें स्वर्ग का सुख कैसे अच्छा लगेगा। अप्सरायें कैसे इन्हें मोहित करेंगी। इन्द्र कैसे इन्हें लोभ में डालेगा? इनसे परिष्कृत व्यक्ति की सम्भावना ही नहीं हो सकती। इसी से ये कहते हैं योग युक्त होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाओ अन्यथा पूर्वजन्म के चक्र में पड़े रहोगे। पश्चिम का मुहम्मद साहब हो या ईसा हो, सभी पैगम्बर सभी संत गरीब, दरिद्र परिवार से आते हैं। सभी अशिक्षित है। सभी का जीवन कष्टपूर्ण है। उनके इर्द-गिर्द खड़े लोग भी दीन-हीन है। अत्यन्त गरीबी में हैं। कष्ट में हैं। अब आगे ये कष्ट नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं। अब उन्हें सुख चाहिये। स्वर्ग चाहिये। इसी से ईसा कहते है-प्रभु का स्वर्ग नज़दीक ही है। तुम सभी इसी जीवन में स्वर्ग को उपलब्ध करोगे। दूसरे जन्म की अब आवश्यकता ही नहीं। मेरे ही जीवन काल में उस प्रभु के राज्य को उपलब्ध हो जाओगे। ईसाईयत दो हज़ार वर्षों से इसी चक्कर में पड़ा है। आखिर प्रभु का राज्य कहाँ है। ईसा के सामने यह कहने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं था। सभी दुःखी थे। गरीब थे। अब आगे दुःख देखने को स्थिति में नहीं थे। अतएव उन्हें कहा जल्दी करो। तुम इसी जीवन में स्वर्ग को प्राप्त कर लोगे। अब दूसरे जीवन की जरूरत ही नहीं। मुहम्मद साहब के साथ भी यही स्थिति है। अतएव वे भी दूसरे जीवन को नकार गये। इसी जीवन में बहिश्त मिलने को कहते हैं। बस कयामत का बिगुल बजने ही वाला है। निर्णय हो जायेगा तुम्हारे कर्मों का। तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। अब आगे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। अब उल्टा ही चल गया पूरब ही दरिद्र हो गया। पश्चिम समृद्धशाली। शिव इस सूत्र के माध्यम से भक्तिपूर्वक श्वास के दो सन्धि-स्थलों पर केन्द्रित होकर ज्ञाता को ही जान लेने को कहते हैं। ज्यों ही ज्ञाता को जान लेते हो अब कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता है। उसे जानते ही सभी कुछ जान लिया जाता है। अब जानने को कुछ शेष नहीं रहा जाता है। हाँ भक्ति की जरूरत है। वह भी थोड़ी-बहुत भक्ति से काम नहीं चलेगा। आत्यांतिक भक्ति की जरूरत है इस सूत्र में। यह सूत्र भक्ति प्रधान सूत्र है।


????????अपने शरीर को मृतवत् देखना????????

पुण्यात लेटे रहो। क्रोध से धुन्ध होकर भी उसमें ठहरे रहो। या पुतलियों को पुमारे बिना पुरते रहो या कुछ चूस और चूसना बन जाओ। यह तंत्र उपरोका तंत्रों से बिल्कुल ही भिन्न है। अब इसमें श्वास की बात नहीं

है। यह प्रयोग वास क्रिया से अलग हटकर है। अपने आप में अनूठा है। इस विधि का प्रयोग बहुत हो कम लोग किये हैं। यह विधि जन्म-जन्मों के प्रयास, लगन ये है या इस विधि के पूर्ण ज्ञाता गुरु यदि उपलब्ध हो जाएँ तब कहीं संभव है परंतु इस विधि के ज्ञाता गुरु की संख्या नगण्य है। इस विधि में पहले मृतवत् बेटे साना है। बिल्कुल स्थिर, मुर्दा के सदृश। कुछ भी हलचल हो रही है, होने देना है। स्वयं मुर्दे को तरह पड़े रहना है। बाहर कुछ भी हो रहा है, होने देना है। साधी भाव रखना है। बाहर से कोई चिल्ला रहा है, चिल्लाने दें। कुत्ता चाट रहा है. चारने दें। मच्छर काट रहे हैं, काटने दें। शरीर पर दीमक लग रही है, लग जाने दें। कुछ भी नहीं करना है। ऐसा लगता है महर्षि वाल्मीकी, महर्षि रमण इसी विधि को अपनाये थे। मैंने अपने गुरुदेव से भी सुना है। एक दिन सत्संग में मुझ से कह रहे थे अपने सम्बन्ध में। बचपन में ही गाँव से बाहर लेटे थे खलिहान में। अकेले, रात्रि का समय था। आध्यात्म अनजाने मन में प्रवेश कर रहा था। रात्रि के सन्नाटे में मृतवत् लेटे थे। मानो शरीर मृत्यु को उपलब्ध हो गया। उठने को जी चाहता है परन्तु उठ नहीं पाते हैं। देख रहे हैं स्वप्नवत्। एक चमचमाता हुआ तारा दूर से आ रहा है। सामने आकर देवरूप ग्रहण कर लेता है। वह व्यक्ति सामने साकार रूप में खड़ा है। उसके चारों तरफ प्रकाश की आभा है। वह प्रकाश चक्रनुमा घूम रहा था। उसके मध्य में वह दिव्य पुरुष मुस्कुरा रहा था। मेरे समीप आकर कहा उठो, अब कब तक लेटे रहोगे। तू मृत्यु को प्राप्त हो गया है। तुम्हारी श्वास गति रुक गयी है। अब आगे बचने की सम्भावना नहीं है। जरा शरीर से अलग अपने ही शरीर का ठीक से निरीक्षण तो कर लो। मैं उसके आदेशानुसार अनायास ही करता जा रहा था। पुनः वह दिव्य पुरुष पुआल के गल्ला पर बैठ जाता है। मुझे भी शरीर छोड़कर वहीं आने का आदेश देता है। मैं सूक्ष्म शरीर में उसके सामने बैठता हूँ। वह कहता है जो मैं हूँ, वही तुम हो। अब तुम अपने को ठीक से पहचान लो। कितने बार शरीर ग्रहण करोगे। अब एक जाना है। यही जन्म काफी है। अब आगे यात्रा सम्भव नहीं। मुझे चुप बैठने को कहता है एवं सिर पर हाथ रखता है। बस अब क्या था। मैं देख रहा हूँ सृष्टि तो मुझ से ही निकल रही है। मुझ में ही प्रवेश कर रही है। मैं प्रकाश स्वरूप हो पूर्ण चेतन था। शरीर बेचारे की तरह बेसहारा पड़ा था। मैंने विभिन्न प्रकार को सृष्टि लोक को देखा जिसका वर्णन सम्भव नहीं था। मैं शरीर में प्रवेश करना नहीं चाहता था। चूंकि शरीर गल्ला के नीचे था। शरीर पर सर्प कुण्डली मारे बैठा था। मैं देख रहा था। सवेरा होने जा रहा था। पिता जी खोजते-खोजते वहाँ पहुँच गये मृतवत् शरीर देख, उस पर भी शरीर पर सर्प को कुण्डली मारे देख काँप उठे। एक दो बार चिल्लाये परन्तु उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। उनका मैं इकलौता पुत्र था। मूर्च्छित होकर गिर गये। बेहोश हो गये। मैं देख रहा था। एकाएक शरीर से सर्प हटता है, मैं शरीर में प्रवेश करता हूँ। मैं उठ बैठा। अब अपने पर कैसे करूं विश्वास या अविश्वास। पिताजी सामने ही बेहोश गिरे थे। मैंने उन्हें उठाया। उन्होंने हमें जीवित देख हृदय से लगा लिया। बोले तू खलिहान में क्यों आया ? किसने कहा था? फिर बोले वह सर्प, कहाँ गया? जो तुम्हारी छाती पर कुण्डली मारे बैठा था। मैं अनजान सा बनकर बोला पिताजी कहाँ सर्प? कहीं आपने गलत तो नहीं देख लिया। उनकी आँखों में आँसू थे। मुझे हृदय से लगाकर बोले-हाँ बेटा, जो देखा है वह गलत ही हो जाता है। हे भगवान। उसे गलत ही कर दो। मेरे बेटे को दीर्घायु बना दो। अब अपने कन्धे पर बैठा कर घर लाते हैं। मैं सोचता जा रहा हूँ। यह सत्य है या वह। कौन सा सत्य हो सकता है। जिसे ग्रहण करूँ। अन्त में उसको सत्य मान उसका हो अवलम्बन ग्रहण करना श्रेयस्कर समझा। यह विधि ऐसी कि मान लिया जाये किसी खेत में बीज पड़ गया है परन्तु अनुकूल समय के अभाव में, वह अंकुरित नहीं हो सका। परन्तु वर्षा होते ही समय अनुकूल पाकर जन्म ले लेता है। वही स्थिति है साधक की। किसी भी जन्म में तंत्र का बीजारोपण हो गया। किसी अगले जन्म में वह बीज जन्म ले लेगा तो किसी जन्म में वह पेड़ बन सकता है किसी जन्म में फल ले लेगा। बुद्ध तो मानते हैं यह जन्म पिछले जन्म की श्रृंखला है। एक पड़ाव भर है। सूत्र में शिव कहते हैं-

"मृतवत् लेटे रहो। क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ही ठहरे रहो।" जब भी साधारण व्यक्ति मरता है भयभीत हो जाता है, क्रोधित हो जाता है। शोक से भर उदास हो जाता है परन्तु यह सूत्र अत्यन्त महत्व का है क्योंकि कहता है कि यदि क्रोध से भरे हो तो उसी स्थिति में रहो। उदास, भय, चिन्ता, कुछ भी हो बस उसो स्थिति मैं ठहरी। रुक जाओ। चूंकि अब शरीर तो मृतवत् है या मर ही गया है।

उस स्थिति में यहीं ठहर जाना है। क्षण भर के ठहराव से स्थिति ही बदली रहती है। सभी कुछ ठहर जाता है। आगे सूत्र कहता है-"या पुतलियों को घुमाये बिना घूरते रहो।" यह सूत्र अत्यन्त छोटा है परन्तु सम्पूर्ण जीवन बदलने के लिए काफी है। मैं पूजा ध्यान के बाद मात्र पाँच मिनट से दस मिनट तक बिना पुतलियाँ घुमायें घूरने को कहता हूँ। चाहे आप प्रात: सूर्य पर घूरते रहें या सन्ध्या सूर्य पर या रात्रि के चन्द्रमा पर या अपने गुरु की प्रतिमा पर। देख कुछ ही काल के अभ्यास से मन शान्त हो आयेगा। यह आँख तीसरी आँख के भीतर हो जायेगी। अब चाहने पर ही घूमेगी। मन निर्विचार को प्राप्त हो जायेगा। एक थे मेहर अत्यन्त प्रसिद्ध एवं सिद्ध सन्त थे। वे कुछ भी नहीं करते

बस मृतवत् अपनी कोठरी में लेटे रहते एवं छत की तरफ देखते रहते। वह तीन साल तक बस छत की तरफ घूरते रहे। एकाएक मौन हो गये। शान्त हो गये। वे पा गये वह सभी कुछ जो पाना शेष था। एक बार उनके भक्तगण उन्हें अमेरिका ले गये। अमेरिका में एक मनोवैज्ञानिक था जो मन की बात को पढ़ लेता था। उसे मेहरबाबा के नज़दीक लाया गया। उसने कलम लेकर उन्हें देखा एवं आँख बन्द कर ध्यान किया। परन्तु कुछ पढ़ नहीं सका। जीवन में यह सम्भवतः प्रथम बार ऐसा हुआ। वह कहा यह गज़ब का आदमी है। जब मैं ध्यान के द्वारा पढ़ना चाहता हूँ तो पाता हूँ यहाँ कोई आदमी ही नहीं है। जब आँख खोलता हूँ तो यह यहीं बैठा मिलता है। जो व्यक्ति निर्विचार हो गया उसे आप कैसे पढ़ पायेंगे।

अन्तिम सूत्र है-"या किसी चीज को चूसो और चूसना बन जाओ।" ये सारे सूत्र अत्यन्त छोटे-छोटे हैं परन्तु अत्यन्त मूल्यवान हैं। इनकी कीमत नहीं लगाई जा सकती। पूरे नारकीय जीवन को बदलने के लिए काफी हैं। बस इस में मात्र चूसना बन जाना है। बच्चा जब जन्म लेता है तो रोता है। इसका रोना क्या है? बच्चा माँ के पेट में जब होता है तब वह श्वास नहीं लेता वह माँ के द्वारा सीधे प्राण ही ग्रहण करता है। जैसे साधु लोग समाधि में करते हैं। इसी से माँ-बेटे में आत्मीय प्राण का सम्बन्ध होता है। यह प्रेम अत्यन्त पवित्र, पावन होता है। जब बच्चा माँ के गर्भ से बाहर आता है। पहली दफा नाल काटा जाता है। वह स्वयं हवा चूसना शुरू करता है। यह घटना उसके लिए अनहोनी है। एकाएक है। अतएव वह रोने लगता है। यदि बच्चा रोये नहीं तो मृत हो जायेगा। वह हवा चूसता है। वह चूसना ही बन जाता है। अतएव शिशु कोमल, अपने में मुस्कुराता हुआ, हँसता हुआ, पवित्रतम होता है। इसी से शिशु को ईश्वर का स्वरूप कहा गया है। माँ बच्चे को स्तनपान कराती है। यह बाहर आने पर हवा के बाद माँ के स्तन से दूसरा सम्बन्ध होता है। उसे माँ का, अपने होने का भान नहीं होता। मात्र चूसना होता है। जो बालक तीन से पाँच वर्ष तक पाँ के सम्पर्क में रहेगा। माँ का स्तनपान करेगा। उसमें धूम्रपान, शराब पान की कम सम्भावना है। आज की औरतें बच्चे को जन्म लेते ही बोतल पकड़ा देती हैं। यही कारण है कि बच्चा धूम्रपान का, शराब का, वेश्यावृत्ति का आदी हो जाता है। आज पूरा पश्चिम से पूर्व इसी बुरी आदत से भरा पड़ा है। चूंकि वह व्यक्ति जाने-अनजाने माँ का स्तन खोज रहा है। चूसना खोज रहा है। यदि आप पीते हैं तो कुछ क्षण के लिए भूल जायें कि आप हैं, शराब है। आप पी रहे हैं। मात्र पीना बन जायें। देखें उसका असर, उसका करिश्मा। अलग साक्षी बनकर। आप में मात्र एक सप्ताह में परिवर्तन आ जायेगा। अब आप पीना ही पसन्द नहीं करेंगे। यह विधि सबसे उपयुक्त है उनके लिए जो साधक खेचरी मुद्रा सीख लिए हैं। वे खेचरी में स्थित हो मात्र तीन दिन चूसते रहें। कुछ न करें। तीन दिन चूसना ही बन जायें। देखें, कैसे रस आता है? कैसा आनन्द आता है। एकाएक परिवर्तन आ जायेगा। तीन माह में तो वह व्यक्ति नाचता हुआ होगा। मीरा की तरह। चैतन्य महाप्रभु की तरह। इसे प्रायोगिक स्तर पर करके देखें। जैसे विज्ञान कहता है (H₂O) दो भाग हाइड्रोजन एक भाग ऑक्सीजन मिलने पर जल बनेगा ही। उसी तरह आप चूसना बनो एका-एक परिवर्तन आयेगा ही। ये वैज्ञानिक प्रक्रिया है। स्वर्ग-नरक से हटकर है। पाप-पुण्य से कुछ लेन-देन नहीं है। देवी-देवता से वास्ता नहीं। अपने परिवर्तन से ही सम्बन्ध है।

क्रमशः....