साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

???? साधक को गुरु पर पूर्ण आस्था रखकर कर्म और उपासना साथ-साथ करना चाहिए। सही भाव से किया गया कर्म भगवान को उतना ही स्वीकार्य है, जितनी प्रार्थना ध्यानादियुक्त भक्तिपूर्ण उपासना। प्रत्येक साधक को कर्म प्रारंभ करने से पूर्व श्रद्धा से गुरु का स्मरण कर वंदन करना चाहिए कि आपने हमें इस कार्य के लायक समझा है। कोई कार्य न छोटा है न बड़ा है। अतः आपको मेरा बार-बार प्रणाम कर्म करते समय बीच-बीच में भी ऐसा करे और समाप्त होने पर भी यही करे। फिर देखें यही कर्म आपका पूजा हो जाएगा। ध्यान हो जाएगा। कुछ दिनों में आप कर्म करते हुए भी समाधि में चले जाएंगे। आपका प्रत्येक कार्य पावन होगा। आपके हाथों से वही कार्य करता होगा। आपके राग से वही भजन गाता होगा। आपके पैर से वही यात्रा करता होगा।

यह घटना सन् 1995 की है। ज्येष्ठ का दोपहर था। भीषण गर्मी पड़ रही थी। जलाभाव में वृक्ष सूख रहे थे। पशु-पक्षी काल कलवित हो रहे थे। मैं आश्रम में नितांत अकेले था। विद्युत का अभाव था। मैं गर्मी के पसीना से स्नान कर रहा था। दूर-दूर तक वृक्ष नहीं थे। मेरे आश्रम बनाने के बाद ही दिल्ली आश्रम के नगरी में वृक्षारोपण कराया गया। कोई वृक्ष नहीं था। मेरा आश्रम इस नगर के दक्षिण- पश्चिम में अवस्थित था। इधर कोई पक्षी भी नहीं आते थे। लोगों के मन में बैठा था कि इधर प्रेत रहते हैं। यह संयोग ही है कि मेरा प्रत्येक आश्रम प्रेतों के घर में ही बना।

मैं अपने कक्ष का खिड़की दरवाजा खोलकर कभी हाथ से बना पंखा झूल लेता था। कभी आंखें बंद कर ध्यान से शान्ति से मन और तन को शान्त कर रहा था। कभी घड़ा से पानी निकालकर पी लेता था कभी दोपहर की चिलचिलाती धूप को देख लेता था। दूर तक कोई मानव दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। मैं था केवल मैं बाहर खट्खट् की आवाज सुनाई दिया। उठकर खड़ा हुआ। चारों तरफ देखा कोई नहीं दिखाई दिया।

कुछ देर के बाद मैं लघुशंका के लिए बाहर निकला एक लम्बा सर्प दौड़ते हुए आ रहा था। मैं समझा कि क्या मेरी मौत आ रही है। इस दोपहर में कहीं कोई नहीं है, पृथ्वी गर्म है। नंगा पैर रखने पर जल रहा है, क्या यह सर्प नहीं जल रहा है? अवश्य जलता होगा? यह भी मृत्यु के वशीभूत तो नहीं है। मैं तेज कदमों से
 अपने कमरे में आ गया। मात्र दो कमरे बने थे। एक में मैं रहता था। एक में रसोई बनता था।

अपने कमरे से खड़ा होकर देख रहा हूं। वह हमारे दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। क्या यह कमरे में प्रवेश करेगा? यह तो गेहूवन है। साक्षात् मृत्यु का देवता। तुरंत मैं अंदर से कमरा बंद कर लिया। फिर जंगलों के समीप खड़ा होकर देखने लगा। वह जंगले से प्रवेश करने की चेष्टा करने लगा। मेरा मस्तिष्क तेजी से सोच रहा था - क्या यह प्रेत तो नहीं है? या मेरा मृत्युदूत। दोपहर में कोई है भी नहीं। तभी मुझे सर्प का मंत्र याद आया, गुरुदेव मुझे सर्प का मंत्र सिखाए थे। जिसे पढ़कर ताली बजाने पर सर्प दूर हट जाता है। मैं तुरंत वही क्रिया किया। सर्प खिड़की से नीचे उतर गया। तपती धूप में बैठ गया। मैंने सोचा वह धूप से प्यासा तो नहीं है। खैर द्वार खोला घड़े के जल को मंत्राभिषेक किया। सर्प को भी अभिमंत्रित किया। घड़े का पानी उस सर्प के ऊपर गिरा दिया। वह शान्त हो पानी में बैठ गया। जब घड़े का पानी समाप्त हो गया। तब मैं वापस अपने कक्ष में आकर उसे देखने लगा। सर्प कुण्डली मारकर बैठ गया। सिर ऊपर कर लिया। उसका मुंह खुला। उससे एक तेज युक्त प्रकाश निकला। मैं देख रहा था। वह तेज पुंज धीरे- धीरे एक मानवाकृति में बदल गया। दिव्य तेज से भरा था। वह राजसी वस्त्राभूषण से आच्छादित था। वह झुककर नमन किया। मैं ध्यान दिया कि छाया बन रहा है या नहीं है। उसका कोई छाया नहीं था।

वह संस्कृत का कुछ श्लोक बोला। फिर कातर स्वर में बोला, "हे प्रभु! मैं यक्ष हू। हजारों वर्षों से ऋषि श्राप से सर्प योनि में, प्रेत योनि में रह रहा था। जब आपका आगमन यहां हुआ तो हम लोग प्रसन्न हुए। यह भूमि बंजर एवं मुर्दा गाड़ने की भूमि है। जो-जो भी इसका मालिक बना, उसका नाश हो गया। वे भी प्रेत बन इसी में आ गए। यह भूमि आश्रम, सत्संग, देव मंदिर के ही कार्य में आएगा, तब फलीभूत होगा। अन्यथा वे सभी इसी योनि में चले आएंगे। आप आश्रम बनाएं। हरि चर्चा करें। धीरे-धीरे हम लोगों का उद्धार हो जाएगा। जब आप प्रथम बार यज्ञ किए तब भी मैं सर्प बनकर छिपकर सभी कार्य को देख रहा था। आपके द्वारा कीर्तन, यज्ञ, पूजा में हम सभी यक्ष प्रेत अपने स्तर से मदद करते रहे।

बहुत प्रयास करने के बाद आज आप अकेले में मिले। मेरा शरीर ही सर्प का है। कोई भी देखकर इससे भयभीत होगा। मैं महाभारत काल से यत्र-तत्र भटक रहा हूं। आपके आगमन की प्रतीक्षा में था। आपके स्पर्श से ही मेरा शरीर छूटने वाला था। मैं आपके पैर में लिपट जाना चाहता था। परंतु सर्प को कौन स्वीकार करेगा। आपने अभिमंत्रित जल मेरे ऊपर छोड़ा, इससे मैं श्राप से मुक्त हो गया। मैं स्वधाम को जा रहा हूं।" अब मैं बाहर निकल आया। उनके समीप जाकर पूछा- आप कौन हैं? वह झुककर पैर स्पर्श किया। उसका हाथ बर्फ के तरह शीतल था। चेहरा आभायुक्त पूर्ण गौर वर्ण था। वह नम्रता से बोला, मैं यक्ष हूं। ऋषि दुर्वासा ने हमसे कहा कि तुम कृष्ण के पुत्र को मार डालो। मैंने अस्वीकार कर दिया। तब वे क्रोधित होकर श्राप दे दिए कि तुम अजगर के तरह मेरी बातों को टाल रहा है। जा अजगर हो जा। मैं ऋषि से बहुत अनुनय विनय किया। परंतु वे शान्त नहीं हुए। इस घटना को कृष्ण पुत्र प्रदुन से कहा। वे हंसते हुए बोले- "घबराओ मत। मेरे ही खानदान से तुम्हारा उद्धार होगा। वे महात्मन इन्द्रप्रस्थ में आकर तुम्हारा उद्धार करेंगे। आज मेरा तो उद्धार हो गया। मैं उम्मीद करता हूं कि हमारे साथी जो यहीं हैं। उनका भी आपके द्वारा उद्धार होगा।????

  क्रमशः......