साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

सृष्टि एक उल्टा वृक्ष है

जो कुछ हम संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड में देखते हैं, उसका छोटा-सा नमूना
● मानव है। यह सृष्टि हो उल्टा वृक्ष प्रतीत होती है। जैसे पेड़ की जड़ें नीचे हैं। धरती
में फैली हैं। पत्ते ऊपर आकाश में फैले हैं। उसी तरह मानव की सम्भावनाएं
आकाश में फैली है। शून्य में फैली हैं। सभी का आगमन शून्य से हुआ है-
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"एक अण्ड ओंकार से सब जग उपजाया।"
यह अण्ड अर्थात् शून्य, अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीके हैं। ओंकार इन
आंखों से दिखाई नहीं पड़ता है। उसे भी देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए। यह
संपूर्ण सृष्टि ही वैश्वानर सृष्टि है। जैसे ॐ फैला हो। या जैसे कोई व्यक्ति हाथ
फैलाए खड़ा है। शब्दों से ठीक-ठीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। समझाने की
चेष्टा मात्र है।

ऊर्जा का संचार ऊपर से होता है। सूर्य, तारे, नक्षत्र ऊपर हैं। अंतरिक्ष में
हमारी सारी सम्भावनाएं फैली हैं। पितरलोक, देव लोक, गंधर्व लोक इस पृथ्वी से
ज्यादा विस्तृत, स्वच्छ, सुंदर व्यवस्था विभिन्न लोकों की है। उन्हीं से संचालन
पार्थिव शरीर या पृथ्वी की होती है। वर्षा अर्थात् बादल को पृथ्वी पर नहीं रखा जा
सकता है। बादल ऊपर से बरसते हैं। सूर्य ऊपर ही प्रकाशित है। हमारी नज़र हर
समय ऊपर लगी रहती है।

मानव भी एक उल्टा वृक्ष प्रतीत होता है। मानव का मुख्य संचालन केंद्र
मस्तिष्क है। ब्रेन सबसे ऊपर है। सहस्त्रार ऊपर है। सुषुम्रा का आँधा कुंआ भी
ऊपर ही है। सहस्र दल कमल बरसता है। निरंतर झरते रहता है। संपूर्ण शरीर का
उससे सिंचन होता है। जैसे वृक्ष जड़ से भोजन ग्रहण करता है। उसको तना, शाखा
के माध्यम से पत्तों तक भेजता रहता है। पत्तों से भोजन सूर्य के प्रकाश में तैयार
होता है। पुनः संपूर्ण वृक्ष में शाखा, तना के माध्यम से होता है। ज्यादा जल का
निकास पत्तियों के माध्यम से होता है।

मानव भी भोजन मुंह (ऊपर) से ग्रहण करता है। उसे तना गर्दन के मध्य में
पेट में भेज देता है। ज्यादा जल मल नीचे निकल जाता है। भोजन से बनी ऊर्जा,
रक्त संपूर्ण शरीर में आपूर्ति होती रहती है। मानव शरीर को वायु, पानी, संदेश
आदेश हर चीज ऊपर से ही भेजा जाता है। पक्षाघात क्या है? जिस भाग से
मस्तिष्क का संबंध-विच्छेद हो जाता है। वह अंग सुन्न हो जाता है। काम करना
बंद कर देता है। मस्तिष्क से सूचना का आदान-प्रदान संपूर्ण शरीर में होता है।
उसका आदेश पूरे शरीर को छोटे से बड़ा भाग मानता है, तो शरीर स्वस्थ समझा
जाता है।
 यदि वृक्ष की जड़ में जल देंगे तो वृक्ष हरा-भरा रहता है। हमारी चेतना कुछ
उल्टी हो गई है। हमारी साधना भी उल्टी हो गई है। हम पतों एवं डालियों की पूजा
प्रारंभ कर दिए हैं।

कहै कृष्णायन सुनो हे देव, जगत है परम गुरु का खेल।
सत्पुरुष मूल है, अक्षर पुरुष वाहिकास्थूल ।।
मानव उल्टा वृक्ष है, परम पुरुष का सपूत ।
त्रिदेवा शाखा है, पात भया जगत ॥

भगवान कृष्ण जो निरंजन (काल, ब्रह्म) के अवतार हैं। चूंकि अवतारवाद
का प्रपंच एवं संसार का खेल यहीं से प्रारंभ होता है। माया इन्हीं के सानिध्य से
अपना पाश फैलाती है। परम पुरुष आवागमन से मुक्त है। वह अपना संदेश ब्रह्म
को अक्षर पुरुष (पर ब्रह्म) से आदान-प्रदान करता है। इस सत्य का उद्घाटन
भगवान कृष्ण भी अपने गीता के अध्याय 15 के श्लोक - 1 से 5 तक में किए हैं।
इसे समझा जा सकता है।

ऊर्ध्वं मूलम् अधः शखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् ।छन्दांसि यस्य पणानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ 1 ॥

अर्थात् एक शाश्वत पीपल का वृक्ष है। जिसकी जड़ें तो ऊपर की ओर हैं।
शाखाएं नीचे की ओर तथा पत्तियां वैदिक स्तोत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह
वेदों का ज्ञाता है।

जो व्यक्ति माया से ग्रसित है, वह निरन्तर नीचे की तरफ गिरता चला जाता
है। वे एक शाखा (अर्थात् देवी-देवता) से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घूमता
रहता है। इस जगत रूपी वृक्ष का कोई अन्त नहीं है। छोटी-छोटी शाखाएं देवी-
देवता हैं। पत्ते ही संसार है संसारी मनुष्य अपनी क्षुद्र कामनाओं की पूर्ति हेतु
निरंतर इन देववाद के पूजन, कर्मकाण्ड में लगे रहते हैं। कर्म काण्ड ही पत्तियां हैं।
कोई सद्गुरु ही इन पत्ती रूपी मंत्र का ठीक अर्थ व्यक्त कर सत्पुरुष की तरफ ले
जा सकता है। चूंकि वृक्ष की जड़ ऊपर है। वह इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च सत्ता,
सर्वोच्च लोक है। वहीं से यह वृक्ष रूपी प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसी परम ब्रह्म को
निर्विशेषवादी भौतिक वृक्ष का मूल मानते हैं। सांख्यवादी इसी मूल से पहले
प्रकृति, पुरुष और तब तीन गुण (त्रिदेव) निकलते हैं। फिर पांच स्थूल तत्त्व (पंच
महाभूत) फिर दशेन्द्रिय एकादश मन निकला है। इस प्रकार वे सारे संसार को
चौबीस तत्त्वों में विभाजित करते हैं। यदि सत्पुरुष समस्त अभिव्यक्तियों का केंद्र
है, तो एक प्रकार से भौतिक जगत् 180 अंश (गोलार्द्ध) में हैं और दूसरे गोलार्द्ध
में 180 में आध्यात्मिक जगत् है। चूंकि यह भौतिक जगत् उल्टा प्रतिबिम्ब है।
 प्रकृति परमेश्वर की बहिरंग शक्ति है। परम पुरुष साक्षात् परम ब्रह्म, परम पिता,
सतपुरुष है।

जो साधक इस वृक्ष को ठीक से समझ गया, वह वेद अर्थात् ज्ञान के रहस्य
को समझ जाता है। अन्यथा मरकट की तरह वह वृक्ष की डालियों पर ही उछलते-
कूदते रह जाता है। फिर उन्हीं पत्तियों से शाखाओं से इतना आसक्त हो जाता है कि
वह बार-बार जन्म-मृत्यु के पश्चात भी उसके बंधन से मुक्त नहीं हो पाता है।
फिर यही बंधन इसे प्रीतिकर लगता है। यही सत्य सा आभास होता है। जैसे शराबी
बिना शराब के नहीं रह सकता है, उसी तरह ये व्यक्ति हो जाते हैं।

अधः च ऊर्ध्वम् प्रसृताः तस्य शाखाः।

गुण प्रवृद्धाः विषय प्रवालाः ।

अधः च मूलानि अनुसन्तानि, 

कर्म अनुबन्धीनि मनुष्य लोके ॥ 2 ॥
अर्थात्-इस वृक्ष की शाखाएं ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के
तीन गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी टहनियां इन्द्रिय विषय हैं। इस वृक्ष की जड़ें नीचे
की ओर भी जाती हैं, जो मानव-समाज के सकाम कर्मों से बंधी हुई हैं।

इस वृक्ष की शाखाएं चारों तरफ फैली हैं। ऐसा कह सकते हैं कि निचले
भाग में जीवों की विभिन्न योनियां हैं यथा - मनुष्य, पशु, घोड़े, गाय, बकरी,
बिल्ली, कुत्ते आदि। ऊपरी भाग में जीवों की उच्च योनियां जैसे मनुष्य, गंधर्व,
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यक्ष, देव तथा अन्य बहुत उच्चतर योनियां हैं। इस वृक्ष का पोषण रजोगुण (ब्रह्मा),
सतोगुण (विष्णु), तमोगुण (शंकर) से होता है। चूंकि इन्हीं शाखाओं के आश्रय
देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व आदि हैं। ये सभी अपने पोषक (आश्रय) दाता को ही
पूजा-अर्चना करते हैं।

वृक्ष की टहनियां इन्द्रिय विषय हैं। अर्थात् देवी-देवता से अपनी इन्द्रिय भोग
सुविधाओं की कामना करता है। ये उन्हें देता है। वे उसे प्रदान करते हैं। या दोनों
कुत्ते की तरह ही हड्डी से रक्त चूसते हैं। दोनों एक-दूसरे की पीठ ठोंक कर संतुष्ट
हो जाते हैं। मानव इतना सकाम कर्मों से आसक्त हो गया है कि उसका जरा-सा
भी ध्यान अपने उद्गम मूल की तरफ नहीं जाता है। प्रपंची गुरु भी उन्हें प्रपंच में
ही फंसाए रहते हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चार्दिनं च सम्प्रतिष्ठा ।

अश्रूत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ 3 ॥
अर्थात् इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया
जा सकता। कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहां है ? अन्त कहां है?
 इसका आधार कहां है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट दे।

क्रमशः...