अहम

सविता व्यास इंदौर मप्र

अहम

  वह पल्लवों, सुंगधित फूलों, रसीले फलों से समृद्ध एक गबरू-जवान पेड़ था और वह नाजुक सी कोमल लता थी।एक दिन माली ने बाँध दिया उसे उस पेड़ के साथ।वह पेड़ अहंकार से हंसा और कहा-तुम भी आ गई मेरा सहारा लेने!देखो पहले से ही कितनी लतायें मुझसे लिपटी हुई हैं।मेरे प्रेम की आकांक्षी।मैं देता हूँ इन्हें प्रेम और पोषण।मेरे सहारे ही बढ़ती हुई मेरे प्रति कृतज्ञ और समर्पित, मेरी दासता स्वीकार करती हुई।क्या तुममें है ये समर्पण की भावना?क्या तुम मेरे अधीन रह सकोगी?*
   वह स्वाभिमानी लता मौन रही, उसने उन तमाम लताओं को देखा जो पेड़ की बाँहों में सिमटी हुई थी, उसने मन ही मन कहा न...मुझे ऐसा साथी नही चाहिए जो सबका हो।न ही मुझे किसी अहंकारी का प्रेम भीख में चाहिए।
उसने माली से कहा बाबा मुझे इस बन्धन से मुक्त कर दो।मुझे एक टुकड़ा अपनी जमीन दे दो।तराश दो मुझे ऐसा कि मजबूत बन जाऊं।आत्मनिर्भर हो सकूँ।
    माली ने उसे पेड़ से विलग किया।पेड़ अट्टाहास कर उठा और कहा *मैं नही तो किसी और की आश्रिता बनोगी।क्या कर पाओगी ये कोमल-नाजुक तन-मन लिये।
लता मौन रही।तराशने का कष्ट सहती रही।संघर्ष की आग में तपकर निखरती हुई वह अपनी जमीन पर अपनी जड़ें मजबूत करती रही।कुछ ही समय में वह परिवर्तित हो गई एक छोटे से पेड़ की शक्ल में।फूलों से भर उठी, चहुंओर सुगन्ध फैलने लगी।
एक दिन उसकी नजर उस पेड़ पर पड़ी ,देखा उसने वह ठूँठ हो गया था।पत्र विहीन, फलहीन, सौन्दर्यहीन सा खड़ा था।
लता ने कहा ये क्या हो गया तुम्हें?तुमसे लिपटी लतायें कहाँ गईं।
पेड़ शर्मिंदा था, उसने रुआंसे स्वर में कहा मुझे क्षमा कर दो, मैंने अहंकार में तुम्हें बहुत कुछ कह दिया था।सच तो यही है कि मुझे ही तुम्हारे सच्चे प्रेम की आवश्यकता थी।तुम्हारा प्रेम अमृत था जिससे मुझे जीवन मिल रहा था
तुमने आवाज क्यों नही दी।लता ने कहा।
कैसे तुम्हें पुकारता!मेरे अहम ने मुझे जकड़ रखा था।कैसे एक कोमल लता से कहता कि मुझे तुम्हारी जरूरत है
लता हंसीऔर कहा अब भी रोक रहा है तुम्हें तुम्हारा अहम?
न...अब मैं ठूँठ हो चुका हूँ।मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी शेष नही।मुझे मेरी शर्मिंदगी रोक रही है।*
एक बार आवाज़ देकर देखो, लौट आऊँगी tumhare पास।*
पेड़ मौन रहा, कुछ देर बाद थरथराते स्वर में कहा आ सकती हो मेरे पास?तुम्हारा स्वाभिमान तुम्हें रोकेगा नही?आ जाओ न सब भुला कर, अपने हरित्व से मेरे नंगेपन को ढँक दो न।
लता हुलसी, खिलखिलाई और लिपट गई पेड़ से।कुछ दिनों बाद सबने देखा उस ठूँठ पर एक कोमल कोपल फूट आई है।सच्चे और पवित्र प्रेम ने उसे हरिया दिया।