साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????औघड़ की तंत्र साधना????
मैं बचपन से साधु संतों के सान्निध्य में रहा हूँ। मेरी जन्म भूमि पर जब कोई साधु संत आते तो मैं पढ़ाई छोड़कर दिन-दिन भर उनके साथ रहता। उनका प्रवचन सुनता। फिर रात्रि काल में उस पर मनन करता। मेरा परिवार वैष्णव था। इसलिए सदियों से माँस मच्छी, दारु-शराब से दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं था। सभी लोग साधु परिवार के नाम से जानते थे, अभी भी जानते हैं।
उन दिनों मैं कॉलेज का विद्यार्थी था। मेरे दूर के रिश्ते के एक औघड़ थे । वे गाँव में आते थे परन्तु हम लोगों के द्वार पर नहीं आते थे। न ही मेरे परिवार का कोई सदस्य सम्बन्ध रखता था। चूँकि माँस, मदिरा, मीन, मैथुन, मुद्रा (पंच मकार) ग्रहण कर के चलते थे । अतः उन्हें हेय दृष्टि से हम लोग देखते थे। वैष्णव सम्प्रदाय, औघड़ों को निम्न दृष्टि से देखता है। मेरे मन में उनके प्रति विचार आया। फिर उनके प्रति मेरा अनजाने में आकर्षण बढ़ता गया। एक रात्रि वे मेरे कक्ष में उपस्थित मिले। आँख बंद करने पर भी दिखाई दिए। आँख खोलने पर भी। मैंने चादर से मुँह ढककर सोने का उपक्रम किया। परन्तु सो नहीं सका। न भयभीत हुआ। मैं प्रातः ही उनसे मिलने के लिए रवाना हो गया। उस समय उनका निवास बक्सर के श्मशान घाट पर ही था ऐसा ज्ञात हुआ। संध्या लगभग चार बजे पहुँचा था। जाते ही मैंने उन्हें प्रणाम किया। वे जोर से ठहाका लगाकर हँसे । उस दिन उनके मुँह से दुर्गन्ध नहीं निकल रही थी। अपने अंक में भरते हुए प्रेम से बोले- आप आ ही गये। लगातार एक सप्ताह के प्रयास पर आपका आगमन हुआ।
छोटी-सी झोपड़ी में धूनी जल रही थी। वे अकेले बैठे थे। उस झोपड़ी में मात्र दो-चार कम्बलों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वे हाथ पीछे किये एवं गरम-गरम जलेबी, पूड़ी, सब्जी प्रदान किये। मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले इसे पा लें। आपको माँस मदिरा से सम्बन्धित कोई सामान नहीं दूँगा। इस समय मेरे झोपड़ी में है भी नहीं। मुझे भूख लगी थी। भर पेट खाया। पानी पी लिया। आमने-सामने बैठ गया। मैंने पूछा कौन सा दृश्य सच मानूं। आप मेरे कक्ष में पूरी रात्रि थे। आज आप इस झोपड़ी में हैं। यहाँ कुछ भी नहीं है। आप ने मेरे खाने-पीने का सामान भी उपलब्ध करा दिया।
मैं प्रश्नोत्तर के लिए उनकी तरफ देखने लगा। वे विशाल शरीर के मालिक थे। सेना में अधिकारी थे। फिर औघड़ बन गये। लम्बा-मोटा तगड़ा शरीर, गौर वर्ण उनकी उम्र लगभग साठ की रही होगी। शरीर पर काला वस्त्र। एकाएक उनके आँखों में आँसू आ गया। मैं अवाक हो उनको देखता रहा। मेरी उम्र उस समय 20-21 की रही होगी ।
1 प्रेमपूर्ण परन्तु कातर स्वर में बोले-कृष्णा जी! मैं असहाय हूँ। मेरी मदद करो। मेरा शरीर शून्य हो गया। सोचने लगा इनके पास बड़े-बड़े लोग आते हैं। उन लोगों को गाली देकर भगा देते हैं। किसी को तमाचा तो किसी को दंड से मार देते हैं। फिर भी लोग इनसे मिलने के लिए लालायित रहते हैं। इन्हें कौन-सा कष्ट हो सकता है। घर-गृहस्थी अच्छी है। जमींदार परिवार के हैं।
वे आँसू पोछते हुए बोले-आप ठीक सोचते हो। मुझे कोई कमी नहीं है। कमी मात्र एक ही है। इस पृथ्वी के सारे लोग कुछ लेने आते हैं। किसी को पुत्र, तो किसी को पद चाहिए, किसी को विधायक, किसी को मंत्री पद, तो किसी की लड़की की शादी होनी चाहिए। सारे भिखारी हैं। क्या करूं इन भिखमंगों से मिलकर। ये सब दीन-हीन हैं। दरिद्र हैं। आज तक कोई राजा नहीं मिला। राजा को ही यह विद्या दे सकता हूँ। नहीं चाहते हुए भी आपको आकर्षित करना पड़ा। आप मेरी मदद करें। क्या मदद करूं ? मुझे स्पष्ट समझाएं। मैं हर तरह की मदद के लिए तैयार हूँ। आपके सम्बन्ध में मैंने बहुत कुछ सुन रखा है। आप में बहुत सी चमत्कारी शक्तियाँ हैं। मैंने एक स्वर में कह दिया।
हाँ ठीक सुना है। उसे ही आपको प्रदान करना चाहता हूँ। आप अपनी पढ़ाई लिखाई नहीं छोड़िये। आप को माँस मछली का सेवन भी नहीं करना है। न ही श्मशान घाट पर रहना है। आप मेरी विद्या को ग्रहण कर लें। अवसर पर कान देगी। अन्यथा मैं कुछ ही दिनों में शरीर छोड़ने वाला हूँ। शराब से मेरी किडनी एवं लिवर खराब हो गए हैं। कोई योग्य शिष्य भी नहीं मिला। पहले आप कुछ पूछना चाहते हैं तो लें।
पूछ मैंने पूछा- आज आपके झोपड़ी में कोई नहीं है। न दूर-दूर तक कोई नजर आता है।
हाँ जब तक आप रहेंगे, कोई नहीं आएगा। आप स्टेशन पर उतरे हैं, तब रिक्शा वाला स्वतः आपका बैग लिया। आपने कहा कि मुझे श्मशान घाट जाना है। वह बोला कि मैं वहीं रहता हूँ। आप ने कहा- कि क्या लोगे? वह बोला कि जो आप दे देंगे। फिर मेरे झोपड़ी के पास लाकर कहा कि आप शायद औघड़ बाबा के दर्शन हेतु जा रहे हैं। आप जाएं। मैं उनका शिष्य हूँ। भाड़ा नहीं लूँगा। वह श्मशान का अधिपति है। उसे ही भेजा था। मेरे मुँह से अनायास निकला-ऐ यह क्या? उन्हीं के गण चारों तरफ खड़े हैं। आप जब तक रहेंगे किसी को नहीं आने देंगे। मैंने पूछा आप कोई पदार्थ कैसे मँगाते हैं? देखो भाई। यह सभी कार्य विशुद्ध
ठगी का है। क्या कहा आपने? मेरे मुँह से निकला था। ठीक कह रहा हूँ। प्रेतात्माओं को मैंने वश में कर लिया है। उन्हें माँस-मदिरा देना पड़ता है। उन्हीं से ये सभी वस्तुएँ किसी दुकान से मंगानी पड़ती है पैसे रहने पर भेज देते हैं। नहीं रहने पर कैसे भेजूं ? चमत्कार तो दिखाना है न। यह तो चोरी
ही हुई न। खैर प्रारम्भ में औघड़ या साधारण तांत्रिक यही करते हैं। अब मैं मानसिक संरचना करता हूँ। यह क्या होता है? मुझे जो चाहिए, वैसी ही कल्पना करता हूँ। फिर वैसी सृष्टि हो जाती है। ऐसे साधक उसी वातावरण में रहते हैं। इस श्मशान भूमि में एक ऐसे ही साधक रहते हैं। जो सर्व साधारण को दिखाई भी नहीं पड़ते हैं। अपने सूक्ष्म शरीर में साधना में रहते हैं। चलिए शीघ्रता करें। वह भी आप से मिलना चाहते हैं।
हम लोग चल दिए। उनके झोपड़ी से दक्षिण गंगा तट पर एक बरगद का वृक्ष है। जहाँ मैं कभी-कभी ध्यान के लिए बैठता था। उससे कुछ और आगे बढ़े थे। सर्व शून्य था। गंगा का तट था फिर एकाएक हम लोग ऐसी जगह पहुँच गये कि अपलक देखने एवं सुनने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा। मानो कोई स्वप्न चल रहा है। शरीर अति हल्का हो गया। तीन चार जगह चिताएँ जल रही थीं। उसकी गंध फैल रही थी। आगे बढ़ने पर एक सुन्दर अति सुन्दर युवती ने हम लोगों को बैठने के लिए इशारा किया। वह महल भव्य था। आधुनिक संसाधनों से युक्त था। सामने बिस्कुट नमकीन कॉफी के प्लेट स्वयं आकर रुक गये फर्श पर कीमती कालीन | था। पूरा घर संगमरमर का था। मैंने बाहर झरोखे से झाँक कर देखा। एक व्यक्ति शव पर मृगछाला बिछा कर उत्तर दिशा में बैठा था। ऊपर से भगवान शंकर की जटा से जल गिर रहा था। जिसे अपने कमंडल में रोक कर वह पान कर रहा था।
उससे भी उत्तर मध्य गंगा के ऊपर एक विशाल काला पुरुष जिसकी काया सूर्य के समान चमक रही थी वह शेर पर बैठा आ रहा था। उनका शेर धीरे-धीरे उस साधक के सामने आया। सम्भवतः वह शव साधना कर रहा था। उन्हें दिशा निर्देश दिया। फिर वह पूरब दिशा की ओर मुड़ गया। कुछ ही दूरी पर रुक गया। आठ सुन्दरियाँ आरती का थाल लिए प्रगट हो गई। आठ-दस युवक भी प्रगट हो गये। उनके हाथ में शंख, घंटा, घड़ियाल, घंटी इत्यादि वाद्य थे। सभी ने एक साथ संस्कृत में मंत्रों का उच्चारण करते हुए आरती की। फिर शेर हम लोगों के कक्ष के तरफ बढ़ने लगा। सभी अनिद्य सुन्दर, पारदर्शी युवक-युवतियाँ ॐ नमः 'शिवाय' का जाप करते हुए आगे पीछे चल रहे थे। यह दृश्य अति मन मोहक था। ऊपर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। इत्र भी फुहारा के रूप में ऊपर से बरस रहा था। सर्वत्र सुगंध फैल रही थी। मैं उस दृश्य को देखकर स्वयं को भूल गया था।
हम लोगों ने कक्ष में प्रवेश किया। हमारे साथ आये औघड़ जी साष्टांग प्रणाम किये। मैंने भी उन्हीं का अनुकरण किया। दिव्य पुरुष ने "नहीं-नहीं ऐसा नहीं करते" कहते हुए मुझे अंक में भर लिया। उसका शरीर बर्फ की तरह शीतल था। सुगंधित था। ऐसा भान हुआ कि उससे ऊर्जा निकल कर मेरे शरीर में प्रवेश कर गयी। मैं समाधि में प्रवेश कर गया।
आँखें खुली तो देखा सामने अष्ट कमल पर दिव्य व्यक्ति बैठा है। उनसे आभा निकल रही थी। मैंने अपने को देखा तो मैं भी उन्हीं के समान्तर अष्ट दल कमल पर बैठा हूं। सर्वत्र घोर जंगल। वह भी फल-फूल लदा हुआ जंगल। दूर दृष्टि करने पर ज्ञात हुआ कि यह छोटा सा द्वीप है। चारों तरफ जल है। वह जल दूर-दूर तक फैला है। सर्वत्र घोर सन्नाटा है। शान्ति है।
मेरे मुँह से निकला यह क्या ? कहाँ हैं हम लोग ? आप कौन हैं प्रभु ! मैं स्वयं प्रभा नन्द हूँ। शैव । यह मेरी मानसिक संरचना है। मैं स्वयं निर्मित संरचना में निवास करता हूँ।
क्या आत्मा यहाँ भी रहती है? हाँ आत्मा का निवास विभिन्न रूपों में समस्त ब्रह्माण्ड में है। यह आत्मा अपने संस्कार अपने तप के अनुसार ही समस्त लोकों में फैली है।
जरा ठीक से समझाएँ, महाराज जी आपको क्या ठीक से समझायें। आप समझे हुए हैं। वह समय शीघ्र ही आने वाला है कि आपके गुरुदेव आपकी दिव्य दृष्टि खोल देंगे आप सभी कुछ जान जायेंगे। फिर हम आपसे जानने आ जायेंगे। आपका भूत-भविष्य सभी कुछ मेरे सामने है फिर भी आपको बता रहा हूँ। स्थूल शरीर धारी आत्मा ही सर्वत्र पहुँचने की कुंजी है। कर्म उसी में किया जायेगा। फिर अन्य शरीर भोग शरीर हैं। स्थूल शरीर को ही मनुष्यात्मा, भाव शरीर को प्रेतात्मा और सूक्ष्म शरीर को सूक्ष्मात्मा कहते हैं। फिर आगे के शेष को दिव्यात्मा, विशुद्धात्मा, निर्वाण उपलब्धि आत्मा कहते हैं। सूक्ष्मात्मा तक ही बंधन है। इसके आगे क्रमशः बढ़ने पर धीरे-धीरे बंधन मुक्त होते जाता है। फिर एक दिन आता है कि वे आत्माएं परम स्वतंत्र हो जाती हैं। वे आत्माएँ करूणावश संसार में आती हैं। उन्हें ही अवतार कहते हैं।
मैंने पूछा फिर यह सम्प्रदाय क्या है? यह सम्प्रदाय भी सूक्ष्म शरीर तक रहता है। आगे धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। निर्वाण को उपलब्ध आत्मा इन सभी से
मुक्त हो जाता है। पृथ्वी पर जिन्हें तांत्रिक कहते हैं। वास्तव में इनके जनक हैं यक्ष। ये राजसी वृत्ति के थे। दूसरे रक्ष अर्थात् राक्षस तामसिक वृत्ति के थे आर्य सात्विक थे। ये आनन्दवादी, ब्रह्मवादी थे। यक्ष विलास वादी एवं शाक्त धर्म के प्रवर्तक हुए। इसमें शक्ति स्त्री के रूप में पूजी गई। तंत्र का अर्थ हो गया शक्ति साधना की आराधना। राक्षसों का शैव धर्म था। ये हठी थे। आर्यों ने वैष्णव धर्म को अपनाया। इन्होंने शक्ति के रूप पुरुष की महत्ता पर बल दिया। शैव स्त्री-पुरुष दोनों के रूप में प्रगट हुआ। वही आगे चलकर अर्ध नारीश्वर और आगे चलकर लिंग व अर्ध्य के रूप में शैव धर्म के प्रतीक बने। तीनों धर्मों में शक्ति की उपासना पर जोर था। लेकिन शक्ति मन का ही खेल है।
मृत्यु के साथ मन नहीं मरता है। महा मृत्यु तभी होती है जब मन का खेल समाप्त हो जाये। मन ही संसार का निर्माण करता है। यह निर्माण मेरा मन के द्वारा ही किया गया है। स्वामी जी! मैं मन से मुक्त नहीं हुआ हूँ। स्थूल शरीर छूट गया है। सौ वर्ष पहले ही मैं भाव शरीर से मुक्त हुआ हूँ। मैं आपका पूर्वज हूँ। आगे समयानुसार आपको परिचय दूंगा भाव शरीर से मुक्ति को ही प्रेत मुक्ति कहते हैं। सूक्ष्म शरीर से जन्म लेना, संसार में चक्कर लगाना लगा रहता है। अभी मेरे ऊपर किसी न किसी अदृश्य शक्ति का नियंत्रण है। उसी से नियंत्रित हूँ।
मन से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। मृत्यु शरीर को मार सकता है। सृष्टि की सभी वस्तुओं, शरीर धारी को, देवता, देवी सभी को मार देता है। परन्तु मन को मारने का सामर्थ्य इसमें नहीं है। मन मृत्यु के पार भी जाता है। मन केवल गुरु अनुकम्पा से गिरता है। या इसका रूपांतरण होता है। तब खुलता है द्वार समाधि
का। शरीर के साथ जैसे ही आत्मा आती है। मन स्वतः पैदा हो जाता है। यह बाइप्रोडक्ट है। फिर वह संसारी हो जाता है। माया के बंधन से आबद्ध हो जाता है। आत्मा जब मन से अलग होती है, ब्रह्म हो जाती है। वही ब्रह्म ऊपर के लोकों की यात्रा कर परब्रह्म हो जाता है।
मन वासना के पंजे में फंसा रहना चाहता है। मन का स्वभाव है वासना में रहना । वासना के लिए शरीर एवं इन्द्रियां चाहिए। यही कारण है कि प्रेत स्वस्थ सुन्दर शरीर नर या नारी में अधिकांश प्रवेश कर जाते हैं।
जो साधक होता है। उसके शरीर का आभा क्षेत्र इतना बढ़ जाता है कि साधारण प्रेत उसके नजदीक नहीं जा सकते हैं। उसका आभा मंडल उस प्रेत के लिए विद्युत तरंग की भाँति झटका देता है। जिससे प्रेत को कष्ट होता है।
जो व्यक्ति माँस मदिरा का सेवन करता है। मानसिक शक्ति कमजोर है। ध्यान पूजा नहीं करता है। व्यसनी है। उसमें प्रेतात्मा शीघ्र ही प्रवेश कर जाते हैं। उसे गुजरना स्थायी घर बनाना चाहते हैं। स्थूल शरीर में श्वास प्रश्वास है। परन्तु सूक्ष्म शरीर श्वास-प्रश्वास रहित है। यही कारण है कि सूक्ष्म शरीर दिक् काल से परे होता है। वह किसी भी स्थान पर तत्काल उपस्थित भी हो जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति उनसे सम्बन्ध स्थापित करना चाहे तब उसे थोड़ा सा तंत्र के माध्यम से होगा। सभी सूक्ष्मात्माएं सर्वत्र फैली है। वह भी संवाद स्थापित करना चाहती हैं।
हाँ अब आप सोच रहे हैं इतने सामर्थ्यवान् औघड़ जी ने आपको प्रत्येक खानदान के पितरों का ध्यान लगा रहता है कि हमारे वंश में कोई साधक संन्यासी हो जाये। इस पृथ्वी पर जैसे ही कोई साधु सन्यासी बनता है। पवित्र साधना करता है। ऋद्धि सिद्धि से मुक्त होकर करता है। उसके पितर अति प्रसन्न होते हैं। वे हर तरह से अपने वंशज की मदद करते हैं। जबकि वह वंशज उन्हें जानता भी नहीं है। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति पिता, पितामह तक ही जानता है। साधक के पितरों को शीघ्र ही निम्न से दिव्य लोक प्रदान किया जाता है। क्यों बुलाया ?
ये औघड़ जी चाहते हैं कि आप उनके विद्या को ग्रहण करें। आप मात्र एक सप्ताह उनके झोपड़ी में निवास करें। वे अपनी सभी विद्या तंत्र की सिद्धि आपको सौंप कर स्वतंत्र हो जायेंगे। अविद्या तंत्र न आप चाहते हैं न ही प्रदान करेंगे। चूँकि वह संसार बंधन का कारण है मेरी भी यही इच्छा है। इतना कहकर वे मौन हो गये। मेरी आँखें बन्द हो गई।
आँखें खुली तो देखता हूँ मैं तो उसी औघड़ बाबा की कुटी में कम्बल ओढ़ कर गद्दे पर सोया हूँ। सोचने लगा-क्या सत्य है ? रात्रि की घटना या प्रातः की। बाहर से आवाज आई- दोनों सत्य हैं। बाहर आया देखा औघड़ बाबा स्नान कर ध्यान कर रहे हैं। मैंने प्रणाम किया मुस्कुराते हुए बोले आगे भी सत्य है। आप शीघ्र स्नान कर आ जायें। मैं चल दिया गंगा के तरफ स्नान कर औघड़ के सामने पद्मासन पर बैठ गया। फिर वे एक-एक कर अपनी सिद्धियाँ मुझे प्रदान करने लगे। जिसका वर्णन फिर यथा समय किया जायेगा।
क्रमशः....