साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
हरि की अणु शक्ति
हरि जो मानवता का उत्कृष्ट प्रतीक स्वरूप था। पूरब में आ गया। उसने अपनी अणु विद्या से जगत् को नया आलोक दिया। उसने एक ऐसे तंत्र का आविष्कार किया जिससे मानव मन प्रत्येक अणु में परमात्म चेतन का दर्शन कर सके। विश्व का प्रत्येक अणु ही विश्व सृष्टा का रूप मालूम हो। इसी से कालान्तर में इसे विष्णु श्री कहा गया। इनका कार्य क्षेत्र दक्षिण पूर्व का समुद्र तटीय भूभाग था।
इनमें एक साथ युद्ध कौशल, तंत्र कौशल, अर्थ तंत्र, समाज तंत्र, नीति-शास्त्र का विकास हुआ। इसी से ये नीतिज्ञ भी कहे गये। ये एकाएक आँधी, तूफान की तरह चारों दिशाओं में छाने लगे। चारों दिशाओं में समान रूप से विश्व अणु तंत्र को प्रचारित करने लगे। यक्ष, गन्धर्व एवं देवों पर भारी पड़ने लगे। इसी से इन्हें चतुर्भुज भी कहा गया। जब ये हुँकार करते तो दिशाएँ काँप उठीं। देव, रक्ष, यक्ष, गन्धर्व, नाग, भयभीत हो उठते। इसी से इन्हें शंखधारी भी कहा गया। इनके तंत्र के साधकों के खिलाफ जो कोई उपद्रव खड़ा करता, व्यवधान डालता उस पर ये बोरदार गदा से प्रहार करते। इसी से इन्हें गदाधारी भी कहा गया। ये अपने साधकों के विविध (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापों के निवारण हेतु जिस दिव्य अस्त्र का प्रयोग करते उसे चक्र कहते थे, जिस चक्र की छत्र-छाया में साधक अपने दिव्यता को शीघ्र ग्रहण कर अपने कर्तव्य पथ की ओर अभिमुख होता है। इसी से इन्हें चक्रधारी भी कहते हैं। इनके पास उस समय का मूल्यवान वाहन पक्षी स्वरूप गरुड़ - भी था। जो मानस गति से चलता था। जिससे ये अपनी तंत्र विद्या का प्रचार शीघ्रता = से करने लगे। जन-मानस के कल्याण में यह गरुड़ भी वरदान सिद्ध हुआ। इसी
से इन्हें गरुड़धारी भी कहते हैं। यह गरुड़ स्वचालित था। साथ ही इसमें अपना एवं पराया समझने की क्षमता थी। दुष्ट एवं सज्जन समझने की कला थी। यह हरि सदाशिव से भिन्न थे। ये न तो काले न ही गोरे थे परन्तु इनका चेहरा ओज से चमकता हुआ साँवले रंग का था। सदाशिव की तरह भोले-भाले भी नहीं कहे जा सकते। कुछ कला में ये मानवेतर थे। तो कुछ कला में देवोत्तर। हर जीव से अपना कार्य कराने की अद्भुत क्षमता थी। अपनी बात मनवाने की अद्भुत कला थी। ये अपना रहस्य किसी को नहीं देते परन्तु दूसरे का रहस्य शीघ्र जान लेते थे। उसी के अनुरूप अपना कार्य संचालन करते। ये सिद्धियों के स्वामी हो गये। इसलिए इन्हें सिद्धपति भी कहते हैं। हरि-हर लेता हो जो अरि को यानी जो हरण कर लेता हो हर तरह के कष्टों को, इसी से इन्हें हरि भी कहा गया। बात करने में इनकी वाकपटुता देवताओं से भी आगे थी। मैं कोई आकाशीय हरि की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। ये हरि इस पृथ्वी के मानव संस्कृति के ही हैं। अतएव आप इसे मानव समझ कर ही विचार करें। चूँकि मेरी मान्यता है कि मानव ही परमात्मा बनता है। पूर्ण ब्रह्म को साकार करता है। या पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परमात्मा का अवतरण मानव मैं ही होता है। जिसकी देवतागण प्रार्थना किये हैं या करते हैं। परमात्मा का प्रतिनिधि मानव ही है। देव योनि भोग योनि है। मानव कर्म योनि है।
हरि का लक्ष्मी से शादी करना
हरि के बढ़ते हुए प्रभाव अणुधर्म को देखकर देवगण पुनः चिन्तित हो गये। इनसे सम्बन्ध स्थापित करने की विधि सोचने लगे। इनके लिए भी उसी ऋषि का प्रयोग करना उचित समझा जिनके लिए सदाशिव का किया गया। देवेन्द्र ने ऋषि नारद को आमन्त्रित किया। हालाँकि नारद मानव संस्कृति के ऋषि थे। परन्तु इनका गमनागमन हरि, हर, देव, यक्ष चारों तरफ समान रूप से था। इनको जहाँ प्रतिष्ठा मिलती वहाँ बिना किसी विचार के सहर्ष चल देते। इसी परिप्रेक्ष्य में अणु विद्या से देवेन्द्र की सभा में उपस्थित हो गये। यदि कहा जाये कि नारद हरि के अग्रगण्य शिष्यों में से थे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनका आकर्षक व्यक्तित्व था, अणु सिद्ध, पैर में खड़ाऊँ जिसके सहारे वे कहीं भी क्षणमात्र में पहुँच जाते थे। एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में करतल, मुँह में हरि के द्वारा दिया हुआ नारायणी मन्त्र। यह नारायण महामन्त्र था नारद के लिए। नारायण, नारायण जपते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान चले जाते थे। मानो हर समय नारायण के ही ध्यान में हों। भीतर बाहर, आगे-पीछे मानों नारायण ही दृष्टिगोचर होता हो। यही सिद्धान्त था अणु तंत्र का। नारद उपस्थित हो गये देवेन्द्र के सामने। देवेन्द्र उचित स्वागत करते हैं। नारद
से कुशल क्षेम पूछते हैं तथा मानव लोक एवं मानव संस्कृति का सन्देश पूछते हैं। नारद की वीणा जाग उठती है। कह देती है पूरा सन्देश हरि का। वीणा का मधुर स्वर एवं करतल की आवाज़ सुन देवेन्द्र झूम उठते हैं। देवगण लोग वाह-वाह करने लगते हैं। नारद समझ जाते हैं कि ये लोग भी हरि के गुणग्राही हैं। अतएव हरि के सम्बन्ध में वह सब कुछ बता देते हैं, जो उचित नहीं था। नारद स्वयं आमन्त्रित कर देते हैं देवेन्द्र को हरि से मिलने के लिए। वे प्रस्थान करते हैं। हरि के आश्रम पर पहुंचकर लोग हरि की पूजा-अर्चना करते हैं। हरि आने का कारण जानना चाहते हैं। नारद परिचय कराते हुए कहते हैं कि आप के दर्शनार्थ लोग आये हैं। नारद देवर्षियों से मन्त्रणा करते हुए हरि से समुद्रीय भू-भाग में अन्वेषण का प्रस्ताव करते हैं। देवेन्द्र अन्वेषण के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से हरि को समझाते हैं। जिससे हरि सहमत हो जाते हैं। इस तरह देवगण हरि से अपना सम्बन्ध बढ़ाते जाते हैं। देवेन्द्र अपनी राजधानी में मन्त्रणा करते हैं कि सदाशिव की तरह हरि से रक्त सम्बन्ध हो जाता तो देव लोक का काम आसान हो जाता। इसके लिए नारद को उपयुक्त समझा जाता है। नारद से देवेन्द्र घुमा-फिराकर वाक् जाल में फँसाकर समुद्रतटीय राजा सागर (समुद्र) की पुत्री के सम्बन्ध में हरि की इच्छा जानना चाहते हैं।
नारद नारायण-नारायण कहते हुए वहाँ से प्रस्थान कर जाते हैं। देवेन्द्र वृहस्पति को बुलाते हैं। वृहस्पति से एकान्त में कुछ मन्त्रणा करने के पश्चात् वे लोग राजा सागर के यहाँ पहुँच जाते हैं। राजा सागर वर्तमान के अण्डमान निकोबार द्वीप के आस-पास के राजा थे। देवेन्द्र एवं वृहस्पति हरि की, हरि के सम्बन्ध में कुछ चर्चायें करते हैं तथा हरि के प्रखर ज्ञान एवं क्षमता का संदेश दे उनकी पुत्री लक्ष्मी के संबंध में कुछ जानना चाहते हैं। सागर सहर्ष अपनी लड़की का सम्बन्ध हरि से करने को तैयार हो जाते हैं। सोचते हैं यह सम्बन्ध हो जाने से हम सब की ताकत बढ़ जायेगी। इधर नारद हरि से देवेन्द्र का सन्देश सुनाते हैं एवं वहाँ से सीधे सागर के घर पहुँच जाते हैं। राजा सागर उचित समय पर नारद को देख प्रसन्न होते हैं एवं अपनी लड़की से ही आतिथ्य सत्कार कराते हैं। उस लड़की की भाग्य रेखा देख नारद अचंभित हो जाते हैं। वे देखते हैं यह लड़की जिसके साथ रहेगी वह वैभवपूर्ण जीवन, सब सुख-सुविधाओं का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करेगा। उस लड़की के रूप एवं शुभ लक्षण देख मोहित हो जाते हैं। सागर को शुभ-अशुभ लक्षण बता देते हैं। नारद वहाँ से हरि के नज़दीक आ लक्ष्मी के गुणों का वर्णन करते हैं जिसे सुनकर हरि विवाह सम्बन्ध करने को स्वीकृति दे देते हैं।
अणु तंत्र
अब चर्चा करते हैं भक्ति (अणु तंत्र) पर। अणु तंत्र के साधक सदैव स्वतंत्र
होते हैं। बन्धन मुक्त होते हैं। चूंकि परम पुरुष का उसे सान्निध्य प्राप्त होता है। इसलिए प्रकृति अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकती है। तब जीव, जीव न होकर हरि हो जाता है। जीव में जैव पुरुष को जैवी प्रकृति के ऊपर प्रतिष्ठित करने की कला को ही अणु तंत्र कहते हैं। इस जगत् में प्रकृति क्रिया-कलाप के प्रथमार्ध मैं प्रकृति का बन्धन दृढ़ हो जाता है। यानी सृष्टि सूक्ष्म से सूक्ष्म की ओर बढ़ती है। प्रकृति के कार्य में पुरुष की इस शिथिलता को ही संचर क्रिया कहते हैं। जब पुरुष अपनी शिथिलता को नियन्त्रित करता है तब वही स्थूल सृष्टि सूक्ष्म की ओर चल देती है। तब प्रकृति को नियन्त्रण में ले लेती है। तब प्रकृति अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकती है। जब पुरुष का नियन्त्रण लागू होता है, तो सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए अव्यक्त में समाहित हो जाती है। सृष्टि-क्रम की इस व्यवस्था को प्रतिसंचर कहते हैं। इस प्रकार वहिरङ्गिकर और अभ्यान्तरीण के परस्पर संघर्ष का ही परिणाम है अणु-परमाणु। जिससे शरीर का निर्माण होता है। पुनः आभ्यान्तरीण संघर्ष से शरीर (जड़) के अणु-परमाणु चूर्ण-विचूर्ण होकर मानस या मन में बदल जाते हैं। इसी को चित्त भी कहते हैं। पुरुष की शिथिलता प्रत्याहत होने पर चित्त में भी आभ्यान्तरीण युद्ध होता है। जिससे चित्त भी टूट जाता है। तब सूक्ष्मत्तर सत्ता अहं तथा महत् का विकास होता है। इसके साथ ही सत्ताबोध प्रकट हो जाता है। इसके साथ ही "मैं" पन प्रकट हो जाता है। जब "मैं" पन से हटकर बोधि सम्यक विकास होता है, तब ज्ञात होता है कि सबके मूल में एक ही सत्ता है। तब वह अपनी समस्त वृत्तियों को खींचकर उस एक की ओर छोड़ देता है। जैसे न्यूक्लियस के चारों तरफ न्यूक्लियाई आ जाते हैं। परमाणु के चारों तरफ अणु आ जाते हैं। तब एक ही वृत्ति शेष रह जाती है। वह है- "आनन्द"। इसी आनन्द की उपलब्धि ही है "अणु तंत्र"। नारद इसे सुनकर भाव विभोर हो उठते हैं। इस सर्वज्ञ बोधि को जानकर वे परम-पद, परम साध्य, परम ध्येय, आनन्द को उपलब्ध हो जाते हैं। जब साधक अपने प्राण को विश्व-प्राण में यानी अपने प्राण रूपी अणु को विश्व अणु में मिला देता है तो समाप्त हो जाता है। उसका क्लेश, दुःख का हरण कर लेता है हरि। तब वह भी हो जाता है विष्णु। यह है हरि का अणु तंत्र जो सभी को अपने समान ही बनाने की क्षमता रखता है। यह सम्यक स्व बोधि की विधि मानव संस्कृति की देन है। जिसे अन्य संस्कृति के लोगों ने सहर्ष ग्रहण किया।
समुद्र मंथन
नारद इस अणुतंत्र को लेकर मानव संस्कृति में फैलाते हुए पुन: देवेन्द्र के यहाँ जा पहुँचे। देवेन्द्र इसे सुनकर हतप्रभ हो जाते हैं तथा समुद्रीय, तटीय उसके इर्द-गिर्द के पर्वतीय भाग में अन्वेषण के लिए उत्प्रेरित करते हैं। जिसे कालान्तर में समुद्र मन्थन भी कहा गया। चूँकि देवेन्द्र जानते थे कि यक्ष संस्कृति से ही सम्बन्ध रखने वाले कुछ नाग एवं गन्धर्व लोग जो वर्तमान तिब्बत और भूटान के भू-भाग में रहते थे। जो विज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। जिन्होंने विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक संसाधनों का विकास कर लिया है। उनका बाह्य जगत् के किसी भी संस्कृति से कोई खास सम्बन्ध भी नहीं है। वे अपने आप में मस्त हैं। उनकी खोज में प्रमुख थी-एक ऐसी विधि जिससे दूध की धारा निकाली जा सके यानी मनोवांछित दूध रूपी धारा प्राप्त की जा सके जिसे कामधेनु के रूप में जाना जाता था। एक ऐसा आनन्दमयी वृक्ष जिसकी शीतल छाया में बैठने मात्र से मन, बुद्धि, चित्त शान्त हो जाये। मन स्वतः अन्तःकरण स्वरूप को ग्रहण कर ले। जिसे कल्पवृक्ष के रूप में जाना जाता था यानी जो कल्पों तक के प्रयास से न प्राप्त हो वह इसके सान्निध्य में आते ही प्राप्त हो जाता है। एक ऐसा द्रव्य जिसके पीने मात्र से वृद्ध व्यक्ति युवावस्था को प्राप्त कर ले, रोगी पूर्णतः स्वस्थ हो जाये। मरे हुए व्यक्ति में जीवन का संचार हो जाये। युवा चित्त अमरत्व को ग्रहण कर ले, जिसे अमृत कहा गया। ठीक इसके उल्टा ही एक दूसरा द्रव्य जिसका प्रयोग अपने शत्रुओं पर किया जा सके, जिसके स्पर्श मात्र से मृत्यु को प्राप्त हो जाये। आज के पोटेशियम साइनाइड से भी संघातक द्रव्य था वह जिसे "काल कूट" विष कहा
जाता था।
ऐसी युद्ध सामग्री जो स्वचालित थी एवं दुश्मनों पर भारी पड़ने वाले अस्त्र जिसे गदा एवं चक्र कहा गया। साथ ही अपने दुश्मनों से प्रति रक्षार्थ एक ऐसा यन्त्र जिसके ध्वनि मात्र से शत्रु पक्ष दहल जाये, जिसे शंख कहा गया। इसी तरह आर्थिक क्षेत्र में भी एक ऐसी तकनीक थी जिससे समुन्नत एवं आर्थिक रूप से दृढ़ हो सकें, जिससे ज्यादा से ज्यादा अर्थ संग्रहीत किया जा सके, उसे महालक्ष्मी कहा गया।
उनके विकास की जो प्रक्रियाएँ थीं वे उस समय काल के लिए उत्कर्ष पर थीं। जिसका पता इन्द्र अपने खुफिया तंत्र यानी नारदीय व्यवस्था से कर लेते थे। अब देवेन्द्र की निगाह उसे प्राप्त करने पर टिकी हुई थी। अब उन्हें चाहिये था एक ऐसा सशक्त योद्धा जो नेतृत्व कर सके तथा जिसके मिलने पर उस सम्पदा का समुचित बँटवारा देवगणों के बीच हो सके। सोचने-समझने मन्त्रणा करने के पश्चात् ध्यान "हरि" पर टिक गया। देवेन्द्र ने हरि से पुनः सम्पर्क स्थापित कर अपनी सागर मन्थन खोज का प्रस्ताव उनके सामने रखा। साथ ही उनसे यह भी प्रस्ताव किया गया कि इससे प्राप्त मनोवांछित वस्तुओं को आप ग्रहण कर सकते
हैं। इस तरह हरि को समझा-बुझाकर येन-केन-प्रकारेण तैयार कर लिया गया। अब होने लगी समुद मन्थन की तैयारी। हरि के इर्द-गिर्द देवेन्द्र की नारदीय व्यवस्था कसती गयी। हरि नै समझाया कि देवेन्द्र जब उनकी युद्ध कला, अर्थकला, राजनीतिकला इतनी समृद्ध है तो उसे प्राप्त करना अत्यन्त दुरूह प्रतीत होता है अतएव तुम रक्ष संस्कृति के शूरवीरों को भी इस कार्य के लिए, आमन्त्रित करो। देवेन्द्र ने इस प्रस्ताव पर अपने सभासदों तथा बृहस्पति, शुक्राचार्य, वशिष्ट, अगस्त्य इत्यादि से मन्त्रणा की एवं हरि को आकर समझा दिया कि ठीक है उन्हें भी आमंत्रित कर लिया जाये परन्तु इस कार्य का नेतृत्व आप करें। हम लोग आपके साथ पीछे की तरफ से शुकवत चढ़ाई करेंगे तथा रक्ष (राक्षस) गण सामने के द्वार से बाँधवव्रत घेर लेंगे। सामने से जब घेरा मजबूत करेंगे तो नागों द्वारा जो अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग होगा वह राक्षस गण पर ही होगा। हम लोग सुरक्षित पीछे से सब कुछ हासिल करने में सफल हो जायेंगे। जिसका बँटवारा आप जैसे कहेंगे वैसे ही कर दिया जायेगा। हरि अब चूँकि देवगणों के समीप ज्यादा से ज्यादा रहने लगे। अतएव उनकी नीति उन्हें रुचिकर लगी। सीधे-सादे बहादुर रक्ष, देव आमन्त्रण पर तो नहीं आते परन्तु देखा कि हरि ही नेतृत्व करते हैं तब विश्वास कर आ गए। देवगण योजनाबद्ध ढंग से चढ़ाई कर दिए। उसी विधि को वासु की (बाँध वत एवं शुकवत) बाँध कहते हैं। नाग मुख्यतः ब्रह्म लोक के वासी थे। सामने से रक्ष (राक्षस) गण चढ़ाई किये, जिससे क्रुद्ध नागवंशीय गण अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ जुट गये। उस आक्रमण में बहुत सारे रक्ष गण मारे गये बहुत घायल हुए जिसे नाग का विष वमन कहा गया।
देवगण के साथ हरि पिछले भाग से सारे बहुमूल्य रत्न उठा लाये। इस तरह की चढ़ाई उस समय के लिए बिल्कुल नयी थी। सभी सामने से युद्ध करते थे। पीछे से कोई नहीं घुसता था। लूट-पाट नहीं करता था। औरतों को कतई छूता तक नहीं था। अतएव नाग लोग इसके लिए तैयार नहीं थे वे हार गए। देवगणों द्वारा वहाँ से सीधे भू-मण्डल पर आकर बंटवारा किया गया। उधर मृत, घायल, मौत से जूझ रहे रक्ष गणों को यों ही छोड़ दिया गया। जीत के उपलक्ष्य में हरि की सागर पुत्री लक्ष्मी के साथ शादी सम्पन्न हो गयी। हरि की इच्छानुसार शंख, चक्र, गदा, लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) इत्यादि इन्हें मिल ही गया। शेष भाग देवगण के लिए। अब बचा अमृत एवं विष।
शिव का विष पान
यह तय हुआ कि विष कौन ले ? चूँकि यह अहितकारी एवं विध्वंसक था. जिसे कहीं भी रखना असम्भव था। अतएव सबने तय किया कि इसे रक्ष संस्कृति के प्रतीक सदाशिव को पिला दिया जाये। चूंकि वे समझ गये थे कि इनके सारे गण तो राजा वासुकी के विष वमन से मर गये। अब बचे शिव, इन्हें यह पिला दिया जाये। देवगण यह भी जानते थे कि सदाशिव को भस्मासुर नामक देव से हरि ने हो बचाया था। अतएव हरि की बात सहर्ष शिव स्वीकार कर लेंगे। हरि को पुनः समझा-बुझाकर तैयार किया गया। देव-यक्ष गण सदाशिव के यहाँ पहुँचे। अचानक देवों का आगमन देख सदाशिव चकित हुए साथ ही आने का हेतु (कारण) पूछा। देव बोले कि हमारे ऊपर आप विश्वास रखते हैं। सदाशिव ने उत्तर दिया-तुमने हमें बचाया है। अतः यदि तुम कहो तो मैं मृत्यु को भी स्वीकार कर सकता हूँ। बस देवेन्द्र ने विष-पात्र की तरफ इशारा कर दिया। आप इसे पान करें। यह एक रत्न है जो समुद्र मन्थन में मिला है इस अमूल्य द्रव रूपी रत्न को आपके ही लिए हम लोग यत्नपूर्वक ला रहे हैं। शिव निःश्छल, निष्कपट बिना किसी सन्देह के तुरन्त विष पात्र उठाकर पान कर जाते हैं। ज्योंहि मुँह में लेते हैं, समझ जाते हैं कि यह विष है। जो हमारे मृत्यु का प्रतीक है। देवगणों ने मिलकर धोखा दिया। वे महान् तंत्र विद् थे। अतएव विष को कण्ठ में ही रोक लिया। जिससे वे नील-कण्ठ कहलाये। विष की गरमी से अत्यन्त व्याकुल हो उठे। वे बोले-देवेन्द्र आप से यह उम्मीद नहीं थी। खैर तुम्हारे उपकार का बदला देना था। सब स्वीकार्य है।
यही कारण है कि शैव एवं वैष्णव में बहुत दिनों तक युद्ध हुआ। दोनों में कभी
नहीं पटी। इसे पटाने का भरसक प्रयत्न तुलसीदास ने भी किया। अन्यथा शैव की नागा फौज केवल वैष्णवों के लिए ही थी।
इस तरह वैष्णवों एवं शैवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी झगड़ा चलता रहा। शैव या रक्ष संस्कृति के लोग देवेन्द्र के द्वारा किये अपमान का बदला लेना चाहते थे।
अमृत का बंटवारा
इधर हरि सब देवगणों को लेकर देवेन्द्र की नगरी पहुँच गये। जहाँ अमृतकलश रखा हुआ था। अब वे लोग इसे गुपचुप देवताओं, यक्ष एवं विष्णु (हरि) के द्वारा अधिकृत व्यक्तियों में बांटना चाहते थे। तब तक बचे हुए रक्ष संस्कृति के गणमान्यजनों को यह सारी घटना मालूम पड़ गयी कि समुद्र मन्थन की प्रक्रिया कुछ नहीं थी बल्कि रक्ष संस्कृति के लोगों का सफाया करना था, जिससे निकले हुए 12 रत्न तो आपस में बांट लिए, एक रत्न विष हमारे गणपति या गणाध्यक्ष सदाशिव को धोखे से पिला दिया। अब एक रत्न अमृत बचा है जिसका वे सब अपने में बंटवारा करना चाहते हैं। अतः रक्ष संस्कृति के श्रेष्ठजनों ने न्यायोचित हिस्सा पाने के उद्देश्य से देवलोक पर धावा बोल दिया। जैसे ही देवेन्द्र को पता बहला उन्होंने अमृतकलश को सूर्य, चन्द्रमा, बृहस्पति, मकर, इत्यादि देव गणों के संरक्षण में वहाँ से हटा दिया एवं हरि के नेतृत्व में रक्ष यानी राक्षस लोगों से घोर युद्ध होने लगा। जब राक्षस लोगों को यह मालूम हुआ कि अमृतकलश अन्यत्र हटाकर हम लोगों को युद्ध में फंसाये रखना चाहते हैं, अतएव अमृतकलश जिस दिशा में रखा था उधर ही दौड़े। प्रथम दिन अमृतकलश स्वर्ग से लाकर पृथ्वी पर वर्तमान इलाहाबाद में रखा गया। जब राक्षसगण इलाहाबाद पहुँचे, तो देवगणों के साथ यहाँ भी घोर संग्राम हुआ तथा उस अमृतकलश को लेकर देवगण वहाँ से हरिद्वार में पहुँच गये। इस तरह से वहाँ युद्ध होने पर उज्जैन की तरफ भागे जिसे धारा नगरी भी कहा गया था। जहाँ कभी सदाशिव भी रहे थे इसीलिए उसे महाकालेश्वर भी कहा जाता है। पुनः राक्षसों के द्वारा यहाँ भी आक्रमण करने पर अमृतकलश लेकर नासिक पहुँचे। इस तरह इस पृथ्वी पर यह अमृतकलश चार जगह रखा गया था। उस भूमि भाग पर वर्षों युद्ध चलता रहा। कुछ जगह लिखा है कि एक-एक जगह 12-12 दिन युद्ध हुआ। कुछ जगह 12-12 वर्ष तक युद्ध का वर्णन मिलता है। खैर जो हो ऐसी मान्यता है कि उस भूमि पर अमृतकलश से कुछ अमृत गिरा, जिससे वहाँ कुम्भ लगता है। कुम्भ यानी घड़ा, जो घड़ा अमृत से भरा हो, उसे कुम्भ कहते हैं। इस अमृत कुम्भ का वर्णन तंत्र विज्ञान में सदाशिव ने भी किया है जो प्रत्येक मानव के अन्दर ही है और विशेष विधि से उस अमृत का पान कर मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है। इस तरह यह अमृतकलश पुनः गन्धर्व, यक्ष लोक होते हुए देवलोक में पहुँच जाता है। राक्षस गण इतना युद्ध करने के पश्चात् थक कर निराश हो गये। तब देवगण विष्णु (हरि) के नेतृत्व में इस अमृत का बंटवारा करने के विषय में सोचे।
क्रमशः....