साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

भरत का आगमन

भरत भक्ति के प्रतिरूप हैं तो शत्रुध्न विवेक के। सन्देश मिलने पर अयोध्या आते हैं। यहाँ की स्थिति देखकर भयभीत हो जाते हैं। देव संस्कृति के प्रतिनिधि इन्हें राजा के रूप में देखना चाहते हैं। वशिष्ठ राज्य ग्रहण करने का विवेचन भी करते हैं। भरत भाई शत्रुध्न की तरफ देखते हैं। शत्रुध्न विवेक विचारवान जो ठहरे, तुरन्त बोल देते हैं नहीं यह असम्भव है राजा तो राम ही होंगे। यही कुल की परम्परा है। वशिष्ठ वगैरह लोग भाँप जाते हैं। अब गृहयुद्ध हो सकता है। चूँकि दशरथ जी राम, सीता, लक्ष्मण के वियोग में शरीर छोड़ चुके हैं। प्रबुद्ध नागरिक एवं मन्त्रीगण भी मृतवत हो गये हैं। कौशल्या एवं सुमित्रा की स्थिति भी दारुण है। अब स्थिति अति को भी पार कर सकती है। शत्रुध्न विवेकवान हैं। अविवेकी कार्य कभी सहन नहीं करेगा। वह विद्रोह कर ही देगा। हम लोग अब कहीं के नहीं रहेंगे। अतएव अपने विपरीत परिस्थिति देख सब मौन हो जाते हैं। शत्रुध्न मंथरा को बंदी बनाते हैं जो श्री राम के खिलाफ आवाज उठाने का दुःसाहस करती है उसे कारागार में डाल देते हैं। कह देते हैं जो भूलकर भी राम के खिलाफ सोचेगा, बोलेगा वह हमारा शत्रु है। शत्रु से कैसे निपटा जाता है वह हम जानते हैं। हद हो गयी हमारे परिवार में द्वंद्व डालकर सारा परिवार ही नहीं अपितु राष्ट्र ही तहस-नहस कर दिया। अबआगे इस तरह की हरकत कदापि बर्दाश्त नहीं होगी। पुरोहित वशिष्ठ जी आप किस मुँह से भैया भरत का राज्याभिषेक करना चाहते हैं। क्या यही है हमारे परिवार की परम्परा। क्या यही है अयोध्या की रीति-नीति ? आप नीतिज्ञ कहे जाते हैं। काम कारते हैं, अनीति का। जाइये राम को राज्य देने की तैयारी कीजिये। हम दोनों भाई कायेंगे वहाँ जहाँ राम हो। हम दोनों जंगल जायेंगे। वे ही दोनों भाई हमारे पूज्य हैं। राम ही अयोध्या में राज्य करेंगे। आप यहाँ के मुख्य सचिव भी हैं। भाई राम के बन गमन एवं पिता की मृत्यु के पहले हमें क्यों नहीं सूचना दी गयी। इस तरह की सूचना क्यों आपके द्वारा छिपाई गयी। क्यों नहीं माँ कैकयी एवं मंथरा को बंदी बनाया गया। देश में आपात काल की घोषणा क्यों नहीं की गयी? देखते हैं कौन विद्रोह करता है भाई राम के खिलाफ । शत्रुध्न का विवेकपूर्ण वचन सुन एक तरफ अयोध्या की जनता में जीवन का संचार होता है तो दूसरी तरफ विरोध दब जाता है। भरतजी को शत्रुध्न का सुझाव हितकर लगा। भक्ति बिना ज्ञान के कैसे रह सकती है वे बेचैन हो उठते हैं। पिता की भी मृत्यु हो गयी है। विपरीत परिस्थिति देख माँ कैकयी को भी कटु वचन बोलते हैं। भविष्य में माँ कहने से भी इन्कार कर देते हैं। स्वयं भी राम सा संन्यासी का जीवन व्यतीत करने की शपथ ले लेते हैं। चौदह वर्ष तक राम के प्रतीक खड़ाऊँ को रखकर भक्ति में लग जाते हैं। जो भी राम का प्रिय है उन्हें प्रिय लगता है। वे अपनी सुधि खो देते हैं। राम-राम कहते उनके ही ध्यान में, नन्दी ग्राम की पर्ण कुटी में चौदह वर्ष व्यतीत कर देते हैं। राम का परित्याग कर भक्ति कैसे राज्या-रूढ़ हो सकती है। इस अवधि में शत्रुध्न ही अपने विवेक द्वारा भरत का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस पृथ्वी पर पहली बार राजमुकुट एवं राजसिंहासन चौदह वर्ष तक गेंद बनकर रह गया। किसी ने ग्रहण तक नहीं किया। राम ने भरत के लिए परित्याग किया। भरत ने राम के लिए। यही होता है भगवान् एवं भक्त के बीच, दोनों के बीच कोई दरार डाल ही नहीं सकता। डालने वाले का ही मुँह काला हो जाता है। इसी अवधि में राम राज्य लागू किया गया है। इस राज्य का संविधान लिखने वाले हैं- महर्षि वाल्मीकि। भक्त ही भगवान् का साम्राज्य स्थापित कर सकता है। शत्रुध्न देव संस्कृति के ऋषिगणों को आदेश दे डालते हैं। अब आपको रहना है तो हमारी सभ्यता संस्कृति के अनुरूप रहना होगा। राम को ही राजा मानना होगा अन्यथा आप लोग इस देश का परित्याग कर खुशी-खुशी देव राष्ट्र वापस जा सकते हैं। अब राम राज्य लागू होगा ही। भरत की मौन स्वीकृति है। उन्हें शत्रुध्न के विवेक पर पूर्ण विश्वास है अतएव भरत जी राम राज्य की बागडोर शत्रुध्न के हाथों में सौंप स्वयं नन्दीग्राम में भक्ति में लीन हो जाते हैं। जागते-सोते, खाते-पीते हर समय, हर क्षण राम ही उन्हें याद आते हैं।राम के सिवाय न कुछ देखना चाहते हैं न ही सुनना। भीतर-बाहर भरत राममय हो जाते हैं। यही है भरत की भक्ति। जिस भक्ति के पोषण हैं-राम। सभी खुश हो जाते, आनन्दित हो जाते हैं। सबके प्यारे हो जाते हैं- भरत। वशिष्ठ की बहुत सी राज्य द्वारा प्रदत्त शक्तियाँ, शत्रुघ्न द्वारा छीन ली जाती हैं। भरत का संसर्ग है शत्रुघ्न रूपी विवेक से। विवेक का साम्राज्य है भक्ति से। फिर तो राम राज्य होगा ही एवं एक-न-एक दिन राम रूपी ज्ञान एवं लक्ष्मण रूपी वैराग्य को स्वयं आना ही होगा। हृदय से लगाना ही होगा।

राम का दंडकारण्य प्रवेश

     राम अब ऐसे अरण्य में प्रवेश कर रहे हैं। जहाँ सब नहीं तो अधिकांशतः दण्ड के ही अधिकारी हैं। एक तरह यही वह स्थान है जहाँ देवता एवं राक्षस दोनों मिलकर मानवता को समाप्त करने के लिए नित्य नयी कूटनीति का सृजन करते थे। दोनों का सम्मिलित मुख्यालय था। जिसका संचालन स्वयं देवराज इन्द्र करते थे। इस अरण्य में ज्यादातर ब्रह्मा के ही वंशज होंगे। जिसे बाल्मीकि रामायण के माध्यम से स्पष्ट किया गया है, जो उनके ही आशीर्वाद से पलते एवं बढ़ते थे। इसीलिए बाल्मीकि एवं महर्षि अत्रि ने राम को दण्डकारण्य भेजा। दण्डकारण्य की सुरक्षा का दायित्व विराध नामक यक्ष का था। राम का प्रवेश करते ही विराध से सामना होता है। विराध सीता को उठा ले जाता है। सीता रूपी आत्मा निष्काम कर्म के उठाने पर रामरूपी ज्ञान असहाय हो जाते हैं। उनके मुँह से स्वतः निकल जाता है, हे भाई लक्ष्मण! जितना कष्ट पिता के मरने का, कैकयी द्वारा भरत को राज्यगद्दी, हमें बनवास भेजने का नहीं हुआ था उससे अधिक कष्ट सीता को विराध के द्वारा उठाने पर हुआ है। कैकयी ने दूरगामी सोच के तहत ही हमें वन भेजा था। यहीं सीता का हरण एवं राम की मृत्यु हो जायेगी। जिससे भरत का राज्य अचल स्थिर हो जायेगा। फिर राम एवं लक्ष्मण के मिश्रित प्रयास से यक्ष विराध, घायल हो जाता है। जिससे विराध अपने एवं आगे के तथाकथित ऋषियों के सम्बन्ध में बता देता है जिससे राम सावधान हो जाते हैं।

    सरभंग-सुतीक्ष्ण

    राम सावधान होकर जैसे ही सरभंग जी के आश्रम पर जाते हैं। दूर से ही देखते हैं कि देवराज इन्द्र वहाँ पधारे हैं। यह देख उनकी शंका दृढ़ हो जाती है। ये छिपकर सरभंग एवं इन्द्र की वार्ता सुनते हैं। जिसे अपने शिष्य यानी गुप्तचर के माध्यम से सरभंग जान लेते हैं। राम के देखते ही देखते वे भयातुर हो इन्द्र के साथ ही ब्रह्मलोकभाग खड़े होते हैं। यानी राम रूपी ज्ञान के द्वारा जिस देवर्षि का सर भंग कर दिया गया, वही थे सरभंग। अब अन्य ऋषि निर्भीक हो राम से मिलते हैं एवं वहाँ के सुतीक्ष्ण और अगस्त्य के सम्बन्ध में विस्तार से बता देते हैं। वे कहते हैं राम इस वन में निवास करने वाला प्रस्थी महात्माओं का यह समूह है जिसमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक है। (वा०) इस प्रकार वे ऋषिगण बातें करते हुए हड्डियों, अस्थि पिंजरों के ढेर को दिखाते हैं। यही शोचनीय है। इसी वन में हिंसक पशु भी हैं, राक्षस भी हैं, देव भी हैं, देवर्षि भी। इसका क्या कारण हो सकता है? अस्थि पिंजर भी यहीं है और किसी वन या ऋषि आश्रम के नज़दीक नहीं। साथ ही यहीं के ऋषि ब्रह्मलोक भी जाते हैं एवं स्वयं इन्द्र भी आते हैं एवं राम को देख चुपके से भाग जाते हैं। इन्द्र ने चित्रकूट अपने पुत्र जयन्त को भेजा एवं यहाँ वे स्वयं आये। क्या विराध की मृत्यु का सन्देश सुनकर घबराहट में आये? खैर राम आगे बढ़ जाते हैं। राम का यह कार्य दण्डकारण्य में देवलोक के लिए दुःखद समाचार था। तथाकथित देवर्षि अन्दर-अन्दर हिल गये थे। राम सोचते हैं ये लोग ही यज्ञ के नाम पर पशु यज्ञ, नरमेघ यज्ञ एवं इन्द्र देवर्षि की खुशी के लिए सोमयज्ञ किया करते हैं इसी से अस्थी पंजर यहाँ बहुत हैं। हिंसक पशु इनकी रक्षा में नियुक्त हैं। अतएव विशेष सावधानी की जरूरत इसी वन में है। ऐसा सोचते वे पहुँच जाते हैं सुतीक्ष्ण के आश्रम में।

     सुतीक्ष्ण गौतम वंशीय हैं। वे पहले ही अपनी माँ अहिल्या का उद्धार राम के द्वारा सुन चुके हैं। यहाँ तक आने का सन्देश एवं घटना भी सुन चुके हैं। राम पहुँच जाते हैं सुतीक्ष्ण के सामने। राम स्वयं अपना परिचय देते हैं। यह देख सुतीक्ष्ण बार-बार चरण पकड़ते हैं।

"तब मुनि हृदय धीर धरि गहे पद बारहि। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा विविध प्रकार ॥"

   सम्भवतः यह पहले ऋषि हैं जो बार-बार पैर पकड़ रहे हैं। यह भय का ही चिह्न इंगित करता है। इधर सीता राम से कहती है है राम! दण्डक वन में मेरा मन व्याकुल हो रहा है। यहाँ आना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। सीता सरल है। निष्कपट है। उन्हें यहाँ के देवर्षि राक्षस एवं देव का व्यवहार अच्छा नहीं लगता है। राम अगस्त्य के आश्रम जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं तो सीता भयभीत हो जाती है। खैर सुतीक्ष्ण स्वयं कहते हैं है राम! वे हमारे गुरु हैं। हमें गये हुए भी बहुत दिन हो गये, मैं स्वयं आपके साथ उनके आश्रम पर चलता हूँ।

    अगस्त्य

    राम अगस्त्य जी के आश्रम पहुँचते हैं तथा उनसे मिलकर आश्रम घूमने काआग्रह करते हैं। सभी कक्ष में देखते हैं कि इन्द्र, ब्रह्मा, विवश्वान, चन्द्रभान, कुबेर, धाता, वायु, वरुण इत्यादि देवताओं के लिए स्थायी आसन भी बने हुए हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि कुछ समय पहले ही इन्द्र यहाँ से गये हैं। यहाँ का खर्च कुबेर स्वयं चलाते हैं। अगस्त्य के भाई विश्वकर्मा यह भी बताते हैं कि वातापि तथा इल्व नामक ब्राह्मण जो बकरे के भेष में थे। देवर्षि अगस्त्य खा गये। अस्त्रास्त से यह भी ज्ञात हुआ कि भ्राता वशिष्ठ के द्वारा राम के सम्बन्ध में सन्देश मिलता रहता था। राम स्थिति को समझ गये कि यही मुख्यालय है जहाँ से संचालित होती है देव संस्कृति पृथ्वी पर। भारतीय संन्यासी को बकरा कह कर ये अगस्त्य खा गये। यही वह केन्द्र है जहाँ से रक्ष संस्कृति के लोगों द्वारा मानव संस्कृति के ऋषियों एवं लोगों के खिलाफ षड्यन्त्र रचे जाते हैं। ये लोग ही किसी भी सद् विप्र को बकरा कह कर मारकर खा जाते हैं। पूरे मानव समाज की संरचना को तोड़मरोड़ कर रख दिए हैं, ये लोग। राक्षसों द्वारा दण्डकारण्य में ये रक्षित हैं। इन्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं। अगस्त्य जी भी राम लक्ष्मण एवं सीता के ललाट देख एवं उनके सम्बन्ध में सुनकर भयभीत हो जाते हैं। किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ाते हुए ये वहाँ जाने को कह देते हैं जहाँ राक्षसों का मुख्यालय है। दोनों का मुख्यालय करीब-करीब ही था, जिससे सन्देश एवं विचार का आदान-प्रदान शीघ्रता से हो सके। इधर राम को पंचवटी जाने तथा रहने का सुझाव देते हैं। उधर खरदूषण को भी सन्देश भेज देते हैं कि राम वहीं निवास करेंगे। आप लोग उन पर ध्यान रखें। किसी भी तरह यह सन्देश शीघ्र लंकापति रावण को दे दें। यह बहुत ही खतरनाक व्यक्ति हैं। अतएव इनका सामना कल-बल-छल से किया जाये। अगस्त्य ब्रह्मा के पुत्र हैं। रावण ब्रह्मा का प्रपौत्र है। इस तरह इनका रिश्ते में पौत्र ही रहा।

राम का पंचवटी आना तथा जटायु से संबंध होना

    राम ने देवर्षि के मार्गदर्शन पर पंचवटी के लिए प्रस्थान कर दिया। रास्ते में ही गृध राज जटायु मिल जाते हैं। राम के पूछने पर अपना परिचय देते हुए बोलते हैं-हे राम ! मैं आपका मित्र हूँ। आप को जानता हूँ। आपके पिता हमारे मित्र थे। निषाद राज के बाद ये दूसरे व्यक्ति हैं। वे आगे कहते हैं हे राम! यहाँ राक्षसों का प्रचण्ड प्रकोप है। राक्ष तथा देव संस्कृति में सन्धि है। दोनों एक ही बात बोलते एवं सोचते हैं। जिधर से आप आये उधर देवर्षियों का आश्रम के रूप में कार्यक्षेत्र था तो इधर राक्षसों का। पहले राक्षस संस्कृति बहुत ही पुनीत एवं पावन थी। तब मानव संस्कृति से इसकी सन्धि थी। परन्तु संसर्ग में आने पर गुण-दोष होता है। जैसे कैकयी के मंथरा के संसर्ग में आने पर हुआ तब आपकी अयोध्या की जो स्थिति हुई वही स्थिति हम लोगों की हो गयी है। निषाद राजा थे। उन्हें जंगलीशूद कह दिया गया। अनि के आश्रम पर देवताओं की पहुँच नहीं हो सकी। चूंकि, अत्रि को तंग करने हेतु देवराज इन्द कई बार गये। परन्तु अत्रि एवं माँ अनसुइया के तप और तेज के सामने टिक नहीं सके। स्वयं देवेन्द्र, ब्रह्मा एवं विष्णु भी उन्हें भ्रष्ट करने पहुँच गये। परन्तु तप बल से माँ अनसुइया ने उन्हें बालक बनाकर पालते में रख दिया। इन देवों की पत्नियों की बहुत अनुनय-विनय पर इस शर्त पर अनसुईया ने इन्हें छोड़ा कि अब भविष्य में आप लोग इधर कभी नहीं फटकोगे। परन्तु ये देव कब अपनी प्रतिज्ञा पर रहते हैं। आपकी ही पत्नी पर चोट कर दी। देवराज पुत्र जयन्त ने। इन्द्र स्वयं भय से नहीं गया। न ही किसी देवता ने ही जाने की हिम्मत की। अन्त में अपने पुत्र को भेजने में इन्द्र सफल हुए। जिसे आपने दण्डित कर ही दिया। जिन राजाओं एवं प्रजा पर इनका कोई वश नहीं चल सका उन्हें सामाजिक रूप से निम्न वर्गीय कह कर उपेक्षित कर दिया। हम भी मानव ही हैं। हमारी आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक संरचना ही जर्जर कर दी गयी। हम लोग इनसे तंग आ गये हैं। अब दीन-हीन अकिंचन से किसी तरह समय व्यतीत कर रहे हैं। हम सब कश्यप जी की ही सन्तान हैं। शुकी से बिनता हुई, बिनता से दस पुत्रियाँ हुई- मृगी, मृगमन्दा, हरी, भद्रभदा, मातंगी, शार्दूली, श्वेता, सुरभी, सुरक्षा, कटुका। ये सभी शुभ लक्षणों से युक्त थीं। इस प्रकार भूग से भूगी। मृगमन्दा से ऋष, हरी से सिंह, वानर व भद्रभदा से इरावती नामक कन्या उत्पन्न हुई। जिनका पुत्र लोक प्रसिद्ध लोकनाथ महागज एरावत हुआ। ऐसे ही शर्दूली से मर्कट, मातंगी से मतंग हुए। सुरक्षा से नाग, कन्द्र से गरुड़ एवं अरुण नामक पुत्र। अरुण से मैं (जटायु) उत्पन्न हुआ हूँ। सम्पाति मेरा अग्रज है। येनी मेरी माँ है। इस तरह महाबली जटायु ने सविस्तार खानदान के सम्बन्ध में कह दिया। साथ ही बताया कि हे राम! इन लोगों ने नागवंशी को सर्प, ऋष को भालू, वानर को पशुवानर, एरावत को हाथी इत्यादि कह दिया जिससे सभी इन्हें पशुवत् समझने लगे। ये पढ़े-लिखे, धूर्त, देवर्षि हैं। ये ही पुराणादि लिखकर हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को समाप्त करने पर तुले हैं। इन्होंने हम लोगों का वर्णन विभिन्न पशु के रूप में कर दिया परन्तु हमारी पत्नी एवं पुत्री को औरत के रूप में ही रहने दिया। चूँकि ये स्वेच्छाचारी आचरण विहीन हैं केवल हम पुरुष वर्ग से इनकी दुश्मनी है। हमारी औरत वर्ग को सुन्दर औरत के रूप में ही रहने दिया। केवल हमें ही पशु बनाया एवं व्यवहार भी इसी तरह करने लगे। हम लोग नेतृत्व विहीन हो गये हैं। हमारे भाई सम्पाति का राज्य देवताओं ने छीन लिया। उन्हें अपंग कर दिया। अगस्त्य जिस भू-भाग में रहता है वह हमारा ही राज्य था। अब मैं पेड़ पर जीवन व्यतीत करने को बाध्य हो गया। इसी तरह नागवंशीय लोग कन्दरा और गुफाओं में रहनेको विवश हुए। वानर वंशीय लोगों का एक राज बचा रह गया है वह भी इसलिए कि वानर राज बालि ने रावण से सन्धि स्थापित कर ली है। देव संस्कृति अपना ली है। जिसके विरोध में उन्हीं के भाई सुग्रीव ने हनुमान, जामवन्त के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया है। बालि शक्तिशाली है। देव सामर्थ्य के साथ रावण द्वारा भी रक्षित है। इससे सुग्रीव भी हम लोगों की तरह अवसर की ताक में वृक्षों की छाया में, पर्वतों की गुफाओं में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। धीरे-धीरे सैन्य शक्ति भी मजबूत कर रहे हैं। जटायु से यह सुन राम अत्यन्त प्रसन्न हुए एवं बार-बार गले लगाकर मित्रता का वादा किया। श्रेष्ठ जटायु विभिन्न स्थान दिखाते हुए गोदावरी के नज़दीक जिधर कुछ नागवंशीय लोग थे, वहीं पाँच पेड़ों के मध्य में झोंपड़ी लगवाते हैं। शमी वृक्ष का पूजन कर उसी की लकड़ी से सुन्दर पर्ण कुटीर बनती है। जिसमें राम-लक्ष्मण सीता विराजमान हो जाते हैं। प्रति-दिन जटायु इधर आने का वादा करते हैं। एवं कहते हैं कि हे राम इधर काम, क्रोध, मोह, अहंकार का ही राज्य है। अतएव आप सावधानी से रहेंगे। सीता को कभी भी अकेले नहीं

छोड़ेंगे। अन्यथा कभी भी दुर्घटना हो सकती है। क्या अगस्त्य जी ने इसी पंचवटी में निवास करने को कहा था? राम सोचने लगते हैं क्या काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी विष वृक्ष की ही यह वाटिका तो नहीं। ये ऊपर से सुन्दर, पवित्र नज़र आती है, अन्दर विष ही तो नहीं है? अतएव राम लक्ष्मण तथा सीता से सावधान रहने को कहते हैं। इधर नागवंशी, गरुड़, अरुण, वंशी लोग रहते हैं। उन्हीं से सम्बन्ध स्थापित कर कथा-कीर्तन करते हुए राम ने चतुर्मास व्यतीत कर दिया। हेमन्त ऋतु आ गयी। साधक को, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से भूलकर भी हँसी, मजाक नहीं करनी चाहिये। भूलकर भी उनसे दोस्ती नहीं करनी चाहिये। अन्यथा ये उस आग की तरह हैं जिसमें क्षण भर में ही पर्णकुटी जलकर भस्म हो जायेगी। रहने वाले भी जान से जा सकते हैं। आहत हो सकते हैं, वही होता है। एक दिन सुबह राम गोदावरी में स्नान कर सन्ध्या कर पर्णकुटी में सीता के साथ विराजमान होते हैं। आ पहुँचती है स्वर्णरखा। जो माँस-मदिरा पीकर साक्षात् काम का रूप हो चुकी है। राम से काम की याचना करती है। राम हँसी में लक्ष्मण के नज़दीक भेज देते हैं। कहते हैं वे बालब्रह्मचारी है, सुन्दर हैं। तुम जाओ वे तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। लक्ष्मण के यहाँ जाने पर वे विनोद भरी बात कर राम के यहाँ भेजते हैं। इस तरह का विनोद करना साधक के लिए खतरे का आमन्त्रण करना है। वह सीता पर आक्रमण कर देती है, जिससे विनोद युद्ध में बदल जाता है। कान प्रिय सुनने का आदी है तो आँख सुन्दरता देखने का। काम के लिए यही तो प्रिय होते हैं। वैराग्य के लिए ये दोनों ही अप्रिय है। काम ऐसे प्रिय की अपनी इच्छा पूरी नहीं होने पर अपने पीछे क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार एक-एक कर सबको ले आता है। शक्ति प्रदर्शित करता है। साधक यदि सजग है, उसके साथ निष्काम योग, ज्ञान और वैराग्य के पंख हैं तब उसका काम कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता। कामरूपिणी स्वर्णरखा की मदद में क्रोधरूपी खर-दूषण अपनी सेना लेकर राम पर चढ़ाई कर देते हैं। राम योग युक्त होकर लक्ष्मण के साथ सीता के सान्निध्य में घोर संग्राम करते हैं एवं विजयी होते हैं।
  क्रमशः.....