साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
इन्द्र का कोप
ब्रजवासियों को निष्काम कर्म योग में लिप्त देख स्वार्थी देवगण खिन्न हो उठते हैं। देवेन्द्र अपने स्वभाववश जलते भुनते हैं। वे कृष्ण पर अकारण स्वार्थ प्रेरित हो क्रोध कर अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। यथा-
"वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम् । कृष्णं मृत्युपाश्रित्य गोपा में चक्रुरप्रियमे ॥"
कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है।
देवेन्द्र बच्चों की तरह अपना उत्पात शुरू कर देते हैं। ब्रजभूमि को जल सेडुबो देने का अथक प्रयास करते हैं। कृष्ण योगयुक्त हो सभी ग्वाल-बाल को अपने मवेशियों और पत्नियों समेत गोवर्धन पर्वत पर डेरा डालने को कह देते हैं। सभी ब्रज में रहने वाले अपनी-अपनी झोंपड़ी कृष्ण के निर्देशन पर डाल देते हैं। सभी में एकता की अद्भुत शक्ति थी।
किसी गोप में कृष्ण के विरुद्ध कोई तर्क-वितर्क नहीं। सभी अपने-अपने कर्म में युक्त हो नौसेना, गुरु कृपा से गोवर्धन की छत्र-छाया में व्यवस्थित हो निश्चित हो गये। गोवर्धन के नीचे छोटी नदियाँ हैं जिससे पानी का बहाव भी शीघ्र हो गया। सभी सुरक्षित सात दिनों तक वहीं टिके रहे। इन्द्र झुककर स्वकर्मों पर स्वयं लज्जित हुए। सभी ब्रजवासियों ने कृष्ण को आशीर्वाद देकर मंगलमय भविष्य की कामना की। इस तरह हम यह देखते हैं कि देवगणों ने कभी भी मानव महामानव को मदद नहीं पहुँचाई है अपितु मार्ग में अवरोध जरूर उत्पन्न किये हैं। किसी भी महामानव ने किसी भी देव की स्तुति नहीं की न ही अपने को अमुक देव का अवतार कह कर देवगण को प्रतिष्ठा दी है। हाँ देवगण के द्वारा बाधा उत्पन्न करने के बावजूद भी महामानव अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। वसुधा को प्रेम से, परमात्म भाव से भर देते हैं। स्वधर्म के प्रति लोगों को जागरूक कर देते हैं। तब देवगण अपनी प्रतिष्ठा बचाने हेतु उस महामानव की स्तुति करते तथा किसी-न-किसी देव का उन्हें अवतार घोषित कर देते हैं। कृष्ण ने बचपन से ही उन दुष्प्रवृत्तियों से जूझना शुरू कर दिया था जो समाज के विकास में सचमुच बाधक हों। भले ही बाधा स्वरूप देवेन्द्र हो या अपना ही मामा कंस हो। सभी को समान रूप से विकास की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास करते रहे। जो समाज को अग्रसर करने में अवरोध उत्पन्न करता उन्हें मार्ग से हटा देते।
कृष्ण का मथुरा आगमन
इन्द्र के बाद और भी देवगण कृष्ण के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं जैसे वरुण द्वारा नन्द जी का अपहरण, सुदर्शन, शंखचूड़ तथा अरिष्टासुर के द्वारा कृष्ण को तंग करना। किसी भी परिस्थिति में कृष्ण हथियार नहीं डालते न ही समझौता करते। अपनी नीति पर अटल, अडिग हैं। कंस खुशी से राजकाज चला रहा था परन्तु देवेन्द्र प्रेरित नारद पुनः कंस के यहाँ आते हैं। कंस से कृष्ण के सम्बन्ध में उल्टी-सीधी बातें कहते हैं। कंस का दिल-दिमाग घूम जाता है वह पुनः देवकी तथा वसुदेव को बंदी बना लेता है। कृष्ण को धूर्ततापूर्वक अक्रूर जी के माध्यम से आमन्त्रित करता है। कृष्ण तथा बलराम मथुरा पहले पहल आते हैं। उस समय उनकी अवस्था लगभग पन्द्रह या सोलह वर्ष की होगी। कृष्ण द्वारा चाणूर, मुष्टिकके साथ कंस का भी वध होता है। वे कंस का राज्य उनके पिता अग्रसेन को लौटा देते हैं। इसके बाद ही जरासंध से इनका बैर होता है। जरासंध सरमुखत्यार प्रवृत्ति का महत्वाकाँक्षी राजा था। पूर्वांचल के लगभग 80/82 छोटे-छोटे जनपदों पर उसका आधिपत्य था। जब कि महाभारत काल में भारतवर्ष में 223 या 225 जनपद थे।
कृष्ण लोकशाही को मानने वाले थे। इसी से सबसे पहले उनका प्रहार कंस पर ही हुआ। जिससे जरासंध का मोह भंग हुआ। जिससे जरासंध मथुरा पर बार-बार चढ़ाई करने लगा। जिससे मथुरा की जनता त्राहि-त्राहि करने लगी। अन्त में कृष्ण को वहाँ से भागना पड़ा। जरासंध महत्वाकांक्षी था। वह समस्त भारत में सरमुखत्यारशाही का शासन चाहता था। इसकी राजधानी राजगृह में थी। कंस का राज्य शॉरसेन सैनी प्रदेश में था। तब लोकशाही शासन संस्था का भी पुरस्कर्ता एक मानव समूह था। उस मानव समूह के ही प्रतिनिधि हुए कृष्ण। जरासंध और हस्तिनापुर के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे। चूँकि दोनों बराबर के राजा थे। कहीं-कहीं ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि जरासंध हस्तिनापुर से कुछ ज्यादा वज़नदार था। कृष्ण, संघ राज्य के पोषक थे। कंस की हत्या के बाद निष्काम भाव से अग्रसेन को राज्य सौंप देते हैं। यहाँ से कृष्ण का पूरा जीवन ही बदल जाता है। श्रीकृष्ण अपने परिवारजनों के साथ पश्चिम सागर के तट पर जाकर वहाँ की कुशस्थली नाम की नगरी का पुनरोद्धार करते हैं। उसका नाम द्वारका रखते हैं। द्वारका का राजा भी अपने को नहीं अपितु अपने बड़े भाई बलराम को बनाते हैं। अपने आपको राज-काज से अलग ही रखते हैं।
कृष्ण की शादी
श्रीकृष्ण रुक्मणी का हरण करते हैं। जिसके कारण शिशुपाल से बैर हो जाता है। रुक्मणी से कृष्ण शादी करते हैं। इसके बाद स्यमन्तक मणि की खोज में ऋक्षराज जामवंत से भेंट होती है। ये भालू कैसे हो सकते हैं। ये शक्तिशाली राजा ही थे। ये रामावतार में भी हैं एवं कृष्णावतार में भी। यह कैसे सम्भव है? यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है, जनक, वशिष्ठ एवं विश्वमित्र की तरह जामवंत का भी नाम ही चलता रहा। सम्भवतः उस समय के जामवंत, वर्तमान जम्मू क्षेत्र के राजा हों। मैं जामवंत गुफा में कुछ दिन रुका हूँ। वहाँ के साधु महात्मा कहते हैं कि यहीं जामवंत जी रहते थे। यहीं कृष्ण से युद्ध हुआ था। वह तवी नदी के नजदीक बहुत ही दिव्य स्थान है। अभी वहाँ एकनाथ सम्प्रदाय के महात्मा रहते हैं। जामवंत जी ने शेर से वह मणि प्राप्त की थी। शेर सत्राजित के भाई से मणि प्राप्त किया था।वह मणि सप्रेम जामवंत जी अपनी पुत्री जाम्बवती के साथ कृष्ण को अर्पित कर देते हैं। उस समय कृष्ण और रुक्मिणी से प्रद्युम्न का जन्म हो गया था। सत्राजित को वह मणि अग्रसेन के सामने कृष्ण लौटाते हैं। जिससे सत्राजित लज्जित हो जाता है। उस लज्जा से बचने के लिए अपनी पुत्री को मणि के साथ देता है। कृष्ण उसकी पुत्री सत्यभामा को ग्रहण करते हैं। मणि लौटा देते हैं। इस शादी से शतधन्वा सत्राजित का दुश्मन हो जाता है। जब कृष्ण हस्तिनापुर जाते हैं पाण्डवों का सन्देश लेकर। तब शतधन्वा सत्राजित की अंकुर जी, कृतवर्मा के कहने में आकर हत्या कर देता है। मणि छीन लेता है। कृष्ण हस्तिनापुर से लौटकर शतधन्वा का वध कर देते हैं। इस तरह इस मृणि को लेकर हत्या का सिलसिला जारी रहता है। इसके बाद कृष्ण के द्वारा और पाँच शादियाँ की जाती हैं।
कृष्ण पाण्डवों से मिलने हस्तिनापुर जाते हैं। अर्जुन के साथ यमुना के किनारे शिकार खेलते समय एक सुन्दर लड़की देखते हैं। कृष्ण अर्जुन को भेजकर पता लगाते हैं। वह कहती है मैं सूर्यपुत्री कालिन्दी हूँ। कृष्ण से शादी करने हेतु यहाँ तप कर रही हूँ। कृष्ण उसको अपने साथ ले आते हैं। पाँचवीं शादी अपनी बुआ राजाधिदेवी की लड़की से करते हैं जो उज्जैन की थी, उसका स्वयंवर में बलपूर्वक हरण कर लेते हैं। छठी शादी अयोध्या के राजा नग्नजित की लड़की नग्नजिती जिसे सत्या भी कहते हैं, से की। सातर्वी भ्रदा से जो कैकय देश में कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की लड़की थी, से शादी की। आठवीं शादी लक्ष्मणा से, जिसे भद्रप्रदेश के राजा के स्वयंवर से हरण कर लाये। इस प्रकार कृष्ण की आठ शादी सम्भव हैं। इसके बाद सोलह हजार एक सौ लड़कियों को नरकासुर जो प्रागज्योतिपुर, वर्तमान असम प्रदेश में था, की जेल से छुड़ाकर लाये। मेरे विचार से कृष्ण ने स्वयं शादी की ऐसा नहीं लगता है। सम्भव है उन्होंने इन लड़कियों को यादवों में बाँट दिया हो। उनसे शादियाँ हो गयी हों। कृष्ण ने ये शादियाँ विलासिता की दृष्टि से नहीं की अपितु जो स्त्री कारणवश मिलती गयी वैसे-वैसे स्वीकार करते गये। द्रोपदी स्वयंवर में उनकी और पाण्डवों की भेंट हुई। दोनों में मैत्री हो गयी। तब से कृष्ण पाण्डवों के अभिन्न अंग से हो गये। पाण्डवों ने भी कृष्ण को पाकर अपने आप में प्राण का संचार महसूस किया।
महाभारत के पात्रों का काल
अभी कलि 5096 चल रहा है। कलि का आगमन युधिष्ठिर के राज्यकाल में ही हो गया था। ऐसा लगता है कि कृष्ण के गोलोक जाने के बाद युधिष्ठिर का संवत शुरू हुआ था। युधिष्ठिर के राज्यारोहण के 36 वर्ष बाद कृष्ण गोलोकगये थे। महाभारत का युद्ध राज्यारोहण के एक माह पूर्व हुआ था। यह भी सत्य प्रतीत होता है कि महाभारत युद्ध के समय समाज में अराजकता चरम सीमा पर बढ़ गयी थी, देव संस्कृति का बोल-बाला हो गया था। नारी जाति का अवमूल्यन हो गया था। विवाह संस्था टूट सी गयी थी। अनुगम, प्रतिलोभ, विलोभ विवाह के पूर्व सन्तान का होना, का अधिपत्य हो गया था। मानव संस्कृति बिगड़ गयी थी। पुरुष वर्ग का एक तरफ वर्चस्व बढ़ गया था। नारी भोग्य पदार्थ एवं सन्तान उत्पन्न करने की मशीन बन गयी थी। इन्हीं परिस्थितियों में महाभारत युद्ध हुआ। कुछ विद्वानों का कहना है कि कल्हण के अनुसार जब सप्तर्षि सम्वत् चल रहा था और उसके 653 वर्ष बीतने के बाद महाभारत हुआ था। खैर यदि आज कलि 5096 संवत से 653 घटा ही दें तब 4443 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध हुआ था। यानी लगभग 5000 वर्ष पूर्व का ही समय आता है।
पाण्डु की मृत्यु के 17 दिन पश्चात् पाण्डव हस्तिनापुर आते हैं। उस समय युधिष्ठिर की आयु 16-17 वर्ष, भीम की 16 वर्ष, पार्थ (अर्जुन) 15 वर्ष के हो गये थे। नकुल और सहदेव दोनों जुड़वां थे अतएव इनकी उम्र 14 वर्ष थी। इस तरह हम देखते हैं कि महाभारत के समय इन पात्रों की आयु निम्न प्रकार थी।
युधिष्ठिर
66 वर्ष,
नकुल
63 वर्ष,
भीम 65 वर्ष,
सहदेव
पार्थ 64 वर्ष
63 वर्ष
कर्ण धर्मराज युधिष्ठिर से 8-9 वर्ष बड़े थे। चूँकि कर्ण शादी के पहले पैदा हुए थे। इस तरह कर्ण की आयु महाभारत के समय 74-75 वर्ष की थी। अब हम कृष्ण की आयु के सम्बन्ध में विचार करें। कृष्ण महाभारत के मुख्य पात्र हैं। ये अर्जुन के समकक्ष थे या 6 माह बड़े या छोटे हो सकते हैं। जैसे फाल्गुन मास में अर्जुन का जन्म हुआ था। अतएव फाल्गुन प्रथम मान लेने पर कृष्ण अर्जुन से 6 माह छोटे हो जायेंगे परन्तु पुराणों का चिकित्सकीय ढंग से विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि कृष्ण के जन्म के बाद के फाल्गुन में अर्जुन का जन्म हुआ था। अतः कृष्ण की आयु उस समय 64 वर्ष 6 माह थी। महाभारत के बाद 36 वर्ष का कृष्ण का समय अज्ञात-सा है। पुराणकर्ता मौन हैं परन्तु मेरी समझ से कृष्ण ने इन्हीं 36 वर्षों में सामाजिक व्यवस्था की। भारत की उजड़ी हुई सभ्यता संस्कृति को स्थापित किया। पूरे 36 वर्ष का समय समग्र मानवता की सेवा में अर्पित कर दिया। अपने वंश में भी अनीति आने पर उन्हें भी नहीं छोड़ा। प्रभास पाटण में यादवों का भी नाश कर समग्र चेतना, पूर्ण गणराज्य, लोकशाही राज्य की स्थापना कर लगभग 110 वर्ष की अवस्था में गोलोक गमन किया। कृष्ण असाधारण व्यक्तित्व के राष्ट्र पुरुष थे। इस तरह का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास में प्रथम बार हुआ एवं अन्तिम भी। अपने आप में परिपूर्ण, हर समय हँसता हुआ कृष्ण। न चेहरे पर विषाद, नपश्चाताप। हर समय नवीन नया मुस्कुराता हुआ चेहरा। ये शक्ति से भी परिपूर्ण थे इसी से इनके बड़े भाई होते हैं बलराम अर्थात् बल जहाँ विश्राम करता हो। जो बल का स्त्रोत हो। ऊर्जा से जो परिपूर्ण हो या ऊर्जा जहाँ निवास करना चाहती हो या रहती हो वही है बलराम। अग्रज हैं कृष्ण के। अब कृष्ण उच्छृंखल नहीं हैं। चूँकि थोड़ा बल होने पर भी उद्दण्ड हो जाते हैं परन्तु वे प्रेम से लबालब हैं। प्रेम से ओत-प्रोत हैं। मानो उनसे प्रेम की निर्झर धारा निकल रही हो। वह निर्झर विशालधारा का रूप ग्रहण कर लेता है जिस प्रेम रूपी धारा में सभी गोप-गोपी डूबने लगते हैं। वही प्रेम रूपी धारा ही राधा है। इस तरह का व्यक्ति कैसे किसी का दुश्मन हो सकता है। वह तो अपनी प्रेम रूपी धारा में सभी को डुबो देना ही चाहेगा। वह सर्वमंगल की ही कामना करेगा। अब वह राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकता, हाँ बना सकता है। अब प्रेमधारा रूपी राधा, कृष्ण की अनुगामिनी ही हो सकती है, इसी से कृष्ण के जीवन में अभिन्न रूप से राधा ही जुड़ी। तब कहलाये राधा-कृष्ण। चूँकि पहले प्रेम को उपलब्ध हो जाओ कृष्ण अपने आप उपलब्ध हो जायेगा। कृष्ण को उपलब्ध हुआ जा सकता है प्रेम से। राधा को उलट दें धारा हो जाता है। जब साधक के अन्दर से प्रेम की धारा फूट पड़ेगी तो वह अनायास ही अग्रसर हो जायेगी एवं पहुँच जायेगी कृष्ण के समीप। अब हो जायेगा राधा-कृष्ण।
क्रमश....