साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

दुर्योधन

   ये महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक हैं। या यह कहा जाये कि इनके बिना महाभारत ही असम्भव थी तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। महाभारतकार इन्हें दुर्योधन शब्द से सम्बोधित करता है। जो मेरे विचार से उचित नहीं है। कोई भी माँ-बाप इस तरह का नाम अपने पुत्र को नहीं दे सकता। इनका नाम सुयोधन था। 'द' के प्रयोग के कारण इसका नाम कुरूप हो गया। महाभारत के अनुसार ये सौ भाई थे। ऐसा नहीं जैचता है। गान्धारी के सौ पुत्र हों, यह ठीक नहीं लगता। चूँकि गान्धारी की शादी पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हुई थी एवं एक औरत औसतन 40 या 45 वर्ष तक ही पुत्रोत्पन्न कर सकती है। इस तरह 25 या 30 वर्ष में सौ पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकते हैं। यह विषय शोध माँगता है। हाँ महाभारत में ग्यारह महारथी एवं एक बहन का वर्णन आया है। ऐसा सम्भव है कि ये ग्यारह भाई एवं एक बहन हों। इन्हीं भाइयों का परिवार सौ तक पहुँच गया हो। बहन का नाम भी इसी तरह बिगाड़ा गया है दुःशीला। क्या कोई माँ-बाप अपनी लड़की का नाम दुःशीला (दुष्ट चरित्र की, कुल्टा, शीलहीन) रख सकता है। यह बिल्कुल असम्भव है। पुराणों, महाभारत के पन्नों को उलटने पर एवं समीक्षक का दृष्टिकोण रखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इसके नामकरण से ही बेईमानी शुरू हो गयी है। जो उचितनहीं है। इसी तरह इसके एक भाई का नाम दुःशासन है जिसके जिम्मे शासन देखने की जिम्मेदारी थी। जो अच्छी तरह निभा रहा था। उसका नाम सुशासन था। हर पात्र के नाम के आगे 'द' का प्रयोग कर उसे कुपात्र बनाने की कोशिश की गयी है परन्तु कुपात्रता का कोई खास वर्णन नहीं मिलता है। हालाँकि गान्धारी के अलावा और लोगों के भी बहुत पुत्रों का वर्णन मिलता है। मेरे विचार से उसे परिवार ही समझना उचित है। जैसे सहस्त्रार्जुन के वंशज मधु के 100 पुत्र, आयु के पुत्र, रजि के 100, क्रोष्टु के वंशज, शशविहु की एक लाख स्त्रियाँ और दस लाख पुत्र, अजमेर के वंशज, नील के 100 पुत्र, अनुवंशी विकर्ण के 100 पुत्र। इतना ही नहीं स्वयं कृष्ण के 16108 स्त्रियाँ एवं 1 लाख 80 हजार पुत्र थे। इस तरह पुराणकारों ने तथ्य को अतिशयोक्ति रूप से सामने रखा है। हम भी लकीर के फकीर हो अक्षरशः सत्य मौनते चले आ रहे हैं। अभी पूरे भारत की जनसंख्या लगभग 90 करोड़ है। उस समय यादवों की संख्या 56 करोड़ थी। वह भी केवल द्वारका में। द्वारका इतनी संख्या कैसे सहन कर सकती है। हाँ यह सम्भव है कि पूरे भारतवर्ष में यादवों की 56 शाखायें हों। ये 56 शाखायें पूरे भारत में फैली हों। संभव है महाभारतकार या बाद के अन्य लोगों ने महाभारत में बहुत से श्लोक घुसाये हों जिससे बहुत पात्रों का चरित्र अनचाहे बदसूरत हो गया है। दुर्योधन राजकुमार हैं। उसके समय में एक बार भी प्रजा विद्रोह नहीं करती। उसके साथ चरित्र-हीनता, बहुपत्नी, नाम की चीज़ नहीं है। उसके पिता धृतराष्ट्र थे जो नियमतः राज्य के अधिकारी थे। परन्तु विदुर की कूटनीति के चलते राज्य से वंचित हुए एवं पाण्डु को राजा बनाया गया परन्तु भाग्य एवं प्रकृति के नियमानुसार पाण्डु के मरने के उपरान्त धृतराष्ट्र को स्वतः राज्य मिल जाता है। जो उन्हें पहले ही मिलना चाहिये था। उनका ज्येष्ठ पुत्र था सुयोधन। जो राजकुमार या युवराज का उत्तराधिकारी स्वतः था। राज्य का बँटवारा उचित नहीं है। अभी खालिस्तान या कश्मीर अलग होने को कहता है। क्या कोई भी प्रधानमन्त्री इसे अलग कर सकता है? क्या भारत अब अलगाववाद बर्दाश्त करने की स्थिति में है। भारत का बँटवारा एक तरह गांधी जी के जीवन की भूल है। जिसका परिणाम भारत की जनता अभी तक भोग रही है। आतंकवाद के रूप में। जिसके चलते भारत का विकास एक तरह से अवरुद्ध हो गया है। विकास या आतंकवाद का समाधान एक ही है वह है पाकिस्तान एवं बंग्लादेश को आत्मसात करना। भारत कभी भी खण्डित रूप में सशक्त नहीं रहा है। खण्डित भारत का विकास कैसे सम्भव है?

सुयोधन भी इसी तरह देश का बँटवारा नहीं चाहता। न ही विदुर या भीष्म ही इस बँटवारे के लिए बाध्य करते हैं। दूसरी बात है पाण्डव क्षेत्रज थे। क्षेत्रज यानी माँ तो थी परन्तु पिता समाज के द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं थे। सभी भाइयों के पिता भिन्न-भिन्न थे। वह भी देवगण थे। सम्भवतः इसी कारण देव संस्कृति भारत भूमि पर प्रबल होती जा रही थी। कृष्ण जैसे व्यक्ति ने भी पहले तो इन्द्र का विरोध किया परन्तु पाण्डवों के चलते सम्भवतः देवेन्द्र से समझौतायादी सिद्धान्त स्वीकार कर लिया। खैर इस तरह भी पाण्डव स्वगोत्र, स्वकुल के नहीं थे। अतएव राज्याधिकारी नहीं थे। चूंकि महाभारत में आया है कि अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे। कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न हुए। इनके जन्मोत्सव में समस्त देवता, गन्धर्व, आदित्यों, रूद्रों का आगमन हुआ था। (आदि 68/111) प्रमुख अप्सरायें भी आयी थीं। उनका नृत्यगान भी हुआ था। (आदि 122/50-64) यह सब भारतीय संस्कृति के विरुद्ध था। इसी से भारतीय जनता पाण्डवों को राजा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहती थी। सुयोधन ने कहीं भी नियमविरुद्ध युद्ध नहीं किया। नीतिगत युद्ध ही किया। साथ ही यदि किसी को जाति के नाम से नीच कहा गया तो उसका खुल कर विरोध भी किया है। जो सामाजिक दृष्टिकोण से न्यायोचित है जैसे कर्ण के सम्बन्ध में।

    कर्ण

      सभी विद्यार्थी विद्याध्ययन का कार्य पूरा कर चुके हैं। इसमें 13 वर्ष का समय लगा है। परीक्षा की तिथि निश्चित की जाती है, जगह का निर्धारण होता है। वह कहलाता है-रंगभूमि। यह विद्यालय राज्य के द्वारा चलता था जिसमें सम्भवतः राजकुमार ही पढ़ते थे। कर्ण की आयु लगभग उस समय 38 वर्ष की थी। विद्यालय में दाखिले के समय कर्ण की आयु लगभग 26/27 वर्ष होती है। यह अंगप्रदेश के चन्द्रवंशी राजा अधिरथ द्वारा पालित था। कर्ण को औरस पुत्र के रूप में अधिरथ ने पाला था। कर्ण के बाद राधा से 6 लड़के हुए जो महाभारत में सुयोधन की तरफ से लड़ते हुए मारे गये। अधिरथ के द्वारा राजकुमारों के विद्यालय में दाखिला दिया गया। वह पढ़ते समय भी सुयोधन के साथ ही रहता था। द्रोणाचार्य पढ़ाते समय भी अपने पुत्र द्रौणी पर विशेष ख्याल रखते एवं एकान्त में अन्यों से भिन्न शिक्षा देते। इसके बाद अर्जुन का ख्याल रखते। अर्जुन से पहले ही गुरु दक्षिणा तय कर ली थी शिक्षा प्राप्ति के बाद राजा द्रुपद को बंदी बनाना एवं अपना बदला लेना। द्रोणाचार्य ने ही कलह का बीज विद्यार्थियों के बीच बोया। सबको समान शिक्षा नहीं दी। शिक्षा में भेदभाव रखते। अपने पुत्र एवं अर्जुन का विशेष ख्याल रखते। यदि यह कहा जाये कि द्रोणाचार्य ने शिक्षा को दूषित किया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसी से गुरु जान समझकर करना चाहिये अन्यथा गुरु अमृत के बदले विष बेल ही रोप देगा तो समय पाकर वह विष बेल पूरी मानवता के लिए ही घातक होगी। वही द्रोण ने किया। केवल अपनी गुरु-दक्षिणा प्राप्ति के लिए, द्वपद को बंदी बनाने के लिए, सभी विद्यार्थियों की विद्या में हलाहल भर दिया। एकलव्य का अँगूठा कटवा डाला तो कहीं कर्ण को जातिबोधक शब्द से अपमानित करने में नहीं चूके। सुयोधन के अन्दर भी बैर भाव इसी कारण बढ़ा। पूरे शिक्षा सत्र में द्रोण का भेदभाव मूलक दृष्टिकोण रहा है। द्रोण में शस्त्र विद्या बेचने के अलावा कोई गुण नहीं था। वह पुत्र मोह से भी बुरी तरह ग्रसित थे। उसे राजा बनाने की कामना लिए हुए थे। उसे अमर बनाने, अजेय बनाने के लिए कुछ कसर उठा नहीं रखते। ये हैं गुरु द्रोण। रंगभूमि में सभी विद्यार्थी अपनी-अपनी कला दिखाते एवं अपने स्थान पर जा बैठते हैं। अन्त में द्रोण अपने लाडले विद्यार्थी अर्जुन को भेजते हैं। अर्जुन रंगभूमि में अपनी कला-कौशल पेश करते हैं। चारों तरफ वाह-वाह हो जाती है। बाजे बजने लगते हैं। राज पुरुष प्रशंसा करने लगते हैं। महाभारतकार कर्ण को दरवाजे से पेश करता है। आखिर ऐसा क्यों? कर्ण कहता है-पार्थ रुक जाओ! तुम जो भी दिखाते हो, उसे मैं भी दिखा सकता हूँ। उससे आगे भी कुछ दिखाऊँगा। इतना कहकर कर्ण रंगभूमि की तरफ तेजी से आगे बढ़ता है। गुरु वन्दना कर अपनी शिक्षा का प्रदर्शन सभी के सामने करता है। सभी देखकर वाह-वाह करने लगे। मानो अर्जुन को भूल गये। जोड़ी बराबरी की छूटी। लेकिन कर्ण ने कहा हम दोनों द्वन्द्वयुद्ध करेंगे। तत्पश्चात् आप लोग निर्णय करें। यह सुनकर द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य घबराये। दोनों आपस में साले-बहनोई ही थे। दोनों की उत्पत्ति भी दोना या कलश से एवं शरकंडों से हुई थी। आदमी प्रतिष्ठा मिलने पर 'स्व' का भान भूल जाता है। इस तरह द्रोण को लगा कि मेरा स्वप्न ही भंग हो गया। कर्ण अर्जुन को निश्चित ही पछाड़ देगा। तब मेरी गुरु दक्षिणा का क्या होगा ? इस तरह द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य उद्विग्न हो उठते हैं। द्रोणाचार्य राजपुरोहित कृपाचार्य के माध्यम से कहलवाते हैं हे कर्ण! तुम्हारी जाति क्या है? तुम्हारे माता-पिता का नाम क्या है? तुम्हारी किस खानदान में उत्पत्ति है। क्या तुम नहीं जानते अर्जुन कुन्ती पुत्र एवं श्रेष्ठ वंशोत्पन्न पाण्डु का वंशज है? क्या तुम यह नहीं जानते अर्जुन राजकुमार है। राजकुमार, राजकुमार से ही द्वंद्व युद्ध कर सकता है। नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति से अर्जुन कैसे द्वन्द्व कर सकता है? द्रोण भी अपने कटु जाति बोधक शब्दों के बाण से कर्ण को बेधित कर देते हैं। कर्ण इन गुरुओं के बाण से घायल हो मौन हो जाता है। कोई भी राजपुरुष नहीं बोल पाता है। जबकि भीष्म पितामह, विदुर, कुन्ती, धृतराष्ट्र, नारद, कर्ण के जन्म एवं पालन-पोषण के सम्बन्ध में जानते थे। अंग देश का राजा अधिरथ धृतराष्ट्र को अपने लाड़ले पुत्र कर्ण को विद्यालय में दाखिला एवं विद्या अध्ययन हेतु सौंपकर गया था। उस विद्यालय मेंदाखिला धृतराष्ट्र के द्वारा ही कराया गया था। ये सब देखकर कर्ण किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है उसका कवच कुण्डल युक्त शरीर तेजहीन प्रतीत होने लगता है। इन परिस्थितियों में सुयोधन का रंगभूमि में अवतरण होता है। सुयोधन झट नियमानुसार कर्ण को अंग देश का राजा नियुक्त कर देता है। अपना राजमुकुट कर्ण के माथे पर रख देता है एवं मित्र कहकर उसे सम्मान देता है तथा गुरुजन से प्रश्न पूछता है कि जिसके पास छत्र हो, तेज हो, ऊर्जा हो, वही क्षत्रिय है। क्षत्रिय कोई जन्म से नहीं हो सकता। यदि जन्म से ही होता तो द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अपनी उत्पत्ति तो बतायें ? ये पाँचों पाण्डव क्या क्षेत्रज नहीं हैं। आखिर क्यों कर्ण को आप नीचा दिखा रहे हो। जाति पूछनी ही है तो पूछो इसके कवच, कुण्डल, दीप्त ललाट से, धनुष बाणयुक्त वज्र हाथ से, या अर्जुन के साथ द्वन्द्व युद्ध से। क्या मैं आप लोगों से पूछ सकता हूँ नदियों का उद्गम, महापुरुषों का जन्म एवं गुरुजनों का उद्भव ठीक से पता लगाया जा सकता है। यदि कष्ट साध्य ढंग से पता भी लगा लें तो क्या अन्तर पड़ता है, गंगा की शीतलता में? क्या अन्तर पड़ता है कालिन्दी के ब्रह्मत्व में ? क्या अन्तर पड़ता है वेद व्यास के बुद्धित्व में? इस तरह से सुयोधन शास्त्रोक्त ढंग से अपनी व्याख्या आगे बढ़ाता है एवं कर्ण को सम्मानित करता है।

"स कुण्डल स कवचं लक्षण लक्षितम् । कथमादिव्य सदृशं मृगी व्याघ्र जनिष्यति ।। पृथिवी राज्यमहोंयं नाडूं राज्यं नरेश्वरः । 
अनेन बाहु वीर्येण मया चा ज्ञानु वर्तिना ।। "

महाभारत आदि 131

(सातवलेकर)।

    अर्थात् समस्त शुभ लक्षणों से तथा कवच कुण्डलों से सुशोभित सूर्य के समान तेजस्वी कर्ण किसी हीन जाति की स्त्री का पुत्र कैसे हो सकता है? क्या कोई मृगी अपने गर्भ से व्याघ्र पैदा कर सकती है? पुनश्च :-

"क्षत्रियाणांबलं ज्येष्ठं योद्धयं क्षत्र बंधुवा ।

शूरणंथ नदीनाष्ठच दुर्विदाः प्रभावा किल ॥"

     क्षत्रियों में बल की प्रधानता होती है। बलवान होने पर क्षत्र बंधु से भी युद्ध करना चाहिये, शूरवीर और नदियों की उत्पत्ति के वास्तविक रूप (स्थान) को जान लेना अत्यन्त कठिन है। पुनश्चः---


"सलिलादुत्यितो बहिर्येन व्याप्त चराचरम् । दधीचस्या स्थितो वज्रं कृत दानव सूदनम् ॥

आग्नेयः कृतिका पुत्रो रौद्रो गांगेय इत्यादि।*श्रूयते भगवान देवः सर्व गुहल ययो गृहः ॥ क्षत्रियोभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणस्ये च ते श्रुतः। विश्वमित्र प्रभृतयः प्राप्त ब्रह्मत्व मव्ययम् ॥ आचार्य कलशाज्जातो दोणः शस्त्र भूतांबरेः। गौतम स्मान्वये च शरस्तम्बाच्च गौतम ॥ "

(आदि 138-2-15 सात)

    • अर्थात् जिसने चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, वह तेजस्वी अग्निजल से उत्पन्न हुआ है। दानवों का संहार करने वाला वज्र, दधीचि की हड्रियों से तैयार किया गया है। सुना जाता है, सर्वगुहल स्वरूप भगवान स्कन्धदेव, अग्नि, कृतिका, रूद्र तथा गंगा इनके सबके पुत्र हैं। कितने ही ब्राह्मण क्षत्रिय से उत्पन्न हुए उनका नाम तुमने सुना ही होगा तथा विश्वमित्र आदि क्षत्रिय को भी ब्राह्मणत्व प्राप्त हो चुका है।

   शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण का जन्म कलश से हुआ है। महर्षि गौतम के कुल में कृपाचार्य की उत्पत्ति शरकंडों के समूह में हुई है पुनः पाण्डवों को लक्ष्य करके सुयोधन कहता है-

"भवताम् च यथा जन्म तदप्या गमितयां।"

(आदि 136)

    तुम सब भाइयों का जन्म किस तरह हुआ है वह मुझे अच्छी तरह मालूम है। उधर कुन्ती कर्ण को कवच कुण्डल युक्त देखकर पहचान लेती है परन्तु लोक-लज्जा के भय से कुछ कह नहीं पाती एवं अपने ही पुत्र को भरी सभा में अपने ही पुत्रों द्वारा अपमानित देख विक्षिप्त हो जाती है। इससे कर्ण की स्थिति का सहज पता लगाया जा सकता है।

  ???? भाई के रूप में सुयोधन असफल ????

    राजा के रूप में दुर्योधन गंभीर, प्रजापालक, नीति नियामक है। वहीं भाई के रूप में असहिष्णु प्रतीत होता है। जैसे राजा राम कुछ और हैं और लक्ष्मण के वियोग में विलाप करते हुए भाई राम कुछ और। सुयोधन राजा के रूप में जहाँ सफल है वहीं भाई के रूप में असफल। भ्रातृत्व प्रेम, स्नेह इसमें नाममात्र भी नहीं है। हालाँकि भाई-भाई में कटुता का बीज बो देने में द्रोणाचार्य की अहम् भूमिका रही है। अतएव सुयोधन एक तरफ राज्याकाँक्षी है तो दूसरी तरफ साम्राज्य विस्तारवादी। उसकी इस नीति के बीच में जो भी पड़ता है उसे समाप्त कर देना चाहता है। इसी का परिणाम है कि अपने चचेरे भाइयों को साथ-साथ नहीं रख सका। उन्हें समाप्त कर देने के लिए कभी शकुनि का सहारा ले धूर्तबुद्धि से जुआ खेलता है तो कभी द्रोपदी का चीरहरण कर सम्पूर्ण नारीत्व पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। कभी लाक्षागृह में आग लगाकर पाण्डवों को समाप्त कर देना चाहता है। दुर्वासा को बनवास के समय पाण्डवों के यहाँ भेज कर श्रापित कराना चाहता है तो कभी कर्ण वगैरह साथियों के सहयोग से मार डालना चाहता है। यह सब साम्राज्यवादी महत्वाकाँक्षी व्यक्तित्व का चिह्न है। जहाँ भ्रातृत्व प्रेम कुण्ठित है, सिसक रहा है। यदि दुर्योधन में भाई के प्रति थोड़ा भी स्नेह प्रेम होता तो सम्भवतः महाभारत रूपी विभीषिका का सामना नहीं करना पड़ता।

वहीं धर्मराज युधिष्ठिर के हृदय में जैसे पाण्डवों के प्रति अथाह प्रेम है वैसे ही कौरवों के प्रति भी है। सुयोधन की किसी भी स्थिति में किसी अन्य व्यक्ति से निन्दा सुनना पसन्द नहीं करते उसे भी अपने अभिन्न सहोदर भाई की तरह समझते। जैसा कि महाभारत में एक प्रमाण मिलता है कि दुर्योधन को बाँधकर यक्षगण अपने नगर को भेज रहे थे जिसे भीम ने देखा एवं प्रसन्न हो युधिष्ठिर को बताया। धर्मराज युधिष्ठिर भाई के प्रेम में अत्यन्त विह्वल हो जाते हैं एवं भीम को डाँटते हुए कहते हैं कि भाई सुयोधन को कोई पकड़ कर ले जाये यह उचित नहीं है। अर्जुन को तुरन्त आदेश देते हैं कि दौड़ो एवं सुयोधन को यक्षों से छुड़ाकर शीघ्र लाओ। अर्जुन अपने बड़े भाई से कोई तर्क-वितर्क नहीं करते, आदेश का पालन शीघ्र करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि पाण्डव क्षेत्रज होते हुए भी कुन्ती के माध्यम से कृष्ण के भक्त हुए। चूँकि कुन्ती वसुदेव की बड़ी बहन है और इस नाते कृष्ण की बुआ हुई। इस तरह बहुत सारे गुण पाण्डवों को केशव से स्वतः मिल जाते हैं। केशव को ऐसे ही सुपात्रों की खोज थी जो लड़ाई लड़े, "स्व" के लिए नहीं "पर" के लिए। जिसका उद्देश्य राज्यशाही न होकर लोकशाही हो, एक ऐसे लोकशाही की कल्पना भी कृष्ण के मन में थी जिसका राजा स्वयं धर्म हो। उस राजा पर नियन्त्रण प्रजा का हो। जिसमें "सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः" हो।

   इन परिस्थितियों में कृष्ण ने पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व कर रहे- पाण्डवों को चुना। इन पाँचों की पत्नी द्रौपदी स्वयं प्रकृति का प्रतिनिधित्व कर रही थी। ये पुरुष और प्रकृति को लेकर नारायण का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कृष्ण समग्र मानवता में चेतना का सन्देश देने हेतु पाँचों कर्मेन्द्रियों से हुँकार करते हैं जो हो जाता है- पाञ्चजन्यशंख। कृष्ण अपने महान् निष्काम कर्म की तरफ अग्रसरित हो जाते हैं। अभिमान, अहंकार, लोभ, मोह, काम, क्रोध, प्रत्यक्ष आकर कृष्ण के सामने अवरोध पैदा करना चाहते हैं जिन अवरोधों को कृष्ण अपनी निष्कामरूपी योगशक्ति से छिन्न-भिन्न कर देते हैं। कहीं चमचमाते हुए, जगमगाते हुए शत्रु दलपर भारी पड़ते हैं। जो तुरन्त कृष्ण के संकल्प को पूरा करने में सहायक होता है। वही हो जाता है चक्र सुदर्शन। इस तरह कृष्ण युगों से व्यथित, वांछित मान्यता है। अट्ठारह दिन में ही मुक्त कर देते हैं। ये पाण्डव कृष्ण की छत्र-छाया में महाप कते का शासन सँभालते हैं। इसमें सभी को समान अधिकार एवं अवसर प्राप्त होता है। कृष्ण का निष्काम योग अर्जुन एवं धर्मराज के माध्यम से इस धराधाम पर निःसरित होता है।
क्रमशः.....