साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

 मुख्य द्वार में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही जैसे सारा वातावरण बदल गया। शीतल बयार, कुहरा परंतु प्रकाश। श्वेत बादलों का यत्र-तत्र सर्वत्र छाया, सुहावना दृश्य सड़क भी स्फटिक सा, किनारे पर मणियों की चित्र-विचित्र रोशनी निकल रही है। मैं अपलक देख ही रहा था कि कुछ युवक-युवतियां वेद ऋचाएं गाते हुए दृष्टिगोचर हुई। श्वेताम्बर, बिना पद हिलाए चल रहे थे। अपाद मस्तक सुंदर- अति सुंदर बिना जिह्वा हिलाए उनके कण्ठ से ऋचाएं निकल रही थी। अति मनोहर दृश्य। नजदीक आए। झुककर प्रणाम किए। एक-एक कर आगे आए, हाथ हवा में हिलाए, मन-मोहक माला उनके हाथ में आ गया। वे माला मुझे पहना दिये । वह माला गर्दन से पैर तक था। लगभग ग्यारह युवक ग्यारह यवुतियां माला पहनाई। देखने में माला का वजन ज्यादा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके भार से मैं दब जाऊंगा। परंतु आश्चर्य मनमोहक होते हुए भी भारविहीन थे। वह हाथ हवा में हिलाए सभी के हाथ में मणि जटिल स्वर्ण आरती थाल था। एकाएक सभी पाल जल उठे। आरती होने लगी। मैं मौन देख रहा था। बिना बोले स्वर निकल रहा था। अदृश्य से शंख, घड़ियाल, नगाड़े विभिन्न वाद्यों का आवाज सुनाई दे रहा था। आरती होते ही सभी कुछ स्वतः शून्य में विलीन हो गया। दूर-दूर तक कोई मानव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। मैं प्रसन्न एवं हल्का महसूस कर रहा था। भूख- प्यास स्वतः समाप्त हो गया।

सड़क के दोनों तरफ विभिन्न प्रकार के पुष्प मनमोहक फैले थे। कहीं से रंग-बिरंगे प्रकाश की किरणें निकलकर गगन को स्पर्श कर रही थी। दूर-दूर तक कूड़ा या पतझड का नाम नहीं। मैं एक जगह का सुंदर दृश्य देखकर रुक गया। झरना बह रहा था। विभिन्न प्रकार के पुष्प खिले थे। जो सहज ही चित को आकर्षित कर रहे थे। मैं उस पुष्प के नजदीक गया। जो देखने में कमल-सा प्रतीत हो रहा था परंतु उसकी पंखुड़ियों से लाल-पीले, बैगनी, श्वेत आभा निकल रही थी। जिससे पंखुड़ियों का भी रंग क्षण-क्षण बदल रहा था। उससे सुगंधी का भी किस्म बदल रहा था। मैं उसे तोड़ने के लिए पकड़ा, परंतु आश्चर्य पकड़ते ही वह अदृश्य हो गया। उसके वृक्ष से आवाज आई-"स्वामी जी! मुझे हाथ से स्पर्श न करें। केवल दृष्टि से स्पर्श करें। यह काशी है। यहां सभी कुछ तप के प्रभाव से है। सभी अपनी कला में आनन्दित हैं। मुझे अपने दोष पर शर्मिन्दा होना पड़ा।" मैंने उसे सप्रेम धन्यवाद दिया। क्षमा मांगा ? फिर देखते ही देखते वह पुष्प प्रकट हो गया। उसकी मनोहरी छवि फैलने लगी। दूसरे ही क्षण एक नारी आकृति प्रगट हुई। अपने हाथों में मणीमय थाल ली थी। उस थाल में वही पुष्प था। मैं एक साथ एक ही पुष्प दो जगह देख रहा हूं। एक जो उस वृक्ष में लगा था। दूसरा उस देवी के थाल में था। वह झुककर नमस्कार की एवं उस पुष्प को मुझे अर्पित की। स्वामी जी! इसे ग्रहण करें। मैं इस वाटिका की संरक्षिका हूं। हम सभी आपसे प्यार करते हैं। मैं थाल स्पर्श कर धन्यवाद दिया। नहीं देवी जी! मुझे पुष्प नहीं चाहिए। मैं कौतूहल वश तोड़ लिया था। आप क्षमा करें। मैं आप सभी पुष्पों को देखकर हर्षित हो रहा हूं। एक पुष्प क्या करूंगा। आपको कोटिशः धन्यवाद। वह देवी स्वरूप युवती एवं पुष्प वहीं हवा में विलीन हो गए।

भैरव जी के साथ आगे बढ़ रहा था। बिना चले पांव चल रहे थे। इधर-उधर का मनोहारी दृश्य देख रहा था। समय का भान भूल ही गया था। कुछ दूरी पर विभिन्न प्रकार के भवन दिखाई दे रहे थे। वे सभी भवन बादलों में छिपे नजर आ रहे थे। मानो वे शून्य में लटक रहे हैं। सभी भवन के सामने सूर्य तप रहा था। सभी के लिए अलग-अलग सूर्य हैं ऐसा प्रतीत हो रहा था।

कुछ ही क्षण में एक विशाल भवन के सामने खड़ा था। ध्यान से देखा- सभी रास्ते अर्थात् चारों तरफ से रास्ते वहीं आकर मिल रहे थे। या तो वहीं से रास्ते निकल रहे थे। या वहीं आकर समाप्त हो रहे थे। वह भवन आकाशीय रंग एवं बैगनी रंग का मिला जुला स्वरूप में था। वह सभी को अपने तरफ आकर्षित कर रहा था। भवन का द्वार नीले आभा से युक्त था। ऐसा प्रतीत होता था कि यह भवन ईंट की जगह हीरे-मोती आदि से ही बना है। इसका आदि अन्त भी नहीं दृष्टिगोचर हो रहा था। परंतु ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह षटकोण में बना है। यही षटकोण प्रतीत हो रहा था। यह हवा में झूल रहा था। इतना विशाल भवन हवा में कैसे झूल रहा है।

सहसा उस भवन का द्वार खुला। उससे सीढ़ियां बाहर निकलीं। जैसे कछुआ अपने अंदर से अपना सिर निकालता है। स्फटिक की सीढ़ियां नीचे उतरीं। उससे स्वयं प्रकाश निकल रहा था। न दिन था, न रात्रि। न सुबह न शाम। फिर क्या था ? अद्भुत रश्मियुक्त शीतल प्रकाश। जो हर क्षण अपने तरफ खींच रहा था।

हम दोनों उस सीढ़ी पर पैर रखे फिर ऐसा प्रतीत हुआ सीढ़ियां स्वयं चल रही हैं। कुछ ही देर में षटकोण रूपी भवन के मध्य में पहुंच गई। वहीं सीढ़ी रुक गई। विशाल कक्ष था। कुछ आवाज निकल रही थी। वह आवाज प्रणव ध्वनि थी। उस आवाज में धीरे-धीरे बदलाहट आई थी, वह शिव पंचाक्षर मंत्र था।

विशाल शिव मंदिर सामने था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मंदिर द्वादश कमलदल पर खड़ा है। सभी कमल दल पर अलग-अलग प्रकाश था। उस मंदिर का विचित्र आभायुक्त प्रकाश मंत्र द्वार दिखाई पड़ रहा था। बाहर एकाएक श्वेत वस्त्र-श्वेताम्बर गौर वर्ण का विशाल काया पुरुष प्रकट हुए। ये पैर से सिर तक आभूषणों से लदे थे। इनके हर अंग से प्रकाश की किरणें निकल रही थीं। इनकी आंखें बड़ी-बड़ी सूर्य-चन्द्रमा-सी प्रतीत हो रही थी। सिर पर बड़ा-सा मुकुट पहन रखे थे। जिससे ऊपर दो तरह की रश्मियां निकल रही थीं। जैसे दो तरह के सिंह हो, ऐसा जान पड़ता था। वे नजदीक आकर प्रेम से झुककर अभिवादन किए। अपना परिचय देते हुए बोले, प्रभु! मैं नंदी हूं। भगवान शंकर का नंदी। मैं कभी उन्हें देखता कभी बार-बार देखे गए शंकर के वाहन नंदी (बैल) को याद करता। ओह-पोह में पड़ गया। मैं स्वयं को भूल ही गया था।????

  क्रमशः.........