साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सद्गुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सद्गुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
विश्वमित्र का अयोध्या आगमन
यह समाचार पूरे विश्व में उसी तरह फैल गया जैसे जंगल में आग। अयोध्यावासी भी जान गये। वशिष्ठ भी। अयोध्या की प्रजा राजा सत्यव्रत पर दबाव डालती है, निवेदन करती है, उस गायत्री रूपी यज्ञ के लिए साकेत नगर में। राजा धर्मसंकट में पड़ जाते हैं। पता भी नहीं वशिष्ठ क्या सोचेंगे? चूँकि वशिष्ठ का कोपभाजन एक बार बन चुके थे। अतएव सार्वजनिक सभा बुलाते हैं। जिसमें जन-प्रतिनिधि, राज्य प्रतिनिधि के साथ वशिष्ठ भी थे। जन-प्रतिनिधि की जोरदार माँग को देखते हुए चतुर वशिष्ठ कह उठते हैं- अब तो विश्व-मित्र समस्त सृष्टि के ही गुरु हैं। अतएव उन्हें ससम्मान बुलाया जाये। उनके द्वारा यज्ञ कराया जाये। जिसमें राजा के साथ-साथ प्रजा का भी कल्याण हो। सभी लोग खुश हो जाते हैं। राजा को मानो इच्छित फल ही मिल गया हो। चूँकि उनका आराध्य गुरु अब उन्हें एवं अयोध्या को पवित्र कर देगा। ऐसा सुअवसर उन्हें मिलता प्रतीत हुआ। तुरन्त अपने सम्मानित प्रतिनिधि को पुष्कर भेज देते हैं। जब वे लोग पुष्कर पहुँचते हैं तो देखते हैं सूर्य-से तेजस्वी-तपस्वी विश्वमित्र बच्चों को पढ़ा रहे हैं। विद्या दान दे रहे हैं। हज़ारों बच्चे बैठे हैं परन्तु बिल्कुल शान्त। ऐसा ज्ञात हो रहा है मात्र एक वक्ता ही बैठा है और सब उनके वाक्य को पी रहे हैं। जैसे सीप स्वाति के जलको पी जाती है। ये लोग भी पिछले भाग में चुप बैठ जाते हैं। सुनते हैं, अनुपम, अमूल्य तंत्र विद्या को। तंत्र सुना नहीं जाता। ग्रहण कर लिया जाता है जिससे समग्र जीवन ही बदल जाता है। वे लोग सुनकर धन्य हो गये। भूल गये अपने उद्देश्य को। जब सभी विद्यार्थी चले गये तब विश्वमित्र के चरणों में झुककर शिष्टतापूर्वक अपना परिचय दिया। अयोध्या चलने का निवेदन किया। विश्वमित्र ने 'शरद ऋतु के बाद चलने का आश्वासन दे उन्हें सुबह लौट जाने को कहा, समय बीतता गया। विद्यार्थी बढ़ते गये उस तेज पुरुष की छत्र-छाया में। अधिकांश विद्यार्थी तंत्र में पारंगत होते गये। पृथ्वी पर प्रेम की नदी बह चली। सभी अपने को सुरक्षित, आनन्दित, निर्भय महसूस करने लगे। किसी भी शासन का यही मूल सूत्र होना चाहिए। समयानुसार सत्यव्रत ने अयोध्या से जन प्रतिनिधि, राज-प्रतिनिधि को ऋषिगण के नेतृत्व में पुष्कर भेजा। सभी को समझा दिया गया कि सम्मान के साथ महर्षि ब्रह्म स्वरूप विश्व-मित्र को आप लोग लायें। मैं अष्टमी तिथि को राज्य की सीमा पर पत्नी एवं प्रजा के साथ उनका स्वागत करूंगा। योजनाबद्ध ढंग से सभी लोग विश्व-मित्र को स-सम्मान साकेत ला रहे थे। जिस नगर में पहुँचते उसका राजा उनका स्वागत कर धन्य हो जाता। वह उल्टे कुछ काल रुकने का अनुनय-विनय करता। नहीं रुकने पर वह भी उनके साथ हो जाता। मानो कोई अज्ञात आकर्षण उन सभी को आकर्षित करता जो भी सान्निध्य में आता। अयोध्या पहुँचते-पहुँचते उस संख्या में कई गुना वृद्धि हो गयी। अयोध्या की सीमा पर ही राजा सत्यव्रत सपत्नी स्वागत करते हैं। स्वर्ण पात्र में पैर धोते हैं। पैर धोते समय उन्हें ऐसा ज्ञात होता है मानो उनके चरण से गंगा निस्सरित होती हो। राजा स्वयं चरणामृत पान कर, प्रजा को पान कराते हैं। गुरुवर को राजधानी में लाते हैं। पूरा अयोध्या सज-धज कर दुल्हन बना अपने गुरु के स्वागत में प्रतीक्षारत खड़ा था, जिस रास्ते से गुज़रते पुष्पों की वर्षा होती। जय-जयकार से आकाश गूँज उठता। पशु-पक्षी सभी दण्डवत मुद्रा में उनको नमन करते। गुरु देव सभागार में पहुँच गये। जहाँ अयोध्या की जनता प्रतीक्षा करती थी। सभी मिलकर उनकी आरती उतारते हैं। उसी समय देवर्षि वशिष्ठ अपने पुत्रों-शिष्यों के साथ प्रकट होते हैं। कुछ काल तो सभी स्तब्ध रहते हैं। वाक्पटु सुन्दर, विद्वान, चतुर देवर्षि वशिष्ठ अपने पुत्रों से गुरु देव की स्तुति कराते हैं। स्तुति समाप्त होते ही वशिष्ठ मंच पर चढ़कर गुरु देव के सम्बन्ध में सुन्दर, आकर्षक स्वागत मन्त्र बोलते हुए उन्हें ब्रह्मर्षि रूपी पदवी जो उनके विद्यालय की सर्वश्रेष्ठ पदवी थी, प्रदान करते हैं। विश्व-मित्र को ही विश्व के कल्याण का केन्द्र बताते हुए आशीर्वचन हेतु उन्हें आमन्त्रित करते हैं।
गुरु स्वरूप विश्वमित्र
सभी लोग अपलक देख रहे थे, शुभ्र दाढ़ी, मूँछधारी कान्तिमय चेहरे वाले गुरुदेव को। उनके कान प्यासे थे, उन्हीं की अमृतमय वाणी पान करने को। गुरुदेव एक नज़ प्रजा की तरफ देखते हैं। मानों उनकी आँख से सूर्य का प्रकाश निकल रहा हो, पुन: देखते हैं, सभासदों को, राजा एवं वशिष्ठ तथा उनके परिवार को। वे अपनी आँखों से ही सभी को समान रूप से आशीर्वाद दे रहे थे। वे अब किसी भी मान सम्मान को ग्रहण करने की स्थिति में नहीं थे। वे तो निर्विकार शुद्ध परम चेतन को उपलब्ध परम चेतन ही थे। अब क्या करेंगे उपाधि, चाहे वह ब्रह्मर्षि हो या ब्रह्म की हो। गुरु देव स्वरूप में स्थित हो, सबको संक्षिप्त आशीर्वाद देते हैं। सभी के मंगल की कामना करते हैं। सभी को तंत्र में अवस्थित हो जाने का आमन्त्रण भी देते हैं। अब शुरू होती है यज्ञ की तैयारी। गुरु देव के तंत्र विज्ञ शिष्य जुटाते हैं-'यज्ञ समाधि को। यह यज्ञ भी पूरा का पूरा तंत्र है, जिसे अपने अन्दर करना श्रेयस्कर है। जो अन्दर की क्रिया को, विधि को जान लेता है, उसे बाहर करने की कोई जरूरत नहीं होती। बाहर तो उसके लिए करना श्रेयस्कर होता है जो अन्दर की विधि को नहीं जानता। यह बहिर्मुख लोगों के लिए एक प्रकार का आमन्त्रण है। जब बहिर्मुख व्यक्ति उस आमन्त्रण को स्वीकार कर लेता है तो पूरा होता है-उसका पहला चरण। चूँकि कुछ श्रद्धा तो बनी। कुछ आकांक्षाएँ तो जागृत हुई अनजाने में जाने का साहस तो जुटाया। बाह्य यज्ञ में सम्मिलित होना पूरा करता है दूसरे चरण को। कुछ सुना तो, कुछ देखा तो। अब वह विचार करेगा फलाफल का। अच्छे-बुरे का। गुरु का प्रवचन सुनना पूरा करता है उसके तीसरे चरण को । अब वह तर्क-वितर्क में पड़ जाता है। यदि उसमें कुछ भी सम्भावना के बीज हैं तो अंकुरित होने के लिए उठेगा। गुरु के हाथ का प्रसाद ग्रहण करना पूरा करता है-चौथे चरण को। उसके हाथ के द्वारा दिया गया प्रसाद, उसकी अन्दर की संभावना को आन्दोलित कर देता है। उसे गुरु के सान्निध्य में जाने को बरबस धक्का देता है। वह अब गुरु के आकर्षण में जाकर कुछ करने को आतुर हो उठता है। गुरु के हाथ से दिया गया प्रतीक माला, टोपी, खड़ाऊँ, फोटो, पुस्तक पूरा करता है उसके पाँचवे चरण को। अब हर समय उसका मन गुरु के चरणों में पहुँचता रहता है। गुरु भी उसी माध्यम से सूक्ष्म रूप में उसके साथ हो लेता है। अब गुरु भी उसका हित-अहित सोचने लगता है। धीरे-धीरे परम-पुरुष के नजदीक ले जाने का उपक्रम करता है। गुरु के द्वारा दिया मन्त्र पूरा करता है-छठे चरण को। अब मन आध्यात्म में रमने लगता है। अज्ञात शक्ति अन्तःपुर की तरफ खींचती जाती है।मन को त्राण दिलाना ही मन्त्र है। अब मन अन्तमखी होने लगता है। अन्तत परम-प्रकाश का दर्शन करना हो पूरा करता है-सातवें चरण को गुरुय करता है तंत्र विधि को। यहीं पूरा करता है गुरु-मुख कला को। यहीं होता है दक्ष। तब हो गया दीक्षित। अब किसी भी कार्य को करता है. तो फला-फल शीघ्र फलित होता है। अब वह हो गया संन्यासी। इस संसार हुए जान गया इसके सार को। मन से बैरागी हो गया। अब वैर हो जाता है वृत्ति रूपी अग्नि से। जब साधक साक्षी भाव ग्रहण कर लेता है तो पूरा क है-आठवें चरण को। अब वह न कर्ता है, न भोक्ता। वह है सम्यक योगी। वह अवस्थित हो जाता है। अजपा में। चल रहा है अजपा में। सब काम का है अजपा में। यह अजपा लेकर जाती है। अनाहद में। योगी पुरुष का होता है-नवम चरण। यह सबसे बड़ी संख्या है। अब योगी अनाहद में चला गय अब क्या करना है? वहीं है पूर्ण विश्राम। अब कर्म में अकर्म और अकर्म में कां करता है। अन्त:करण अकर्म में स्थित रहता है। बाहर कर्म का फल लगता है। पाप-पुण्य पीछे छूट गया। अब वह निर्भय हो गया। परम चेतनता को उपलब्ध गया। पूरा कर लिया तंत्र की विद्या को। हो गया तान्त्रिक।
विश्व-मित्र के द्वारा यह आलौकिक यज्ञ दूसरी बार अयोध्या में सम्पन्न हुआ। सारी अयोध्या गुरुदेव की गोद में सिमट गयी। इस यज्ञ के बाद लोग भूल गये देक यज्ञ एवं संस्कृति को। घर-घर गायत्री माँ की उपासना शुरू हो गई। अयोध्या परम पवित्र हो, गुरुदेव के चरणों में निश्चित हो गया। सभी लोग यथायोग्य धर्म पर आरुढ़ हो गये। सभी प्रसन्न हो गये। वहीं पर अपने लड़के को भी दिशा-निर्देश दिए तत्पश्चात् दीक्षित कर दिए। हालाँकि उनके लिए अब अपना सारा विश्व है है। सभी अपने हैं। प्राणीमात्र अपने हैं। तंत्र में पराया है ही नहीं। पूरा हो गय अयोध्या का महायज्ञ।
अयोध्या में गायत्री यज्ञ
इस यज्ञ से देव संस्कृति में निराशा छा गयी। विदेशी क्लब बन्द होने लगे। जैसे पश्चिम के संस्कार में सने अभी भी भारतीय भू-खण्ड में बहुत सारे क्लब है, जिसमें तथाकथित उच्च वर्ग के लोग बहुत ही तड़क-भड़क से सम्मिलित होते है। उसमें साधारण लोगों का प्रवेश बिल्कुल ही वर्जित रहता है। उनसे मिलने में अपनी मान-हानि समझते हैं। जबकि अनपढ़ व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी, कपड़ा, मकान ही जुटाने में व्यस्त रहता है तथाकथित विद्वान भी इसी व्यवस्था के जुगाई मैं पिछड़ों का शोषण करता है। उन्हीं का हिस्सा बलात् ढंग से ग्रहण कर अपनेको ऊँचा समझता है। क्या अन्तर है आज के शिक्षित एवं अशिक्षित में ? वही होता है जो कभी देव संस्कृति के लोग या अभी पश्चिम के लोग करते हैं। वहाँ सुरा-सुन्दरी का नग्न नृत्य होता है। मानवता भी लज्जित हो जाती है। इस तरह का क्लब अब भारत-भूखण्ड में बन्द होने लगा। जो देव-यक्ष संस्कृति की चिन्ता का विषय था। सारे कुसंस्कारित यज्ञ बन्द होने लगे। गायत्री रूपी यज्ञ के प्रवाह में सब लोग बह चले। पुष्कर से अयोध्या तक भूखण्ड अत्यन्त पावन पवित्र हो गया। सभी अपनी मानव संस्कृति की तरफ मुखातिब होने लगे। विश्व-मित्र का वैसे ही चहुँ ओर प्रकाश फैल रहा था जैसे तेज मार्तण्ड का।
विश्वमित्र का सिद्धाश्रम आना
विश्व-मित्र काशी होते हुए सिद्धाश्रम की तरफ बढ़ गये। सिद्धाश्रम पहुँचकर पुनः तप रत हो गये। कुछ काल पश्चात् वहाँ भी विद्यार्थियों का पठन-पाठन प्रारम्भ कर दिया। दो-चार विद्यार्थियों से शुरू किया गया यह कार्य विशाल विश्वविद्यालय रूप ग्रहण कर लिया।
यह विश्वविद्यालय इस पृथ्वी का प्रथम विश्वविद्यालय था जिसके रचयिता महर्षि विश्व-मित्र ही थे, जिनकी छत्र-छाया में विद्या अध्ययन, शोधकार्य, अन्वेषण कार्य, ज्योतिष् कार्य, अन्यान्य मांगलिक कार्य चल उठे। यह शिक्षण संस्थान सबके लिए सम्यक् रूप से खुल गया। जहाँ न कोई बड़ा था न छोटा। न कोई नीच था न ऊँच। मानव मानव सब एक हो गये। एक ही चूल्हा-चौका हुआ एक ही हो गया धर्म, जिसके धर्म के केन्द्र बिन्दु विश्व-मित्र थे। जिस केन्द्र से मांगलिक संस्कारों का, कार्यों का उदय होना स्वाभाविक हो गया। यह सिद्धाश्रम चौरासी कोस में फैला हुआ था जिसमें पूरे विश्व के चौरासी हज़ार विद्यार्थी अध्ययनरत हुए। अब आप सहज ही अन्दाजा लगा सकते हैं कि कितने ऋषिगण, शिक्षक के रूप में होंगे। इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का पूरा-पूरा ध्यान दिया गया था। जहाँ बच्चों का विकास आर्थिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक ढंग से सम्पन्न होने इसमें युद्धकला से लेकर यज्ञ कला तक का शिक्षण दिया गया। जिससे विद्यार्थी अपने बाह्य एवं अन्तःपुर के राक्षसों से युद्ध कर सकें। जब इस विश्वविद्यालय में नित्य नयी-नयी खोज होने लगी, अन्वेषण होने लगे, चरित्र होने लगे। तब इस सिद्धाश्रम का नाम चरित्र वन पड़ गया। अब विश्वमित्र की कीर्ति पूरे भू-खण्ड में फैल गयी। अन्य संस्कृति के विद्यालय (जो कुछ खास लगर्गों तक के लिए निहित थे) बन्द होने लगे।
देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नाग, रक्ष के बच्चे भी अपना-अपना नाम रूपबदल कर इस विश्वविद्यालय में आने लगे। यहाँ की तंत्र विद्याओं को ग्रहण करने लगे। इस अन्वेषण के क्रम में ही युद्ध के प्रक्षेपास्त्र से लेकर द्रुतगति (मानस गति) से चलने वाले विमान तक का आविष्कार किया गया।
ऐसी-ऐसी आणविक शक्तियों का आविष्कार किया गया जिससे समय पड़ने पर पूरी संस्कृति को समाप्त किया जा सके या पुनर्जीवित किया जा सके। नये-नये ग्रहों का आविष्कार किया गया। साथ ही खाद्यपान की कमी आने पर नयी खाद्य सामग्रियों, कपड़े का प्रचुर मात्रा में आविष्कार किया गया (रेशम की जगह पर सूती कपड़ा) दूध की कमी आने पर ज्यादा दूध वाले पशुओं का, गाय की जगह भैंस का (इस तरह ग्रह-नक्षत्र से लेकर प्राणीमात्र के कल्याण हेतु पशु तक का) आविष्कार किया गया। शीघ्र ही कम समय में होने वाले फसल जो बिना पानी के हो सके। ग्रामीण गरीब जनतंत्र को भोजन, भवन, वस्त्र सहज उपलब्ध हो सकें। ऐसा अन्वेषण किया गया। यह आविष्कार अपने आप में अद्वितीय रहा। जो पूरी मानवता के लिए वरदान सिद्ध हुआ। इन्होंने सिद्ध कर दिया ऋषि के कर्तव्य को। जिससे हो गया पूरे विश्व का मंगल। अब स्वतः लोग कहने लगे विश्व-मित्र। इस तरह आज तक इस धराधाम पर विश्व-मित्र कहलाने वाले सम्भवतः एकमात्र यही रहे। न कोई भूत में हुआ न भविष्य में होने की सम्भावना है। मानव संस्कृति अग्रगति करने लगी।
देवेन्द्र का चिन्तित होना
इधर वशिष्ठ विश्व-मित्र के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो उठे। वे सीधे पहुँचते हैं देव लोक में, जहाँ अगस्त्य शुक्राचार्य की उपस्थिति में देवताओं के साथ मन्त्रणा होती है। देवेन्द्र एवं यक्षेन्द्र भी आ गये। सब भयातुर थे विश्व-मित्र के बढ़ते हुए प्रभामण्डल से। यह मन्त्रणा हफ्तों दिन चलती है। तब तय होता है कि सत्यव्रत को किसी तरह से भड़काया जाये। उसे सशरीर स्वर्ग आने के लिए उकसाया जाये। स्वर्ग आने की कामना ज्यों ही उसके अन्तस्थ मन में जायेगी वह अपने गुरु को बाध्य करेगा। ज्योंही वह स्वर्ग की तरफ विश्व-मित्र के द्वारा भेजा जायेगा इन्द्र के द्वारा वज्रास्त्र का प्रयोग कर उन्हें मार गिराया जायेगा। जिससे विश्व-मित्र की अपकीर्ति पूरे विश्व में फैल जायेगी। वशिष्ठ को यह कार्य करने का जिम्मा सौंपा गया। जिसके सहयोग में कामदेव, रम्भा, उर्वशी, वरुणामित्र अयोध्या में आ गये। धर्म के माध्यम से इन लोगों के द्वारा बार-बार स्वर्ग लोक के सुख की चर्चा की गयी। स्वर्ग में सशरीर जाने की कला वशिष्ठ के साथ-साथ उनके साथ आये व्यक्ति भी जानते हैं। अतएव सत्यव्रत या तो इन लोगों कासान्निध्य प्राप्त कर स्वर्ग जाये या वशिष्ठ के यज्ञ के माध्यम से। परन्तु यह कला सत्यव्रत के गले नहीं उतर रही थी। ऐसा कहा गया है-संसर्गे गुण दोषः भवन्ति । सत्यव्रत को भी इन लोगों के संसर्ग एवं तथाकथित सत्संग से स्वर्ग की लिप्सा जाग उठी। एक दिन सहसा अपने पुरोहित वशिष्ठ से निवेदन कर उठे क्या मैं उस स्वर्ग को नहीं जा सकता जिसमें आप जाते हैं? वशिष्ठ तो यही सुनना चाहते थे। उन्होंने बहुत ही चतुरतापूर्वक कहा वत्स-वहाँ जाने के लिए देव संस्कृति ग्रहण करना होगा। देव यज्ञ करना होगा, अपने को बदलना होगा। तुम इस तथाकथित गायत्री रूपो यज्ञ से नहीं जा सकते हो। विश्व-मित्र ने तो तेरे संस्कारों को समाप्त कर दिया है। कैसे होगा उस लोक में तेरा प्रवेश। इतने में ही कामदेव मुस्कुराते हुए बोल उठे राजन यदि तुम अपने को बदलो तब हम लोगों के सहयोग से स्वर्ग लोक में निवास कर सकते हो। जहाँ केवल सुख ही सुख है। जहाँ केवल युवा ही हैं। जहाँ केवल देव-संस्कृति का महत्व ही है। सब सुन्दर ही सुन्दर हैं।
क्रमशः.....