साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

दैत्य या राक्षस,

भारतीय यति, मुनि, संन्यासियों के अनुसार वह राष्ट्रवादी नहीं समस्त जगत का घटक है। इसी लिए "वसुधैव कुटुम्बकम् " शब्द का आविष्कार आवश्यकता के अनुरूप इसी धरती पर हुआ। ऐसा ज्ञात होता है कि पौराणिक काल में राक्षसों से घृणा एवं देवों से प्रेम, पूजा का जन्म हुआ। जो कालान्तर में बढ़ता ही गया। महाभारत के वन पर्व में मिलता है-

"मनुना च प्रजाः सर्वा स देवासुर मानुषाः। सृष्टब्यांः सब लोकाश्च मत्रे गति पंचे गति ॥"

यानी सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार बसे देवता, मनुष्य और असुर सब मनु की सन्तान हैं। जैसे कि आप जानते हैं कि कश्यप और उनकी पलियाँ अदिति और दिति से इनकी उत्पत्ति हुई है। अदिति से आदित्य, वसु, रूद्र, आदि। दिति से असुर। इसमें देवताओं को अलौकिक मानने का कौन-सा कारण है? कैसे ये सृष्टि के रचयिता एवं संचालक हो गये ? कैसे असुर घृणा के पात्र ? ये शब्द गुणवाचक हैं। वाल्मीकीय रामायण में भी लिखा है-

"अमरेन्द्र मया बुद्धय प्रजाः सृष्टास्तथा प्रभो। एक वर्णा समाभाषा एक रूपाश्च सर्वशः ॥"

यानी "संसार भर में बसे सभी लोग मूल में एक ही जाति, एक ही भाषा और एक ही प्रकार के आचार-विचार वाले मनु के पुत्र हैं।" ये देश, काल, स्थिति के अनुसार आचार-विचार में परिवर्तित हुए।

कश्यप जी मरीचि प्रजापति के पुत्र थे। जो वर्तमान कश्मीर के भू-भाग में रहते थे, जिनका विवाह दक्ष की बड़ी पुत्री से हुआ। दक्ष के पुत्र उनके साथ नहीं रहते थे। अतएव कश्यप जी वहीं के भू-भाग में रहने लगे एवं कालान्तर में दक्ष की अन्य छोटी लड़कियों से भी शादी करते गये। इस तरह उनकी 13 पत्नियाँ हुई। अदिति छोटी थी। कालान्तर में वह भू-भाग जिस सागर के तट पर था। वही कश्यप सागर (Caspian-Sea) कहलाया। वहाँ के पर्वत का नाम भी काकेशस पर्वत पड़ा। वहाँ के लोग ही करपीआई जाति कहलाये। जिनकी राजधानी हिरकेनिया थी। वहाँ जो नदी है वह दैत्य नदी कहलाती है। वह भी कैस्पीयन सागर में गिरती है। दान्युब नदी भी वहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि कश्यप जी का परिवार जैसे-जैसे बढ़ा उनके पुत्र माँ के साथ अलग-अलग रहने लगे। जैसे दिति के लड़के दैत्य नदी तट पर एवं दनु के लड़के दैत्य दान्युब छट पर। दिति के बड़े लड़के का नाम करिपु या जसे बाद में हिरण्यकश्यप कहलाया। वह बड़ा होनहार एवं प्रतिभा सम्पन्न था। अभी माताओं एवं भाइयों देव, दानव, गन्धर्व, नाग का यथोचित भरण-पोषण भी करता था। भले हो वे अपनी-अपनी माँ के साथ अलग-अलग रहने लगे। पुराणों के ही अनुसार हिरण्यकश्यप की राजधानी हिरण्यपुरी थी। परिवार बढ़ने से अाजकाल का आना स्वाभाविक है जिसे पुराणकारों ने अलौकिक बना दिया है। जिससे सत्यता विदा हो गयी है। एक कहानी बनकर आपके सामने रह गयी है। खैर घन की कमी के चलते एवं अपने भाइयों के विस्तार को देखकर बुद्धिमान हिरण्यकश्यप ने पहले पहल समुद्र उल्लंघन किया। जिसे पुराणों में "समुद्र मन्थन भी कहते हैं। उस पार जाते ही अपना अन्वेषण शुरू किया। जिसका परिणाम था "सोने की खदान"। जैसा कि पर्शिया के इतिहास में मिलता है। "हाईवे ऑफ द गोल्ड माइन्स ऑफ एशिया मैनर अर सीवाज" (High ways of the gold mines of Asia manor or Sivas) ईरान में एक कश्पियन राज्य भी है जहाँ कश्यप सागर भी है। यह समुद्र मन्थन यानी खोज पर्शिया के इतिहास जिल्द 1 से 25 तक में आप देख सकते हैं। (जब-जब इस तरह की खोज हुई हैं, इसे समुद्र मन्चन कह दिया गमा)।

सोने की खदान मिलने की सूचना जब अदिति के पुत्रों यानी आदित्यों को मिली तो वे जलने लगे। किसी भी तरह उस पर अपना अधिकार जमाने की युक्ति निकालने लगे। आदित्यों में ज्येष्ठ वरुण थे जिन्हें पर्शिया के इतिहास में ब्रह्मा भी कहा गया है। उस समय देवपुरी भी वही थी। सभी आदित्यों ने मिलकर समुद्र का उल्लंघन किया एवं दैत्यराज पर सीधे आक्रमण कर दिया। जिस पर हिरण्यकश्यप की विश्वास ही नहीं हो रहा था। यह सम्भवतः सातवें मन्वंतर के वहासत काल का समय रहा होगा। हिरण्यकश्यप ने अपना भाई समझ उनका स्वागत किया एवं उन लोगों को खदान के एक छोर पर रहने की सलाह दी। अपनी रक्षा के दृष्टिकोण से आगे रहा। परन्तु आदित्यों को यह भी मंजूर नहीं हुआ। फलतः एक रात्रि के अँधेरे में दैत्यों पर धावा बोल ही दिया। जिसे पुराणों में देवा-सुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। इस तरह 12 (बारह) युद्ध हुए हैं। इन्हीं दिति से हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप की बंश परम्परा के अनुसार प्रथल विरोचन, बलि एवं बाणासुर हुए। ये सभी संस्कारवान रहे। अच्छे राजा हुए। दैत्य एवं दानव अत्यन्त वीर, बहादुर, वैभव से परिपूर्ण राजा हुए। इनके परिवार बड़े-बड़े भी हुए एवं सभी कौटुम्बिक जीवन बिताने वाले थे। भवन निर्माण के जनक भी यही थे। शिल्पकला के माने में इनका जोड़ नहीं था। एक यह भी कारण था कि देवता हर समय इनका राज्य छीनना, क्षपटना चाहते थे चूंकि उनमें अपना कोई खास पुरुषार्थ तो था नहीं, महत्वकांक्षी ज्यादा थे। इन्हें असुर असु +र। असु-प्राण, र-अर्पण करना। "प्राों का असुः" यानी प्राणपति असुर कहा जाता था। प्राणिमात्र का पति, मालिक, स्वामी। वह जो रक्षक हो, राजा हो, पिता तुल्य जो रक्षा का भार अपने कन्धे पर रखे हो। उन्हें असुर कहा गया। यह गुणवाबक शब्द है ऋग्वेद में कम-से-कम 100 बार असुर शब्द आया है। परन्तु पुणावाचक नहीं। घृणा तो पुराणों से शुरू होकर आती है। इसके खानदान में राजा बलि एवं बाणासुर भी देवराज इन्द्र बने हैं या देवराष्ट्र के अध्यक्ष बने हैं।

नाग

ये भी मानव की तरह ही हुए हैं। इनका भी वंश, परिवार, राज्य था। ये भी श्रेष्ठ एवं धर्मप्रवृत्ति के सबल सशक्त थे। पुराणों के अनुसार कश्यप की पत्नी कटुकी (कटू) से नाग लोगों का जन्म हुआ। ये नाग 26 भाई हुए। ये मेहनती एवं कर्मठ थे। इनके राज्य की सभ्यता एवं संस्कृति बहुत ही उच्च कोटि की विकसित थी। पुराणों में हो नागलोक का वर्णन स्वर्ग लोक (देवलोक) से ज्यादा सुन्दर मिलता है। इस वंश में विद्वान एक-से-एक हुए। ये ज्योतिषी, भूगर्भ शास्त्री, पिंगलशास्त्री, वेद के ज्ञाता, व्याकरणाचार्य भी हुए। इनकी कन्याओं का सम्बन्ध सूर्यवंश एवं चन्द्रवंश दोनों में मिलता है। ये अपने भाई आदित्य (देवगण) से हर माने में बढ़-चढ़कर आगे थे। इनमें चारित्रिक दोष नहीं था। इसी से इनकी कन्याओं का सम्बन्ध मनुवंशी (मानव) से भी ज्यादा हुआ है। पता नहीं कब एवं क्यों पुराणकर्ता इन्हें सर्प बना दिए। परन्तु इनकी पत्नियों एवं कन्याओं को सर्पिणी बनाना भूल गये। इनके खानदान में प्रमुख राजा हुए तक्षक, धनंजय, वासुकी, शेष, आदि जिनका नाम हुआ। इनका राज्य भारत में सप्त सिन्धु प्रदेश से लेकर नर्मदा नदी तक स्थापित हुआ। अब आपको स्पष्ट हो गया होगा कि नाग भी मानव के सदृश ही हैं। वाल्मीकीय रामायण में भी मिलता है। रावण ने भोगवती जाकर बासुकी राजा को युद्ध में परास्त किया एवं तक्षक की पत्नी का हरण कर लाया। जिसके बाद अपने वंश में शादी भी की।

देव गण

जैसा कि पूर्व में भी देवगण के सम्बन्ध में चर्चा कर चुका हूँ। यहाँ इनका परिचय करा देना उचित समझा जिससे किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं हो। ये भी मनुष्य की तरह ही है। ये भी मरण-धर्मा हैं। इनमें चरित्र नाम की कोई चीज नहीं 
है। ये सदैव छल-कपट का सहारा लेते, अकर्मण्य रहते, दूसरे का घन-सम्पत्ति, वैभव देखकर जलते एवं येनकेन प्रकारेण उसे हस्तगत करना चाहते। इसी से ये कभी दानव से सम्बन्ध करते तो कभी मानव से, तो कभी नाग, यक्ष से। इनकी भीति चिर-स्थायी नहीं है। ये सुरा (शराब) का पान करते इसी से इन्हें सुर भी कहते हैं। ये कश्यप की अदिति से जन्म लिए हैं। ये 33 समूहों में थे। इसी से इन्हें 33 करोड़ भी कहते हैं। ये जन-समूह आदित्य 12, रूद्र 11, वसु 8, अन्य 2 इस प्रकार ये 33 जनसमूह हुए। ये कश्यप की पत्नी अदिति जो दक्ष प्रजापति की पुत्री श्री की सन्तान हो आदित्य कहलाये। ये ही आगे चलकर देव की संज्ञा पाये।

देव शब्द का दो अर्थ होता है। ये दिव् धातु से बना है। दिव् यानी चमकना, उज्जवल होना। सूर्य चमकता है, पूरे विश्व को प्रकाशित करता है। इसके प्रकाश से चन्द्रमा भी चमकता है जो शीतलता प्रदान करता है। अतएव ये देव या देवता हुए। परन्तु वे जो पौराणिक पात्र हैं। वे ऐसे नहीं हैं। हालांकि पुराणवेत्ता सूर्य-चन्द्रमा एवं तारों से भी इनका सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसी तरह देवलोक, देव का अर्थ तो समझ ही गये। लोक यानी लोक्यतेऽसौ लोक्। धज् अर्थात् संसार, दुनिया। इस तरह इसका अर्थ हुआ चमकने वाली वस्तु की दुनिया को ही देवलोक कहते है। अन्तरिक्ष ही देवलोक कहा जा सकता है। आकाश में देवलोक की कल्पना की जाती है। परन्तु ये पौराणिक देवगण। इनका भी जन्मस्थल वही है जो दानवों का है। कश्यप तट। प्रथमतः देव लोक भी यही था। बार-बार दानवों से संघर्ष करते एवं महत्वाकांक्षावश ये भी आगे बढ़े एवं देवलोक अन्य जगहों पर निर्माण किये। जैसे उर्वशी नामक अप्सरा उर की निवासी थी। उर ईरान में है। जिसका उत्खनन भी हुआ है एवं 5000 वर्ष पूर्व की सभ्यता का भी पता चलता है। देवता, वरुण एवं मित्र भी वर्तमान ईराक तथा ईरान के निवासी थे। वशिष्ठ की माता उर्वशी थी एवं पिता मैत्रावरूणी जिन्हें ब्रह्मा भी कहा गया है। अगस्त्य एवं जरथ्रोस्त भी उर्वशी के ही पुत्र हैं। देवताओं में विवाह की प्रथा नहीं थी। इन्द्र, ब्रह्मा, विवस्वान, वरुण, कामदेव की पत्नी का उल्लेख मिलता है। परन्तु अन्य देव सब वेश्याओं के साथ स्वच्छंद थे। इनका जीवन भी भोग प्रधान था। परन्तु भारत भूमि में आने के लिए हर समय ललायित रहते थे। किसी तरह जब इनका भारत भूमि के मानवगण से सम्बन्ध हुआ। तब इन्होंने ईरान से अपना निवास यानी स्वर्ग को "त्रिविष्टप" पर स्थापित किया। इसे वर्तमान में तिब्बत के नाम से जानते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम का भाग उस समय ईलावर्त कहलाता था। गिलगित के समीप एशियाई रूप का दक्षिण-पश्चिम भाग और ईरान का पूर्वी भाग ही ईलावर्त के अंग थे। यहीं कश्यप की पत्नी अदिति एवं उनकी आदित्य संतानें रहती थी जिसके बंटवारे को लेकर भी पुढ हुआ है। जिसे देवासुर संग्राम भी कहा गया। पुराणों में सुमेरू पर्वत का नाम बुबा है जो अपभ्रंश होकर समरकन्द हो गया है। परन्तु महाभारत काल में देवगण त्रिविष्टप में आ गये। रामायण काल में ही इन्होंने त्रिविष्टप आना शुरू कर दिया का। दैत्यों की कला शिल्प देख कर इन्होंने अपने प्रमुख कलाकार विश्वकर्मा से स्वर्ग का निर्माण शुरू करा दिया। इसके लिए धन की जरूरत पड़ती तो धन हरण करने हेतु ये दैत्यों से छीना-झपटी करते जिसे देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी के समकक्ष इन्द्र ने लंका का भी निर्माण कराया था जहाँ का राजा कुबेर को बनाया गया। यहाँ यह भी ज्ञात होता है कि लंका पूर्व में भी रावण के नाना माली, सुमाली, माल्यवान लोगों का राज्य था। जिसे देवगणों ने युद्ध में धूर्तता से छीन लिया।

इस तरह हम देखते हैं कि देव संस्कृति एवं मानव संस्कृति साथ-साथ उदय हुई एवं विकसित हुई। परन्तु ये देवता भी इस जम्बूद्वीप (भारत) में जन्म लेने के लिए भगवान् से प्रार्थना करते रहते थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे अपने स्थान (लोक) से, अपने कमों से, अपने आहार-व्यवहार से अन्त तक सन्तुष्ट नहीं रहे। इसी से सम्भवतः विष्णु पुराण में लिखा है-

"अत्रापि भरतं श्रेष्ठ जम्बुद्वीपे महामुनें। यतो हि कर्म भूरेषा ह्रतोऽन्या भोग भूमवः ।।अत्र जन्म सहस्त्राणं सहस्त्रैरपि सत्तम् ।कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुषं पुण्यसंचयात ॥ "

हे महामुने। इस जम्मूद्वीप में भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि यह कर्म भूमि है। एवं अन्य भोग भूमियाँ हैं। जीव के सहस्त्रों जन्मों के अनन्त महान पुण्य का उदय होने पर कभी इस भारत वर्ष में मनुष्य जन्म होता है।

इसी से देवगण आगे कहते हैं, इसी पुराण में यथा:-

"गायत्री देवाः किल गीत कानि, धन्य स्तुते भूमि भागे।स्वर्गापवर्गी स्पदमार्ग भूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुस्वात् ।। कर्मण्य संकल्पित फलानि, सन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते ।अवाण्य तां कर्म महीमनन्ते, कस्मिमंल्लयं ये त्वमलाः प्रथान्ति ॥"

देवगण निरन्तर यही कहा करते हैं कि स्वर्ग और अपवर्ग के मार्ग भूते-भारतवर्ष में जन्म लिया है तथा जो इस कर्मभूमि में जन्म लेकर अपने फलाकांक्षारहित कर्मो को परमात्म शक्ति को अर्पण करने से निर्मल होकर उस अनन्त में ही लीन हो जाते हैं। वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य हैं।

देवगणों ने अपने को सदा भारत के मानव से दीन-हीन समझा है। इसी से वे आगे कहते हैं- 
जानीम नैतत्वव वयं विलेने, स्वर्ग प्रदे कर्मणि देहबंधम्। 
प्राप्स्याम धन्याः खलु ते मनुष्या, ये भारते नेन्द्रिय विप्रहीनाः ।।
 वे देवगण पश्चाताप् को भाषा में कहते हैं। पता नहीं अपने स्वर्गप्रद कर्मों का

क्षय होने पर हम कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे। धन्य हैं वे ही मनुष्य जो. भारत भूमि में इन्द्रियों की शक्ति से हीन नहीं हुए हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि मानव इन्द्रिय संयम करते थे एवं देवगण संयम नहीं करने की वजह से शरीर शिथिल होने पर मृत्यु के करीब पहुँचने पर आर्त-दीन होकर पश्चाताप करते हैं। इस विवेचना से आप समझ गये होंगे कि देवगण इसी पृथ्वी पर रहे, कहीं अन्यत्र नहीं। अथर्व वेद में 11. 5.19 एवं 4.11.6 के ऋचा में स्पष्ट है कि वे पृथ्वी के ही निवासी थे। इसी तरह ऋग्वेद वेद के 10.22.10 में भी कहा गया है कि जो ग्रह एवं नक्षत्र हैं वे चमकीला पदार्थ (नक्षत्र) ही हैं ऐसा ही मानना चाहिये न कि उन्हें देवगण। मनुष्य के लिए भी देवशब्द आया है परन्तु वह प्रकाशवान, चरित्रवान यानी गुणवाचक के रूप में आया है जैसे ऋग्वेद के ही 11-12-12 में मनुष्यों को (मनु की सन्तान को) प्राचीन समय में देव कहते थे। जैसे ऋग्वेद ही कहता है 1.11.23 एवं 10.77.2 में कि ऋभु और मरूत पहले मनुष्य ही थे परन्तु ये अपने कर्मो से ही देवत्व को प्राप्त हो गये। यहाँ भी इसे गुणवाचक समझना श्रेयस्कर होगा।

रामायण में देवता की महत्ता

संत तुलसी दास भगवान राम को पूर्ण ब्रह्म का अवतार मानते हैं। जिनकी प्रार्थना इन्द्र, ब्रह्मा, शिव के द्वारा की जाती है। बार-बार देवता गण मनुष्य शरीर के लिए इच्छा व्यक्त करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रक्ष, यक्ष, नाग, एवं देव योनि से मानव यौनि ही सर्वोत्कृष्ट है। सरस्वती जी कहती है "ऊँच निवासु नीचि करतूती । देख न सकहि पराइ विभूती।"

अर्थात् देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा है परन्तु इनकी करनी नौची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते हैं।

जब साधक अपने साधना पर निकलता है, तब देवता सोचते हैं कि यह जीव हमारे बंधन से मुक्त हो रहा है। परम पिता परमात्मा के तरफ जा रहा है तब ये अपने कल-बल-छल से उन्हें साधनाच्युत करते हैं। फिर मरकट के तरह नचाते हैं। साधक फिर उनकी ही प्रतिमा बनाकर उनका पूजा-पाठ करता है। जन्मों जन्म के लिए वह भटक जाता है। मूलाधार चक्र पर ही गणेश हैं। उनकी पत्नी ऋद्धि-सिद्धि, पुत्र शुभ-लाभ है। संसार के लोग इन्हीं के चक्कर में रहते हैं। ये प्रथम चरण में ही सहज सुलभ हो जाते हैं। इसी से इनका स्थान मल-मूत्र पर दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि इन ऋद्धि-सिद्धि को मल-मूत्र के तरह त्याग कर आगे की यात्रा  
प्रारम्भ करनी चाहिए। इसके ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र पर ब्रह्मा का स्थान है। पाँ सरस्वती है। जो काम (वासना, Sex) का क्षेत्र है। आप विद्वता तो ग्रहण कर लेंगे। परन्तु काम के दल-दल में गिर जायेंगे। अक्सर विद्वान व्यक्ति इस चक्कर में फँसता है। इस जगत में जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ा है, वैसे-वैसे ही नैतिकता का, चाल चरित्र-चिंतन का पतन हुआ है। तुलसी दास के शब्दों में हम देखें-

'रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहि आई ॥ कल बल छल करि जाहि समीपा। अंचल बात बुझावहि दीपा॥'' 
अर्थात हे भाई। वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजते हैं, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं। वे सिद्धियाँ कल, बल, छल करके समीप आती हैं और आँचल की वायु से साधक के ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं।
यदि साधक इन ऋद्धि-सिद्धि से बच गया तब "तो बहोरि सुर कहि उपाधी ॥" देवता लोग विभिन्न प्रकार का विघ्न पैदा करते हैं। जैसे-

इंदी द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥ आवत देखहिं विषय बयारी। ते हठि देहि कपाट उघारी ॥

अर्थात् इन्द्रियों के द्वार रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। बाह्य प्रत्येक झरोखे पर देवता स्थान किये बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं। मेरी समझ से देवताओं के राजा इन्द्र हैं। इन्द्र से इन्द्रिय बना है। अर्थात् जो अपने इन्द्रियों के रसास्वादन में ही मस्त रहता है वही है इन्द्र। जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा आचरण करती है।

'जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहि दीप विग्यान बुझाई ॥ ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि विकल भइ विषय बतासा ॥

अर्थात् ज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह आत्मानुभव स्वरूप प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई। सारा किया कराया चौपट हो गया।

"इन्द्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। विषय भोग पर प्रीति सदाई ॥ विषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि विधि दीप को बार बहोरी ॥"

अर्थात् इन्द्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान नहीं सूझता है। क्योंकि उनकी विषय भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर दुबारा उस ज्ञान दीपक को उसी प्रकार कौन जलावे। 
"तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावई संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाई बिहगेस॥" 
अर्थात् तब फिर जीव अनेकों प्रकार से जन्म-मरणादि के क्लेश पाता है। 
हे पक्षि राज। हरि की माया अत्यन्त दुस्तर है। वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती।

इससे आपको देव चरित्र का सहज ही अनुमान लग सकता है। इसी से कचीर साहब कहते हैं-

"तीन लोक चौदह भुवन में, गुरु से बड़ा न कोय। कर्ता करै न कर सकै; गुरु करै सो होय ॥"

मानव संस्कृति गुरु पर आधारित है। बिना गुरु के ज्ञान असम्भव है। आप तप द्वारा ब्रह्मा शिव के समतुल्य हो सकते हैं परन्तु इस संसार रूपी सागर से पार उतरना अत्यन्त दुरूह है।

आर्य

यह शब्द श्रेष्ठता का द्योतक है। भारत भूमि के लोग ही आर्य कहलाये। जिससे इसका नाम आर्यावर्त भी पड़ा। यहाँ के जनसमूह श्रेष्ठ, संस्कारी, चरित्रवान, बुद्धिमान, संयमी थे। अपनी गुणवत्ता पर ही जगद्‌गुरु कहलाये। इनके पौरुष को देखकर ही देव, दानव, नाग सब इनसे सम्बन्ध बनाकर रखना चाहते थे। इसी से इनसे कोई खास युद्ध नहीं हुआ है। बल्कि दानव एवं नाग दोनों ही वैवाहिक सम्बन्ध कायम करना चाहते थे और किया भी है। उस समय जाति शब्द नहीं था अतएव इस तरह का कलुषित विचार लोगों के मन में नहीं आया। जाति शब्द रामायण काल में आ गया प्रतीत होता है परन्तु इसके चलते द्वेष या बड़े-छोटे का भान नहीं होता है। नहीं तो वेश्या (उर्वशी) पुत्र वशिष्ठ, स्वपच पुत्र वाल्मीकी, निम्नवर्गीय (भीलनी) शबरी को वह सम्मान नहीं मिलता, जो मिला है। यह भेद महाभारत काल में कुछ उभर कर आया है। द्रोणाचार्य के द्वारा एकलव्य को अपमानित कराकर। परन्तु कृष्ण हथियार त्यागे हुए, ध्यान किये हुए द्रोणाचार्य का सिर कटवाकर इस व्यवस्था को वहीं दफन कर देते हैं। विदुर को वह सम्मान दिया जो उस समय के किसी भी तथाकथित कुलीन को सम्भव नहीं हुआ। यह तथा कथित जाति बुद्ध के समय भी कुछ आयी परन्तु बुद्ध के द्वारा इसे दफन कर दिया गया। परन्तु शंकराचार्य ने इसका पुनः बीज बो दिया। अब यह जातिरूपी बीज विशाल हो गया है एवं विषैला फल भी आने लगा है। जिन लोगों ने इस बीज वृक्ष मैं जल डालकर सींचा, बड़ा किया वे फल खाने से अब पीछे के दरवाजे से भाग रहे है। यह फल उनका पीछा कर भी रहा है। अभी तो ज्ञात होता है कि अवतारों की धरती, युद्धों की धरती (पूर्वाचल) इस विष वृक्ष से आबद्ध हो गयी है। इसके फल एवं वृक्ष भारतभूमि में तेजी के साथ दावग्नि के समान फैल रहे हैं। यदि समय रहते  इसे समाप्त नहीं किया गया तो सारा राष्ट्र ही इसके कारण मृत्यु के मुँह में स्वतः पहुँच जायेगा। हम अपने आदर्श से भटक गये हैं। रास्ता भूलकर देवगण का ही तो कहीं रास्ता नहीं पकड़ लिए हैं। इसे रोकने के लिए कबीर, नानक, दादू, पलटु, रैदास, दरियादास ने अथक प्रयास किया जिसका परिणाम था कुछ काल रुक या कुछ पीछे हट गया, परन्तु समय पाते ही पुनः अबाधगति से बढ़ने लगा। आइए अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानिये एवं अपने में सशक्त बनिये, राष्ट्र अपने आप सशक्त बन जायेगा, तब पृथ्वी को भी सुन्दरतम बनने का अवसर उपलब्ध हो जायेगा।

आर्य शब्द गुणवाचक है। इससे श्रेष्ठता, महानता का बोध होता है। यह संस्कृत के ऋण्यत् से बना है। यानी आर्यन या आर्य। जिसका अर्थ है- आदरणीय, कुलीन, सम्माननीय, उच्चस्तरीय, योग्यतम। समयानुसार ऋषिगणों ने इसके अर्थ को भी प्रतिपादित किया है।

बाल्मीकि रामायण में श्रेष्ठता के सन्दर्भ में राम के लिए आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। गौतम ने अपने धर्मसूत्र में सदाचारी के अर्थ में प्रयोग किया है। महाभारत काल में अत्यन्त धार्मिक होने के सम्बन्ध में आर्य शब्द का प्रयोग विदुर जी किये हैं। महाभारत में ही उत्तम राजकुमार को "आर्यमति" विशेषण लगाया जाता है। जो श्रेष्ठ संस्कारी, बुद्धिवाला से सम्बन्ध रखता है। अर्जुन के कायरता को प्राप्त होने पर कृष्ण के द्वारा उनकी वृत्ति को अनार्य की वृत्ति कहा गया है। भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन से भी ज्ञात होता है कि जिनका चरित्र एवं व्यवहार उदार हो, संकीर्णता से ऊपर हो, जीवन संयमित नियमबद्ध हो, आचार-विचार श्रेष्ठ हो वही आर्य हैं। इसके विपरीत चरित्र को अनार्य कहते हैं।

चाणक्य गुणवान को आर्य कहते हैं, तो अमरकोश सभ्य, शिष्ट, धर्म, ज्ञान-कर्म विज्ञान, आचार-विचार, शील एवं स्वभाव से श्रेष्ठ को आर्य कहते हैं।
क्रमशः..