साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????  समय-समय पर गीता का व्याख्या ????

"यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा त्मानं सृजाम्यहम् ॥"
कृष्ण जहाँ तृतीय, अध्याय में निष्काम योग समझा रहे हैं वहीं चतुर्थ अध्याय में कह रहे हैं हे अर्जुन ! जब-जब इस धरती पर अधर्म का राज्य होता है तब-तब मैं आकर अधर्म का नाश करता हूँ एवं धर्म को ऊपर उठाता हूँ। धर्म का नये ढंग से सृजन करता हूँ। अब आप कहेंगे कि कृष्ण तो एक बार ही आये। पाँच हज़ार वर्ष बीत गये फिर कहाँ आये। कृष्ण का यह श्लोक झूठा है? यह झूठा नहीं बल्कि आप बाहरी स्वरूप से पहचानने के आदी हो गए हैं कि कृष्ण मुरली लेकर ही आयेगा। हाथ में चक्र-सुदर्शन लेकर साथ में राधा के साथ ही आयेगा। जबकि वह जब आएगा तो साथ-साथ घूमेगा, साथ-साथ सोयेगा। साथ-साथ गीता की नये ढंग से व्याख्या करेगा। आप नहीं समझ पायेंगे, चूँकि आप विद्वान हैं। उनकी व्याख्या अपने ढंग से आपने कर ली है उसे पहचानने की क्षमता भी नहीं है। परन्तु कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! यह गीता शाश्वत् रहेगी। समय-समय पर नये ढंग से धर्म की व्याख्या मैं कर दूँगा। गीता की व्याख्या कर दूँगा। गीता यानी जो गाया जाये, ऐसा गीत। यह अन्तःपुर से पढ़ा जाता है बाह्यपुर से नहीं। गाने के लिए अन्तर्मुखी होना पड़ता है। इसी से इसे गीता कहते हैं। कृष्ण समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार, समय के अनुसार, व्यक्ति के अनुसार धर्म का सृजन करते रहते हैं। परन्तु हम अधर्मरूपी अहंकार को हटाते हुए धर्म रूपी प्रकाश का सृजन करते हुए कृष्ण की तरफ से आँख मूँद लेंगे। चूँकि इस प्रकाश के आगे भी आँख चकाचौंध हो जाती हैं। हम इसे कृष्ण मानने से साफ इनकार कर देते हैं। हमारा कदम बढ़ता है वहाँ मन्दिर में जिसमें कृष्ण मुरली बजा रहा हो, राधा बगल में खड़ी हो। सामने पुजारी पांडित्य भाषा में गीता का पाठ कह रहा हो, वह समझा रहा हो, कि इसके सुनने मात्र से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष को उपलब्ध हो जाओगे। उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। यदि सुनने की भी फुर्सत नहीं हो तो बालगोपाल के भोग हेतु कुछ दान कर दो। इससे भी तुम्हारा कल्याण सम्भव है। हम सुलभ रास्ता खोजते हैं। इससे सुलभता क्या हो सकती है। यही परधर्म है और हम नये-नये रूपों में कृष्ण के धर्म सृजन को नकार देते हैं। एवं अधर्म के विस्तार में, धर्म की रामनामी ओढ़कर सहायक होते हैं। अपने मन का विस्तार करते जाते हैं। किसी लड़के को कृष्ण बना देते हैं किसी को राधा, किसी को गोप, किसी को गोपी, रास शुरू कर देते हैं। अपने मन को समझा देते हैं कि हम कृष्ण के प्रेम में सराबोर हैं। भीड़ साथ होती है। वह भी हमें धार्मिक होने का प्रमाण-पत्र जुटाती है।

  ????स्वभाव है ओंकार????

"प्रयाणकाले मनसाचलेन मक्त्यायुक्तो योगवलेन चैव। भुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुष मुपैतिदिम् ॥ यदक्षरं वेद विदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा।
यदीच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥"

वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तः काल में भी योग बल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।

और हे अर्जुन ! वेद के जानने वाले जिस परम पद अक्षर को ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं उस परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूँगा। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं भक्तियुक्त अन्तःकाल में भी योग-बल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन कर। अब प्रश्न उठता है भक्ति क्या है? तब भक्तियुक्तता क्या है? मनुष्य की चेतना में विचार की एक क्षमता ही भक्ति है। एक और क्षमता है भाव की। यहाँ पुनः एक विचारणीय पहलू है।

मनुष्य में दो क्षमताएँ हैं- एक है विचार। यह विचार संसार के लिए उपयोगी है। संसार में कोई भी व्यक्ति सांसारिक कार्य बिना विचार के नहीं कर सकता है। दूसरी क्षमता है भाव की। भाव रहित व्यक्ति परमात्मा की तरफ एक कदम भी नहीं रख सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चे को विचार करने की सलाह देता है। बिना विचारे कोई काम न करो। यह सत्य भी है। सांसारिक सफलता बिना विचार के हाथ नहीं लग सकती। विचार करते-करते हम परमात्मा में भी विचार करने लगते हैं। यह विचार छिद्रान्वेषण बनकर रह जाता है। भाव का झरना सूख जाता है। अब हम परमात्मा के मन्दिर में जाते भी हैं तो भाव आते ही विचार हाजिर रहता है। हमको खाली हाथ लौटना पड़ता है। चूँकि विचार है तर्क की प्रतिक्रिया। विचार है चिन्तन का मार्ग। विचार है विश्लेषण विधि। यदि किसी तरह का नियम, कानून बनाना है तो हम विचारक को आमंत्रित करते हैं। तर्क की कैंची से काट-छाँट कर ठीक कर देते हैं। विचार बहिर्मुख करता है। विचार भक्ति का हरण कर लेता या भक्ति का स्रोत ही सुखा देता है। भक्ति का स्रोत है भाव। भाव हृदय से उठता है। भाव जोड़ता है। परमात्मा से। विचार तोड़ता है यह मस्तिष्क से उठता है। फूल को वैज्ञानिक यूँ ही स्वीकार नहीं करेगा, उसे तोड़ेगा, एक-एक पत्ती की जाँच करेगा। कौन रसायन कितना है। उसे टेस्ट-ट्यूब में बन्द कर देगा। भाव पूछेगा वह हँसता हुआ, मुस्कुराता हुआ फूल कहाँ है? विचार कहेगा क्या पागल हो ? क्या फूल भी हँसता है? क्या फूल भी मुस्कुराता है? तुम्हारा फूल ये रहा बन्द टेस्ट-ट्यूब में, लो, देख लो। सारे फूल का रसायन बन्द है इसमें। भाव रूपी भक्त पूछता है इसमें तो फूल है ही नहीं। तुमने तो सत्यानाश कर दिया फूल का। वह कराह उठता है। उस फूल के दुर्दशा पर। परन्तु जब वह फूल के बागों में जाताहै, देखकर खिल जाता भाव-विभोर हो जाता है। धन्य हो परमपिता। तू यहाँ मुस्कुरा रहा है। हँस रहा है। तुम्हारी मुस्कुराहट ही मेरी मुस्कुराहट है। तुम्हारी खुशी ही हमारी खुशी है। यह है भाव। भाव की धारा बह चली। भक्त इस में डूबकर अहोभाव से भर गया। हम भाव खोते गये इसी से पूजा-पाठ बेकार हो गया। केवल अपने तक ही सीमित रह गया। इसी से व्यक्ति से जीवन्तता चली गयी है। मरघट आ गया है चारों तरफ मालूम हो मुर्दे ही चल रहे हैं। मुर्दों का घर बन गया है मन्दिर, मस्जिद ।

जो व्यक्ति भाव से भर गया। भाव से सराबोर हो गया। भाव का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया, हो गया भक्त। जब भाव आता है तब "मैं" विदा हो जाता है वह ही रह जाता है यही भाव गुरु अनुकंपा से अनन्त की तरफ प्रवाहित होने लगता है। अनन्त तक यह भाव पहुँचते ही भक्त आनन्द से भर जाता है। अनन्त तक हो जाता है। तर्कशास्त्री सम्भवतः आज तक परमात्मा तक नहीं पहुँच पाया है। शास्त्र कहीं न कहीं छोड़ना ही पड़ेगा। भाव अन्तः प्रवेश है। गंगा मानो गोमुख की तरफ लौटने लगे वापस। भाव जब गहन होता है तब कोई मौजूद नहीं रहता। मेरा, तेरा सब मिट जाता। केवल वही रह जाता है। भाव कहता है आज कीर्तन में नाच ले। भाव कहेगा-छलांग लगा लो, संन्यास में। विचार कहता है तू पागल है। पढ़ा-लिखा इज्जतदार आदमी भी नाचता है क्या। क्या कमी है कि हम संन्यासी बनें ? अरे हाँ परिवार है पत्नी है, बच्चे हैं। यही न कभी पत्नी की मार खानी पड़ती है। बच्चे की डाँट सहनी पड़ती है। आखिर हैं तभी न। जिसके पास हैं ही नहीं, वह क्या मार खायेगा ? वह फँसता जाता है इज्जत, प्रतिष्ठा में। यही है विचार।

मैंने सुना है एक विचारक थे। उनके पास दूर-दूर से लोग विचार लेने आते थे। वे थे जर्मन के एमेनुअल काट। उनसे एक लड़की ने निवेदन किया कि मैं भी पढ़ी-लिखी हूँ। आपसे शादी करना चाहती हूँ। सुन्दर हूँ। आपके साथ हमारा भी विचार चलेगा। काट ने ऊपर से नीचे तक देखा। विचार करने लगे। तीन वर्ष तक विचार करते रहे। किसी निर्णय पर नहीं पहुँचे। थक कर एक दिन उस लड़की के दरवाजे पर पहुँचे। उदास थे। लड़की का पिता मिला। परिचय हुआ। बोले क्षमा करेंगे। तीन वर्ष पहले आपकी लड़की ने हमसे शादी का प्रस्ताव किया था। हम अभी निर्णय नहीं कर पाये हैं। लड़की के पिता बोले- धन्यवाद। हम निर्णय कर चुके। लड़की की शादी दो वर्ष पूर्व ही हो गयी। उसका एक बच्चा भी है। आपको चिन्ता करने या परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। यही है विचार।

अब भृकुटी के मध्य भाग पर भाव को ले चलें। सद्‌गुरु कबीर जी कहते- "त्रिकुटी संगम स्वामी बसई।" यह जगह अत्यन्त ही महत्व की है। यह बहुतही ऐतिहासिक जगह है बहुत ही आणविक है इसे ध्यान से विस्फोट किया जाता है। तब यह त्रिनेत्र कहलाता है यही है शिव का तीसरा नेत्र। और सारे रास्ते संसार के हैं। भृकुटी पर ध्यान ही परमात्मा का है। स्वधर्म का है। यही मार्ग, जहाँ से सम्बन्धित होते ही हम शरीर के पार हो जाते हैं। इसे योगीजन आज्ञा चक्र भी कहते हैं। यदि साधक गुरु से आज्ञा चक्र पर ध्यान की कला सीख लेता है। भाव प्रबलता के साथ ध्यान वहाँ टिका लेता है, तो हो गया उसका ध्यान, हो गया योग, जाप या तप। विचार के आते ही ध्यान वहाँ से हट जाता है। धीरे-धीरे अभ्यास से साधक ध्यान केन्द्रित कर योगयुक्त हो जाता है। अब वह कबीर की तरह चरखा कात सकता है। कृष्ण की तरह गाय चरा सकता है। कृष्ण कहते हैं जब ज्ञान की प्रबलता भाव से हो जाती है तब भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है। मन स्वयं स्मरण करने लगता है। हर साँस में, हर क्षण उसी में लगा रहता है। यदि साधक इस स्थिति में शरीर का परित्याग करता है तब यहीं से दूसरा शरीर प्रारम्भ होता है। चूँकि इस शरीर का ही बीज बना है। आगे की यात्रा आसान है। यही स्थिति (मृत्यु) एक जन्म का अन्त तो नये जन्म का प्रारम्भ है। छलांग लगाने के लिए यह महत्वपूर्ण समय है।

दूसरा सूत्र है अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परमपद को अक्षर, ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्ति रहित यत्नशील महात्मा जन जिसमें प्रवेश करते हैं तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षिप्त में कहूँगा।

कृष्ण का एक-एक शब्द जीवन दर्शन से भरा पड़ा है। इसे साक्षात् योगी ही समझ सकते हैं। वेद को जानने वाले वे नहीं जो वेदों को रट कर चतुर्वेदी हो गये हैं। कृष्ण पण्डित की भाषा, विद्वान की भाषा का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। वेद यानी ज्ञान- योगी यानी जो परमतत्व के ज्ञान को उपलब्ध हो गये हैं। यदि तथाकथित चार वेद को ही मान लें तो ईसा के द्वारा कहा गया, मुहम्मद के द्वारा कहा गया, नानक, कबीर के द्वारा कहा गया क्या अवेद है? नहीं वह वेद केवल उस ज्ञान की एक झलक है। एक प्रतिबिम्ब है। हम उस परमतत्व के सामने जितने दर्पण ले जायेंगे वेद भी उतने ही हो जायेंगे। वेद अनन्त हो सकते हैं। जो ये चारों वेद हैं ये मानव के स्मरण में, उस परम वेद की पहली प्रतिछवियाँ हैं। वेद उस परम ज्ञान का नाम है जिसके समक्ष परिपूर्ण शून्य हुआ व्यक्ति खड़ा होता है। ऐसे वेद को जानने वाले, उस परम पद को अक्षर ओंकार नाम से पुकारते हैं। हम जितने भी अक्षर पढ़ते हैं वे सब इसी ओंकार से ही उत्पन्न हुए हैं। सद्‌गुरु कबीर साहब कहते हैं-"एक अण्ड ओंकार से सब जग भया पसार।"

जो हम बोल रहे हैं, वह क्षर है। जिसे हम बोल नहीं सकते वही अक्षर है।

जब साधक ध्यान कर भृकुटी पर एकाग्रचित्त हो जाता है तो वह अक्षर सुनाई पड़ता है। उसका अनुभव होता है। इसे ही कबीर साहब कहते हैं-

"अनाहद सुनहु रे भाई, हद से बेहद ले जायी।"

यही अनाहद है जो हद (संसार) से बेहद (परमात्मा) तक सुरति के सहारे लेकर चला गया है। इसी आज्ञा चक्र से ऊपर योगीजन आनन्द के एवं सुरति के सहारे उस सहस्त्रार में प्रवेश कर जाते हैं। अनाहद का स्वर तीव्र होने लगता है। अमृत झरने लगता है। आभा प्रकट होने लगती है। इसी ओंकार को कबीर साहब पुनः यों कहते हैं-

"जहाँ बोल तहाँ अक्षर आया, जहं अक्षर तहं मन ही दृढ़या। बोल अबोल एक हो जाई, जिन्ह यह लखा सो बिरला होई ॥"

यह स्थिति विरला यानी लाखों भी नहीं करोड़ों में एक को आती है। आसक्ति रहित महात्माजन ही प्रवेश पाते हैं। यानी अब उन्हें मोक्ष, स्वर्ग, नर्क की भी आसक्ति नहीं रह गयी। चूँकि आसक्ति से ही संसार शुरू होता है। यत्नशील यानी पूरा का पूरा यत्न करना होगा। पूरी छलाँग लगाना होगा। रत्ती भर भी नहीं बचाना है।

उस परम पद को पाने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं यानी ब्रह्म जैसी चर्या। जिस ब्रह्म का साक्षात्कार करना है उसी की तरह चर्या शुरू कर देनी पड़ेगी। धीरे-धीरे उस ब्रह्म के साथ होने के भाव से ब्रह्मचर्य बन जाता है, जैसे ही धर्म ब्रह्म सा हो जाता है ब्रह्म घटित हो जाता है। इस सूत्र के सहारे साधक आज्ञा चक्र का भेदन कर सहस्त्रार तक पहुँच सकता है। समाधिस्थ हो सकता है। ये सब तंत्रोक्त विधियाँ कृष्ण अर्जुन को युद्ध भूमि में बता रहे हैं।
क्रमशः....