साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????धर्मराज पुरी????

     अब आप हमारे यमपुरी से ऊब रहे हैं। आपको अपने दूसरे स्वरूप धर्मराज पुरी में ले चलता हूं। वहां से हम लोग उसी रथ पर सवार हुए। घोर अंधकार में वह रथ गति करने में सक्षम था। कुछ देर के बाद प्रकाशमय लोक का अवतरण हुआ। जैसे आंख अंधकार में ही देखने को अभ्यस्त हो गयी थी। वह इस प्रकाश को स्वीकार नहीं कर रही है। रथ रुक गया। आंख बंद कर रथ से नीचे उतरे। एक वृक्ष के नीचे कुछ देर विश्राम किया। सोचने लगा। आंख को स्वस्थ होना चाहिए। बस क्या था हो गया। शरीर तेजोमयी हो गया। दाहिने अग्निदेव मुस्कुरा रहे थे। सामने अति सुंदर स्वरूप में राजमुकुट पहने राजपुरुष मुस्कुराते हुए बोले- यहां से हमारा दूसरा लोक प्रारंभ हुआ है। मैं अब धर्मराज हूं। धर्मराज की धर्मपुरी में स्वामीजी का स्वागत है। आप जिस वृक्ष के नीचे बैठे हैं। वह कल्पवृक्ष है। मैं चौंक कर ऊपर देखा । अति सुंदर, सुहावना प्रकाश की हवा बह रही थी। चेहरे पर प्रसन्नता आयी। शरीर में ऊर्जा का संचार हुआ। उनके साथ और चला। आगे-आगे धर्मराज थे। बीच में मैं, पीछे-पीछे अग्निदेव थे। कुछ ही दूरी पर सड़क के मध्य में छः कमलदल निकल आये। ये सभी श्वेत थे। इनसे श्वेत रश्मि निकल रही थी। धर्मराज दो कमलों पर पैर रखे। वे अग्रगति कर दिये। दो पर मैं भी रख दिया। दो पर अग्निदेव। तीनों साथ-साथ चल रहे थे। स्वर्ग सा दृश्य नजर आ रहा था। उसी तरह सड़कें, भव्य भवन, सरोवर, वृक्ष लतायें, पुष्प इत्यादि फैले थे।
कुछ दूर चलने पर एक रमणीक सरोवर मिला। कमल पुष्प उसमें चलने लगा। धर्मराज बोले- स्वामीजी यह अमृतमान सरोवर है। इसमें हम लोग स्नान करके ही आगे चले। जिससे यमपुरी की यातना, हवा-पानी यहीं धुल जाय। कमल स्वतः नीचे होते गया। सिर डूब गया। आंखें स्वतः बंद हो गयीं। मैं थकान भूल गया। अंदर-बाहर हो गया। आंखें खुलीं मैं एक साथ धर्मराज अग्निदेव को एक सुंदर भव्य महल में पाया। मानो यह महान सागर में ही श्वेत स्फटिक से बना है। मखमली चादर बिछी है। एक पलंग पर बैठने की इशारा हुआ बैठ गया। सभी कुछ स्वतः चलचित्र के तरह हो रहा था। यहां कोई कोलाहल नहीं था। कोई उपद्रव नहीं था। सर्वत्र शान्ति थी। दो युवतियां आयीं। स्वर्ण थाल में चरण धोकर खड़ी ही हुईं कि पीछे से सुंदर श्वेत वस्त्र से लदी दस-बारह युवतियां आईं। सभी के हाथ में सफेद पुष्प के गजरे थे। वे हमें व अग्निदेव को गजरे पहनाई। फिर चंदन लगाईं, आरती कीं। पुनः चरण प्रच्छालन का जल अपने ऊपर छिड़कीं और धर्मराजपुरी में सर्वत्र छिड़का गया। कुछ युवतियां स्वर्ण गिलास कपड़े से ढके हुए आगे बढ़ीं। मुझे खाने को कुछ मिष्ठान्न दिया गया। खाते ही शरीर नया हो गया। दूध दिया अरे दूध है या अमृत। देवी ने कहा- यह दूध गाय कामधेनु का है। मिष्ठान्न भी उन्हीं का है। वे आपके ही निमित्त भेजी हैं। आपका दर्शन भी चाहती हैं। मैं प्रसन्नमुद्रा में कहा- क्यों नहीं मां कामधेनू का दर्शन, मैं अवश्य करूंगा। देखते हैं-धर्मराज महाराज का क्या विचार है।

   धर्मराज ने कहा- स्वामीजी! पहले आप क्या देखना चाहते हैं। हालांकि सभी लोक आपका देखा सुना हैं। फिर भी समयानुसार लोकहित में आप देखना चाहते हैं। देवताओं के मंगल के लिए कुछ कहना चाहते हैं। आपकी प्रबल इच्छा है चित्रगुप्त से मिलने की। मृत्यु के संबंध में जानने की इच्छा भी शेष रह गयी है। आप उनसे मिल लें। फिर आप विश्राम करेंगे। तब हम लोग घूमने चलेंगे। फिर देवताओं व धार्मिक पुण्यात्माओं की सभी को आप सम्बोधित करें।

 ???? चित्रगुप्त वार्ता ????

   मैं विशाल श्वेत कक्ष में पहुंचा। श्वेताम्बरी श्वेत दाढ़ी हजारों नेत्रों वाले पुरुष ने खड़ा होकर मेरा स्वागत किया। उस कक्ष में सर्वत्र आंखें ही दिखाई दे रही थीं।
 मेरे अंदर विचार उत्पन्न हुआ नहीं, कि उन आंखों में तस्वीर आ गई। मैं हैरान हो गया। यहां तो विचार भी पढ़ा जा रहा है। यह कक्ष वातानुकूलित था। अधेड़ व्यक्ति ने कहा स्वामीजी को चित्रगुप्त सभा के तरफ से स्वागत है। यह हमारा कक्ष है। ये आंखें पृथ्वी पर टिकी हैं। जो हमारे ब्रह्मा-विष्णु के अधीन हैं। तीन लोक चौदह भुवन सब उन्हीं पर टिकी हैं। प्रतिक्षण का लेखा-जोखा यहां पहुंचता है। व्यक्ति कर्म करने को स्वतंत्र है। झूठ बोल कर छुपाने को भी स्वतंत्र है। परंतु हमारे आंखों से नहीं बच पाता है।

मैंने पूछा हे चित्रगुप्तजी आप प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों का लेखा जोखा कैसे रखते हैं? कितने फाइले होगी ? कितने कर्मचारी होंगे ?

उन्होंने कहा, फाइल की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी आंखें ही फाइल हैं। आप इस तरह समझें जैसे आपके हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स होता है। जो हवाई जहाज के प्रत्येक गतिविधि को स्वतः अंकित करता है। हवाई जहाज के दुर्घटना के बाद उसी बक्से से कारण पकड़ा जाता है। ठीक उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में यादगार का चित्र होता है। जो उनके जन्मों-जन्मों का इतिहास फलाफल का अंकित करते रखता है। जैसे मानव कोई भी बात अपने मन से नहीं छिपा सकता है। उसी तरह मन की प्रत्येक गतिविधियां उसमें अंकित होती जाती है।

जब व्यक्ति साधना करता है। तब उसका श्वास-प्रश्वास उस तरफ मुड़ता है तब उस गृह पर पड़े परदे पर पड़ता है। जिससे वह पर्दा फट जाता है। मानव अपने वर्तमान समय से प्रारंभ करके जन्मों जन्म का इतिहास जानने में समर्थ हो जाता है। जब वह साधक अपना प्रारब्ध जान कर स्थित हो जाता है। ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। तब अपने इच्छा शक्ति से दूसरे का भी जन्मों जन्म का इतिहास जान लेता है। परंतु वह बताने से कतराता है। चूंकि सभी उसे सहन नहीं कर सकते हैं। वीतरागी ही उसे बर्दाश्त करते हैं।

जब व्यक्ति शरीर छोड़ने लगता है तब उसके पैर की तरफ से सुन्न होता है। अर्थात् उसकी अन्तिम रिपोर्ट तैयार होती है। पैर से क्या क्या किया है? उसी तरह क्रमश: पैर, गर्दन, मुंह होते हुए मस्तिष्क तक अंकित हो जाता है। फिर उसके कर्मों के अनुसार उसका प्राणवायु निकलता है। सभी कुछ अंकित हो जाने के बाद आशा तृष्णा, मन के साथ संस्कार के रूप में आत्मा के साथ उसी मार्ग से बाहर निकलते हैं। निम्न अधोगति को प्राप्त व्यक्ति की आत्मा मल-मूत्र के रास्ते से जनसाधारण की आत्मा मुंह से इसी तरह उच्चतर आत्माएं नाक, आंख, कान
 ब्रह्मरंध्र से निकलती हैं। मेरे गण विभिन्न लोकों में मेरे ही स्वरूप में रहते हैं। जो तत्काल ही निर्णय कर उस दिशा में उसे भेज देते हैं।

साधरणतः आत्माएं शरीर छोड़ने के बाद उस मृतक शरीर के ईदगिर्द घूमती हैं। उसकी आसक्ति शरीर से, परिवार से, धन-सम्पत्ति से नहीं छूटती हैं। तब वह अपने शरीर के साथ देखती है। उसका प्रिय पुत्र उसे जमीन पर सुलाता है। पत्नी, बच्चे रोते हैं। फिर शीघ्र ही प्रेत कह प्रेत कर्म प्रारंभ होता है। पत्नी को वैधव्य दिया जाता है। उसका सारा श्रृंगार निकाला जाता है। श्वेत वस्त्र दिया जाता है। पुत्र अपने कंधे पर लेकर श्मशान जाता है। जिस पुत्र को अपने मुंह से चुम्बन लिया था। जिस मुंह से झूठ-सच बोलकर पुत्र हेतु धन अर्जन किया था, वही मुखाग्नि देता है। जिस शरीर पर उसे अहंकार था उसे अग्नि में भस्मीभूत किया जाता है। फिर उसे नदी में प्रवाहित करते हैं। श्मशान से लौटते समय वे लोग रास्ता बदल कर आते हैं ताकि वह प्रेत उसका पीछा नहीं करे। यह सब उसे समझाने की व्यवस्था है कि तुमने जो जीवन भर किया है वह सत्य नहीं है। राम नाम ही सत्य था। घर पर आकर वह लड़का श्वेत वस्त्र में ही संन्यासी का जीवन व्यतीत करता है। अर्थात् अब जन्म लेना तो संन्यासी जरूर बनना। उसका पुत्र, परिवार उसे शिक्षा देता है। फिर तेरह दिन तक घड़े में पानी देता है। तुम यही पी लो। अपने खाने से बचा जूठा भोजन मिट्टी के पात्र या पत्तल में देता है कि तुम मुझ संन्यासी का जूठा खा कर अपना अगला जीवन बदल लो फिर उसके नाम पर ब्रह्म भोज होता है। दान दिया जाता है। उस मृत आत्मा को समझाया जाता है कि जो धन तुम कमा कर रखा है। दान वही दिया। तुझे दान देना चाहिए था। मैं उसे दान दे रहा हूं। इस तरह भारतीय वाङ्मय में उस मृत आत्मा को समझाने का प्रयास किया जाता है।

कुछ आत्माएं जो बच्चे हैं जिनकी उनके परिवार धन में आसक्ति नहीं है। वे मृत्यु के बाद शीघ्र ही जन्म ले लेते हैं। जिनकी जितनी बड़ी आसक्ति होती है वे उतना ही भटकते हैं। उनका प्रत्येक भटकाव भी उनके उसी स्मरण रूप चित्त में अंकित होते जाता है। उसी संस्कार के अनुसार जन्म लेने को स्वतंत्र है। प्रत्येक आत्माएं अपने संस्कार के अनुसार माता पिता खोजने को स्वतंत्र हैं। हो जिन्होंने बहुत अत्याचार किया है। अर्थात् बहुत बुरी आत्माओं को ही यहां यातना दिया जाता है। जैसा कि आप देख कर आये।

बहुत उच्च एवं बहुत निम्न आत्माएं जन्म लेने से रुक जाती है। उच्च आत्माओं के लिए उस तरह का संस्कारी पवित्र मां-बाप की जरूरत है। इसलिए इन्हें वैसे मां-बाप के इंतजार में सदियों लग जाते हैं तब कहीं सद्गुरु का अवतरण
 इस पृथ्वी पर होता है। जो दुष्ट आत्मा है। उन्हें यहां दण्डित किया जाता है। जिसका चिप भी उसके ब्लैक बॉक्स में जमा होता है। उसके अर्न्तमन में छिपा रहता है। यदि वह पृथ्वी पर जन्म लेता है तब उसी तरह का मां बाप का खोज करता है। जिसका पुश्त दर पुश्त हत्या का कार्य किया है। अतएव निकृष्ट आत्मा को भी जल्द मां-बाप नहीं मिल पाते हैं। यदि इनका अन्तर्मन धक्का दिया कि बहुत पाप किया है। बहुत दण्ड भोगा है। अब ऐसा नहीं करना चाहिए। तब ये एकाएक किसी सद्गुरु के सानिध्य में जाकर आमूल चूल परिवर्तन कर अपने को मुक्त करने में सफल भी हो जाते हैं।

जो व्यक्ति किसी कारणवश आत्महत्या कर लेते हैं-वे भी अधोगति को प्राप्त करते हैं। यदि उसके मां-बाप पुत्र-पुत्री कोई भी व्यक्ति खानदान में भगवान का भक्त है तब तो शीघ्र ही उसे प्रेत योनि से निकाल देता है। अन्यथा अपने शेष उम्र का दस गुना उम्र तक प्रेत योनि में दुःख भोगता है। उसे सुख की अकांक्षा ज्यों की त्यों बरकरार रहती है। शरीर नहीं है। शरीर के अभाव में वह अति दुःखी होता है। अतएव उस दुख में भूमण्डल में घूमता है यदि किसी कमजोर दिल दिमाग का व्यक्ति मिल गया तब उसमें प्रवेश कर जाता है। उसके शरीर पर, इन्द्रियों पर उस प्रेत का नियंत्रण होता है। जो नाता, रिश्ता छोड़ कर वासना का खेल खेलता है। जिस तरह की उसकी वासना शेष रह गयी है उसे वह पूरा करता है। उसकी उम्र समाप्त होती है। दूसरा देने को बाध्य करते हैं।

पुण्यात्मा को मेरे पास लाया जाता है। उसका यथायोग्य स्वागत कर यथा योग्य लोकों में भेजते हैं। जहां उनके लिए हर तरह की सुख-सुविधा भी है। वे सानन्द में रहते हैं। कुछ जल में डूबकर मरते हैं। इधर देखिये ये लोग जल में डूब कर मरे हैं। इनका पीत वर्ण हैं। आभा रहित हैं। इन्हें चिन्ताएं अभी भी सता रही हैं। अपने किये पर पश्चाताप करते हैं। ये सोचने को बाध्य हैं।

इधर देखिये। ये मलिन चेहरे वाले कट कर मरे हैं। फांसी लगा कर मरे हैं। अपने जीवन से मुक्त हो गये हैं। ये अब दुख भोग रहे हैं। अंधी नगरी में रहने को विवश हैं। इस तरह कई लोक दिखाये स्वामी जी इस अंतरिक्ष में हजारों लोक हैं। प्रत्येक लोक पति अपने विधि से नियंत्रण करता है। आत्मा कभी नाश नहीं होती। मैं तो हर समय अपने इन चक्षु से देखा ही करता हूं कि यह कीमती शरीर प्रभु अनुकंपा का आशीर्वाद है। उसका प्रयोग हरि भक्ति में, दान में, सेवा में, सुमिरण में करना चाहिए। परंतु इसका दुरुपयोग कर दुःख भोगता है।

मैंने कहा क्या आप भी मृत्युलोग में जाते हैं ?
    चित्रगुप्त ने कहा- हां स्वामीजी। आप से तो मिला ही था। आपके गुरु देव को लेने मैं एवं धर्मराज तथा भगवान विष्णु स्वयं गये थे। अपने सम्मान के साथ लाये तथा विष्णुपुरी में आरती वगैरह लिए। सभी लोग उनके दर्शन का आनंद पाये। फिर उन्हें सतलोक पहुंचाया गया। वे सतलोक वासी हैं। मैं चाहता हूं कि इन भटके हुए आत्माओं को यही शिक्षा दी जाये।

 क्रमशः....