साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
किसी को पुत्र हेतु आशीर्वाद देता तो किसी को विधायक बनने, तो किसी को एम.पी. बनने का सभी का फलने लगा। जो कहता वह पूर्ण हो जाता। बड़े- बुजुगों में मेरा सम्मान बढ़ा। परंतु पूजा-पाठ, ध्यान हर क्षण करते रहा। गुरुरूपी नारायण सदैव साथ रहते थे। इसलिए लक्ष्मी स्वयं चलकर आने लगी। मैं खर्च करता, वह तेजी से आने लगी। यह गुरु की कृपा का ही फल रहा।
जब मेरा व्यापार शीर्ष पर पहुंचा, प्रतिष्ठा शीर्ष पर पहुंची। तब मैं एकाएक कारोबार बंद कर संन्यास ले लिया। जिससे परिवार के लोग अत्यंत आहत हुए। मैं निष्काम होकर गुरुकार्य करने को चल दिया।
मेरे साथ सदैव चमत्कारिक घटनाएं घटती रहती थीं। गुरुदेव स्वयं या हनुमानजी के माध्यम से मेरे ऊपर चमत्कार करते रहते। कभी-कभी अपने ऊपर अहंकार का नशा चढ़ ही जाता परंतु तत्क्षण अंदर से आदेश आता यह गुरुकृपा का ही फल है।
अभी कुछ ही दिन पहले की घटना है। दिनांक 8-2-01 को अपने चूरहट (अकोरी) आश्रम से रीवा आया। वहां से चार बजे बैठा। जो आठ बजे इलाहाबाद पहुंचने वाली थी। मेरी ट्रेन दस बजे की थी। इलाहाबाद कुम्भ का अन्तिम स्नान भी आज ही खत्म हुआ। बस स्टेशन से बाहर पुल से बाहर ही रोक दिया। अत्यंत भीड़ थी। दस बजने लगा। मेरे साथ सामान भी था। अकेले था। मेरा रिजेक्शन था। टिकट भी मेरे साथ था। मेरे शिष्य अंगददेव कुम्भमेला से ट्रेन में जा चुके होंगे। मैं अत्यंत चिन्तित हो गया। सहायता में सिपाही जी से कहता, मेरी ट्रेन छूट जायेगी। हमें रिक्शा, टेम्पू कुछ भी दिला दें। कोई मदद नहीं किया। मैं निराश हो गया। ट्रेन तो छूट ही जायेगी। मेरे मन में याद आया मैं गुरुकी आशा छोड़ कर दुनिया की आशा करता हूं। यह उचित नहीं है। झोला सिर से नीचे उतारा, कमण्डल भी जमीन पर रखा। आसन उसी गंगापुल के किनारे रख कर ध्यान में बैठ गया। अति भीड़ है। लोग धक्का भी मारते। मैं सभी कुछ छोड़ दिया। सोचो जो गुरुदेव करेंगे वही होगा।
तत्क्षण चमत्कार हुआ। एक आदमी रिक्शा लिये हुए आया। जोर से बोला, स्वामीजी स्वामीजी ! मैं आंखें खोला। देखता हूं लम्बा चौड़ा पहलवान व्यक्ति है। ठोड़ी लम्बी है। आंखें बड़ी है। शरीर पर अल्प वस्त्र है। चेहरे पर चमक है। मैंने कहा, तुम्हें क्या मतलब? तुम अपना काम करो। वह मेरे नजदीक आकर एक हाथ से झोला, दूसरे से कमण्डल उठाया। विनय युक्त भाषा में बोला, स्वामीजी! मेरा यही कार्य है। आप कृपया बैठ जायें। आप गाड़ी पकड़ लें। जब तक आप गाड़ी में सवार नहीं होंगे तब तक गाड़ी नहीं जायेगी। मैंने कहा तुम ज्योतिषी हो क्या ? वह कहा- आपकी कृपा से थोड़ा-बहुत तो जानता ही हूं। मैं उठकर उस रिक्शा पर बैठ गया।
रिक्शाचालक तेज गति से चलने लगा। मेला का अत्यधिक भीड़ था। जिधर रोकता, उधर ही पुलिस में धक्का मारते हुए चलता। मैंने पूछा-बंधु तुम तो बहुत निर्भीक हो। तुम्हारा नाम क्या है, वह बोला, मुझे लोग हनुमान कहते हैं। मैं चौंक कर उसके शरीर को देखता क्या गुरुदेव ने बजरंग बली हनुमान को ही भेज दिया। देखते-देखते इलाहाबाद स्टेशन पहुंच गया। पुलिस के मध्य में ही रोक कर कहा- स्वामीजी! आपकी ट्रेन खड़ी है। मैं पचास रुपये का नोट दिया। कहा लो आप अपना पैसा काट ले। वह एक हाथ से लिया। दूसरे हाथ से शीघ्र ही रुपये मोड़ कर दिया। मैं उसे अपने पॉकेट में रख लिया। सामान लेकर चलने लगा। वह बोला जय गुरुदेव, जयगुरु देव मैं भी प्रतिउत्तर दिया। कुछ कदम आगे जाकर देखता हूं। वह रिक्शाचालक गायब था। मैं समझ गया कि बजरंग बली ही थे। रात्रि के बारह बज रहे थे। स्टेशन पर भी अति भीड़ थी। मेरी ट्रेन सामने ही खड़ी थी। किसी प्रकार अपना कोच खोजा। उसमें चढ़ने की जगह नहीं थी। मैं अंगददेव का नाम चिल्लाया। वह भी अंगद के तरह भारी शरीर वाला है। वे भीड़ को चीर कर बाहर आये। हमारा सामान अंदर ले गये। हमारे बर्थ पर पुलिसवाला ही जम कर बैठा था उसे कौन उठाएगा। मेरे चढ़ते ही गाड़ी खुल गयी। कुछ देर मैं एक विशाल शरीर धारी टीटीई आया। मैंने उसे देखते ही बोला, क्यों हनुमान जी पुनः आ गये। वह मेरे तरफ देखा एवं मुस्कुरा कर उस पुलिस से बोला, आप स्वामीजी का बर्थ खाली कर दें अन्यथा मुझे गाड़ी रोकनी पड़ेगी। वह बर्थ खाली कर दिया। मैं आराम से दिल्ली पहुंचा। इस तरह चमत्कार तो गुरुदेव ही स्वयं करते।
सिद्धाश्रम में मेरा कारखाना चलता था। मैं प्रत्येक शनिवार को प्रातः ही समाधि में चला जाता एवं रविवार को दिन भर रहता, सोमवार को प्रातः निकलता था। मेरा एक सेवक था। राम सूरत उसे पहले ही बता दिया था कि हमारे कक्ष में नहीं आयेगा। सोमवार को स्नान हेतु पानी रख देना। टॉवल का सामान रखवा दो। मेरा हवन भी कोई नहीं देखेगा। वह ऐसा ही करता था।
एक सोमवार को मैं स्नान के बाद लकड़ी रखा। स्वयं अग्निदेव प्रज्वलित हो गये। मैं हवन प्रारंभ किया। मेरे सामने कुछ देवगण बैठ गये। हवन में सम्मिलित हुए। हवन के बाद वे अर्न्तध्यान हो गये। इस क्रिया को राम सूरत का युवा भतीजा छिपकर देख रहा था। वही अपने लोगों से इस संदर्भ में कहा। उसका मुंह बंद हो गया। रात्रि में मृत्यु को प्राप्त हो गया। मैं कहीं बाहर गया था। दूसरे दिन आने पर दुखी राम सूरत ने सारी घटना बताई। मैंने कहा उसका मृत्त शरीर कहां है? वह बोला। उसे श्मशान में जला दिया। मैं भी दुखी हो गया। उसके बाद से उन सारी क्रियाओं का परित्याग कर दिया।
रात्रि - रात्रि भर छत पर बैठ कर ध्यान करता। एक रात्रि अर्थात लगभग 1981 की घटना होगी। एक पूर्णिमा की रात्रि थी। मैं अपने छत पर बैठा था। पीछे से आवाज आई, स्वामीजी! क्या मैं आपसे मिल सकता हूं? मैं चौंक गया। पीछे मुड़कर देखा, श्वेत वस्त्र, श्वेत दाड़ी, लम्बी-लम्बी भुजाएं विशाल वक्ष आंखों में तेज। मैंने कहा सामने आ जाओ। वह सामने झुककर सलाम कर वही खड़ा हो गया। मैंने प्रतिउत्तर देने के बाद बैठने को कहा। फिर पूछा आपका परिचय। अर्द्धरात्रि में आपका दर्शन। वह व्यक्ति दुखी मन से कहा स्वामीजी इब्राहीम खान हूं। यह भूमि युद्ध
भूमि है। मैं सैन्य अधिकारी था। यहां मारा गया। हम लोग प्रेत संसार में हैं। हमारे साथ सैकड़ों व्यक्ति हैं। यहीं रहते हैं। हम लोग शान्तप्रिय हैं। आपके यहां आगमन के पूर्व मुझे सूचना मिल गई थी। आप आने वाले हैं। बरईपुर के इमामबाड़ा के इमाम साहब इधर आते रहते हैं। वे आपके गुरु एवं आपके संबंध में बताये थे। हमारी नियुक्ति भी आपके सुरक्षा में की गयी है। आप अनुभव करते होंगे जो भी व्यक्ति आपका विरोध करता है, उसकी खबर हम लोग लेते हैं। वह हर हालात में श्रीहीन हो जाता है। मैंने कहा, आप हमसे क्या चाहते हैं? उन्होंने कहा, हम लोग अपना उद्धार
चाहते हैं। इस योनि से ऊब गये हैं।
क्या आपके साथ और लोग हैं उन्होंने हां में सिर हिला दिया। मैंने कहा, उन्हें भी बुला लें। वे इशारा किये। देखते ही देखते पूरी छत भर गई। सभी सफेद वस्त्र में सभी अनुशासित सिपाही के तरह बैठते गये। नायक ने बोला, स्वामीजी ! आप हम लोगों का उद्धार कर दे।
मैंने कहा, आप लोग तथाकथित सम्प्रदाय, मजहब, जाति, लिंग भेद से अभी तक ऊपर नहीं हुए हैं। यदि आप इन सभी को छोड़ें तो आपके उद्धार की बात करूं।
सभी एक स्वर में स्वीकृति प्रदान की। मैं उसी दिन सभी को एक साथ दीक्षा दिया। उन्हें ग्यारह पूर्णिमा, ग्यारह अमावस्या यहीं आने को सलाह दिया। जिससे उसका अभ्यास कराया जाय। सभी ने ऐसा ही किया। साधना में उनकी उन्नति होने लगी। उनके चेहरे की आकृति भी बदलने लगी। सभी प्रसन्न हो गये। इब्राहीम का नाम बदल कर प्रभानन्द रख दिया। वह अतिश्रद्धापूर्वक भक्ति करता था। उससे मैंने कहा, क्या तुम सिद्धाश्रम को जानते हो? उसने कहा, हां स्वामी जी यही है सिद्धाश्रम। अभी भी ऋषि गण तपस्या रत हैं। मैंने कहा वे लोग कहां है। वह मुस्कुराते हुए बोला, स्वामीजी आप तो अनजान की तरह पूछ रहे हैं। आप से कुछ भी छिपा नहीं है। परंतु आपके पूछने पर तो आदेश का पालन करना ही पड़ेगा।
पृथ्वी का केंद्रबिंदु कहीं भी हो सकता है। आपके आसन के नीचे ही वह दिव्य सिद्धाश्रम है। जिसके कुलपति अभी तीन रूपों में है। क्या तीन रूप हैं? हां एक रूप में ब्रह्मा है। अभी ब्रह्मा के पद पर वही है। दूसरे रूप में भी सिद्धाश्रम के कुलपति विश्वमित्रजी हैं। तीसरे रूप में आप स्वयं हैं। इसकी शाखा है, तिब्बत के पहाड़ों में, ज्ञान गंज आश्रम थोड़ी दूरी पर है। पार्थिव शरीर से दूर ज्ञात होता है। सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर से दूर ज्ञात होता है। सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर के लिए तो आसपास ही है। आप कल प्रस्थान करें। आपके कृपा से मेरा भी संपर्क वहां से हो गया है। वहां के सभी ऋषि आपको जानते हैं। आपसे प्रेम करते हैं। मैं उन लोगों से आपकी आने की सूचना दे दूंगा। यदि आपका आदेश होगा तब कल मैं आपके साथ यात्रा पर चल सकता हूं। मैंने कहा प्रभानन्द कल रात्रि को बारह बजे चलेगें। सुबह चार-पांच बजे तक वापस चले आयेंगे। तुम कल जल्दी आ जाना।
दिन भर सारा कार्य छोड़ कर पूजा-पाठ में जुटा रहा। ध्यान करता रहा। बार बार घड़ी के तरफ देखता कब रात्रि होने वाला है। संध्या करने हेतु शाम चार बजे ही गंगा स्नान करने चला गया। राम रेखा घाट पर कपड़ा रख दिया। गंगा में प्रवेश कर गया। संयोग था कि उस समय कोई नहीं था। मैं लगातार तीन बार डुबकी मारता हूं। गुरुदेव का स्मरण करते हुए तीसरे बार मारा ही था कि बाहर नहीं निकला। मैं स्पष्ट सब कुछ देख रहा हूं। सुन रहा हूं। बोल नहीं पा रहा हूं।
दो सुंदर युवक एक नील वर्ण एक गौर वर्ण बाएं, दाएं खड़े थे। दोनों तरफ से मेरे दोनों भुजा पकड़ लिये। मधुर भाषा में बोले, स्वामीजी ! हम लोग सिद्धाश्रम से आये हैं। आपका स्वागत है। हमारे साथ चलें। उनके मध्य चल रहा था। गंगा के अंदर पारदर्शी स्फटिक का गुफानुमा रास्ता बना था। ऊपर जल तरंग था। मछलियां दिखाई पड़ रही थीं। आकाश में सूर्य दिखाई पड़ रहा था। हम लोग अंदर चल रहे थे। हवा वातानुकूलित था। सुगन्धित था। सर्वत्र शान्ति था।
कुछ दूर चलने के बाद दोनों युवक भुजा छोड़ दिये। नील वर्ण आगे आगे चलने लगा गौर वर्ण पीछे-पीछे एक जगह रास्ता बंद था। वहां से तेज रोशनी निकल रही थी। नील वर्ण व्यक्ति के सामने पहुंचते ही दीवार एक तरफ हटने लगी। हम लोग अंदर पहुंचे। अंदर पर्वत गुफा प्रतीत हो रहा था। चार-पांच, पंद्रह-बीस वर्ष के संन्यासी युवक मेरे गर्दन में श्वेत एवं लाल माला पहनाए नमन करते हुए बोले कि सिद्धाश्रम में स्वामीजी का सादर स्वागत है। चौड़ा रास्ता था। रास्ता के ऊपर से नक्षत्रों सा प्रकाश आ रहा था। मन मोहक वातावरण था। कुछ ही क्षणों में अस्पष्ट वेद ऋचाएं सुनाई पड़ने लगीं। जैसे-जैसे चलता ऋचाएं स्पष्ट होने लगी। रास्ते के बाद सुंदर बाग, बगीचे, तालाब, झरने गगन चुम्बी इमारतें दृष्टिगोचर होने लगे। कहीं कोई व्यक्ति नहीं दिखाई दे रखा था।????
क्रमशः....