साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सद्गुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सद्गुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सद्गुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

मेरे दादा ऋचिक की शादी  विश्वामित्र की बड़ी बहन से हुई थी। विश्वामित्र मेरे सगे नाना थे। उन्हीं के संरक्षण में मेरे परिवार का पालन-पोषण होता था। चूंकि मेरे परिवार प्रारंभ काल से ना भिक्षावृत्ति का था न ही  राज्याश्रयी था। निर्भीक –निडर वेदोक्त मैं विश्वासी  था। मेरे पिताजी जो विश्वामित्र के खास भगिना हुए उनकी शादी भी नाना जी सूर्यवंशी राजकन्या से करा दिए। हम लोग आश्रम में रहते थे परंतु इन लोगों का पालन –पोषण राजकुल की तरह हुआ। नाना जी हम लोगों से अथाह प्रेम करते थे। उनकी एक ही बड़ी बहन थी सत्यवती। जो मेरी दादी थी। नानाजी उसे मां के तुल्य आदर एवं बहन की तरह प्रेम देते थे। हम लोगों को कभी स्वप्न में भी डांटते नहीं थे। स्वामी जी ! ज़रा आप सोचिए मैं क्षत्रिय कुल का वैरी कैसे हो सकता हूं ? क्या कोई आदमी अपनी मां –दादी का वैरी हो सकता है?
               ब्राह्मण हमें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार नहीं किया। हम लोग पुरोहित धर्म स्वीकार नहीं किए। क्षात्र धर्म को अंगीकार किया। यही हमारा दोष है। मैंने यह परिकल्पना किया कि जिसके मुंह में वेद है, उसके हाथ में फरस होना चाहिए, तब वह राजधर्म को ठीक से संचालन करेगा। मुझे ना किसी जाति से प्रेम था ना जाति से घृणा थी। कोई भी व्यक्ति जो जाति पर आधारित राजनीति करता है, धर्म करता है। उसका संबंध ना राजनीति से ना धर्म से है बल्कि घृणित सत्ता–शक्ति और संपत्ति से है। वह राम नाम ओढ़कर कुत्सित कामनाओं को पूरा करना चाहता है।
     जरा ध्यान से सोचे मेरा युद्ध सहस्त्रार्जुन छोड़कर किससे हुआ है। राजा जनक, राजा गाधि, राजा दशरथ, काशीराज, मथुरा राज, पांडवों के पूर्वजों का विभिन्न  राज्य था। बहुत राजा एवं राजपूत्र हमारे शिष्य बने। पुरोधा वर्ग सहस्त्रार्जुन के खानदान के एक लड़के को मेरे गुरु कश्यप के यहां भेज दिया। उनसे मेरी निंदा की गई। गुरुदेव कश्यप मेरे यहां आए। उन्होंने दक्षिणा की मांग की। मैं तत्क्षण पूरी पृथ्वी का राज्य उनके पैर पर रख दिया।(विशेष जानकारी हेतु मेरी पुस्तक स्वर्ग से समाधि देखें) गुरु के आदेश अनुसार में गंधमादन पर्वत पर चला गया। क्या आज तक कोई ऐसा दान अपने गुरु को किया है? इसे आप इंकार मत समझ लें। अपना पक्ष–प्रतिपक्ष स्वयं बोल रहा हूं।
                  उस समय के सद्गुरु विश्वामित्र ने मुझसे बहुत उम्मीद लगाई थी। हर समय मेरी तरफ कातर दृष्टि से देखते थे। परंतु उनके साथ कोई भी पुरोधा वर्ग नहीं था। ना राजा वर्ग ही था। उन्हें एक आतंक के रूप में प्रचलित किया गया था। उनके विरुद्ध विश्व का अमित्र के रूप में प्रचार,शीर्ष पर था। यही कारण है कि मैं उनसे दूर होता गया। प्रचार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। राजपुरोहित, ऋषि, त्रिकालज्ञ बन जाते है, राजा भगवान बन जाता है। साधारण जनता एकटक देखते रहती है।
            पुरोहित वर्ग कितना मेरे पक्ष में था, आप एक उदाहरण से इसका अंदाजा लगा सकते हैं। हालांकि प्रमाण तो हमारे पास हजारों में हैं। मेरे पिताजी के सगे भाई थे–शुनः शेष। जिसे हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित के बदले बलि दी जा रही थी। बलि वशिष्ठ के नेतृत्व में दिया जा रहा था। विश्वमित्र को यह ज्ञात हो गया। वह रूद्ररूप में यज्ञ मंडप में पहुंच गए। उन्हें भला पूरे सृष्टि कौन रोक सकता था। वे राजा एवं राजा पुरोहित दोनों को डांटे एवं चाचा शुनःशेष को अपने साथ लाए। फिर अपने आश्रम से वरुण को भी डांट कर भगा दिया। फिर इन्हें क्षात्रधर्म में दीक्षित कर अपने पुत्र को राजगद्दी से च्यूत कर इन्हें राजयारूढ़ किया। इतना बड़ा त्यागी, साहसी, समर्थ्यवान पृथ्वी पर कौन हो सकता है।


                          इसका परिणाम सामने आया–क्षत्रिय वर्ग विश्वमित्र का परित्याग कर दिया। वह कहे–यह तो ब्राह्मण धर्म स्वीकार कर लिए एवं ब्रह्मऋषि बन गए।गायत्री छंद के प्रणेता हैं। दूसरे तरफ ब्राह्मण इन्हें स्वीकार नहीं किए। वह कहते रहे–ऊपर-उपर गायत्री बोलता है—अंदर–अंदर शास्त्र–शक्ति रखता है। देवता–दानव दोनों इनके दिव्यअस्त्रों से भयभीत थे। अतएवं पूरे पृथ्वी पर इनके खिलाफ प्रचार जोरों पर था। जबकि यह सत्य है कि उस समय मानवता के, सत्य के एकमात्र पुजारी यही थे।


     हम दोनों एक-दूसरे से दूर हटते चले गए। पुरोहित वर्ग के पास सदा से शास्त्र रहता है। जिनकी रक्षा शस्त्र से राजा करता हैं। वे प्रचार के बल पर पत्थर को देवता बना देते हैं। देवताओं को पत्थर से भी नीचे गिरा देते हैं। जो पुरोधा वर्ग मेरे खिलाफ थे वही आज इस पृथ्वी पर मेरे मंदिर बना रहे हैं। मेरी तस्वीर बांट रहे हैं। अपने–अपने घर में सम्मान के साथ टांग रहे हैं। मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूं। क्या यही विधि की लीला है। कल तक जो मेरे विरुद्ध विषवमन करते थे। आज वही मेरी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं।