साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

आगे एक सुंदर झोंपड़ीनुमा आश्रम दिखाई दिया। जिसके ऊपर फूल आच्छादित थे। उधर ही मुड़ा दो राज कन्याएं दो राज पुरुष से व्यक्ति सामने आए। झुककर नमन किये तथा सुंदर श्वेत रेशमी वस्त्र प्रदान किये। मैं उसे धारण किया। वे बोले- स्वामीजी ! यही आपका यज्ञशाला है। यहां हर समय यज्ञ होते रहता है। गायत्री यज्ञ। यह बाह्य गायत्री है। जिसके कर्ता पुरुष विश्वमित्र है। जिसकी आन्तरिक गायत्री सिद्ध हो जाती है। उसे बाह्य गायत्री की जरूरत नहीं होती है। इसके रक्षक राम लक्ष्मण है। गायत्री यज्ञ शाला के पश्चात विश्वामित्र आश्रम में प्रवेश किया। वे दोनों राजपुरुष और राजकन्याएं भी साथ थे। बाद में हमें ज्ञात हुआ कि ये राज पुरुष इन्द्र एवं वरुण हैं। राजकन्याएं इन्हीं दोनों की पत्नियां हैं।

विशाल सभा कक्ष था । उच्चासन पर विश्वमित्र विराजमान थे। मैं दोड़ते हुए उनके चरणों में गिर गया। वे अपने अंक में भरते हुए बोले, मेरा ही स्वरूप आप हैं। ये हैं हमारे सप्तऋषि ऋषि गौतम, सदानन्द, भरद्वाज, अत्री, वाल्मीकि, अगस्त। ये बाये हैं-हमारे सप्तम नक्षत्र सुग्रीव, हनुमान, नल, नील, अंगद, जामवन्त और विभीषण। ये सभी इस सृष्टि के सिद्धतम है। अनमोल हीरे हैं। सामने बैठे हैं। हमारे चौरासी हजार शिष्य इधर हैं देवेन्द्रादि देव सभी आपका स्वागत करते हैं। तभी नील वर्ण व्यक्ति एक स्वर्ण गिलास गुरु विश्ववमित्र के सामने लाया। वे इस गिलास को अपने हाथों में लेकर हमें प्रदान किए। स्वामीजी आप इसे ग्रहण करें। हमारे आश्रम के कामधेनु का प्रसाद है। मैं ले लिया। अपने आसन पर बैठकर एक ही श्वास में पी लिया। अंदर से तरोताजा हो गया। सभी का विचार मन दिखाई पड़ने लगा। जैसे त्रिकालज्ञ हो गया। विश्वामित्रजी ने आगे कहा- ये हैं नील वर्ण पुरुष जो आपको लेकर आए हैं राम गौर वर्ण पुरुष लक्ष्मण मेरे परम प्रिय शिष्य हैं। जो सदैव शिष्य भाव से आश्रम में मौजूद रहते हैं। यही है मेरा सिद्धाश्रम। इस पृथ्वी की पवित्रतम भूमि है। आप को भी इस भूमि से लगाव है। आप चाहते हैं कि इससे दूर चला जाऊं। परंतु यह भूमि सहज ही आपको अपने तरफ आकर्षित कर लेती है।

आपके मन में विचार आया है कि क्या ये ऋषि सदैव रहते हैं। हां ये अपने पार्थिव शरीर का त्याग दिए हैं। सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, आत्मशरीर, ब्रह्म शरीर में रहते हैं। जैसे आवश्यकता होती है, वैसा शरीर ग्रहण कर लेते हैं। यह आश्रम भू शून्य क्षेत्र हैं। इसका आविष्कार भी मेरे द्वारा ही किया गया है। पृथ्वी पर कई जगह भू शून्य है। लेकिन जो भी साधक गुरु भक्त नही होता है। देवभक्त होता है, इसका दुरुपयोग करता है। जैसे राक्षस संस्कृति के व्यक्ति। इस कला को जान जाते हैं। फिर अनर्थ करते हैं। वे साधारण व्यक्ति से मारे नहीं जा सकते हैं। अतएव जो व्यक्ति इस तकनीक को जानता है, वही उसके इस पार्थिव शरीर को छीनता है। फिर सूक्ष्म शरीर से भी शरीर को छीनता है। फिर सूक्ष्म शरीर से इच्छानुसार शरीर ग्रहण और शक्ति से अनर्थ करता है। जैसे अदृश्य प्रेत आत्मशरीरी ही उसे सूक्ष्म शरीर से बाहर निकालता है। कारण शरीर में लाकर अपने स्वरूप अर्थात् आत्मा का ज्ञान प्रदान करता है। तब उसकी हीनकृतियां स्वतः गिर जाती है। वह अपने पीछे के सारे शरीरों का त्याग कर आत्म शरीर में सानन्द रहता है। यही कारण है कि जब तक आत्मशरीर व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं जाता तब तक ऐसे व्यक्ति भ्रष्टाचार का ताण्डव करते हैं। आप अपना विचार रखें। आपके पावन विचार सुनने के लिए सभी का आगमन हुआ है।

मैं अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। धीरे से बोला गया शब्द भी सर्वत्र सुनाई देता। जैसे सभी लोग अपना श्वास रोके बैठे हैं। शब्द की गति तरंगायित होकर तेज हो जाती है। मैंने कहा, सबसे पहले सभी महर्षि, साधु, महात्मा, साधक, सिद्ध, नक्षत्र, देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व, को मेरा नमस्कार है। आप सभी के मध्य अपने को पाकर पूर्व जन्म की स्मृतियां याद आ रही हैं। मैं सोचता हूं कि विभिन्न शरीर ग्रहण कर मानव कितना बेबस, माया के अधीन नर्तक की तरह नाच रहा है। पुत्र- पौत्र, पत्नी, शादी-विवाह, झूठी, इज्जत-प्रतिष्ठा में अपना सर्वस्व गंवा रहा है। माया के नशे में पागल हो रहा है। बार-बार माया इसे पीटती है। देवी-देवता इस बेचारे पशु को अपना आहार बनाते जा रहे हैं। फिर भी नशे में धुत्त है। जैसे एक सर्प मेंढक को निगल जाना चाहता है। मेंढक के मुंह पर मक्खी बैठी है, वह उसे निगलने का प्रयास करती है। यह नहीं सोचती है कि मैं काल के गाल में हूं। यह माया रूपी पिचाशनी बुरी तरह अपने अंक में सभी को बांधे हुए हैं। फिर भी कुत्ते की तरह सुखी हड्डी में मांस का उम्मीद लगाए बैठे हैं।


     अपने त्रिकुटी पर ज्ञान रूपी गायत्री का श्वास-प्रश्वास रूपी हवन सामग्री से जो निरंतर यज्ञ करता है। उसकी रक्षा राम-लक्ष्मण रूपी ज्ञान-वैराग्य करते हैं। सीता रूपी भक्ति, हनुमान रूपी भक्त, भरत रूपी श्रद्धा, शत्रुघ्र रूपी विवेक सदैव साथ रहते हैं। विश्वमित्र रूपी गुरु पर्वत से सदैव दिशा निर्देशन देते रहते हैं। सप्त ऋषि, सप्त नक्षत्र मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा सहजता से कराते हैं। रास्ते में अहंकार रूपी रावण, काम रूपी स्वर्ण रेखा, तंत्रमंत्र सिद्धि रूप मारीच, तांत्रिक रूपी काल नेमि मिलते रहेंगे। परंतु जो साधक अपने चित्तवृत्ति को गुरुपर्वत पर रख देगा। सदैव इस आन्तरिक यज्ञ में लगा रहेगा। उसका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। बल्कि उनके इस पार्थिव शरीर जो मायावश चांडाल वृत्ति को धारण किये हैं। उसे छुड़ाने में समर्थ हो सकते हैं।

जो साधक किंचित कभी किसी कामनावश मूच्छित हो जाता है, तब उसी स्वर्ण लंका में निवास करने वाला सुषेन वैद्य अपनी संजीवनी विद्या से उसका मुच्छां तोड़ देता है। जबकि वह सुखेन वैद्य किसी राक्षस को नहीं जिलाता है। वह बाह्य सुपेन भी अंदर बैठे गुरु पर्वत पर गुरु का ही प्रतिनिधित्व करता है।

हम चाहें जिस रूप में हो। जिस सभ्यता, संस्कृति के हों, हमारा परम कर्तव्य होता है कि यह जन्म गुरु के आज्ञा के अनुरूप चलें। हजारों जन्म हम स्वेच्छा से माया के वश में होकर मरकट का नृत्य करते रहें। दुख भोगते रहें। परंतु यह जन्म राम-लक्ष्मण की तरह गुरु निर्देशन में व्यतीत करें। एक जन्म तो जुवा के तरह दांव पर लगाना ही होगा। अन्यथा हमारा शरीर चाहे देव, दानव, मानव का ही क्यों न हो। वह व्यर्थ होते चला जा रहा है।

हमारे अंदर ही देवत्व, दानत्व, ऋषित्व, रामत्व, बुद्धत्व छिपा है उसे आपको बाहर निकलने का अवसर प्रदान करना है। यह निर्भर आप पर ही करता है।

वाल्मीकि ऋषि ने धन्यवाद किया। मुझे क्षेत्र परिभ्रमण हेतु ऋषि गौतम एवं उनकी पत्नी अहिल्या लेकर साथ चलें। दोनों पति-पत्नी का तेजस शरीर पच्चीस एवं बीस का ही प्रतीत हो रहा था। वे सबसे पहले अपने आश्रम पर लायें जो गंगा के किनारे था। अति उत्तम ढंग से निर्मित था। सभी आश्रम एक प्रकाशपूर्ण श्वेत मार्ग से संबंध था। बक्सर की पंचकोशी पांच कोश में पांच रंगों का आश्रम था। ऋषि गौतम ने इसे पांच तत्त्वों का प्रतीक बताया। यह शरीर पांच तत्वों से निर्मित है। उन्होंने बताया पूरब में सोन नद अर्थात् आरा से आगे कोइलवर, पक्षीय में गुप्ताधाम दक्षिण में पीरों तक फैला है। सभी आश्रम के ऋषियों से मैं मिला। सभी में अति मधुर संबंध हैं। सभी आश्रमों में ऋषिगण अनुसंधानरत एवं तपस्यारत है। ऋषि ने बताया कि जो व्यक्ति श्रद्धा विश्वास से उस आश्रम के ऊपर आकर ध्यान पूजा अर्चना करता है। उसको आशीर्वाद वहां के ऋषि अवश्य देते हैं।

ऋषि उदालक एवं वामन के आश्रम पर भी गया फिर भगवान शंकर जहां तप करते थे। जिनके कोप करने से कामदेव भस्म हुए उस जगह का नाम कोपवां पड़ा। वहां भी गया। मां रति से मिला। अब वह प्रसन्न मुद्रा में है। भगवान शंकर का जागृत सूक्ष्म शिवलिंग है। जो सैकड़ों, सूर्यों के सदृश्य प्रकाशमान था। रति इस गांव के वृष्णी वंशियों की कुल देवी है। यही कृष्णावतार में प्रद्युम्न की पत्नी मंगल कृष्ण की पुत्रवधू बनकर आयी उनसे भी आशीर्वाद ग्रहण किया।

गौतम ऋषि से मैं पूछा हे भगवान! क्या कोई और ज्ञानगंज या सिद्धाश्रम है ? उन्होंने कहा कि जैसे आपका आश्रम एक ही नाम से कई जगह हो सकता है। उसी तरह हम लोगों का भी विभिन्न जगह आश्रम होता है। मुख्य सिद्धाश्रम तो यही है। परंतु हमारे जो शिष्य तंत्र-मंत्र से ही ज्यादे विश्वास करते हैं अर्थात् जो अभी सूक्ष्म शरीर से ऊपर नहीं आए हैं। जिनको सूक्ष्म शरीर कारण शरीर ही प्राप्त है। वे वहां से दूर हिमालय में रहते हैं। वह प्राचीन नहीं है। चूंकि हिमालय ही प्राचीन नहीं है। जो साधक सूक्ष्म शरीर है। उन्हें वहीं रखा जाता है। आप मेरे साथ चलिए। संयोग से मुझे वहां जाना भी है मेरा आज ही वहां प्रवचन है।

हम लोग मां रति के आश्रम में बैठे थे। सहसा हम लोगों का आसन ही चलायमान हो गया। कुछ ही क्षण में ठंडक मालूम होने लगा। गौतम ने कहा स्वामीजी आप ज्ञान गंज आ गए हैं। यह तंत्र-मंत्र बाहुल्य क्षेत्र है। कुछ ही दूरी पर एक स्वर्णमयी प्रकाश दिखाई दिया। दूर-दूर तक पर्वत पर बर्फ जमा था उसी श्वेत बर्फ पर स्वर्णमयी प्रकाश सहसा एक तरफ हटने लगा। एक विशाल द्वार खुला। जिससे ग्यारह युवतियां श्वेत वस्त्र में बाहर आई। सभी ने झुककर प्रणाम किया। पुष्प माला अर्पित की। ऋषि ने कहा हे भैरवी देवी। देखों आज तुम्हारे लिए पृथ्वी से स्वामी जी आये हैं। रथ भी स्वर्ण एवं मणियुक्त था। पुष्प ऐसे खिले थे मानो बल्व हो। वे बंद हो रहे हैं। अब खुल रहे हैं। उनसे विभिन्न तरह का प्रकाश निकल रहा है। कुछ ही दूरी पर ग्यारह अवधूत मिले जो पुष्पमाला लिये थे। सभी गौर वर्ण के थे। ऋषि ने एक प्रौढ़ व्यक्ति के तरफ इशारा करते हुए बोले, क्यों प्रणवान्नद! तुम्हारा ज्ञान गंज ठीक तो है। वे हंसते हुए बोले हां सभी ठीक है। आप सप्त ऋषियों का आगमन अत्याल्प हो गया है। हम लोगों को आपका मार्गनिर्देशन का अभाव खटकता है।
 वहां छोटे-बड़े सैकड़ों भवन निर्मित थे। सभी विभिन्न रंग के विभिन्न प्रकाश से प्रकाशित थे। वहां के सभी भैरव एवं भैरवी युवक थे। सभी के चेहरे पर ओज था। तेज था। केवल माधवनानन्द जी चिंतित मिले। गौतम ने उनका चिंता कारण जाना। वे सूक्ष्म शरीर से ऊपर उठना चाहते हैं। या मानव शरीर ग्रहण कर पृथ्वी पर जाना चाहते हैं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि पृथ्वी का मानव यहां आने के लिए दर-दर भटक रहा है। अपना अमूल्य समय बर्बाद कर रहा है। यहां माधवानन्द इस आश्रम एवं इस शरीर से ऊब गया हैं। ऋषि गौतम ने कहा देखो स्वामी कृष्णायनजी को पहचानो । अपनी स्मृति को लौटाओ ये ही स्वेच्छा से तुम्हारे यहां, मेरे यहां एवं पृथ्वी पर जाते हैं। इनसे इन शरीरों के रहस्यों को समझो। तुम जैसे ही आत्म शरीर ब्रह्म शरीर को ग्रहण कर लोगे, वैसे ही तुम्हारी चिन्ताएं दूर हो जाएंगी। तुम आनंद में रहोगे । आनंद ही आत्म शरीर का रहस्य है। ऋषि गौतम ने कहा स्वामीजी हम लोग लौटे, विलम्ब हो रहा है।

मैं गंगा से बाहर निकला रात्रि का आठ बज रहा था। मानो अभी एक गोता लगाकर ही निकल रहा हूं। बाहर एक आदमी वस्त्रों को लेकर खड़ा था। वह प्रेम से मुझे सौंपते हुए बोला, स्वामीजी इसे ग्रहण करें, मुझे विलम्ब हो रहा है। वह विलुप्त हो गया।????

????काशी एवं सिद्धाश्रम की विलक्षणता????

मैं गुरुकृपा से इस शरीर से बाहर निकलता एवं रहस्य लोक में विचरण करते रहता। कभी-कभी यह घटना अनायास भी हो जाती। लेकिन चाहूं कि जबरदस्ती इस शरीर से निकलू तो ऐसा नहीं हो पाता। इसके लिए निर्विचार होना आवश्यक है। यदि कोई साधक मेरे फोटों पर त्राटक करते हैं। उस समय शरीर का जो अंग जैसे हैं। उसी समय वैसा ही रहे। शरीर का भान भूल जाये। शारीरिक क्रियाएं बिलकुल तटस्थ हो जाये। जैसे हाथ पैर का हिलना, पलक का गिरना, गर्दन इधर उधर होना, पैर इधर उधर होना, सभी समाप्त समाप्त हो जाए। आप चाहे जिस आसन में आसानी से बैठ सकते हैं, बैठे। आप अपने श्वास पर ध्यान रखें। फिर घटना घट जायेगी। Sitting silently doing nothing the sharing comes and the grass grow by it self.

मैं सिद्धाश्रम एवं काशी में आत्मशरीर से विचरण करते हुए देखा हूं कि यह आत्म शरीर ब्रह्म शरीरी पांच-पांच सौ सिद्ध बुद्ध पुरुष हर समय रहते हैं। यदि कोई किसी कारण वश चला गया अन्यत्र जन्म ले लिया। तो अन्य सूक्ष्म शरीरी
 उसका स्थान ग्रहण कर लेते। अर्थात् हर समय पांच सौ सूक्ष्म शरीर बुद्धों का रहना होता है। जो इस पृथ्वी पर अन्यत्र दुर्लभ है।

सिद्धाश्रम में श्मशान क्षेत्र में मैंने देखा है कि बहुत मृतक शरीर पड़े हैं। प्रत्येक स्थूल शरीर से भगवान राम उसके सूक्ष्म शरीर को निकाल कर लाते एवं सद्गुरु विश्वमित्र उसे तारक मंत्र प्रदान करते। वह व्यक्ति तारक मंत्र पाते ही कारण शरीर धारण कर लेता। गुरुदेव को, भगवान राम को साष्टांग प्रणाम करता एवं दिव्य शरीर में दिव्यलोक के तरफ गमन कर जाता। जहां कारण शरीर आत्म शरीर सिद्ध आत्मा उनका स्वागत करती। वह व्यक्ति हर्षातिरेक करता हुआ, गमन करता है।

इस दृश्य को देख कर मैं उसी रात्रि में काशी में हरिश्चन्द्र घाट के संबंध में सोचकर वहां पहुंच गया, वहां का दृश्य देखा तो देखते ही रह गया। भाव शून्य ठंडा सा खड़ा रहा। तभी एक ब्रह्म शरीर आत्मा ने हमारा ध्यान भंग किया। मैं उन्हें दण्ड प्रणाम किया। उनसे उनका परिचय पूछा। उन्होंने कहा, कैसे अपना परिचय दूं । स्वामीजी ! परिचय तो स्थूल शरीर का होता है। कितने बार शरीर ग्रहण किया कितने बार छोड़ा अन्तिम शरीर लगभग पांच सौ वर्ष पहले छोड़ा है। उसी शरीर से हमें ब्रह्म शरीर मिला है। मेरा संबंध काशी राज से ही है। सद्गुरु कबीर साहब के शिष्य परम्परा में ही था। इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता हूं। हमारे जैसा यहां ब्रह्म शरीर पांच सौ सदैव रहते हैं। काशी पृथ्वी का सबसे पुरातन स्थल है। आपका आश्रम भी सिद्ध क्षेत्र में ही हैं। हम लोगों की सभा वही गंगा तट पर होती है। सिद्धाश्रम एवं काशी को मिलाकर ब्रह्म शरीर एक हजार है। जबकि इतनी संख्या संपूर्ण पृथ्वी पर कही नहीं है। यही कारण है कि काशी एवं सिद्धाश्रम पृथ्वी से न्यारी है। वहां का क्षेत्र राम एवं विश्वमित्र गुरु शिष्य से नियंत्रित होता है। यहां मां दुर्गा एवं भगवान शिव से नियंत्रित होता है।

आप यही देख रहे हैं कि सैकड़ों मृत शरीर (लाशें पड़े हैं। प्रत्येक शरीर से मां दुर्गा उनके सूक्ष्म शरीर को निकाल रही हैं। प्रत्येक को भगवान शिव तारक मंत्र दे रहे हैं। जितनी लाशे हैं, उतने ही मां दुर्गा हैं, उतने ही शिव हैं। यह कैसे ?

एक तो ब्रह्म शरीर एकसाथ बहुत रूपों में बहुत जगहों पर प्रकट हो सकता है। लोक कल्याण में, लोक मंगल की कामना से कुछ भी कर सकता है। दूसरा पहलू हैं कि ब्रह्म शरीर आत्माएं दिव्य चैतन्य प्रकाश स्वरूप शिव रूप में भी रहती है। शिव, बुद्ध, राम, कृष्ण, महावीर, किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, बल्कि जो भी ब्रह्म शरीर ग्रहण कर लेता है उसी का नाम है ये ब्रह्म शरीर चैतन्य पुरुष जो आप शिव स्वरूप में देख रहे हैं वे भी करुणावश काशी या सिद्धाश्रम में जो निरंतर निवास करते हैं, आये आगंतुक को तारक मंत्र प्रदान करते हैं।

फिर आप सोचते हैं कि आखिर इन्हीं जगहों पर आप लोग क्यों निवास करते हैं। उसका कारण है कि जहां चुम्बकीय क्षेत्र होता है, उधर लौह खण्ड अनायास ही चले जाते हैं। काशी क्षेत्र, बुद्धों के लिए चुम्बकीय क्षेत्र हैं। बुद्ध पुरुष जाने- अनजाने इधर ही खींचते चले आते हैं। आप जरा सोचो स्वामीजी! आपने अपने प्रारम्भिक अवस्था में काशी एवं सिद्धाश्रम दोनों जगहों से नाता तोड़ लिया था। आप पूर्व में आसाम, सिलचर तक भ्रमण किये। आश्रम हेतु जगह का चयन भी किया। उत्तर में गंगोत्री केदार खण्ड, बद्री खण्ड तक की यात्राएं कई बार किये. पूरब में पुरी, दक्षिण में कन्याकुमारी रामेश्वरम, पश्चिम में द्वारिका तक यात्रा किये। अपने आश्रम के लिए जगह चुनते रहे। फिर आप दिल्ली में आश्रम बनाए। उसके कुछ ही दिन बाद काशी आपको जबरदस्ती खींच लाई। आप नहीं चाहते हुए भी इधर आ गये। आप यही रहना चाहते हैं ऐसा क्यों? आपका लगाव यहां से हैं। यहां की आत्म शरीरी, ब्रह्म शरीर आत्माएं बरबस आपको अपनी तरफ आकर्षित करती हैं।

अगले ज्येष्ठ पूर्णिमा को आप अपने गंगातट वाले आश्रम पर अवश्य रहे। बारह वर्षों के बाद हम सभी लोगों की सभा होगी। जिसमें सिद्धाश्रम के भी सभी लोग आते हैं। मैं आपको आमंत्रित करता हूं। आप मेरे साथ रहेंगे।

मैंने कहा क्या आप लोगों में बात-विवाद होता है। या वोटिंग होती हैं। ऐसा कुछ भी नहीं। हम एक साथ रहेंगे। जहां कोई नहीं बोलेगा फिर भी वार्ताएं होंगी। कौन वार्ता। सभी कुछ सर्वसम्मत से पारित होता है। सभी समान हैं। सभी लोक कल्याण की कामना से रहते हैं।????

????आकाश गमन संक्षिप्त क्रिया????

यह क्रिया अत्यंत संक्षिप्त में वर्णन कर रहा हूं। चूंकि संसार में अर्थ के लिए प्रत्येक चीज प्रदर्शनीय हो गई है। हमारे गुरुदेव ने अत्यंत गुप्त रखने का आदेश दिया है। जब उसके उचित पात्र मिले, जो तन, मन, धन से पूर्णत समर्पित हों। गरु वाक्य ही ब्रह्म वाक्य समझता हो। कभी भी इस चिन्ता का किसी कामना की सिद्धि के लिए भूल कर भी प्रयोग में नहीं लावें। अन्यथा वह राक्षस बुद्धि ग्रहण कर लेगा। उसका अमंगल होगा साथ ही जगत का भी अमंगल करेगा।

सबसे पहले प्राणायाम से कुम्भक सिद्ध कर लें। कुम्भक सिद्ध होने पर आसन स्वतः पृथ्वी से ऊपर उठ जाता है। यह कुम्भक नासिका, द्वारा, मुख द्वारा,
 गुदाद्वार, क्रिया द्वारा अर्थात् नाभिद्वार से किया जाता है। आप अपने गुरु से सीख

लें। इसके पश्चात् गुरु मूर्ति पर त्राटक रखें। बाह्य कुम्भक, अंदर कुम्भक इस

अवधि में कर सकते हैं। फिर आप कुम्भक मंत्र भूल जायेंगे। शरीर जहां है वहां

स्थित हो जायेगी। आपके मूलाधार से स्वाधिष्ठान, मणिपुर में आकर प्रकाश मिलेगा।

इसका एक भाग सीधे सहस्रार के तरफ उठ जायेगा। दूसरा पेट के भाग से ऊपर उठेंगे जो धनुषाकार ज्योति बन जायेगा जिसे ज्योतिर्लिंग भी कह सकते हैं। गुरु मूर्ति से प्रकाश निकलकर स्वयं में आबद्ध कर लेगा। इस अत्यधिक क्रिया में विद्युत का प्रवाह अत्यधिक होगा। आपके पूर्व संकल्पानुसार आपका सूक्ष्म शरीर बाहर निकलेगा तथा क्षण भर में आपके पूर्व संकल्पि स्थान पर पहुंच जायेगा। परंतु इस क्रिया में शरीर को सुरक्षित रखना होगा। दूसरे के द्वारा शरीर स्पर्श करने पर आपके सूक्ष्म शरीर को असहय पीड़ा होने लगती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति छू रहा है, वह घोर नकारात्मक शक्ति से भरा होगा। जिससे वह आपके सकारात्मकता को पी जाए। जिससे आप अपने ही शरीर में प्रवेश करने में असमर्थ हो सकते हैं। जिससे आपका अपने ही स्थूल शरीर से संबंध टूट जायेगा। शरीर उड़ने के लिए, इस शरीर को अदृश्य करना पड़ता है। या रात्रि में अपने आंखों पर पट्टी बांध लो या दृढ़ संकल्प शक्ति रखें। शरीर ऊपर उड़ने लगेगा, तब अपने संभावित स्थान के तरफ स्वयं उड़ने लगेंगे। आंख खुलने पर प्रारम्भिक अवस्था में रोशनी, हवा लगने से अनिष्ट की सम्भावना ज्यादा होती है। साधक नदी समुद्र, पर्वत के ऊपर गिर जाता है। जहां से उसका पार्थिव शरीर छूटने की ज्यादा सम्भावना है। यह अति खतरापूर्ण यात्रा है। इन आंखों से भी उस यात्रा पथ का कोई वास्ता नहीं है। उसके लिए तो तीनों क्षेत्र ही सहायक हैं। आप शवासन में स्थिर हो कर भी अपने संकल्पित स्थान पहुंच सकते हैं। ध्यान गुरु के निमित्त पद पर ध्यान कर धीरे-धीरे मुख मण्डल के तरफ ले जाय। भावना रखे कि परमात्मा निर्गुण है। निराकार है। उसका सकार रूप गुरु हैं। वह करुणा का सागर है। क्षमा का सागर है। वह हमें अपने ऊर्जा से ऊर्जान्वित कर संकल्पित स्थान में ले जायेंगे। साथ ध्यान मुख मण्डल से धीरे-धीरे नीचे लाएं एवं नख पर स्थिर रखें। नख से ऊर्जा का प्रवाह सर्वाधिक होता है। इस प्रक्रिया से आप आकाश मार्ग से गमन कर सकते हैं। लेकिन इसका प्रदर्शन या इसके संबंध में दूसरों से चर्चा करना भी अशोभनीय एवं अशिष्टता है।

प्रत्येक शरीर के जीव है। जो दीक्षा के समय बताया गया है। वही भोक्ता है। आज्ञा चक्र पर आत्मा जो भोग-निर्मुक्त, शुद्ध, द्रष्टा तथा चैतन्य, साक्षी हैं। परमात्मा सर्वत्र व्यापक भाव है। किन्तु उसकी अभिव्यक्ति सब में समान रूप से प्रकट नहीं होती है। जैसे अग्नि सर्वत्र है। परंतु जहां प्रज्वलित अग्नि मिले, वही संग्रहीय है। उसी तरह जो गुरु समय का जलता हुआ अंगारा हो, वही सद्गुरु है। एक समय में दस-बीस सद्गुरु नहीं होते हैं। लम्बे अन्तराल में एक ही सद्गुरु आता है। और सभी गुरु चन्द्रमा पृथ्वी या अन्य नक्षत्रों के तरह उसी सूर्य से प्रकाशित होते हैं। उन्हें गहनता में स्वयं का प्रकाश भान होता है। जिससे वे समय के सद्गुरु से मुकर जाते हैं। वही सद्गुरु जीव में प्रकाश भरकर उसे शिव बनाता है।

जैसे नन्हा सा बालक अपनी मां की गोद में जाकर शान्त हो जाता है। उसका अमृतमयी स्तनपान कर तृप्त हो जाता है। उसी प्रकार साधक साधना करते-करते त्रितापों की जलन से, दुख से मुक्त हो कर गुरु के शरण में स्थिर हो जाता है। जहां वह अपनी सारी इच्छाओं को गुरु चरणों में अर्पित कर देता है। गुरु अनुकंपा रूपी अमृतरूपी परमानन्द को पाकर उसका सारा भ्रमण, संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाता है। असीम और अनन्त सत्ता तत्वातीत होकर द्वैताद्वैत से ऊपर उठ जाती है। यही कृष्ण के गीता की स्वभाव में स्थित होना। स्वरूप में स्थित होना शोभ से परित्राण है। यही चैतन्य शक्ति आनंद है। परमानन्द है ।

इस सृष्टि में गुरु ही एकमात्र आश्रय हैं। उन पर पूर्ण निर्भर रहना ही निष्कर्म है। उनके प्रति हृदय की प्यास ही साधना है। गुरुदेव का आकर्षण ही स्वाभाविक होता है। जो इस अमृतमय स्वाद को ग्रहण करने की कला जान गया वही अनाष्टक गृही है। वही संन्यास भावापन्न परम हंस है। वही रहस्यमय लोक का अधिकारी है।????

    -इतिसिद्धम्-