साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????हिमालय यात्रा एवं साधना????
मैंने कुछ साधकगण के आग्रह पर बद्रीनाथ की यात्रा 31 मई 1995 को प्रात: 3.20 पर प्रारम्भ की। अपनी कार से साधक लोग पूरी व्यवस्था के साथ चले थे। निश्चित हुआ जहाँ सन्ध्या होगी वहीं टैण्ट पड़ाव गिर जाएगा। साधना प्रारम्भ हो जाएगी। अपने भोजन बनाते, साधना करते, प्रकृति का आनन्द लेते। हम लोग हिमालय की यात्रा कर लेंगे। जिस स्थान पर ठहरेंगे उसी के अनुरूप साधना तथा जीवन चर्या भी होगी। सब साधन उपलब्ध थे। परन्तु इस यात्रा में दस व्यक्ति थे। दो व्यक्ति लीक बद्ध थे, जो लीक पर से हटने को तैयार नहीं थे। जपजी का पाठ कर लेना, माथा टेक लेना ही पुण्य का कार्य समझते। अपने जो करते, वही ठीक है और दूसरा जो भी करता वह गलत। इससे यह यात्रा साधना की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण होते-होते रह गयी। चूँकि किसी-न-किसी प्रकार वे अवरोध उत्पन्न कर ही देते। हालाँकि उनकी नीयत कुछ गड़बड़ नहीं थी परन्तु साधक के लिए एक तरह का माहौल होना भी अत्यन्त जरूरी है। साधक को तर्क-कुतर्क से हर हाल में बचना चाहिए। यदि सभी साधक समर्पण की स्थिति में नहीं हों। मत मतान्तर के लिए रूढ़िवादी हों तो समर्थ गुरु भी कुछ नहीं कर सकता। हिमालय का क्षेत्र साधना के लिए उपयुक्त है परन्तु तथाकथित तीर्थ-यात्री इसे कुरूप बनाने पर तुले हैं। हम लोग हर की पौड़ी पर दिनांक 1.6.95 को सुबह दस बजे पहुँच गये। वहाँ स्नान का आनन्द लिया। गंगा के किनारे साधना कराई। कुछ हल्का भोजन कर ऋषिकेश पहुँच गये। सुना था वहाँ भगवान तपस्या किये थे। वह स्थल है। पहुँचते ही कुछ बाबा लोग मिले। कार वगैरह देखकर ललचाई आँख से तुरन्त आश्रम में आमंत्रित किये। एक कोठरी जिसमें एक पति-पत्नी रहते थे। सुना कि वही उसे बनवाये भी थे। प्रतिवर्ष एक माह रहते थे। बाबा लोग उनको बाहर कर हम लोगों का सामान उस में रखवा दिए। अपनी तपस्या के सम्बन्ध में एक-एक पतली पुस्तक भी बाँटे। खाना भी खिलाये। बहुत ही प्रसन्न थे। बाबा लोग, सभी 30 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक तपस्या में थे। सभी सिद्ध थे। परन्तु मैंने उनके चेहरे पर देखा तो कहीं कोई तप नहीं दिखा। हाँ काम, क्रोध, लोभ अवश्य देखा। खैर महंत जी ने हमारे कुछ साधक को बुलाकर कहा, कि आप लोग खाना मत बनाईयेगा। यहीं खाना होगा और कमरे की जरूरत होगी तो और मिल जायेगा। तुरन्त एक कमरा और खुलवा दिया। कमरे बड़े-बड़े बाथरूम से युक्त मैंने थे । सन्ध्या समय में साधकों को स्नान करने को कहा ही था कि एक बाबा आकर कहे कि महंत जी बुला रहे हैं। दो-चार साधक चले गये। महंत जी कहे कि सन्ध्या सुबह आरती में आप लोगों को आना होगा। दो-दो घण्टा यहाँ बैठना होगा। हमारे साधक गजेन्द्र जी सीधे-साधे व्यक्ति थे। बोल दिए कि महाराज हम लोग साधना करने आये हैं। आरती में हमारा इतना समय मत बर्बाद करो। वे चौंक गये। कौन-सी साधना ? वे बोले हमारे गुरु जी कराते हैं। उस समय चुप रहे। वे लोग आ गये।
कुछ काल के बाद आकर कहा कि आप लोग जगह खाली कर दें। यहाँ जगह नहीं है। यही होता है। अक्सर क्रान्तिकारी, विद्रोही, सद्गुरु को कोई बर्दाश्त नहीं कर पाता। उससे अज्ञात भय होता है। वास्तविक साधक उससे मिलकर प्रसन्न होता। है मानो उसे अमूल्य निधि मिल गयी हो परन्तु पण्डित, पुरोहित, विद्वान उससे भयभीत हो जाते हैं। उसे अधार्मिक कहकर बहिष्कार कर देते हैं। शुरू से यही होता आया है। चाहे राम हो, चाहे कृष्ण, चाहे कबीर, चाहे ईसा मैंने कहा परमात्मा आपको अन्यत्र रखना चाहता है। वह जो करता है, अच्छा करता है। आप लोग अपनी अहं को गंगा में बहा दें। ये महात्मागण, परमशक्ति से प्रेरित होकर ही हमें यहाँ से भेज रहे हैं। वह परम शक्ति, व्यक्ति के अनुसार सभी कुछ प्रबन्ध करती है। आप उस पर अटूट श्रद्धा विश्वास रखें। वह जो करेगा वह उत्तम करेगा। खर हम लोगों ने आश्रम का परित्याग कर स्वर्गाश्रम (गीता आश्रम) में रात्रि विश्राम किया तथा सुबह गंगा स्नान किया। गंगा के किनारे ही साधकगण को बैठा दिया। जहाँ कल-कल कर गंगा शीतल जल युक्त बह रही थी। अनवरत । पीपल का पेड़, गंगा का तट ऋषिकेश सब उससे ऊपर दुर्लभ हैं। परमात्मा आपको यहां से साधना प्रारम्भ कराना चाहता है किसी में दोष देखने से अच्छा है अपने में दोष देखा जाये।
????सूखे पत्तों के द्वारा साधना????
प्रथम चरण - सुबह चार बजे का समय था। सभी साधकों ने गंगा के शीतल जल में स्नान कर लिया। मैं स्वर्गाश्रम की सीढ़ी पर स्नान कर गंगा की धारा के उल्टी दिशा में चल दिया। कुछ दूरी पर साफ-सुथरी जगह देख रुक गया। पीछे देखा सभी साधक मौन अनुगमन कर रहे थे। मैंने सभी को इशारे से गंगा के किनारे (तट) पर ही बैठने को कहा। सभी बैठकर अपलक मेरी तरफ देख आदेश पाने के लिए उत्सुक थे। उन्हें तमन्ना थी कुछ सीखने की, करने की। एक पीपल का वृक्ष भी समीप ही था। मैंने कहा आप सभी दृश्यों को तन्मय होकर देखें। कुछ क्षण बाद कहा आप पीपल वृक्ष की छाया में हैं। गंगा का तट है। स्वर्गाश्रम महात्माओं का तप स्थल रहा है। अब आप सब देख लिए। जो कुछ भी मैं कहूं आप अपनी भावना शक्ति से, श्रद्धा के माध्यम से देखेंगे। मस्तिष्क को कुछ क्षण के लिए छोड़ देंगे। भुला देंगे। अभी हृदय से, श्रद्धा से प्रेम से भरी भावना से काम लेंगे। आँख बंद कर लें। त्रिकुटी संगम पर ध्यान दें। दो मिनट श्वास के साथ गुरु मन्त्र के सहारे अन्दर जायें। प्रकाश पर ध्यान रहे।
द्वितीय चरण- अब मन से ऊपर पीपल के पत्ते को देखें। हरा पत्ता डाली के साथ हिल रहा है। हवा के झोंकों से लड़ रहा है। संघर्ष कर रहा है। आप पूर्व दिशा में मुँह कर बैठे हैं। सूर्य की लालिमा से आपका चेहरा रक्ताभ हो रहा है। तुम लोग सूखे पत्ते पर ध्यान दो। एक पत्ता सूखा है। वह भी डाली से लगा है। वह हिल-डुल नहीं रहा है खड़ा है। सम्भवतः वह संघर्ष करने की क्षमता ही खो चुका है। हवा का झोंका आ रहा है। उस सूखे पत्ते से टकरा गया। सूखा पत्ता बिना किसी झंझट के बिना किसी टकराहट के पेड़ का साथ छोड़ दिया। हवा के साथ हो लिया। हवा जिधर भी जाती, वह पत्ता उस दिशा में उड़ता। उसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है। वह हवा के साथ-साथ चलने को राजी है। हवा कभी उसे उड़ाकर पर्वत पर ले जाती है। कभी सतह जमीन पर तो कभी नदी में ला डालती।
तृतीय चरण- आप लोगों का भी अस्तित्व इस सूखे पत्ते की तरह है। आप भावना करो संसार में आपका भी कोई नहीं है। परिवार उस पेड़ की तरह है। आप उसके सूखे पत्ते हैं। हवा के झोंके से आप उड़ रहे हैं। जरा गहराई से देखेंगे आप तो साक्षी हो। शरीर उड़ रहा है। आप देख रहे हो। साक्षी की तरह। शरीर ही पत्ता है। शरीर रूपी सूखा पत्ता पर्वतों से उड़ता हुआ नदी के जल में गिर गया। गंगा कल-कल करते हुए बह रही है। उसके निर्मल जल में आप बह रहे हो। अब बहते हुए शरीर को साक्षी भाव से देखो। शरीर की स्थिति देखो। कभी पानी का वेग नीचे डुबोता है परन्तु पत्ता रूपी शरीर सूखा है अतएव डूबता नहीं ऊपर आ जाता है। जल के वेग से ही वह गतिमान होता है। बहते शरीर को सूखे पत्ते की तरह गौर से देखो। हरा पत्ता डूब सकता है। यदि हरा पत्ता डाली के साथ है। तब वह और पानी से संघर्ष करेगा। गंगा का वेग उस डाली को पत्ते के साथ डुबो देगा या तुरन्त लड़ाने का उपक्रम शुरू कर देगा परन्तु सूखा पत्ता निर्विघ्न बहता चला जा रहा है। वह मध्यधार में है। गंगा के कलरव के साथ कलरव कर रहा है। उसकी उत्ताल तरंगों के साथ उत्ताल पर है। देखो वह बहते हुए ऋषिकेश पहुँच रहा है। वह किसी को नहीं देखता। उसे सभी देख रहे हैं। अब वह आगे चल निकला। हरिद्वार की तरफ जा रहा है। हर की पौड़ी के समीप से बह रहा है। वहाँ उसका वेग तेज हो गया है। गंगा के शीतल जल में शरीर शीतल हो गया है। आप साक्षी बन कर देखो शरीर को गौर से देख लो। शरीर रूपी पत्ता हरिद्वार से भी आगे जा रहा है। पानी को उछाल हवा का झोंका पत्ते को किनारे फेंक देता है। अब पत्ता नदी के तट पर पड़ा है। वह शान्त है। परमात्मा को धन्यवाद दे रहा है। वह कह रहा है। मेरी प्रसन्नता आपके ही हाथों में है। आप जहाँ रखो, जैसे रखो मैं उसी में प्रसन्न हूँ। अब मेरा कोई विचार नहीं। आचार संहिता नहीं।
चतुर्थ चरण - आप अभी तक साक्षी बन कर शरीर को देख रहे थे। अब आप धीरे-धीरे शरीर में प्रवेश करें देखें शरीर अत्यन्त शीतल है। शान्त है। आप ध्यान में बैठे रहें। परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद प्रकाशस्वरूप है। आप पर बरस रहा है। गुरु सामने बैठे हैं। गंगा का किनारा नारायण स्वरूप पीपल वृक्ष सभी का आशीर्वाद आप पर बरस रहा है। आप आशीर्वाद रूपी वर्षा से भीग रहे हो। ये आशीर्वाद प्रकाश स्वरूप शरीर के अन्दर प्रवेश कर रहा है। शरीर का कष्ट बाहर निकल रहा है। काम, क्रोध, लोभ आदि विकृतियाँ बाहर आ रही हैं। आप शान्त हो आनन्दित हो । शरीर प्रकाश से भरा है। आपका एक-एक अंग शीतल है। प्रसन्न है। आपकी प्रसन्नता आपके चेहरे से परिलक्षित हो रही है। चेहरा मुस्कुरा रहा है। आप प्रसन्नचित्त हैं। धीरे-धीरे आँख खोलना परमात्मा को, गुरु को प्रणाम करते हुए। आँख खोलकर शान्तचित्त बैठ जाओ। कुछ क्षण विश्राम करो। अब में एक-एक व्यक्ति से अनुभव पूछूंगा। आप कैसा महसूस किये। साधना के साथ अनुभव भी ग्रहण करें।
????अनुभव????
आप सभी शान्त चित्त बैठ जायें। मैं सबसे पहले धरमू भाई से पूछना चाहता हूँ-आप को कैसा मालूम हुआ।
धरमू भाई "गुरु देव प्रथम मैं आपको शत्-शत् प्रणाम करता हूँ। मुझे ऐसा ज्ञात हुआ कि हमारा शरीर प्राण रहित नदी में वह रहा है। मैं प्रसन्न मुद्रा में पानी के ऊपर-ऊपर से जा रहा था। आपको मैंने विभिन्न रूपों में देखा। आपके दर्शन हेतु सप्तर्षि आए हुए थे। आकाश मार्ग से पुष्प वर्षा कर रहे थे। साथ ही यहां ऋषिकेश में हजारों महात्मा सूक्ष्म शरीर में आपके दर्शन हेतु आए थे। मैंने उनसे पूछा आप लोग क्या कर रहे हैं? वे बोले हम लोग पश्चाताप कर रहे हैं। तुम धन्य भागी हो। जो समय के सद्गुरु के अवतरण काल में जन्म ग्रहण कर उनका शिष्य बन गये हो। हम लोग चूक गये। ये महान तंत्र वेत्ता हैं। इनकी हिमालय यात्रा में हम लोग साथ-साथ चलेंगे।
मेरा मन शरीर में आने को नहीं हो रहा था। परन्तु उस दिव्य आत्मा के कहने पर मैं शरीर में वापस आ गया। मेरा शरीर हल्का है। प्रसन्न हूँ। आनन्द में हूँ। मुझे ऐसा ही रखें। गुरु देव यही मेरी प्रार्थना है।" ऐसा कह कर आँखों में आँसू भर कर साष्टांग मुद्रा में लेट गया।
पंडित संज्ञान- आप अपना अनुभव बोलो। वहीं खड़े हो जाओ। गुरुदेव मेरा तो दूसरा जन्म ही हुआ है। मैं कर्मकाण्डी ब्राह्मण हूँ। आपने बिना मंत्र- पूजा-पाठ के हमें वरदान दिया। ऐसा तो हमने सोचा ही नहीं था। मैं जैसे-जैसे पत्ते की तरह उड़ता था, पानी में बह रहा था। ऐसा ज्ञात हो रहा था कि मेरा जातिगत अहंकार, लोभ, क्रोच वह रहा है। मैं गंगा के जल की तरह निर्मल हूं। उस शरीर में आपको कभी ब्रह्मा, कभी विष्णु, कभी शिव के रूप में देखा। आप ज्योतिर्मय थे। बहुत सारे देव-देवी को आपको नमन करते देखा। अन्त में मैंने देखा कि माँ गंगा नदी ही नहीं बल्कि साक्षात् नारायणी भी है। आप सरदार जशपाल - जी गुरु देव! मेरा मन अति चंचल है। परन्तु आप
ने जैसे ही कहा कि सूखे पत्ते के तरह बिना संघर्ष के हवा के साथ उड़ो। पहले मैंने इसे कल्पना समझ कर नहीं किया। जैसे ही आपने कहा कि इस तीर्थ यात्रा में अपना तन-मन हमें सौंप दो। जो मैं कह रहा हूँ। वही करो। वापस लौटने पर अपने मन को ले लेना। यह बात मुझे लग गई। फिर मैं सूखे पत्ते की तरह उड़ने लगा। उस उड़ने में शरीर का भान भूल गया। आकाश में पक्षियों के साथ उड़ता रहा। सुदूर आकाश में सूक्ष्म शरीर धारी ऋषि मुनि भी मिले। सभी आनन्द में थे। आपके तरफ देख रहे थे। बातें कर रहे थे। जब आप ने कहा कि ऊपर से गिरेंगे। नदी में पानी के साथ बहेंगे। हम एकाएक नदी में गिर गये। गंगा जल की शीतलता अनुभव हुई। शरीर से अलग होकर शरीर को देखा। शरीर एवं जगत का वास्तविक रहस्य ज्ञात हुआ। आज से मेरा अहंकार गंगा में बह गया। अपनी वासना, क्रोध, या शरीर के अन्य बुराइयों को बहते हुए स्पष्ट मैंने देखा ।
आपकी कृपा बनी रहे यही मेरी कामना है। एक और आश्चर्य देखा कि जब मैं नदी में बह रहा था। तो किनारे एक शव जलाया जा रहा था। भीड़ लगी थी। उस शव के पास उसका वास्तविक मालिक सूक्ष्म शरीर में खड़ा था। वह असहाय था। मैंने उसके पास जाकर पूछा क्यों भाई आपकी मदद मैं कर सकता हूँ। वह रोते हुए कहा-नहीं भाई नहीं। कोई किसी का नहीं है। मैं कॉलेज में पढ़ रहा था। उस लड़की से मेरा परिचय प्रेम में बदल गया। उसने कसमें खाईं माँ-पिता जी के इच्छा के खिलाफ इससे शादी किया। मात्र तीन वर्षों में वह दूसरे से प्रेम करने लगी। देखिये सामने रोने का नाटक कर रही है। जो युवक उसे सम्भाल रहा है। वह उसका नया प्रेमी है। पहले मुझे उस पर शक संदेह नहीं था। शरीर से अलग होते ही सभी सत्य सामने आ जाता है। सामने बेहोश पड़ी है, मेरी माँ है। काँपते पैर, काँपते हाथ से मुखाग्नि देने वाले मेरे पिता श्री हैं। हाँ मेरे माँ के मुँह पर पानी का छींटा देने वाला मेरा छोटा भाई है। वह हमारा अत्यन्त प्यारा है। वह भी बार-बार बेहोश होकर गिर जाता है। भाई मैं विश्वास एवं झूठे प्यार के चक्कर में मारा गया।
आपकी आवाज सुन कर इस शरीर में लौट आया। गुरु देव आप हम पर कृपा करें। अपने शरण में रखें। साथ के एक-दो आदमी ने उस स्थान पर जाकर सत्यता की जाँच की। घटना सत्य निकली।
मैंने कहा आप सभी मुस्कुराते हुए परम पिता परमात्मा को धन्यवाद दें। जो आपको यह अवसर उपलब्ध कराये। अब हम लोग आगे के यात्रा पर निकलेंगे। आप सभी को मेरा धन्यवाद।
क्रमशः....