साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
शरीर को जलते हुए श्मशान में देखना.
इसके पूर्व हिमालय यात्रा पर 1990 में इसी समय मैं आया था। अकेला था। एक भौती व कमीज पहना था। एक गमछा सर पर बाँधे तथा दूसरी धोती शरीर पर ओढ़े गंगा तट से पैदल यात्रा कर रहा था। रात्रि में किसी स्थान या आश्रम में रुक जाता। सुबह स्नान ध्यान कर आगे चल देता। किनारे-किनारे चल रहा था। गीता आश्रम से पश्चिम एक ऊँचा कटाव है जिसमें दो-तीन गुफायें बनी हुई हैं। मिट्टी काटकर बनाये हैं। कुछ महात्मा आकर रहते हैं। मैं वहाँ आया ही था कि देखा एक युवक लगभग 35 वर्ष का ध्यान में बैठा था। शरीर पर एक लाल एकरंगा ओढ़ लिया दूसरा पहन रखा था। जमीन पर पालथी मार कर बैठा था। उसके पास पात्र के नाम पर एक स्टील का छोटा-सा कमण्डल था। मैं भी बैठ गया। कुछ क्षण के बाद वह युवक संन्यासी आकर दण्डवत किया एवं बोला महाराज जी अन्दर आयें। छोटी-सी गुफा में किसी तरह हम दोनों बैठ गये। उसने परिचय पूछा तो मैंने कह दिया बस समझो घूमता हुआ एक पथिक। उसके साथ बातें होने लगीं। एक-दो घण्टे के बाद पता चला कि वह एक प्रशासनिक अधिकारी था। बम्बई का रहने वाला। माँ-बाप की इकलौती सन्तान था। पत्नी भी प्राध्यापक है। इसका एक पुत्र भी है। घर पर जगह जमीन भी ज्यादा है। उसने संन्यास के चक्कर में घर-द्वार छोड़ दिया। वृद्ध ब्राह्मण माँ-बाप, नवजात शिशु, युवा पत्नी को छोड़कर इधर-उधर भटक रहा है। बहुत मन्त्र जपा पूजा किया। पाठ किया। जल (गंगा) में खड़ा रहकर प्राणायाम किया। परन्तु मन शान्त नहीं हुआ। शरीर को सताया भी परन्तु शरीर का अहं नहीं गया। तभी तो उपरोक्त सारी बातें उसके मुँह से अनायास निकलने लगीं। उसने हमसे आग्रह किया स्वामी जी हमें कुछ बतायें। आज ही रात्रि में स्वप्न देखा था, सुबह-सुबह एक महात्मा अतिसाधारण रूप में आयेंगे। वह तुम्हें सब कुछ बता देंगे। उन्हें ही तुम अन्तिम गुरु मान कर आगे साधना करना। आपका रूप-रंग सब कुछ स्वप्न वाले महात्मा जी से मिलता है। मैं तो सुबह से स्नान के पश्चात् आपका इन्तजार ही कर रहा था। इतना कह वह संन्यासी पैर पकड़ लिया, रोने लगा। मैंने कहा कि अधीर मत हो। मैं कल सुबह पाँच बजे आ जाऊँगा एवं तुझे शरीर के मोह से दूर होने की साधना बताऊँगा, इसके बाद आत्मदर्शन ।
विधि- प्रथम चरण- मैं वहाँ से चलकर लक्ष्मण झूला रुक गया। सुबह स्नान कर पूजा पाठ से निवृत्त हो ठीक पाँच बजे पहुँच गया। वह युवक संन्यासी आतुर दृष्टि से रास्ता देख रहा था। पहुँचते ही पूर्ण श्रद्धा समर्पण से पैर पकड़ लिया। मैंने कहा देर न करो। समय निकलने वाला है। गंगा के किनारे बालू पर बैठा दिया। मैं सामने ही बैठ गया। पहले कुछ शरीर शोधन, गुरु-शिष्य, परम्परा का व्यवहार हुआ। तत्पश्चात् मैंने कहा कि आप आँख बन्द कर लें। भृकुटी पर ध्यान दें। जो कहूं उसी के अनुरूप भावना करें। इसमें किसी मन्त्र की जरूरत नहीं है। चूँकि मन शान्त होने पर मन्त्र भी गिर जाते हैं। आप शान्त बैठ जायें। ध्यान करें परम प्रकाश है। सूर्य प्रकाश ऊर्जा के रूप में शरीर में प्रवेश कर रहा है। गुरु सामने है. अतएव गुरु कृपा भी गंगा के पवित्र जल के सदृश आपके अन्तःपुर तक बह रही है आप पवित्र हो रहे हैं। आपका शरीर पवित्र हो रहा है। साथ ही भावना करें, शरीर से बाहर हैं। शरीर को बाहर से देख रहे हैं। आप
द्वितीय चरण- आप शरीर से बाहर होकर ध्यान से निरीक्षण कर लें। एक बार आप को अत्यन्त विचित्र परन्तु सत्य शरीर के स्थिति के सम्बन्ध में भान होगा। अब शरीर मृतवत् पृथ्वी पर गिर गया है। असहाय है। कुत्ता मृत शरीर को नोंच रहा है। जिस शरीर पर इतना साबुन तेल लगाया। इसकी सुन्दरता बरकरार रखने के लिए आप क्या-क्या नहीं किये। आज उसकी यह स्थिति। वह लावारिस लाश की तरह पड़ा है। क्या इसकी इतिश्री यही थी ? फिर देखें कुछ समाज सेवी सदस्य आये। आपके शरीर को लावारिस देख, उसके कफन के लिए, फूँकने के लिए लकड़ी हेतु चन्दा माँगते हैं। कोई एक पैसा देता, कोई दो पैसा। कोई वह भी नहीं देता। संयोग से आपकी पत्नी, माँ, पिताजी भी आ जाते हैं। गंगास्नान करते हैं। आपको खोजते भी हैं। चन्दा माँगने वाला आपकी लाश दिखाकर पैसा माँगता है। आपकी माँ कहती है बहू वह लाश तो देखो। नंगा पड़ा है। सड़ रहा है। क्या तू पहचानती है। यह लाश हमारे लड़के जैसी लगती है। पत्नी पहचान लेती है। परन्तु सोचती है कौन झंझट मोल ले। अब मर ही गया तो बात खत्म। बताने पर अभी ही वैधव्य का काम करना पड़ेगा। कौन अपना चेहरा इनके चलते बिगाड़े। मर गये मर गये। अब जान गयी। मर गये। अब इनकी चिन्ता तो नहीं रहेगी। अब मामला साफ ही है। अपनी पूरी सम्पत्ति की मालिक तो मैं ही बनूँगी। अतएव कुछ क्षण बाद बोलती है। माँ जी आपका भी दिमाग खराब है क्या? यह किसी और की लाश होगी। आप आगे चलो। एक पैसा नहीं देती। आगे मन्दिर में चली जाती है। इधर लाश रखकर चन्दा माँगा जा रहा है। चन्दे के पैसों से लाश को कफन दिया जा रहा है। कुछ लोग इसे श्मशानघाट पर ले जा रहे हैं। श्मशान जाते समय राम नाम सत्य है कहा जाता है। क्या अभी तक राम नाम असत्य था ? श्मशान भूमि पर लकड़ी रखी जाती हैं। उस पर शरीर रूपी लाश रख दी गयी। आग लगा दी गयी।
तृतीय चरण अपने ही शरीर को गौर से देखें। चिल्लायें मत दुःख सुख से निवृत्त हो शरीर को ठीक से देख लो। सुन्दर शरीर जल रहा है जिस शरीर के लिए जीवनभर चोरी किया बेईमानी की, जिस शरीर को कभी फूलों से, इत्र से,
सोने-चाँदी से सजाया गया था। वह शरीर आज महत्वहीन हो गया। जल रहा है। माँस घी की तरह जल रहा है हड्डी लकड़ी की तरह। केश एवं बाल घास की तरह। साक्षी बन एक बार ध्यान से जलते शरीर को देख लो मोह दूर हो जायेगा। धीरे-धीरे सारा शरीर जलता जा रहा है। अब शरीर राख बन गया। राख धूल की तरह हवा में उड़ रही है। जिधर हवा बहती उधर ही राख उड़ रही है। राख को गंगा के पानी में बहा दिया जाता है। कुछ अधजला शरीर पानी में पहुँच जाता। जिसे जल के जीव मछली, घड़ियाल, केकड़ा खा रहे हैं। यही है इस शरीर का चक्र आप शरीर चक्र को देख लें।
चतुर्थ चरण- तत्पश्चात् आप गुरु के समीप आकर ध्यान के लिए आग्रह करें। इस संसार चक्र से निवृत्त होने का अनुनय-विनय करें। गुरु के आदेश की प्रतीक्षा करें। गुरु आदेश देता है। आप शरीर में प्रवेश करें। मानो आगंतुक किसी धर्मशाला में प्रवेश करता है। आप त्रिकुटी पर प्रकाश स्वरूप स्थित हो रहे हैं। धीरे-धीरे यह प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है पूरे शरीर से कुवृत्तियाँ, रोग, कष्ट बाहर निकल रहा है। शरीर स्वस्थ हो रहा है। अब मानो आप तपस्वी के शरीर में प्रवेश किये हैं। मानों परकाया में प्रवेश हुआ है। रक्त संचार होने लगा। आपका ध्यान टिक गया है। आप विचित्र आभा से भर गये हैं। पूरा शरीर मुस्कुरा रहा है। हँस रहा है। आप आनन्दित हैं। धीरे-धीरे आँख खोलें। पूर्ण प्रकाश से भर कर । अब आप शक्ति से पूर्ण हैं। गुरु सत्ता से जुड़ गये हैं। अतएव हँसते हुए गुरु को, परमात्मा को प्रणाम करें। अब आप वह नहीं हैं जो क्षण भर पहले थे। वह चिता में जल गया। राख बन उड़ गया। गंगा में बह गया। अब आप शुद्ध चित्त आनन्द हो परमात्मा स्वरूप हो।
जब वह युवक साधक संन्यासी आँख खोला तो उसके आँख में एक दिव्य प्रकाश था। रोशनी थी। अत्यन्त भावविह्वल हो पैर पकड़ लिया। अपना सिर मेरे पैरों पर रख दिया। मैंने अनजाने में अपना हाथ उसके सिर पर रख दिया। मेरे मुँह से निकला अब तुम "गुरु शरणानन्द" हो। तुम्हारा नाम यही रहेगा। बस क्या पूछना था वह उठ खड़ा हुआ। नाचने लगा। घण्टों नाचता रहा। वह अपनी सुध-बुध भूल गया। शरीर का सारा वस्त्र खुल कर जमीन पर गिर गया। उसे पता नहीं। एक घण्टा बाद वह थककर गिर गया। चेहरा फूल की तरह खिला हुआ। जब वह उठा तो पूछा गुरुदेव मैं पाँच वर्षों से भटक रहा था। कहाँ-कहाँ नहीं दीक्षा लिया। अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ। मैंने उसे अपने साथ कई दिन रखा। वह हमारे साथ गंगोत्री, गोमुख, तपोवन, नन्दन वन गया। तपोवन में भी एक साधना कराया। इसके बाद लौटने पर उसे दक्षिण भारत भेज दिया। वहाँ जाओ स्वयं का प्रकाश उधर बाँटो । तू स्वयं अब गुरु हो गया है। गुरुत्व तुझमें आ गया है। मैं काशी लौट गया। इस तरह तपोवन, नन्दनवन, यमुनोत्री में कई तरह की साधना अन्य साधक संन्यासी को भी बताय। जो वर्षों से बर्फ में रह रहे हैं। शरीर को ठण्डक से गला रहे हैं। परन्तु मन को शीतलता तक नहीं दे पाये थे। हाँ यह जरूर है कि जो साधक साधना के लिए भटका है। विभिन्न जगह योग, जाप किया है। उसमें पात्रता की ज्यादा सम्भावना होती है। वे वैसे ही हो जाते हैं। जैसे दूध को गर्म किया गया हो। दूध लाल हो गया हो। अब इन्तजार कर रहा है- "जोरन का"। यानी कुछ दही का जो उस में डाला जाये। डालते ही वह दही बनने लगता है। यह क्रिया तत्काल बिना किसी व्यवधान के कुछ ही क्षणों में पूर्ण हो जाती है। अतएव साधक किसी भी रास्ते से अपने को पात्र बना सकता है। पात्र बन जाने पर क्रिया प्रतिक्रिया तत्क्षण शुरू हो जाती है। गुरु भी वैसे ही शिष्य की खोज में सतत् प्रयत्नशील रहता है।
रूद्र प्रयाग
साधकगण के साथ दिनांक 2 जून, 1995 को रूद्र प्रयाग, सन्ध्या 5 बजे पहुँच गया। वहाँ बिरला धर्मशाला में रुका। सभी को स्नान के पश्चात् ध्यान कराया गया एवं रात्रि विश्राम किया। प्रातः तीन बजे ही सब जाग गये। सभी स्नान किये। पाठ, जप, ध्यान कराया। सभी साधक के अनुनय पर सक्रिय साधना कराया। पैंतालीस मिनट की सक्रिय साधना हुई। जिसमें कुछ नाचने लगे। कुछ गाने लगे। कुछ शरीर की सुधि भूलकर जमीन पर पड़ गये। जो सम्भवतः टेप भी किया गया था। खिड़की के चारों तरफ भीड़ इकट्ठी हो गयी। लोग देखने लगे। आखिर यह कौन सी पूजा ? सभी मिलकर भोजन बनाये, प्रसाद पाकर यात्रा प्रारम्भ हुई। हम लोग गोविन्दघाट पहुँच गये। दिनांक 3 जून को सन्ध्या 3 बजे वहाँ धर्मशाला में रुके। चूँकि जसबीर सिंह सैनी के साथ उनके भाई एवं पिताजी भी थे हेमकुण्ड साहिब जाने हेतु आये थे मैंई प्रेमशंकर राय, डॉ० उपाध्याय, गजानन्द जी, धर्म सिंह, संजय पाण्डेय, जसबीर सिंह, दर्शन सिंह जी को लेकर चल पड़ा। इनमें से कुछ पूछ रहे थे, स्वामी जी कहाँ चल रहे हैं। मैं बिना किसी प्रति उत्तर के चल पड़ा।. मेरी स्मृति खींचे ले चल रही थी। चलो आप जहाँ तप किये हो। वह जगह अभी भी सुरक्षित है। प्रकृति सजकर रखी है। प्रकृति तपस्वी की जगह श्रृंगार से युक्त रखती है। परन्तु तथाकथित धर्म के ठेकेदार उसको बदसूरत बना देते हैं। मैं एक-दो फलांग आगे गया ही था कि देखा विद्युत विभाग के कर्मचारीगण का क्वार्टर है। वहाँ से आगे बढ़ा एक छोटा-सा हनुमान जी का मन्दिर था। आगे एक छोटी नदी पर तार का झूला लगा था। जिस पर चढ़ कर नदी पार किया जा सके। वहाँ अलकनन्दा एवं हेमकुण्ड से निकली नदी हेमा का संगम था। नदी की कल-कल ध्वनि थी। वहाँ जाते ही पैर बायें तरफ मुड़ा। कुछ ही दूरी पर देखा कि एक विशाल चट्टान थी। जिसके चारों तरफ सफेद गुलाब के फूल का जंगल था। उसके दोनों तरफ से जल बह रहा था। सामने हिम गंगा नदी ही थी। नदी के पार विशाल पर्वत जंगल। उसी चट्टान पर जाकर बैठा एवं ध्यानस्थ हो गया। सब ज्ञात हो गया। मैंने पूर्व जन्म में यहाँ इसी चट्टान पर तप किया था। सभी को बैठने के लिए इशारा किया। एक साधना अपने आप अवतरित हो गयी। मैंने तुरन्त साधकगण में उसे उतार दिया।
क्रमशः...