साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
सहस्रदल का ध्यान
जब मैं गुरु शरणानन्द के साथ सन् 90 में गोमुख में ठहरा था। एक दिन प्रातः ही एक वृद्ध महात्मा आये। उनकी आयु लगभग 80 वर्ष की होगी। वे लाल बाबा के आश्रम से अपने लिए राशन वगैरह एक सप्ताह के लिए ले रहे थे। तब तक उनकी नजर हम पर पड़ी। नजदीक आकर बोले- स्वामी जी! आप कहाँ से आये । मैंने कहा-कहाँ आना ? कहाँ जाना ? न कहीं जाना न ही कहीं से आना। हर समय स्वरूप में रहना ही उचित है। इतना कहना था कि वह साष्टांग दण्डवत् कर दिए। बोले महाराज मैं 30 वर्ष से इस गंगा के उस पार रहता हूँ। वहाँ कोई पशु-पक्षी तक नहीं जाता। आप देखें एक गुफा बना ली है। लाल बाबा साल भर का राशन दे देते हैं। जब जाड़े में कोई नहीं रहता। सर्वत्र बर्फ ही रहती है। तब भी मैं उसी में रहता हूँ। पूरे 6-8 माह की लकड़ी, राशन, दवा, वगैरह रख लेता हूँ। 30 वर्ष से नीचे उतरा ही नहीं सोचता हूँ अब स्वर्ग से क्या जाना है। मृत्यु लोक में बचपन में ही साधु हो गया था। मेरे माँ-बाप मर गये। आर्थिक स्थिति दयनीय थी। अतएवं साधु होने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। बहुत महात्माओं से साधना लिया, दीक्षा लिया। कुछ नहीं मिला। हारकर हिमालय के बर्फ में 30 वर्षों से आकर रह रहा हूँ। आप हमारे आश्रम पर चलते तो आपकी बहुत कृपा होती गुरु शरणानन्द ने कहा गुरु देव चलें। जरा हम भी देख लेंगे तपस्थल लाल बाबा के आश्रम से लगभग एक किलोमीटर नीचे से उसके आश्रम में जाने के लिए रज्जू मार्ग है। बहुत ही बीहड़ रास्ता। मैंने कहा कि इस बीहड़ रज्जू मार्ग से कौन आपके पास जायेगा। यदि हाथ से रस्सी छूट गयी तो आदमी सीधे स्वर्ग पहुँच जाएगा। नीचे गंगा का बर्फीला तीव्र प्रवाह। खैर किसी तरह उनकी गुफा में पहुँचा। गुफा बहुत ही स्वच्छ सुन्दर बनाये थे। चार-पाँच व्यक्ति आराम से सो सकते थे। किनारे चूल्हा बनाये थे। हर समय आग जलती थी। धुआँ निकलने के लिए चिमनी बनाये थे। चाय पत्ती से लेकर पाउडर दूध, चीनी, चावल, आटा, आलू सभी सामान मौजूद था। ठण्ड लग रही थी। अतएव आठ दस कम्बल, रजाई भी था। जाते ही चट चाय बनाये। हमें आदर के साथ दिए। तत्पश्चात् बोले स्वामी जी हमें अरिष्टानन्द कहते हैं। लेकिन यहाँ के लोग बाबा नाम से ही जानते हैं। मैं लगातार 30 वर्षों से यहाँ रह रहा हूँ। पृथ्वी पर मैं काम, लोभ से आसक्त था। यहाँ इस उम्र में आप से झूठ नहीं बोलूँगा। मैंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। एकाध बार आश्रम में गलत काम कर दिया। गुरु जी हमें बहुत मारे। मैंने लज्जा से आश्रम छोड़ दिया। संकल्प किया था कि सिद्ध बाबा होकर ही लौटूंगा। परन्तु मन शान्त नहीं हुआ। शरीर शान्त हो गया। परन्तु हिमालय की बर्फीली हवा मन को शान्त नहीं कर सकी। मैं ॐ नमः शिवाय का जाप लगातार कर रहा हूँ। प्राणायाम भी किया। आसन भी किया। नेती धोती भी किया। कर्मकाण्ड भी किया। दो साल खड़ेश्वरी रहा। दस वर्ष मौन रहा। धरती पर (नीचे) हमारी बहुत पूजा भी हुई परन्तु मन से अशान्ति नहीं गयी। काम एवं लोभ ज्यों के त्यों बने हुए हैं। हर समय सोचता हूँ क्या अभी शादी हो जायेगी। घर गृहस्थी हो जायेगी। क्या कोई लड़की हमें पसन्द कर लेगी। कहने को मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ। परन्तु क्या करें? आप सभी कुछ जानते हैं। आप उद्धार कर दें। इस बुढ़ापे में मन को शान्त करा दें। यह कह कर पैर पकड़ लिए। रोने लगे।
मैंने उसे उठाकर बैठाया और कहा है महात्मन्! अभी साक्षात् शिव के ही समीप हो। शिव की आराधना करते-करते वृद्धावस्था आ गयी। आप में कोई दोष नहीं है। आप तो निष्पाप हैं कहीं आप की साधना में खोट रह गया था कहीं आपके गुरु में आपको ठीक-ठाक तंत्र नहीं बताया गया। यदि बीज ठीक नहीं है, पुष्ट नहीं है, नवीन नहीं है। सालों से रखा रखा घुन खा गया हो तो ऐसा बीज अनुकूल परिस्थिति पाकर अंकुरित तो नहीं होगा। सड़ अवश्य जायेगा। अतएव बीज नवीन पुष्ट, पका हुआ हो। साथ ही उचित समय एवं उचित पात्र को दिया गया हो तो अवश्य अंकुरित होगा। पेड़ बनेगा ही। नवीन तथा पुष्ट बीज का अर्थ है सिद्ध साधक के द्वारा परिष्कृत तंत्र। सद्गुरु के द्वारा स्वयं का अनुभव किया हुआ तंत्र ही लाभकारी होगा। अन्यथा सारी दवाओं का वर्णन पुस्तकों में किया गया है। क्या दवा की पुस्तक का पाठ करने भर से रोग ठीक हो जायेगा। सारा कानून पुस्तक मैं लिखा है। क्या कानूनी पुस्तकों को अगरबत्ती धूप दिखाने मात्र से आपको न्याय मिल जायेगा? आपको उचित चिकित्सक के पास जाना ही होगा। उसके परामर्श को मानना ही होगा।
विधि- अब आप विलम्ब न करें। बहुत हो गया। आप पद्मासन पर बैठ जायें। पहले ठीक से श्रवण करें। या अक्षरशः अपने में उतारने का कष्ट करें। शिव देवी से कहते हैं-
"अत ऊर्ध्वं दिव्यरूपं सहस्रारं सरोरुहम् । ब्रह्माण्डरूपयस्य देहस्य बाह्ये तिष्ठति मुक्तिदमूकृ ॥
कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति । अकुलाख्योऽविनाशी च क्षयवृद्धि विवर्जितः ॥ "
अर्थात् तालू के ऊपरी भाग में दिव्य सहस्रदल कमल है। यह कमल मुक्तिदाता ब्रह्माण्ड रूपी शरीर के बाहर स्थित है अर्थात् शरीर के ऊपर है। इसी को कैलाश कहते हैं। इसी स्थान में महेश्वर स्थित हैं। यह ईश्वर निराकुल अविनाशी और क्षयवृद्धि रहित है।
आप बाह्य आँख बन्द कर लो। मन्त्र छोड़ दो। बहुत हो चुका जाप। अब जाप को जाने दो। आप ध्यान तालू के ऊपर ले जाओ। तालू में ही अमर लिंग है। जिस पर सहस्र दल कमल से ही अमृत टपकते रहता है। सबसे पहले उस अमृत का पान करो। आप खेचरी में अवस्थित हो जाओ। (उन्हें खेचरी विद्या बताया एवं कराया।) अमृत रस का पान करते रहो। ध्यान को इसी ब्रह्म छिद्र जिससे अमृत रस आता है। से ऊपर ले चलो। सावधान महात्मन आप काँपो मत। भयभीत मत हो। उसका शरीर काँप उठता है। भयातुर हो आँख खोल देता है। अमृत रस पान करते रहो। ध्यान को ऊपर ले चलो मन से न कुछ पकड़े, न छोड़े। (जब वह ब्रह्माण्ड से ध्यान ऊपर करता, भयभीत हो जाता। कभी चिल्ला भी उठता, कभी गिर जाता। इस तरह चालीस मिनट लग गया। वह ध्यान ऊपर ले ही नहीं जा रहा था। अन्त में असहाय होकर आतुर दृष्टि से मेरी तरफ देखने लगता) आप इस बार पुनः अपने ध्यान को तालू में ले जायें। अमरनाथ का दर्शन करें। अब जहाँ से अमृत रस आ रहा है, उसी को माध्यम मान उसी दिशा में यात्रा प्रारम्भ करें। जैसे मछली धार की दिशा में ही यात्रा करती है। अतएव आप मीन मार्ग का ही अनुसरण करें। इसके बाद मैंने अपना हाथ उसके सहस्त्रदल कमल पर रख दिया। बस इतना करना था कि उसका ध्यान एकाएक ब्रह्माण्ड से ऊपर उठ गया। सहस्त्रदल कमल में स्थिर हो गया। चन्द मिनट में ध्यानस्थ हो गया। मैंने कहा यहीं रुकना है। यहीं कैलाश है । यहीं महेश्वर यानी परमपिता परमात्मा है। उसका कोई कुल नहीं है। वहीं अविनाशी है। उसका न क्षय होता न हो वृद्धि होती है। यह नवनीत है। सत्य है। परम सत्य । यहाँ भय का गमन नहीं। गुरु कृपा श्रेयस्कर है। इसी से शिव कहते हैं-
"एतद्भवानस्य महात्यै मया वक्तुं न शक्यते। यः साधयति जानाति सोडस्माकमपि सम्मतः ॥
अर्थात् इस ध्यान के महात्म्य को हम नहीं कह सकते यानी बहुत विशेष है। जो योगी इसका अभ्यास करते हैं। सो जानते हैं। वह हमारे ही बराबर हैं। इससे आगे शिव कह ही क्या सकते हैं। जो इस ध्यान को करता है वही इसका महत्व भी समझता है।
एक घण्टा बाद पुनः अपना हाथ उसके सहस्रार पर रखा-कहा अब ध्यान धीरे-धीरे उसी रास्ते नीचे उतारें। इतना कहना था कि वह पैर पकड़ कर पुनः बिलख-बिलख कर रोने लगा। वह कहने लगा स्वामी जी इसी स्थिति में हमें क्यों नहीं छोड़ दिया। एक आनन्द में ले जाकर पुनः क्यों खींच लाये। क्या मैं अभी उसका “पात्र" नहीं बना हूँ। हमें पुनः वहीं ले जाकर छोड़ दें। उन्हें समझाया यह हमारा प्रयास था। अब आप इसी का अभ्यास करें और कुछ न करें। आप बहुत स्नान कर लिए। आप तुरन्त समाधिस्थ हो जायेंगे। आप अभ्यास करें। अब आपका अभ्यास शीघ्रगामी होगा, आपका अपना होगा। आप चाहें तो स्नान करें या न करें। कोई अन्तर नहीं पड़ता। आप हर समय खेचरी में अवश्य रहें। कुछ काल के बाद आपको भोजन की कोई खास जरूरत नहीं पड़ेगी। रात्रि विश्राम वहीं किया। सवेरे वहाँ से लौट गया। इस तरह हिमालय में बहुत से महात्माओं से मुलाकात हुई। जो हिमालय का नाम सुनकर दौड़ लगाये हैं। योगी को गुरु के निर्देशन पर लगातार अभ्यास करना है। अभ्यास में लगन हो, श्रद्धा हो तो तुरन्त ही समाधि को उपलब् हो जाते हैं। शिव कहते हैं-
"चित्त वृत्तियंदा लीना कुलाख्ये परमेश्वरे । तदा समाधिसाभ्येन योगी निश्चछलतां व्रजेत । "
अर्थात् जब साधक कुलों के कुल ईश्वर में चित्त को लीन कर देगा। तब योगी की समाधि निश्चल सम हो जायेगी। जब गुरु सिद्ध होता है तब वह शक्तिपात करता है। साधक शक्तिपात रूपी ऊर्जा से शीघ्र ही ऊर्जान्वित होकर उस परम रहस्य को प्राप्त कर आनन्द से भर जाता है।
क्रमशः...