साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????शिव कीर्तन????
कीर्तन शब्द से सभी लोग परिचित हैं। ऐसा कुछ किया जाये जिससे शरीर स्वतः नाच उठे। प्रभु प्रेम में, श्रद्धा से एवं उत्साह से, समर्पित भाव से शरीर नाच उठता है। मुँह से अनायास कुछ शब्द निकल पड़ता है वही शब्द मन्त्र हो जाता है। जो होता है वही कीर्तन है। इसमें कर्तापन का बोध ही समाप्त हो जाता है। इससे आप सहज ही शिवत्व को उपलब्ध होते हैं। इसी से इसे शिव कीर्तन कहते हैं। बहुत काल बाद यही कीर्तन शिव हनुमान जी को दिए। नारद जी को दिए। हनुमान जी इसी कीर्तन से सभी कुछ प्राप्त कर लिए। वे ही इसे सुग्रीव को बताये, विभीषण को बताये। इस प्रकार यह कीर्तन इस धरा-धाम पर अवतरित हुआ। कीर्तन में जो कुछ शब्द का उच्चारण होता है वही महामन्त्र हो जाता है। अभी कीर्तन का रूप विकृत हो गया है। कीर्तन भी ठेके पर कराये जा रहे हैं। इसे करने वाले की एक मण्डली होती है जो दीन-हीन अकिंचन की तरह होती है। आखिर कीर्तन करने वाले की ऐसी स्थिति क्यों? जो कराता है वह भी किसी-न-किसी विवशतावश, भखौटी वश। कीर्तन करना न ही उसका स्वभाव है न ही कराना। मानो मुर्दे की तरह ढोये चले जाते हैं। कीर्तन करने वाले पहले ही तय करते हैं खाने में अमुक-अमुक भोजन (अभक्ष) चाहिए। सुर मिलाने के लिए शराब चाहिए। नींद नहीं आये उसके लिए सिगरेट या गांजा, चरस चाहिए। कैसा कीर्तन ? यदि कीर्तन ऐसा ही है तो उससे भगवान ही बचायें। गलत किया हुआ योग-जाप सबसे पहले करने वाले का नाश करता है तब कराने वाले का। इसके बाद दोनों के परिवार का, तब मुहल्ले एवं देश का। क्या इसी कीर्तन से उनका अध:पतन हो रहा है। आज कीर्तन का सही स्वरूप जानने वाले भी नहीं के बराबर रह गये हैं।
शिव कीर्तन करने से व्यक्ति का शरीर ओज से शक्ति से भर जायेगा। प्राण का संचय होगा। जबकि विकृत कीर्तन से प्राण शक्ति का बस होता है। यदि काधक दस मिनट सुबह, शाम भी करे तो उसे कोई भी बीमारी नजदीक नाते आयेगी, उसका चेहरा चमकता हुआ होगा। इससे शारीरिक विकास, मानसिक उत्थान तथा आध्यात्मिक उन्नयन होता है। ध्यान की एकाग्रता होती है। मानसिक तनाव कोसों दूर होता है। साधक सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वह स्त्री-पुरुष बच्चा-बच्ची सभी को समान रूप से लाभकारी है। अभी वर्तमान काल के लिए अत्यन्त लाभकारी है। इसके करने से एक विशेष प्रकार का हार्मोन उत्पन्न होता है जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का निखार होता है। उससे बुराई स्वतः दूर होने लगती है। अच्छाई स्वतः आने लगती है। अतएव वर्तमान काल में विद्यार्थी से लेकर, नौकरी करने वालों तक या हल चलाने वालों से लेकर सेना में काम करने वालों तक के लिए नितान्त आवश्यक है। यदि इसे जेल के कैदियों को सिखाया जाये तो उसका दोष स्वतः दूर हो जायेगा। एवं वह एक ईमानदार, सदाचारी नागरिक ही नहीं, संन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करने लगेगा। चूँकि कीर्तन से दुर्गुण सम्बन्धी हार्मोन का निर्माण स्वतः बंद हो जाता है। उच्च विचार का निर्माण शुरू हो जाता है।
????कीर्तन विधि????
इस कीर्तन को मैंने दिल्ली में नव साधकों के बीच पहले पहल दिनांक 15 जुलाई 1995 को किया। साधक गण (स्त्री-पुरुष) ने बहुत ही मन से इसे ग्रहण किया। सात दिन सुबह शाम इन्हें अभ्यास कराया। सभी प्रफुल्लित थे। आनन्दित थे। मैंने उन्हें अपने परिवार के सारे सदस्यों को सिखाने का आदेश भी दिया। इसके बाद समाज के इच्छुक व्यक्ति को बताने के लिए आग्रह किया। साधक को सबसे पहले जानकार व्यक्ति से, गुरु से सीख लेना ही उचित है। तब वह प्रतिदिन चाहे जहाँ भी हो इसे करे। साधक खुली हवा में बैठ जाये। यदि खुली जगह उपलब्ध न हो तो हवादार कमरे का प्रयोग कर सकते हैं। घर की छत का प्रयोग कर सकते है। जगह साफ सुथरी, स्वच्छ हो। ध्यान के लिए उपयुक्त हो। प्रातः काल सूर्योदय के समय एवं सन्ध्या काल सूर्यास्त के समय किया जाये तो अत्यन्त उत्तम है। समय नहीं मिलने पर रात्रि पहर का प्रयोग कर सकते हैं। प्रातः काल सूर्य की लालिमा निकल रही हो छत पर तो ठीक है। यदि कमरा हो तो खिड़की के सामने करें जहाँ से सूर्य की लालिमा आपके शरीर पर पड़े। यदि वह भी सम्भव न हो तो बल्व जला दें। वहाँ दरी, चटाई या चादर अपनी सुविधा अनुसार बिछा दें। प्रथम चरण- अब साधक निश्चिन्त पद्मासन या सिद्धासन पर बैठ जाये। गुरु का ध्यान कर त्रिकुटी पर ध्यान करे। भावना करे मैं हिमालय के गौरी शंकर पर्वत पर बैठा हूँ। मैं शिव कीर्तन करने जा रहा हूँ। शिव स्वरूप हूँ। हिमालय की शीतल वायु शरीर में लग रही है। सूर्य की सूक्ष्म किरणें अपने स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर में प्रवेश कर रही हैं। ये किरणें ऊर्जा और आभा की प्रतीक हैं। ऊर्जा अर्थात् शक्ति, आभा अर्थात् प्रकाश। दोनों का समन्वय तीनों शरीरों में प्रवेश करके उन्हें प्रभावित कर रहा है। प्रत्यक्ष शरीर में स्वास्थ्य और संयम, सूक्ष्म शरीर में मस्तिष्क में विवेक और साहस, कारण शरीर अर्थात् अन्तःकरण में श्रद्धा, सद्भावना सूर्य किरणों के रूप में प्रवेश करके अस्तित्व की समग्र सत्ता को अनुप्राणित कर रही है यह ध्यान, धारणा और गुरु मन्त्र का जाप श्वास के साथ साथ निर्धारित समय तक करें। अब हिमालय के बर्फ का शीतल जल आत्मसत्ता का समर्पण है।
द्वितीय चरण- आँख बन्द हैं। ध्यान त्रिकुटी पर है। अब उपरोक्त भावना के
साथ खड़े हो जायें। दोनों हाथ समानान्तर में फैला दें। दाहिना पैर आगे की तरफ झुका दें यानी घुटने से 60 डिग्री पर मोड़ें। बायाँ पैर का अँगूठा दाहिने पैर की एड़ी के नजदीक रखें बायाँ हाथ सीधा ऊपर उठा दें। दायाँ समानान्तर में ही रहेगा। अब आप कीर्तन का मन्त्र "श्री राम जय राम जय जय राम।" का जाप बोलकर शुरू कर दें। तत्पश्चात् बायाँ पैर तीस इंच की दूरी पर रखें एवं उसे 60 अंश पर झुकाएं एवं दायें पैर के अँगूठे को बायें पैर की एड़ी के नजदीक रखें। हाथ भी अब दायाँ ऊपर जायेगा। तथा बायाँ समानान्तर में रहेगा। इस तरह पैर एवं हाथ बदलते रहेंगे। मन्त्र जाप चलता रहेगा। ध्यान स्थिर रहेगा। धीरे-धीरे कीर्तन तेज होता जायेगा। पैर एवं हाथ की गति तेज होती जायेगी। पाँच मिनट में रफ्तार तेज होगी तथा दूसरा पाँच मिनट अत्यन्त तेज रफ्तार का होगा। अन्तिम पाँच मिनट साधक पूरी तरह दाँव पर लगा ले। किसी भी हालत में अपने को बचाने का प्रयास न करे। इतना तेज रफ्तार कर दे कि शरीर का भान मिट जाये। प्रारम्भ काल में यह कीर्तन मात्र दस मिनट का होगा। तत्पश्चात साधक बैठ जाये। चाहे जिस भी आसन पर बैठना चाहे। यदि बैठने की स्थिति नहीं हो तो साधक लेट भी सकता है। सुविधा के अनुसार लेट जाये।
तृतीय चरण- साधक निश्चित हो गहरी श्वास के साथ जाये एवं आये। अब गुरु मन्त्र का श्वास पर जाप कर सकता है। ध्यान त्रिकुटी पर ही रहे। भावना करे शरीर शिथिल है। मन शिथिल है, चित्त शान्त है। श्वास गहरा चल रहा है। साधक शरीर से बाहर होकर मृतवत् अपने शरीर को देख सकता है। साक्षी बन कर अलग से शरीर का अवलोकन करे। वह साधक की स्थिति के ऊपर निर्भर करता है। जिस कोटि का साधक हो उसी तरह का अभ्यास बताया जाये। पाँच मिनट के त्रिकुटी पर ध्यान के उपरान्त ऐसी भावना करे कि प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है। शरीर के सारे रोग बाहर निकल रहे हैं। श्वास के माध्यम से प्राण ले रहे हैं। ऊर्जा ले रहे हैं। वह ऊर्जा हृदय में भर रही है। हृदय से फिर पूरे शरीर में। जैसे जैसे प्रकाश ऊर्जा फैल रही है, वैसे-वैसे कुवृत्तियाँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, विकार बाहर हो रहा है। इसी से जो प्राण, ऊर्जा, नीचे जा रही है। वह हृदय से होकर सारे शरीर में फैल रही है। पाँव की अँगुली से हाथ की अँगुली से सारे कष्ट रोग बाहर हो रहे हैं। अब ध्यान दें त्रिकुटी पर, वह प्रकाश अब ऊपर फैल रहा है। वह प्रकाश ऊपर सहस्त्रसार, तक फैलते जा रहा है। जब सहस्त्रसार पर ध्यान चला जायेगा तब साधक समाधिस्थ हो सकता है। सारी कुवृत्तियों से मुक्त हो जाता है। पाँच मिनट के बाद साधक भावना करे कि शरीर पूर्ण स्वस्थ है। गुरु का आशीर्वाद प्रकाश रूप में बरस रहा है। साधक उस वर्षा में भीग रहा है। मन प्रफुल्लित हो रहा है। चेहरा कमल की तरह खिल रहा है। पूरा शरीर ही खिल गया है। स्वयं हँसता हुआ, मुस्कुराता हुआ हो। धीरे-धीरे चार मिनट के बाद प्रभु अनुकम्पा, गुरु कृपा ग्रहण करते हुए प्रसन्नचित्त पाँचवें मिनट में आँख खोले एवं गुरु को परमपिता परमात्मा को नमस्कार करे। धन्यवाद दे। यह भी दस मिनट का होगा। जब साधक दस मिनट का कीर्तन एवं दस मिनट का ध्यान कर लेता है तब इसे क्रमशः बढ़ाना होगा। इस तरह कम से कम तीस मिनट का कीर्तन एवं तीस मिनट का ध्यान करना होगा। अब जब 30 मिनट का कीर्तन सिद्ध हो जाये। आनन्द आ जाये तब साधक हनुमान की तरह, मीरा की तरह दोनों हाथों में करताल ले ले एवं कीर्तन शुरू करे। यदि कीर्तन एक घण्टा का सिद्ध हो जाता है तब साधक का ध्यान भी अचल हो जायेगा। वाणी सिद्ध हो जायेगी। चेहरा कान्ति से भर जायेगा। इसी शरीर में वह सब कुछ प्राप्त कर लेगा जो उसके लिए अलभ्य था, दुष्कर था। जो खडेश्वरी जीवन भर खड़ा रह कर नहीं प्राप्त कर सकते, जो नागा पंचाग्नि लेकर नहीं प्राप्त कर पाते या कर्मकाण्डी कर्मकाण्ड के द्वारा नहीं पाते वह साधक मात्र एक घण्टे के कीर्तन से प्राप्त कर लेगा। यही कीर्तन, हरिभजन एवं रामनाम कलिकाल का आधार है। साधक को योग, जाप, तप, यज्ञ, तीर्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं। वह स्वयं प्राण शक्ति से भरा हुआ है। उस शक्ति का स्रोत भी उसने देख लिया। वह अब उसी शक्ति से जुड़ गया। अब वह साधक योग युक्त हो गया। संसार में रहकर लोकहित में कोई भी कार्य कर सकता है। अब उसे निराशा कैसे हाथ लगेगी। प्रकृति उसकी इच्छानुसार कार्य करना चाहेगी। परन्तु वह इच्छा से भी ऊपर उठ जाता है। वह "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयः।" की भावना से कर्म करता है। अपना-पराया का भाव मिट जाता है। "स्व" चला जाता है।
इसे अतिशयोक्ति न समझें। करें एवं देखें। यह वैज्ञानिक सत्य है। एक दिन ही करें आप में कुछ परिवर्तन तो होगा ही। आप परमात्मा की तरफ एक कदम तो बढ़ेंगे ही। आपकी यात्रा एक कदम तो कम होगी ही। यात्रा प्रारम्भ करके तो देखें। यह नकद का सौदा है। एक हाथ देना है। दूसरे हाथ ग्रहण करना है। अभी
ही इसी वक्त।
इसके सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए आश्रम से सम्पर्क कर सकते हैं। इसे विधिवत सीख सकते हैं। सभी कुछ नहीं लिखा जा सकता है।
क्रमशः.....