साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????शिव के द्वारा गंगा को उतारना????

    मानव संस्कृति का भू-भाग सदाशिव को तंत्र के लिए सबसे उपयुक्त जगह लगा। परन्तु इस भू-भाग में जल का अभाव था। कोई बड़ी नदी नहीं थी। काशी से ही अयोध्या का राज लगता था। जिस राज्य का राजा एवं प्रजा दोनों ही सदाशिव से तंत्र सीखे थे। अयोध्या के लोग इन्हें अच्छे तंत्र साधक के रूप में मिले। अतएव उनसे कहा कि तुम लोग यदि तैयार हो जाओ तो गंगा को स्वर्ग से इस धरती पर उतारा जा सकता है। उस समय गंगा स्वर्ग (चीन-रूस) में बहती थी। अयोध्यावासी सहर्ष तैयार हो गये। सदाशिव ने समझाया यह कार्य एक-दो दिन का नहीं है। बहुत ही कठिन कार्य है। यह कठोर तपस्या होगी, जिसका फल होगा- गंगाजल। अयोध्या के राजा सहर्ष तैयार हो गए। अपनी पूरी ताकत के साथ सदाशिव के बताये मार्ग पर चलकर कैलाश पहुँचे। वहाँ बहुत दिनों तक रहकर सोच-विचार किया गया। गंगा के प्रवाह को कैसे मोड़ा जाये। जब ऋषियों-मुनियों के द्वारा विचार-विमर्श कर लिया गया तब उसके प्रवाह को कम करने के लिए धारा को विभिन्न भागों में बाँटने का उपक्रम हुआ, जिसमें बहुत समय लगा परन्तु लगन एवं कठोर परिश्रम तो फल लाता ही है। श्रद्धा एवं लगन से सद्‌गुरु के निर्देशन पर किया गया कार्य अत्यन्त ही महत्वपूर्ण फल लाता है, जिसका मानव मन कल्पना तक नहीं कर सकता। कठिनाई, विपत्ति, बाधायें विभिन्न रूपों में आती ही हैं। देव एवं यक्ष लोग बाधा का काम करते रहे परन्तु विभिन्न स्रोतों का निर्माण कर लिया गया जिससे गंगा की धारा विभिन्न भागों से घूमते हुए गुजरे, जिन्हें शिव की जटा भी कहते है। तब शिव के निर्देशन पर गोमुख पर खुदाई की गयी। जहाँ से गंगा का शीतल जल प्रवाहपूर्ण ढंग से निकल गया। हो गयी लोगों की तपस्यापूर्ण। गोमुख के ऊपर लगभग 15-20 किलो टर में दल-दल भूमि है। यानी बर्फ की केवल चट्टान है, जो पिघलकर पानी के रूप में नीचे आती है। उस पर चलना अत्यन्त दुरूह होता है। पैर रखने पर कहीं-कहीं अन्दर की ओर चली जाती है। वहाँ न कोई पेड़ है, न ही जीव-जन्तु। मैं वहाँ कुछ समय रहा हूँ। अत्यन्त ठण्ड है। हाँ, आवाज़ यदि है तो मात्र गंगा के ही कलरव की। गोमुख के ऊपर तपोवन है जहाँ रहकर सदाशिव के साथ अयोध्या के राजा वगैरह गंगा को उतारने के लिए वर्षों प्लानिंग रूपी तप करते रहे। इसी से इसे तपोवन कहा गया। हालाँकि यहाँ कोई पेड़ नहीं है। फिर भी तपोवन कहा गया। हज़ारों-हज़ार लोग उस बर्फ में, सर्दी में दुर्गम स्थान में, उस गंगा को उतारने के लिए जो कठोर संकल्प लेकर पड़े रहे। सद्गुरु के निर्देश पर तंत्र के माध्यम से ही जिन्दा रहे एवं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए इसी से इसे तपोवन कहते हैं। इसी से चार किलोमीटर की दूरी पर नन्दन वन है। यह आश्चर्य ही है कि यहाँ विचित्र गुलाबों की घाटी है। वन हैं। तितलियाँ हैं। यहाँ सदाशिव के नन्दन यानी गणेश ने तप किया। यहीं सदाशिव से दीक्षित हुए। इसे नन्दन वन कहते हैं। मैं कुछ काल वहाँ भी रहा। तप के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त जगह है। मालूम होता है साक्षात् शिव की गोद में बैठकर साधक तंत्र की साधना में खो जाता है। मानो शिव अपने प्यारे शिष्य को अपने हृदय से लगाकर सब कुछ उड़ेल देना चाहता है। यह मेरी अनुभूति है। हो सकता है आपकी कुछ भिन्न हो। शास्त्रों में एक और भी दृष्टान्त मिलता है। वाल्मीकीय रामायण में जब

विश्वमित्र राम को लेकर यज्ञ पूरा कराने के पश्चात् जनकपुर के लिए प्रस्थान करते है तब सोन नदी के बाद गंगा मिलती है। जहाँ रात्रि विश्राम के समय श्रीरामचन्द्र अपने सद्‌गुरु से गंगा की उत्पत्ति के विषय में पूछते हैं। तब वे राजा सगर की कथा सुनाते हैं। उस कथा का अवलोकन करने पर भी मालूम होता है कि देवतागण किसी भी तरह से मानव श्रेष्ठ, राजा एवं ऋषि को तंग करने से बाज नहीं आते। राजा सगर यज्ञ करते हैं। यज्ञ में अश्व छोड़ा जाता है। वह अश्व विभिन्न देशों को घूमता हुआ आगे बढ़ता जाता है। उस वक्त भी रक्ष संस्कृति एवं मानव संस्कृति में प्रगाढ़ सम्बन्ध था। तभी तो देवेन्द्र इन्द्र अपना रूप बदलकर राक्षस का रूप पकड़ लेते हैं एवं घोड़े को चुराकर चल देते हैं। पुनः त्रिविष्टिक में, देवताओं के साथ मंत्रणा करते हैं। जिसमें यह चर्चा होती है कि किसी भी तरह सगर को ज्ञात हो जायेगा कि घोड़ा चुराने वाला इन्द्र ही है तो वह स्वर्ग एवं देवगण को छोड़ने वाला नहीं। उसके साठ हजार पुत्र हैं। सभी धर्मात्मा हैं। अत्यन्त बलवान् हैं। यानी यह सम्भव है, उस समय अयोध्या की सेना में साठ हज़ार सैनिक हों जिन्हें राजा सगर अपने पुत्र के समान समझते हों। सगर के डर से देवेन्द्र ने उस घोड़े को महर्षि कपिल के आश्रम में बाँध दिया। ऋषि कपिल समाधि अवस्था में थे। देवेन्द्र यह सोचे कि वे लोग खोजते हुए यहाँ आयेंगे एवं कपिल से दुर्व्यवहार करेंगे। तब दोनों आपस में ही संघर्ष कर मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। अयोध्या भी कमज़ोर हो जायेगी। इधर पूर्वाखण्ड (कपिल का क्षेत्र) भी। जिससे देव संस्कृति को बढ़ने का भरपूर अवसर प्राप्त हो जायेगा। सब हुआ भी वही। देवेन्द्र की कूटनीति काम कर गयी। सगर के लड़के मृत्यु को प्राप्त हो गये। कपिल पुनः ध्यान में चले गये। इधर स्वर्ग में खुशियाँ मनाई गयीं।

    इधर पुत्रों के नहीं लौटने से यज्ञ के लिए दीक्षित हुए राजा सगर का उ‌द्विग्न होना स्वाभाविक ही था। अतएव अपने पौत्र अंशुमान को पता लगाने के लिए भेजा। अंशुमान अत्यन्त विनीत नम्र युवक थे। जो भी महात्मा मिलते उनकी पूजा, अर्चना एवं परिक्रमा करते। श्रेष्ठजन से आशीर्वाद लेते अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गये। वहाँ अपने यज्ञ का घोड़ा देख अत्यन्त प्रसन्न हुए। तथा महर्षि कपिल की पूजा-अर्चना कर अपने चाचा लोगों के विषय में पूछा। महर्षि कपिल ने सभी कुछ बता दिया। इसी समय इनके चाचा के मामा गरुड़ देव भी आ गये। वे बताये कि आप घोड़ा लेकर जाओ एवं अपने बाबा का यज्ञ पूरा कराओ तथा इन पितरों के उद्धार हेतु स्वर्ग से गंगा ले आओ। सम्भवतः महर्षि कपिल समझ गये कि इसी खानदान के पराक्रम एवं पौरुष से गंगा का अवतरण सम्भव है। अंशुमान घोड़ा लेकर अयोध्या आये एवं अपने बाबा से सारी कहानी कह सुनाये। सगर को अत्यन्त दुःख हुआ परन्तु किसी तरह यज्ञ पूरा किये।

राजा सगर महात्मा थे। वे अत्यन्त कर्मठ, बहादुर, निर्भीक भी थे। अपने मन्त्रीगण से गंगा को लाने के विषय में विचार किये। राजा सगर 33 वर्षों तक गंगा को लाने के लिए कठोर परिश्रम किये। सगर के बाद अंशुमान भी अपने पुत्र दिलीप को राज्य सौंप कर हिमालय में 32 वर्षों तक परिश्रम रूपी तप किये। उनके साथ हज़ारों-हज़ार व्यक्ति काम करते रहे। उसके लिए रास्ता तैयार करते रहे। राजा दिलीप भी उस महत् कार्य में हाथ बटाये। ये 30 वर्ष राज्य किये तथा उसी अवधि में उस कार्य में भी योगदान करते रहे। परन्तु इनकी कालावधि गंगा के लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही। परन्तु दिलीप के पुत्र भागीरथ ने कठोर परिश्रम किया। जिनका परिश्रम एवं पुरुषार्थ देखकर ब्रह्मा को भी मदद के लिए विवश होना पड़ा। सदाशिव तो मदद में पहले से ही थे। दिशा निर्देशन तो उन्हीं का था ही। सदाशिव ने एक वर्ष तक भगीरथ को अपने साथ रख उसकी धारा को सात भागों में बाँटने की युक्ति बताई जिससे गंगा का वेग, धारा पृथ्वी पर कम रहे। पुनः उस धारा को एक वर्ष तक गोमुख के ऊपर ही घुमाते रहे। यानी गोमुख नन्दन वन, तपोवन के मध्य के भाग में। जिसको शंकर की जटा भी कहा जाता है। शंकर की जटा (गोमुख) से निकल कर गंगा अविरल गति से चल दी। परन्तु हिमालय के पर्वत से यात्रा कराना भी अत्यन्त दुरूह था। अतएव गंगोत्री तक आने में एक वर्ष का समय लग गया। चूँकि मार्ग प्रशस्त करना था। जब गंगोत्री से गंगा नीचे की तरफ उतरी तो उतार आसान हो गया एवं आगे का रास्ता पूर्व के राजाओं द्वारा प्रशस्त किया गया था। इस तरह गंगा को पृथ्वी पर लाने में चार पीढ़ी अर्थात् 98 वर्ष का समय
 लगा। राजा भागीरथ के द्वारा यह गंगा सागर तक पहुँची। जिससे उनके पूर्वज ही नहीं, वरन् भारत-भूमि के समस्त जन समुदाय में भी गंगा के आने से जीवन का संचार हो गया। सभी प्रसन्न हो गये। गोमुख से सागर तक 2525 कि.मी. की यात्रा पूर्ण की वही स्थल गंगासागर कहलाया जो तीर्थ बन गया।

गंगा को पृथ्वी पर यात्रा कराने में अन्तिम अयोध्या राजा भगीरथ समर्थ हुए। गंगा के साथ उनका नाम भी जुड़ गया। गंगा को भागीरथी भी कहते हैं। इस तरह सदाशिव की ही देन है काशी एवं गंगा। जिसमें एक मानव संस्कृति की राजधानी है तो दूसरी अपने अमृत जल से सबको सम्यक रूप से अनवरत सींच रही है। एक में रहने मात्र से पवित्र होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो दूसरे में स्नान करने मात्र से अपने लक्ष्य को उपलब्ध हो जाते हैं। यह दोनों सदाशिव के द्वारा दी गयी मानव संस्कृति के लिए अनमोल धरोहर हैं। इसी से काशी का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। जहाँ गंगा उत्तरायण है। मानो गंगा का काशी से सम्बन्ध पुरातन हो। मानो काशी को अपनी गोद में लेने को उतावली हो। काशी में गंगा के किनारे की गयी साधना जल्द ही फलीभूत होती है। वरूणा नदी एवं अस्सी घाट के मध्य भाग को ही वाराणसी कहते हैं। उत्तर काशी में भी गंगा पहले उत्तरायण ही थी। एक पहाड़ के टूट जाने से धारा मुड़ गयी जिसका प्रमाण वहाँ जाने पर आपको मिल जायेगा।

क्रमशः...