साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

विश्वमित्र का पुष्कर जाना

पुष्कर का सुन्दर दृश्य देख वहीं बैठ गये। बैठते ही ध्यानस्थ हो गये। उन्हें मालूम हुआ यही स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है। उनका नियमित ध्यान चलने लगा। उनके ध्यान-तप की कीर्ति वहाँ भी फैलने लगी। दूर-दूर से लोग दर्शन के लिए आने लगे। पुष्कर का जल भी अत्यन्त पवित्र अमृतमय हो गया। उनके स्नात से वह अपने को धन्य समझने लगा। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी वैर भाव का त्याग कर दिए। अब विश्व-रथ यहाँ के लिए नये थे। अन्जान थे। परन्तु उनकी तपस्या ने सब को बता दिया कि यह कोई अलौकिक पुरुष है। अतएव उन्हें बाबा जी के नाम से सब पुकारने लगे। बाबा जी धीरे-धीरे आने वाले बच्चों को पढ़ाने भी लगे। उनका पढ़ाना, बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि होना ने एक स्कूल का रूप ले लिया। एक दिन प्रातःकाल ही सूर्य को अर्ध दे। सूर्य की प्रार्थना किये।

"इन्द्र तुम्यभिददिवो ऽनत्तूं वज्रिन वीर्यम।

यह त्वं मायिनं मृगं, तमु त्वं माययावेधी अर्चन्नतु स्वराज्यम् ॥ "
          (ऋग्वेद 1/80/70)
अर्थात् हे पर्वत पर रहने वाले वज्रधारी इन्द्र (सूर्य) तेरा ही यह अजेय पराक्रम है कि तूने उस मायावी मृग (मेघ-मण्डल) को अपनी शक्ति से मार दिया। तेरा यह कार्य स्वराज्य की प्राप्ति के लिए ही था।
इस तरह जो भी उनके मुँह से निकलता वह वेदों की ऋचा हो जाता यथा-
"ॐ आकृष्णेन राजसा वर्तमानों निवे शभन्नमृतें,
मृर्त्यव्च हिरण्ययेन सविता रथेनादेवोयाति भुवनानि पश्यत्।" (यजुर्वेद) "ॐ ऊदुत्यंजातवेदसं देवं वहन्ति केतवः दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥"
                        (सामवेद)
आगे चलकर इन दोनों वेदों की ही ऋचा सूर्य शान्ति मन्त्र बन गयी। इस मन्त्र को पढ़ सूर्य को प्रणाम करने से सूर्य शान्त हो जाता। उनका अरिष्ट समाप्त हो जाता एवं उनकी कृपा हो जाती। मन्त्र पर हम लोग आगे विचार करेंगे। विश्व-रथ पुष्कर में अन्वेषण कार्य जोर-शोर से करने लगे। ज़्यादा समय अन्तः पुर के ही अन्वेषण में लगाते। जैसे-जैसे अन्त:पुर में प्रवेश करते जाते वैसे-वैसे पाते अनन्त। एक-एक करके सारा रहस्य खुलता जाता। ज्ञात होता अनन्त का स्रोत। अनन्त से जुड़ते जाते या अपने अन्दर ही अनन्त को समाहित पाते। दिव्य आभा से भर जाते। मानो सृष्टि उनके एक इशारे पर सब कुछ करना चाहती है। अब सृष्टि ही उनकी तरफ मुखातिब होती नज़र आती। उनकी इच्छा जानना चाहती। मानो विश्व-रथ की इच्छायें सदा-सदा के लिए समाप्त हो गयीं। अब उन्हें कोई अभिलाषा नहीं, कोई कामना नहीं। निष्काम तेज से परिपूर्ण सूर्य सदृश तप में लीन हो जाते। अब उनके शरीर के प्रत्येक रोवें-रोवें (Cells) से सत्यनाम ही निस्सरित होता। जो भी बोलते वह मन्त्र हो जाता। मानो चल रहे हों तो परम-पुरुष की तरफ बढ़ रहे हों। सो रहे हैं तो मानो परम-पुरुष को दण्डवत् किये हों। उनका भोजन करना परम-पुरुष को भोग लगाना ही प्रतीत होता। वे सत्याकार होते जा रहे थे। जिस किसी को पढ़ाते वे अपने को धन्य समझते। उनकी कीर्ति बाबाजी के नाम से इस पृथ्वी पर फैल जाती है। इसकी सूचना पुनः वशिष्ठ को मिलती है। कोई बाबा जी अपूर्व का तपस्वी पुष्कर में आ गया है। वे समझ जाते हैं कि वह कोई और नहीं विश्वमित्र हो होगा। पुनः वे स्वर्ग में देवेन्द्र से मिलकर उन्हें बताते हैं। देवेन्द्र अन्य देव-यक्ष गणों से बात करते हैं। उन्हें महसूस होता है यह ऋषि अत्यन्त खतरनाक है। अब कोई उपाय नहीं सूझता कि क्या किया जाये। देवेन्द्र सबको साथ लेकर पुष्कर पहुँच जाते हैं। सभी देव-यक्ष गण विभिन्न रूपों में इर्द-गिर्द रुककर उनके क्रियाकलापों का निरीक्षण करते हैं। कहीं कोई छिद्र खोज रहे हैं जिसके माध्यम से प्रवेश किया जा सके। उसे भ्रष्ट किया जा सके। वे लोग वहाँ वर्षों रुक जाते हैं, पर मिलता कुछ नहीं।

गायत्री का जन्म

एक दिन विश्व-रथ प्रातः ही स्नानादि से निवृत्त होकर ध्यान में थे कि अनायास ही उनके मुँह से एक मन्त्र निकल गया। उसके निकलते ही उनमें अनन्त ओज भर गया। वे वैसे हो गये मानो क्षण भर पहले वे थे ही नहीं। मानो वे बिल्कुल बदले हुए साक्षात् सूर्य स्वरूप। ब्रह्म ही ब्रह्माकार हो अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ता है। जैसे अनायास ही प्रकृति कहीं से किसी पहाड़ से जल स्त्रोत के रूप में निकले पड़े। पहाड़ तो निमित्त है। वह निकलने के लिए स्रोत खोज रहा हो। पात्र एवं समय के इन्तजार में हो, वैसे ही उनके मुँह से निकल गया एक दिव्य छन्द :-

"ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात्।" है।

गायत्री का अर्थ-"हम उस ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप जगत के उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय कर्ता स्वयं प्रकाश स्वरूप के भजने योग्य कल्याणकारी तेज का ध्यान करते हैं। वह हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों में प्रेरित करें।" यह छन्द है। इससे किसी देवी देवता का संबंध नहीं। यह पूर्ण ब्रह्म का द्योतक है। इसकी पूजा-हवन की प्रक्रिया भी जानने वाले अत्यल्प हैं। विश्वमित्र का अन्तर प्रकाश के ओज से भर जाता है। अपने आप में आनन्दित हो उठते हैं। मानो आनन्दपति से साक्षात्कार हो

जया हो। ये आँख खोलते हैं। देखते हैं, जैसे अन्दर दिखा था। एक दिव्य शक्ति

ससम्पन्न औरत रूप में। देवी रूप में। पूछ बैठते हैं-आप कौन हैं देवी ? देवी

मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहती है-"मैं आपकी ही शक्ति स्वरूपा पुत्री हूँ। चूंकि

प्रथम बार इस सृष्टि में आपके शरीर-मुँह से निकली हूँ। अतः आपकी ही पुत्री

हूँ।" चे आश्चर्य करते हैं, कुछ ही दिन पहले मेनका काम की पुत्री को अपनी

पुत्री माना था। जगत में मेरी खिल्ली उड़ाई गयी। पुन: यह क्या ? वह गायत्री इनके

मन की दुविधा को जानकर कह उठती है। आप जो भी चाहे मुझ से कह सकते

हैं। मैं गायों में कामधेनु स्वरूपा, वृक्षों में कल्पवृक्ष, नदियों में गंगा, पर्वतों मैं

हिमालय, योगियों में ज्ञान स्वरूप ही हूँ। आप जगत् का कल्याण कर सकते हैं।

मैं यह जानती हूँ। आप चाहेंगे वही जिसकी जगत् को जरूरत है। अतएव हे

ऋषिवर आप हमें ग्रहण करें। आपका हृदय शुद्ध हो गया है। चितवृत्तियाँ शान्त हो

गयों हैं। आप आनन्द के स्वरूप हो गये हैं। मैं सदियों से प्रतीक्षारत थी इस धरा

धाम पर आने के लिए। इस पृथ्वी के प्राणी आने वाले समय में त्रिविधि ताप से

दुखी होंगे। उनके दुःख को शान्त करने का कोई भी और उपाय शेष नहीं रह

जायेगा। गुरु शिष्य का उपकार करने में असमर्थ हो जायेंगे उल्टे शिष्य का शोषण

करेंगे। शिष्य समेत गुरु कुमार्गी हो जायेंगे। पृथ्वी दुःख से भर जायेगी। उस दुःख

का कारण स्वयं मानव अपने आप ही होगा परन्तु उसका कारण अन्यत्र खोजेगा।

तंत्र को विधि को भूल जायेगा। सब मनमानी काल-कवलित हो जायेंगे। हे

ऋषिवर कलियुग में तो पिता अपनी ही पुत्री को नहीं पहचानेगा। राजा प्रजा का

भक्षण करेगा। रक्षक-भक्षक का रूप ग्रहण कर लेगा। अनाचार-व्याभिचार ही

आधुनिक समाज का शिष्टाचार बन जायेगा। सभी लोग समानता के नाम पर

व्यभिचारी हो जायेंगे। मातृत्व सतीत्व पिछड़ापन का प्रतीक माना जायेगा। भोग

वृत्ति ही आधुनिकता का प्रतीक होगी। पूरी तरह मानव संस्कृति तथाकथित

देव-यक्ष संस्कृति से आवृत्त हो जायेगी। जो इसके विरुद्ध बोलेगा उसे मूर्ख

कुण्ठाग्रस्त कहा जायेगा। उस समय मेरी आवश्यकता बढ़ जायेगी। जो भी व्यक्ति

इस मन्त्र से मेरा स्मरण करेगा उसे त्रिविध कष्टों से छुटकारा दिलाकर परम-पुरुष

का साक्षात्कार करा दूँगी। उसे मंदबुद्धि से पवित्र कर सुसंस्कारों से पूर्ण कर दूँगी।

अतएव है ऋषिवर आप ही इस मानव व पृथ्वी के कल्याण हेतु मेरा माध्यम बनें।

आज से आप विश्व के मित्र होंगे। चूँकि विश्व का कल्याण आप में ही सन्निहित

है। अतएव अब आप विश्व-मित्र होंगे। यह भी सत्य है कि आपने अपना सारा जीवन विश्व के कल्याण में ही लगाया है। आप से कभी किसी का अहित नहीं हुआ है न ही भविष्य में होगा। आप तो कल्याण-मूर्ति हैं। इतना कहकर वह गायत्री ऋषि के त्रिनेत्र में प्रवेश कर गयी। उनका शरीर सूर्य के तरह प्रकाशवान हो गया। उनका तेज शीघ्र ही सम्पूर्ण विश्व में फैल गया।

विश्वमित्र द्वारा गायत्री यज्ञ करना

अब विश्वमित्र प्रसन्नचित अपने शिष्यों की तरफ लौटते हैं। देखते हैं अपार जन-समूह उनकी तरफ ही उमड़ता आ रहा है। मालूम होता है सारी नदियाँ अपनी दिशा भूलकर सही दिशा खोजकर विश्वमित्र के चरणों में ही विश्राम करना चाहती है। चारों दिशायें इनके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रही हैं। मानो सूर्य ठण्डा हो गया हो। विश्व-मित्र मुस्कुराते हुए बोल पड़े वह दिव्य गायत्री मन्त्र। उस छंद के आलोक में सभी आलोकित हो गये। सभी श्रद्धा से, प्रेम से उनके चरणों में झुक गये। उनके झुकते ही उन्हें यह एहसास हो रहा है कि उनके शरीर का सारा मलावरण बाहर निकल रहा है। दिव्यात्मा से दिव्य प्रकाश सभी के अन्दर प्रवेश कर रहा है, जिससे वे प्रकाशित हो रहे हैं। जैसे एक महादीप, अखण्ड दीप से सैकड़ों, हजारों दीप जलाये जायें। सारे दीप धन्य-धन्य हो जाते हैं। अपने आप में हर्षित हो जाते हैं। सभी स्व आलोक में उस दिव्य महामानव अखण्ड ज्योति को श्रद्धा से नमन करते हैं। स्तुति करते हैं। सारा वातावरण बदल जाता है। सभी झूम उठते हैं। देव-गण, यक्ष-गण यह स्थिति देखकर भयातुर हो उठते हैं। वे भी अनायास ही पुष्प वृष्टि करने लगते हैं। स्तुति करने लगते हैं। उनका गुणगान करते हुए अपने-अपने धाम को लौट जाते हैं।

विश्व-मित्र जन-समूह के आग्रह पर इस पृथ्वी पर पहली बार गायत्री का महायज्ञ कराते हैं। यह यज्ञ आज तक के यज्ञों से भिन्न था। इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं थी। वर्णव्यवस्था नहीं थी। ऊँच-नीच नहीं थी। विशुद्ध ज्ञान प्रधान यज्ञ था। इस विचित्र यज्ञ को देखने के लिए पूरे सृष्टि के पूरे विश्व के मानव तो आमन्त्रित थे ही। देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नाग सभी किसी-न-किसी रूप में पहुँच गये। पुष्कर उस जनसमूह के लिए छोटा पड़ने लगा। इस यज्ञ के निमित्त विश्वमित्र अपने शिष्यों को पहले ही प्रशिक्षित कर दिए थे कि-

गायत्री कोई देवी नहीं है जैसे आत्मा देवी नहीं है, विद्युत ऊर्जा देवी नहीं है। आत्मा के लिए देवी का सम्बोधन नहीं होता। यह पूर्णतया ऊर्जा, प्रकाश है। गायत्री भी सम्पूर्ण को संचालित करने वाली ऊर्जा है। जैसे ही इसको हम कोई रूप देते हैं। उसे समय-काल-स्थान में बाँध देते हैं। जबकि यह शक्ति सभी को अपने में रखती है। निःशब्द से शब्द, निराकार से आकार आता है। शिष्यगण ज्यों ही बोलते हैं-

व्यञ्जते दिवो अन्तेष्वक्नून विशो न युक्ता ऊषको यतन्ते। सं ते गावस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सिवतेव बाहू ।।

(ऋग्वेद 7/79/2)

यानी ऊषाएँ अन्तरिक्ष के प्रयन्त भागों में प्रकाश फैलाती हैं। वे सामूहिक रूप से लगी हुई प्रज्ञाओं के तुल्य यत्न करती हैं। हे ऊषा तुम्हारी किरणें अन्धकार को नष्ट कर देती हैं। सूर्य की भुजाओं (किरणों) के तुल्य वे प्रकाश देती हैं।

"हिरण्यगर्भ समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवी ह्यामुतेमां कस्मै दैवाय हविषा विधेम ॥ "

(ऋग्वेद 10/12)

अर्थात् हिरण्यगर्भ ही पहले मानव संस्कृति में उत्पन्न हुए। जो योग विद्या को मानव संस्कृति में प्रचारित किये (जो समस्त भूतों के एक पति थे। उन्होंने इस पृथ्वी और लोगों को धारण किया।) उस मुखस्वरूप मानव एवं देवता के भी देव गुरु

को हम पूजा करते हैं।

"अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्म श्रृहिरण्य केश आप्रणखत् सर्व एव सुवर्णः।"

(छान्दो 1/6/6)

अब यह सुनहरा पुरुष जो सूर्य के अन्दर दिखता है, जिसकी सुनहरी दाढ़ी-मूँछें और शुभ्र बाल हैं। नखों से अग्र तक जो सारा ही सुवर्णमय शुभ्र है। इत्यादि मन्त्रों से विश्वमित्र की पूजा होती है। जिनसे यज्ञ के माध्यम से गायत्री निःसरित होने वाली है। (गायत्री की विधि यंत्र-मंत्र रहस्य में देखें)। इसके बाद सभी जन यथायोग्य आसन ग्रहण कर लेते हैं। विश्व-मित्र श्रेष्ठ आसन पर वैसे ही विराजमान है जैसे आकाश में सूर्य। परन्तु इस यज्ञ के लोग अभी आकाश के सूर्य में भी विश्वमित्र को देख रहे हैं। सूर्य भी रुक गये हैं। अपनी गति को भूल गये है। महर्षि विश्व-मित्र सुसमय जानकर गायत्री छंद का उच्चारण करते हैं। उनके उच्चारण करते ही गायत्री दिव्य-आभा से युक्त करोड़ों सूर्य के प्रकाश से युक्त प्रकट हो जाती है। सभी लोग इसके स्वरूप को, तेज को देखकर धन्य हो जाते हैं। अब शुरू होता है-यज्ञ। गायत्री स्वयं प्रत्यक्ष रूप से ही ग्रहण करती है पुष्पों को, गन्ध को, नैवेद्य को, धूप को, दीप को। यही हैं पाँचों, पाँच तत्व के प्रतीक । अग्नि अपने आप प्रकट हो जाती है। सूर्य अपने आप अपना आसन ग्रहण करता है। इस तरह नव ग्रह सशरीर अपना हव्य ग्रहण करते हैं। शिव, हरि, ऋषिगण सभी अपना-अपना दिव्य शरीर ग्रहण करते हैं। यह यज्ञ इस पृथ्वी का अनूठा एवं अलौकिक था। दसों दिशाएँ विश्वमित्र के प्रकाश से प्रकाशित हो रही थीं। सभी ऋषिगण समेत ग्रह-नक्षत्रादि सशरीर अपनी विदाई ले, भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए पुष्प अक्षत से विश्व-रथ का अभिनन्दन करते हुए अपने-अपने धाम को गये। जहाँ भी ऋषिगण रहते हैं। वही स्थान तीर्थ हो जाता है। पुष्कर धन्य हो गया। जहाँ तंत्र साधक सहज ही ध्यान को तंत्र को उपलब्ध हो जाते हैं। पुष्कर का एक-एक कण धन्य हो गया, गायत्री एवं समस्त मानव संस्कृति, देव संस्कृति, रक्ष संस्कृति और यक्ष संस्कृति श्रेष्ठजन के आगमन मात्र से। यही है विश्व-मित्र का अनुसन्धान, आविष्कार तप का फल। गायत्री मंत्र नहीं है। यह छंद है। इसकी पूजा-पाठ, हवन की विधि किसी समय के सद्‌गुरु से सीखना ही उचित है। यह गायत्री जिससे पैदा हुई उसके प्रतिनिधि से जानना उचित है। अन्यथा हम भटक जाते हैं। जन्मों-जन्म दांव पर लग जाते हैं। गायत्री अपने आप में विस्फोट है। आज इसका भी व्यवसायीकरण हो गया है। यह पूर्णतः तंत्र है। इस तंत्र को ठीक-ठीक जानना ही श्रेष्ठता है।
 
क्रमशः.…..