बहरुपिया व्यक्तित्व
डॉ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छग
जीविकोपार्जन का
कभी साधन हुआ
करता था बहरुपियापन।
अब व्यक्तित्व का स्वार्थपन
दोगली नीति
मात-पिता रिश्ते-नाते
सहकर्मी, आस पड़ोस
धूमिल होते व्यक्तित्व का
बिना साज-श्रृंगार,
बहरुपिया होना
हद से बेहद होता,
गुजर रहा
हम साथी, परिवार तक,
चरमोत्कर्ष की सीमा लाँघते
खुशियों को रौंदते-कुचलते
छल छद्म की पराकाष्ठा
भाव-शिल्प पाश्चात्य प्रकृतिअनुगामी
अपनेपन का अभिनय
बखूबी निभाते।
संग चलकर पाँव लहुलुहान
करते ये छद्मवेशी
अभिनव कुत्सित चेतना-प्रसारक
मंडराते अपनापन का बाना-बानी
भ्रम जाल फैला,
समझदारी को धता बता
अश्रु जल से अपनी करनी
छलावा को साफ करते
बढ़ाते कदम
एक नये तेवर के साथ
जताते पुनः अपनापन
संवेदना का परिहास करतें
सरल सज्जन मन।
ऐसे छद्म पहचान, समझ
गुजराता है दिन
उसकी संस्कृति विनम्रता
आहत होती जरूर,
पर छूटते मरते नहीं संस्कार
प्राचीनतम अवशेष धरें
धर्म संस्कृति के रक्षक
चाहते हैं
शायद मनुष्यता को आहत करता यह बहरुपिया मन
किसी से छलावा न करें
सचेतक समझदारी
आगाह करती
दूर से प्रणम्य व्यक्तित्व,
छल कपट से बच
अपनी राह
व्यतीत करते वक्त
ऐसे बहरुपियो के बीच।