साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
साधु
सा यानी साक्षात् धु यानी धुल गया। जिसकी काम, क्रोध, लोभ, अहंकार,रूपी धूल धुल गयी, अब वह साक्षात् परब्रह्म परमात्मा का ही स्वरूप इसमें दो अक्षर है स-ज्ञान एवं ध-वैराग्य। यानी जिस में ज्ञान-वैराग्य का पंख लग गया अब वह इन्हीं पंखों के सहारे परब्रह्म परमात्मा रूपी गगन में उड़ान भरता हो, वही साधु कहलाता है। साधक जब स्वयं को साथ लेता है, शान्ता हो जात साधु कहलाता है। यह एक अत्यन्त विलक्षण शब्द है। आप जहाँ हैं वहीं रहें, जिस रूप में है, उसी रूप में रहैं। जो कर्म कर रहे हैं, वही करते रहें। साधुता की उपलक हो जायें। 'स्व' को उपलब्ध होना ही, साधुता को उपलब्ध होना है। साधुता को उपलब्ध होने के लिए सद्गुरु की जरूरत है। तभी तो कबीर साहब करते हैं
"काला मुँह करूँ कर्म का, आदर लांबू आग। लोभ बड़ाई छाड़ि के, राचों गुरु के राग"
बहुत दिन तक कर्म-काण्डों के फेर में पड़ा। बहुत तीर्थ-व्रत हो चुके। बहुत यज्ञ-कर्मकाण्ड हो चुके। बहुत स्वर्ग-नर्क की विधि हो चुकी। बहुत देवी-देवा को पूजा जा चुका। अब कब तक करोगे। क्या इसे करते-करते थक भी नहीं रहे हो। कई बार शरीर धारण किया कितने बार इन कर्मों के चक्कर में पड़ा अब तो इन कर्मों को त्याग दो। क्या होगा इन्हें अपनाकर ? क्या आदर-मान बड़ाई के चक्कर में हो ? अमुक कर्म करने से यह फल मिलेगा। यह यज्ञ कर्मकाण्ड करने से, संसार में तथाकथित मान-बड़ाई मिलेगी। साधु इस तथाकथित मान-बढ़ाई से अलग रहता है। मेरे एक मित्र हैं, महंत हैं। उज्जैन कुम्भ में मिले। मुझे अपने खेमे में चलने का आग्रह किया। मैंने पूछा क्या हो रहा है? वे बहुत गौरव से बोले- पोस्टर नहीं देखे, अखबार नहीं देखे, मैं अश्वमेघ यज्ञ कर रहा हूँ। बड़े-बड़े राजनेता बड़े-बड़े अधिकारी आते हैं। हमें इस कुम्भ में कौन नहीं जानता। स्वामी जी हम अब वह नहीं हैं जो आपने 5 से 10 वर्ष पूर्व देखा था। हमारी प्रतिष्ठा अब बहुत बढ़ गई है।
आप कब तक इस कर्म एवं मान-बड़ाई के चक्कर में पड़े रहोगे। अब तो इससे बाहर निकलो। लेकिन बाहर निकलने का कोई उपाय भी नहीं है। आदर-रूपी मान-बड़ाई के दल-दल में फैंस चुके हो। अब क्या किया जा सकता है। ये कच्चे कर्म हैं ही इसलिए। यदि सद्गुरु मिल गया तो कहीं इन कच्चे कर्मों का मुँह काला करा सकता है एवं आदर रूपी मान-बड़ाई में आग लगा सकता है। आग लगाने से कम में समझौता नहीं। ऐसी आग कि सभी जलकर भस्म हो जायेगा। उस आदर का नाम तक नहीं रहेगा, अस्तित्व तक नहीं रहेगा जब साधक कच्चे कर्मों का परित्याग कर देता है। आदर में आग लगा देता है तब लोभ अपने आप छूट जाता है। यह लोभ तथाकथित संन्यासी के यहाँ ही डेरा डाले रहता है।जब कभी आप को लोभ, मान, बड़ाई, कच्चे कर्मों को देखना हो आप किसी अबासी बाबा के यहाँ पहुँच जायें। ये सब के सब एक साथ आपको वहाँ दिखाई देंगे। इसी से सद्गुरु के राग (भक्ति) में लग जाओ। उन्हीं की भक्ति में अब नाच उठो। यह जग इन्हों कर्मों में बौराया है। पागल हुआ है। 'कर्म करि करि जग बौराय।' इन कर्मों से ही अहंकार ही वृद्धि होती है। अन्ततोगत्वा जीव इन्हीं कच्चे कर्मों में विद्ध हो जाता है।
"जीव करम में जल गया, कहै कहाँ ते राम। कंचन जला कबीर में, जाको ठौर न ठाम ॥"
जीव-कर्म में मलिन हो गया। अब राम का नाम भी कहाँ से लेगा। क्योंकि इन्हीं कच्चे कर्मों (देवी-देवता) से कंचनरूपी विचार मानों पथीर रूपी कुकर्मों से जल गया। जिससे इसको कहीं भी स्थिर स्थान नहीं है। जीवन अनमोल था परन्तु कौड़ी के बदले ही चला गया। अब क्या किया जा सकता है। इन कर्मों से छुटकारा तभी सम्भव है जब साधु रूपी सद्गुरु हाथ लगे। सद्गुरु साधक के अन्दर आग लगा देता है जिस आग में "मैं" यानी अहंकार जल जाता है। जो जीवात्मा गुरु की मदद लेने से भाग गया। वह उन कर्मों से विद्ध नहीं हो सकता। सद्गुरु कबीर अपनी वाणी में इसे निम्न प्रकार व्यक्त किये हैं।
"कहाँ करूं मैं जलि गया, अन्तर लागी आग।
राम नाम काठी करी, गया कबीरा भाग ॥"
यदि साधक गुरु के निर्देश में हरि भजन करे, सीधे रास्ते का अनुसरण करे तो शीघ्र ही परमात्मा को प्राप्त कर लेगा। जबकि आदमी उल्टा, टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चलने का आदी हो गया है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि सीधे-सीधे ही हरि उपलब्ध हो जाएँगे। आज के मानव ने यह धारणा बना ली है कि भगवान जंगल में ही मिलेगा। तीर्थ करने पर ही मिलेगा। तभी तो आज तीर्थों में भीड़ हो गयी है। किसी भी तीर्थ में इतनी भीड़ अभी हो गई है कि वह तीर्थ भी अब नरक सा प्रतीत होने लगा। एक धारणा यह भी है कि हरि यज्ञ से मिलेगा। आज जहाँ देखो यज्ञ होने लगा। इस यज्ञ के नाम पर सीधी-सादी जनता का मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक शोषण शुरू हो गया। बदले में उसे हाथ आयी निराशा। ये सब टेढ़े एवं कच्चे रास्ते हैं। अतएव सीधे रास्ते पर ही चलना श्रेयस्कर है। यदि साधक ठीक-ठाक गुरु का निर्देश मानकर सीधे रास्ते से यात्रा प्रारम्भ करे, तो अवश्य ही वह पहुँच जायेगा दया-धर्म तक। धर्म तक जाने का और कोई रास्ता है ही नहीं। जब साधक धर्म तक पहुँच जाता है या धर्म को उपलब्ध हो जाता है तो वह सहज ही विश्राम में चला जाता है। चूँकि साधक बहुत चल चुका। अब कहाँ जायेगा।जैसे नन्हा सा बच्चा माँ की गोद में जाकर विश्राम को उपलब्ध हो जाता है। जैसे ना हो जाता है। उसी तरह साधक धर्म को उपलब्ध होते ही विश्राम में चला निर्माता है। अब वह सब कर्मों से मुक्त हो जाता है। वह साधक साधु हो जाता है।
जिसे सद्गुरु यों कहते हैं -
"लिखा मिटै नहिं करम का, गुरु कर भज हरिनाम। सीधे मारग नित चलै, दया धरम विसराम ॥"
यदि इस तरह की साधुता आ जाती है। वह साधु किसी, पंथ का किसी सम्प्रदाय का नहीं होता। किसी मज़हब का नहीं, किसी से भी बँधकर नहीं रहता। वह तो बन्धन से मुक्त पूरी मानवता का होता है। इस तरह के साधु रूपी वृक्ष में जो फल लगता है। वह फल है, हरिनाम। जो भी उस वृक्ष की छाया में जायेगा। वह हरिनाम रूपी फल अनायास ही चख लेगा, जिसका परिणाम होगा विचार में शीतलता, नम्रता। अहंकार दूर भागता है। इन्हीं साधुओं के प्रभाव से संसार चल रहा है। यदि ये नहीं होते तो कभी का यह संसार जल गया होता।
"साधु वृक्ष हरिनाम फल, शीतल शब्द विचार। जग में साधु होत नहिं, जल मरता संसार ॥"
तभी तो आगे कहते हैं
"साधु नदी जल प्रेम रस, तहां प्रछाले अंग।
कहै कबीर निर्मल भया, हरि भक्तन के संग ॥"
यदि साधु को पेड़ मानते हैं तो उसमें राम नाम का फल अत्यन्त शीतल सुस्वाद लगता है। जो स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी शीतलता देता है। यदि साधु को नदी मानते हैं तो उसमें प्रेम-रस रूपी जल प्रवाहित होता है। प्रेम में हर समय देना होता है। भक्त भगवान को अपने को अर्पित कर देता है। प्रेम अनन्त की तरफ ले जाता है। लोभ में लेना लेना ही होता है। प्रेमी-प्रेमिका में लोभ के आते ही उनका प्रेम दो कौड़ी का हो जाता है। प्रेम शीरी-फरहाद का है। मीरा-कृष्ण का है। मीरा को कुछ नहीं चाहिये, वह गा रही है, कृष्ण के लिए, नाच रही है कृष्ण के लिए। श्वास ले रही है, कृष्ण के लिए। उसका एक-एक कण कृष्ण के लिए समर्पित है। यह प्रेम रूपी नदी। जो बह चली है अनन्त की तरफ। जो चाहे जी भरकर पी ले। वह रोकती नहीं। परन्तु पीना तो दूर है। उस प्रेम रस में अंग प्रछालने मात्र से मन निर्मल हो जाता है स्वच्छ हो जाता है। अब पीने पर क्या होगा ? साधक सहज ही अनुमान लगा सकता है। हरि भक्त के संग की महिमा अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। संग-साथ से मन-निर्मल हो जाता है। उस प्रेम-रस को पीने से तो तू भी दीवाना हो जायेगा एवं तुझ से भी वही प्रेमरस रूपी नदी अनायास ही निकल आयेगी। अबको अलग नहीं बचा सकते हैं। बचाने का उपाय भी नहीं। प्रेम का अर्थ होता है- श्रद्धा। पूर्णरूपेण श्रद्धा है गुरु पर। परमात्मा पर। प्रेम का अर्थ है- भरोसाथ पूरा-का-पूरा भरोसा है। अब सन्देह की गुंजाइश नहीं, क्योंकि सन्देह का अर्थ ही कुरा होश रखो, कोई लूट न ले, बचा कर रखो अपने को। हर समय बचाव के लिए हत्तर रहो। पता नहीं कहीं कोई आक्रमण न कर दे। जो हर समय सन्देह में, दुविधा मैं जी रहा है। वहाँ प्रेम रस रूपी नदी नहीं बह सकती है। आज का मानव सुरक्षा के नाम पर चट्टान बन गया है। पत्थर बन गया है। प्रेम देखना है तो देखो मुस्कुराते हुए फूल में। वही फूल प्रेम का प्रतीक है। जीवन का प्रतीक है। हर समय खतरे में है। धूप से, शीत से, आंधी-तूफान से। इतना ही नहीं तथाकथित साधु एवं संन्यासी से भी भयभीत है। कभी भी तोड़ सकते हैं-धर्म के नाम पर।
"कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आयी। अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई ॥"
गर्मी के तूफान से पेड़ के पत्ते गिर जाते हैं। पंक शुष्क हो जाते हैं। पृथ्वी फट जाती है। पेड़ की सूखी टहनियाँ आकाश की तरफ आतुरता से देखने लगती हैं। परन्तु जैसे ही बादल बरसता है, पेड़ हरे-भरे हो जाते हैं। पृथ्वी की दरारें बन्द हो जाती हैं। पेड़ खुशी से अनचाहे ही नाच उठते हैं। परन्तु कोई शास्त्री, कोई पण्डित, कोई विद्वान कहे कि मैं प्रवचनों की वर्षा से पेड़ को हरा कर दूँ, शास्त्रों के पाखण्ड से कर दूँ तो वह नहीं कर सकता है। चूँकि पेड़ को वास्तविक वर्षा चाहिए जिससे उसका एक-एक कण भीग जाये। शास्त्रों की व्याख्या में तो आदमी ही पड़ता है। रट लेता है रामायण, अब हो गया वह ब्रह्मज्ञानी। सच पूछा जाये तो अब इन शास्त्रों से प्रेम के बदले सन्देह बहने लगा है। इन शास्त्रों की आड़ में अपनी दुकानें जो इन्होंने चला रखी हैं। मुझे कल की एक घटना याद आ गयी। मैं बक्सर से दिल्ली आ रहा था मगध एक्सप्रेस से संयोग से ए.सी. टू. टायर में यात्रा कर रहा था। बक्सर के बाद दूसरे स्टेशन पर गाड़ी रुकी। कुछ जय-जय कार हुई। मैंने सोचा कोई नेताजी होंगे। दिल्ली जा रहे होंगे। चूँकि दिल्ली तो नेताओं की ही नगरी है, परन्तु देखता हूँ कि एक वृद्ध मौलाना साहब फूल माला से लदे हुए चढ़े। साथ एक औरत भी थी। सम्भवतः अच्छी पत्नी हो। मैंने देखा कि चार-पाँच व्यक्ति उनका सामान बढ़ाये जा रहे थे। साथ-साथ एक पुलिस अधिकारी भी उनकी सुरक्षा में सवार हुआ। खैर रात्रि का समय था। मैं विश्राम करने लगा। पुनः मेरी नींद खुली। जय-जयकार से। मैंने सोचा अब कौन आया भाई। देखा कि एक बहुत बड़े महात्माजी चढ़े। उनके साथ भी दो बच्चे एवं एक औरत थी। जो सब फूल-माला से लदे थे। इनके पास सामान उस मौलाना साहब से भी ज्यादा था। चूँकि इनकेऔर ज्यादा शिष्य चढ़ाने आये थे। मैंने सोचा जरूर ये अच्छे महात्मा हैं। खैर सुबह दर्शन किया जायेगा। हम लोग महात्मा को महात्मापन से नहीं आँकते। चूँकि हमारे पास जैसी कसौटी है वैसा ही हम आँकते हैं। अमुक नेता, अमुक अधिकारी फलाँ बाबा के यहाँ जाते हैं तो अवश्य ही, वह बड़ा है। बड़े पद वालों के जाने से वह बड़ा है। और कोई बड़प्पन नजर नहीं आता। खैर सुबह में शौच होने गया। तब बैंक पाँच बजे ही हमारे बर्थ के नज़दीक तीन आदमी और थे, वे उतर गये। वह भी तीन बर्थ खाली हो गए। मैं स्नान कर बाहर आया तो देखा कि बाहर के स्टूल पर मौलाना साहब बैठे थे। बीड़ी पी रहे थे तथा दूसरे हाथ में बीड़ी का बण्डल रखे हुए थे। मैंने उनसे सप्रेम- "हरि ॐ" बोला। वे हाज़ी मौलाना साहब झेंपते हुए बीड़ी बढ़ाये। वे सोचे ये अदब किये बीड़ी के लिए। मैंने कहा धन्यवाद। आप का दर्शन हो गया, यही काफी है। क्या आप खाली हैं। हमारा बर्थ खाली है। जरा आपका अमृत वचन सुनते। वे बीड़ी पीकर आ गये। बोले महाराज आप बीड़ी नहीं पीते। मैंने कहा नहीं। क्या सिगरेट पीते हैं या गांजा। मैंने कहा बस आपका प्रेम। आपके तो बहुत शिष्य चढ़ाने आये थे। बोल पड़े, हाँ हमारे लाखों से ज्यादा अनुयायी हैं। एक दरोगा हमें दिल्ली तक पहुँचाने आया है। मैंने कहा, क्या उन्हें भी यह धुक-धुकिया पीना सिखाते हैं? उनका चेहरा लाल हो गया। आप हमें ठीक से नहीं समझते हैं? बड़े-बड़ों की हिम्मत नहीं होती है हमसे इस तरह बोलें। मैंने कहा महाराज क्षमा करना। मैंने बहुत हिम्मत करके ही पूछा एवं मैं कोई बड़ा हूँ भी नहीं। तब वह बेचारे कहने लगे क्या कहें महाराज यह लत है जो छूटती नहीं। क्या आपके पास में कोई उपाय है कि इसे छोड़ दिया जाये। मैंने कहा कौन-सा उपाय था जो इससे जुड़ गये। अरे भाई, जुड़ना छोड़ दो। मन को उस परमतत्व में लगा दो। मन लत से दूर हो जायेगा। खैर मैंने उनको समझा-बुझाकर विदा किया एवं अब दूसरे महात्मा के दर्शन के लिए सोचा। मैंने उठकर महाराज के नज़दीक जाकर सप्रेम हाथ जोड़ "हरि ॐ तत्सत्" कहा। वे भी कुछ अन्यमनस्क भाव से प्रतिउत्तर दिए। मैंने निवेदन किया क्या आप अमुक व्यक्ति हैं? सहर्ष बोले, हाँ। मेरा नाम देश-विदेश में कौन नहीं जानता। अभी भारतवर्ष में रामायण प्रवचन में मैं ही प्रथम हूँ। खैर मैंने कहा, आपके यहाँ जगह की कमी है। आप कृपया मेरे बर्थ पर चलते तो आपका कुछ उपदेश सुन सकता था। वे बोले आप क्या इसी डिब्बे में हो। मैं बोला-हाँ महाराज आपके पीछे चारों बर्थ खाली हैं। सब हमारे ही जिम्मे हैं। वे तुरन्त खड़े हो गये। क्या आप अकेले हैं एवं चारों बर्थ एसी० टू० टायर की आपने ही आरक्षित करायी हैं। मैंने उनकी मनःस्थिति जानने के लिए कह दिया, लोगों एवं परिस्थिति ने कर दी। वे तुरंत हमारे साथ हो लिए एवं उनका छोटा लड़का भीसाथ-साथ आ गया। वे बोले स्वामी जी आपका परिचय। मैं संक्षिप्त में ही बोला,
दिल्ली रहता हूँ। हरिनाम लेता हूँ। आप ऐसे महात्मा का दिव्य सन्देश सुनने का
प्रयत्न करता हूँ। महाराजजी बोले- आप जरूर सिद्ध एवं उच्च कोटि के महात्मा
हैं। तभी तो चार-चार बर्थ आरक्षित कराये हैं। मैंने पूछा क्या सिद्धता का यही चिह्न
है। तो वे बोले हाँ महाराज ! सिद्ध एवं बड़े सन्तों के साथ तो बड़े लोग हैं। देखें
मेरे विषय में। वे आगे बोलते गये मेरे पिताजी साधारण व्यक्ति थे। मुझे किसी तरह
पढ़ाये। मैं रामायण रट गया। प्रवचन भी खूब सुना एवं जगह-जगह प्रवचन करने
भी लगा। शुरू-शुरू में कुछ कठिनाई हुई परन्तु बाद में सब ठीक-ठाक हो गया।
हमारी जाति के लोग बहुत धनाढ्य हैं, विदेशों में भी हैं। परिचय कुछ था ही।
प्रवचन के माध्यम से मैं शीघ्र ही उनके सहयोग से विदेश (अमेरिका) चला गया।
वहाँ मुझे बहुत चढ़ावा मिला। फिर क्या था, भारत वापस लौटा। यहाँ तो हम पूरे
भारत में छा गये। कौन नहीं जानता हमें। अब हमें कुछ कमी नहीं। कार है, अच्छी
कोठी है। पत्नी बच्चे आपने देखे ही। बच्चे को भी अभी से ही रामायण का प्रवचन
ही सिखा रहे हैं। इस धन्धे में मान प्रतिष्ठा के साथ चढ़ावा भी है। देखें, स्वामी
जी, अभी हम एक सप्ताह के प्रवचन से आ रहे हैं जिसमें ढाई लाख नकद का
चढ़ावा आया है। न बिक्री कर का भय न आयकर का। मैंने पूछा आप हिसाब कैसे
करते हैं? आपकी टेप, पुस्तक भी तो बिकती हैं। जहाँ आप जाते हैं, आपकी दुकानें
भी तो लगती हैं। वे मुस्कुराते हुए बोले- स्वामी जी, हमारे कौम के लोग बहुत
धनी शाहखर्च एवं धर्मभीरू हैं। उन्हीं के बच्चे एवं बच्चियों को दुकान पर बैठा
देते हैं। कहते हैं यह धर्म का काम है। वे धर्म समझकर सश्रम बेचते हैं एवं
एक-एक पैसे का हिसाब आकर दे जाते हैं। साथ ही हम प्रति-दिन शाम को
हिसाब मिला लिया करते हैं। मैंने कहा क्या करेंगे ये रुपये ? वे बोले, स्वामी जी
मैंने बोला न अत्यन्त गरीब परिवार से आया हूँ। बिना पैसे के क्या होगा ? मैंने कहा
आप दान का माहात्म्य कहते हैं, आप दान देते हैं कि नहीं। उनका लड़का झटपट
बोला- मैंने तो अभी तक नहीं देखा कि बापू जी किसी को कुछ भी दिए हों। हम
लोग भी कभी माँगते तो सामने खड़े किसी शिष्य से कह देते हैं। देखो भाई इस
बच्चे को दस रुपये दो। वही देता है। ये तो अपने पिताजी को भी एक रुपया नहीं
देते। कहते हैं कि तूने क्या किया आज तक। देखो तो मैंने युवावस्था में ही धन
कमाकर रख दिया। इनके पिताजी यानी हमारे बाबा कहते हैं कि बेटा हमें भी तीर्थ
करा दो तो ये बोले मैं श्रवण कुमार की कथा कहता हूँ। श्रवण कुमार नहीं हूँ जो
आपको लेकर घूमा करूँ। आप अपने कर्मों का फल स्वयं भोगें। इतना कहना था
कि रामायणी जी अपने बच्चे को एक तमाचा जड़ दिए एवं कहे कि यह लड़काशैतान है। कहाँ क्या कहना चाहिये इसे मालूम ही नहीं। वह भी गुस्से में बोला हमको आप कल ही प्रवचन देना सिखा रहे थे, जिसमें कहा कि हर मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिये, तो क्या मैं सत्य नहीं बोल रहा हूँ। वे पुनः दूसरा तमाचा लगाते हुए बोले-कि अरे शैतान तुझे बोलने के लिए तो मैंने नहीं कहा। तू क्यों अनर्गल प्रलाप करता है। खैर मैंने बीच में पड़कर बाप-बेटे का युद्ध किसी तरह विराम कराया। परन्तु वह लड़का वहाँ से उठकर यह कहते हुए चला गया कि स्वामी जी मैं छोटा हूँ, कमजोर हूँ इससे इन्हें छोड़ देता हूँ अन्यथा में भी बताता। मैंने कहा बापू जी आपको इससे अर्थलाभ तो होता है परन्तु आप 'अपने को' कब लाभ करेंगे? देखो, इस अर्थ की दौड़ में अनर्थ होने जा रहा है। यह भी एक धार्मिक शोषण हुआ। आप अत्यन्त विक्षिप्त हो, अशान्त हो, कुछ तो करो जिस से आपका भी कल्याण हो। परिवार का भी तथा समाज का भी। वे बेचारे आतुर स्वर में बोले स्वामी जी अब मैं इतना आगे चला आया हूँ। लाखों लोग मेरी शरण में आ गये हैं कि चाहकर भी वापस नहीं आ सकता। अब किससे ध्यान सीखें। पढ़ा तो हूँ। परन्तु किया तो नहीं हूँ। मेरी इच्छा भी होती है। परन्तु हर समय प्रवचन में सोचते रहता हूँ। अब क्या नया बोलूँ जो श्रोता को ताजा लगे, प्रियवर लगे। इसी में अपना प्रियवर भूल गया हूँ।
क्रमशः....