साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
यही स्थिति प्रत्येक मानव की है। हम सब अपना प्रिय भूलकर असहज हो गये हैं। सहज हो जाना ही साधुता है। यदि सचमुच में सहज हो गये हैं तो परमपिता परमात्मा का सामीप्य भी सहज ही सुलभ हो जाता है। हम अपने स्वरूप में स्थिर हो जाते हैं। जितना ही असहज होते हैं 'स्व' से दूर होते जाते हैं। तभी तो साधु के सम्बन्ध में गुरुदेव कहते हैं-
"भली भई जो भय मिटा, टूटी कुल की लाज। वे पर वही है रहा, बैठा राम जहाज ॥ हरि जी भये जो केतकी, भंवर भये सब दास। जहं जहं भक्ति निर्मला, तहं-तहं राम निवास ॥"
ज्यों ही आप सहज होते हो, भय अपने आप मिट जाता है। अब भय के टिकने का कोई उपाय नहीं है। चूँकि जब तक भय है तब तक हरि नहीं है। दुनिया के सारे धर्म भय सिखाते हैं। देखो मन्दिर जाओ, पूजा अर्चना करो नहीं तो भगवान क्रोध करेंगे। नरक चले जाओगे। नर्क की यातनाओं का भी वर्णन है। बच्चा भयभीत है, युवक भयभीत है, वृद्ध का तो भयभीत होना स्वाभाविक है। माँ बच्चों को भयभीत रखती है। कभी बिल्ली का भय, तो कभी कुत्ते से, तो कभी साधु बाबा से। जैसे-जैसे बच्चा बिल्ली, कुत्ते को जानने लगता है माँ अड़चन में पड़ जाती है। चूंकि बच्चा भयभीत नहीं रहेगा तो बेहाथ हो सकता है। अतएव नई-नई तरकीबें सोचती है। वह तरकीब अदृश्य हो सकती है। अतएव कहती है सो जाओ, वहीं तो भकाऊँ खा जायेगा। प्रेत खा जायेगा। अब बच्चा प्रेत से भयभीत हो सो जाता है। माँ निश्चिन्त हो जाती है। इसी तरह हमारे पुरोहित पण्डित जनमानस को डराते हैं। जो समाज जितना ही डरता है, भयभीत है। वह उतना ही धर्मभीरू है। आप पायेंगे मन्दिर पर भीड़, मस्ज़िद में भीड़ या गुरुद्वारे में भीड़। ये सब भीड़ धर्मभीरू की है। तथाकथित धर्म से डरे हुए लोगों की है। उसमें एक भी निर्भीक व्यक्ति मिलना मुश्किल है। जबकि भययुक्त व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो ही नहीं सकता। अब अन्धकार कहे कि मैं तो रहूँगा ही एवं सूर्य के प्रकाश को उपलब्ध भी होना चाहता है। यह कैसे सम्भव है।
"निर्भय भये तहं गुरु की नगरियां।"
जहाँ निर्भय हुआ, वहीं गुरु का नगर है। वही परमपिता का नगर है। इसी से सद्गुरु कहते हैं कि जो भय पीछा करता था। वह अब मिट गया। बहुत अच्छा हुआ। अब इससे पीछा छूट गया। भय के मिटते ही कुल-खानदान की लज्जा भी टूट गयी। कई जन्मों से ढो रहा था। बहुत बेचैन था। मैं अमुक कुल का हूँ। अमुक खानदान का हूँ। अब वह भी टूट गया। भार हल्का हुआ। यह भार झेलना अत्यन्त कठिन है। मेरे एक मित्र हैं वे जहाँ जाते हैं बिना पूछे कहते हैं मैं अब संन्यासी हूँ। मेरे पिताजी बहुत बड़े प्रगाढ़ राजज्योतिषी थे। मैं भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण हूँ, इत्यादि। ये सब बिना पूछे एक स्वर में कह देते। एक दिन मैंने पूछा आपसे कौन पूछता है? वे बेचारे बोले- अरे स्वामी जी! आज कल शूद्र भी संन्यासी होने लगे हैं। लाल वस्त्र पहनते हैं। अब बताओ कहीं छू गया तब। मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा। मैंने उनसे पूछा- संन्यासी बड़ा या जाति। संन्यासी होकर भी अपने लौकिक कुल को लेते आये तब बताओ आपका ही 'ब्रह्म सत्यम्। या जाति सत्यम्।' वे बोलते- ये तो हम लोग केवल उपदेश देते हैं न, अब आप ही बताओ इसे कैसे छोहूँ। कभी-कभी सोचता हूँ कि यह सब मिथ्या है, नहीं सोचना चाहिये परन्तु छूटता नहीं। कैसे छूटेगा ? चूँकि अन्दर भय विराजमान है। जब निर्भय होते हो तो उसमें आपके तथाकथित कुल की तथाकथित मर्यादा, लाज टूट जाती है। मन चिन्ता से मुक्त हो जाता है। बहुत हो चुकी परवाह। बहुत हो चुकी चिन्ता, अब उससे भी बेपरवाह हो गया। अब तो राम नाम के जहाज पर ही बैठ गया। अब क्या चिन्ता, कहाँ भय, किस बात की लज्जा। यह जहाज तो अपने आप वहाँ पहुँचा देगा जहाँ हमारा गंतव्य है।
अब हम किस पुष्प को तोड़ें, किस हरि को चढ़ाएँ। अब तो नज़र आने लगाकि हमारे हरि जी ही पुष्प हो गये। केतकी हो गये। मैं ही भँवरा हो गया। सभी साधु ही भँवरा हो गये। अब भक्ति अत्यन्त निर्मल हो गयी। पवित्र हो गयी। तब तक भक्ति निर्मल नहीं थी। जब तक कर्मकाण्ड था। चूँकि पहले अमुक मन्त्र ऐसे बोलें, अन्यथा दोष आएगा। पाप पड़ेगा। अमुक को ऐसे करो अन्यथा दण्ड भोगना पड़ेगा। यह भय था। अब हरि रूपी केतकी में ही मैं भँवरा बनकर सुगन्ध का रसास्वादन करने लगा। अब भक्ति निर्मल हो गयी। भक्ति के निर्मल होते ही राम का निवास हो गया। अब बात कुछ उल्टी हो गयी। पहले हरि रूपी पुष्प पर मैं भँवरा रूप से था। अब हरि ही सर्वत्र है। राम ही सर्वत्र है। मेरे रहने का कारण भी समाप्त हो गया। अब सर्वत्र राम का ही निवास नज़र आ रहा है।
साधु की महिमा
साधु की महिमा अनन्त है। इस तरह के साधु का घर-द्वार, आश्रम नहीं होता। मढ़-व मन्दिर नहीं होता। जहाँ रहता है, वहीं आश्रम है। जो साथ है वह सहयोगी है। जिस गर्भ से जन्म लेता है वह भी धन्य हो जाती है।
"धन्य सो माता सुन्दरी, जाको साधु पूत।
राम सुमरि निर्भय भया, अरु सब गया अऊत ॥"
सब माँ सुन्दरी नहीं हैं। जिसका पुत्र साधु हो गया है वही सुंदरी है और सबने तो पशु तुल्य ही बच्चे को जन्म दिया। पृथ्वी का बोझ बढ़ाया। सुन्दर वही है जो सत्य हो एवं शिव हो। जिसका पुत्र साधु हो गया हो व सत्य को प्राप्त कर लिया हो। शिव को प्राप्त कर लिया हो। सुन्दरता को उपलब्ध हो गया हो। वही माँ सुन्दरी है। वह साधु, राम का स्मरण कर निर्भयता को उपलब्ध हो गया। अब उसके सारे अऊत (ऊपरी बाधा) समाप्त हो गये। सारे उपद्रव गिर गये। अब कैसा उपद्रव। उपद्रव तो तभी तक था जब राम नहीं था। निर्भयता नहीं थी। उसके आते ही उपद्रव स्वतः समाप्त हो जाते हैं। आगे कहते हैं-
"कबीर कुल सोई भला, जा कुल उपजै दास।
जा कुल दास न उपजै, सो कुल ढाक पलास । ।"
जिस कुल में दास, (हरि भक्त) उपजता है वह कुल धन्य हो जाता है। उसी कुल की कीर्ति, ख्याति रह जाती है। जैसे राणा खानदान को कौन जानता ? बहुत सारे कुल हुए मर गये। कीड़े-पतिगों की तरह चले गये। कौन याद करता है। परन्तु इस खानदान में मीरा हो गयी। अब यह कुल ही याद हो गया। जिस कुल में हरि भक्त उपजते हैं वह कुल धन्य हो जाता है। जिस कुल में हरि भक्त नहीं उपजते वह कुल ढाक-पलाश के तुल्य हैं। यदि अमृत की वर्षा भी हो तो ढाक-पलासमें फल नहीं लगता। वह यों ही रहता है। जैसे "मूरख हृदय न होहिं चेति, जो गुरु मिलहि विरंच सम्।" यदि साक्षात् ब्रह्मा भी गुरु बन जायें तो मूर्ख के हृदय मैं चेतना का संचार नहीं हो सकता। अतएव कुल भी धन्य वही है जिसमें हरि भक्त का जन्म होता है।
"जा घर साधु सेवा नहिं, पार ब्रह्म पति नाहि।
ते घर मरघट सारिखा, भूत बसै ता ढांहि॥"
जिस घर में भी ऐसे साधु चले जायें वह घर धन्य हो जाता है। उस घर का समझो भाग्य ही पलट गया। समझो सगुण रूप में पर ब्रह्म पिता परमात्मा का ही आगमन हो गया। जैसे शबरी के घर परमपुरुष आ गये। विदुर के घर कृष्ण आ गये। विदुर के घर भी गये। कर्ण के घर भी गये। परन्तु आप देखें कौन उनको उपलब्ध हुआ। ऐसे साधु की सेवा जिस घर में नहीं हो। परब्रह्म पर प्रतीति नहीं हो। वह घर, घर नहीं कहा जा सकता। उस घर में आदमी का निवास नहीं कहा जा सकता। वह घर अवश्य ही मरघट है। शमशान भूमि के समान है। जहाँ मुर्दे जलते हैं। भूत बसते हैं। वह घर चलते-फिरते मुर्दों का है। भूतों का है। इसी से अभी कोई घर, घर सा प्रतीत नहीं होता। यदि वह घर-सा रहेगा तो घर एवं आश्रम में कोई अन्तर ही नहीं। घर एवं शमशान में अन्तर अवश्य है। सभी घर में भूत डेरा डाल दिए हैं। इसी से अभी ओझा गुनी की बाढ़ आ गयी है। चूँकि घर-घर में भूत आ गये हैं। "भूतवा के पूजि सो भूतवा होई।" जो भूत का पूजन करता है वह भी भूत योनि को ही प्राप्त होता है। इसी से घर-घर में भूत फैल गये हैं। जो उस घर में रहते हैं। वे भी चलते-फिरते प्रेत ही हैं। समान गोत्र जाति के एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। यदि आप में परब्रह्म को पहचानने की क्षमता है। उसमें प्रीती है तो उसकी सेवा आप अवश्य करेंगे। तब प्रेत आपके घर में कैसे निवास कर सकते हैं। यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप घर को प्रेत का निवास स्थान बनाना चाहते हैं या साधु का या परब्रह्म का। इसके लिए आपको स्वतंत्रता है।
"साकट ब्राह्मण मति मिलो, साधु मिले चण्डाल।
जाहि मिले सुख उपजै, मानो मिले दयाल ॥"
साधु की जाति नहीं होती। वह तो ब्रह्मस्वरूप ही होता है। वह ब्रह्म की ही जाति हुआ फिर भी लौकिक दृष्टिकोण से भी भक्त भगवान् से सप्रेम प्रार्थना करता है कि हे भगवान! आप हम पर कुछ भी प्रसन्न हो तो साकट ब्राह्मण मत मिलने दो। साकट ब्राह्मण, हिंसक ब्राह्मण, मांसाहारी ब्राह्मण, व्यभिचारी ब्राह्मण का दर्शन मत होने दो। यदि दर्शन ही देना है तो भले ही चाण्डाल कुल में उत्पन्न साधु का ही दर्शन दो। रविदास के चलते ही मीरा कृष्ण को प्राप्त कर गयी। चाण्डाल सदनाकसाई परब्रह्म परमेश्वर को उपलब्ध हो गये। वाल्मीकि लव-कुश के गुरु हुए। इनके मिलने से सुख उपजता है। जैसे "सूखत धान पराजस पानी" धान सूख रहा हो। वर्षा हो जाये। वह धान की फसल लहरा उठती है। उसी तरह इन साधु के दर्शनमात्र से सुख उपज जाता है। मानो दीन दयाल ही मिल गये। अब दोन को दीनता को दयालुतावश हरण कर लिए।
साधु आवत देखि के, चरणो लागो धाय। क्या जानो यह भेष में, साहब ही मिलि जाये ॥ साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह।
माथे का ग्रह कतरी, नैनन बड़ा स्नेह ॥ आवत साधु न हरषिया, जात न दीया रोय।
कहै कबिरा वा दास की, मुक्ति कहाँ ते होय ॥
सद्गुरु कहते हैं कि कहीं आपको रात्रि विश्राम ही करना हो तो साधु की झोंपड़ी ही अच्छी है। जहाँ आपको ज्ञान-वैराग्य तो मिलेगा। दिल-दिमाग शान्त तो रहेगा। आप चैन का श्वास तो ले सकते हो। जहाँ आपका केवल हित है। अहित की सम्भावना है ही नहीं। लेकिन साकट का गाँव में क्या ठिकाना है? वहाँ रहने का आराम तो मिल सकता है परन्तु क्या ठिकाना हम वापस भी लौटें या नहीं। इसी तरह चन्दन की कुटकी ही अच्छी है। छोटी लकड़ी अच्छी है। जिसको घिसकर सर पर रखें तो शीतलता तो देयी। सुगन्ध तो देगी। क्या करेंगे बबूल के जंगल को। जहाँ विश्राम करने जायें तो भी काँटा ही चुभेगा। टहलने निकले तो पैर से खून ही निकलेगा।
साधु को यदि आपने देख लिया कि वह आ रहा है तो सोचने-विचारने की जरूरत नहीं। ग्राम नाम पूछने की जरूरत नहीं। दौड़कर चरणों में लिपट जाओ। अन्यथा सन्देह में, शंका में ही समय बर्बाद हो जायेगा। पता नहीं इसी भेष में साहब (परम पिता) ही हों। अतएव पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास से उनके चरणों में लिपट जाओ। ऐसे साधु को आते देखकर भक्त की देह, शरीर स्वतः ही हँसने लगती है, प्रफुल्लित हो जाती है। माथे पर बहुत बोझ रूपी ग्रह जो लिए फिर रहा था। वह अब उतर जाएँगे ही नहीं, उतर गए। नैन में स्वतः स्नेह उमड़ पड़ा। प्रेम से भर गया। जब आँख में प्रेम भर हा गया तब अब ग्रह रूपी बोझ सिर पर कैसे रहेगा। यदि साधु को आते देखकर भी दिल हर्षित नहीं हुआ एवं जाते समय दिल रो नहीं दिया तो उस भक्त की मुक्ति कैसे होगी। चूँकि मुक्ति का मालिक वह साधु आया एवं गया आप पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा तो आपकी कैसे मुक्ति होगी। असम्भव है।
"वेद कथत ब्रह्मा थके, थके जु शेष महेश। गीता हूँ की गम नहीं, सन्त किया प्रवेश ॥
तीरथ न्हाये एक फल, साधु मिले फल चार। सद्गुरु मिले अनेक फल, कहै कबीर विचार ॥ दर्शन कीजै साधु का, दिन में कई-कई बार। आसोजा का मेह ज्यों, बहुत करै उपकार ॥ हरि सा तू मति हेत कर, कर हरिजन सो हेत। माल मुल्क हरि देत है, हरिजन हरि हि देत ॥"
सन्त शान्त हो जाते हैं। उनका प्रवेश शान्ताकार में हो जाता है। वे आनन्दचित्त हो जाते हैं। ब्रह्मा वेद (ज्ञान) कहते थक जाते हैं। ब्रह्म को उपलब्ध नहीं होते। शेष, महेश भी ज्ञान कहते-कहते थर्क गये। शान्त नहीं हो पाये। जो शान्त हो जायेगा वह धकेगा कैसे ? थकता तो है वह जो अशान्त हो। तीर्थ नहाने से तो एक फल मिलता है। शरीर शुद्ध होता है। धर्म मिलता है। परन्तु यदि साधु मिल गया तो क्या पूछना है। चारों फल अनायास अपने आप मिल जाते हैं। जिसके लिए जन्म-जन्म मुनि जप-तप करते हैं, मनन करते हैं तब भी नहीं मिलता। परन्तु साधु के मिलने पर चारों फल-अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष स्वतः ही मिल जाते हैं।
सद्गुरु मिल जाये तो फिर क्या पूछना है। उनका फल तो अनन्त है। चूँकि सद्गुरु तो स्वयं अनन्त हैं। वे तो अनन्त से ही जोड़ देते हैं। इसी से कहा गया है कि साधु के दर्शन में विलम्ब मत करें। जैसे उद्यम रहित मनुष्य लक्ष्मी से वंचित रहता है वैसे ही साधु दर्शन से वंचित मनुष्य चारों फलों से। यदि सम्भव हो तो साधु पुरुष का दिन में कई-कई बार दर्शन करो। इस साधु रूपी सद्गुरु को मन के मन्दिर में बैठा लो। चलते, फिरते, घूमते दर्शन करते रहो। जैसे स्वाति का बादल बरसता है तो केला में पड़ने पर कपूर, बाँस में पड़ने पर बंसलोचन एवं सीप में पड़ने पर मोती बनता है। उसी प्रकार साधु रूपी बादल बरस कर हमारे ऊपर बहुत उपकार करता है। इनका उपकार अनन्त है। इसी से तो आगे कहते हैं हरि से हेत करने (सम्पर्क करने) की कोई जरूरत नहीं है। यदि हरिजन से प्रेम हो गया तो काफी है क्योंकि हरि तो माल एवं मुल्क ही देगा। हरि प्रसन्न होने पर लक्ष्मी एवं राज्य प्रदान कर सकता है परन्तु हरिजन तो हरि को ही दे देता है। हरिजन से प्रेम करना श्रेयस्कर है। हरि तो पीछे अपने आप आ ही जायेगा।
????सद्गुरु के बिना तप अहंकार लाता है????
इन्हीं प्रसंगों में एक कथा याद आ रही है। यह श्रीमद् भागवत पुराण की कथा है। राजा अम्बरीष अपने घर को ही आश्रम बना चुके हैं। प्रजा को ही शिष्य बना चुके हैं। पत्नी-पुत्र को अपनी साधना पथ के सहयोगी। ये साक्षात् हरिजन हो गये।तभी तो साहब कहते हैं-
"हरि से तो हरिजन बड़े, समुझि देखु मन माहि। कबिरा सब जब हरि विर्ष, सो हरि हरि जनमाहि॥"
हरिजन हरि से भी बड़े हैं। यह कहने एवं सुनने से ज्ञात नहीं होगा। अपने मन
के अन्दर मनन करने पर मालूम होगा। मन के अन्दर झाँकने पर दिखाई पड़ेगा।
जब सब में हरि ही बस रहा है, सब जगह ही हरिमय है परन्तु उस हरि का प्रत्यक्ष
दर्शन करना चाहते हो, तो हरिजन के दर्शन कर लो। साधु में देख लो। वहाँ वह
सगुण रूप में प्रत्यक्ष विराजमान है। भले आप जंगल चले जाओ। योग-जाप कर लो। एक पैर पर खड़ा रहकर, एक हाथ ऊपर उठाकर तप कर लो। अहंकार तो आ जायेगा। हरि हाथ नहीं आयेगा। प्रेम हाथ नहीं आयेगा। करुणा हाथ नहीं
लगेगी। सिद्ध बाबा हो सकते हो। श्राप-आशीर्वाद दे सकते हो। पूजा हो सकती है परन्तु प्रेम का निर्झर आप से नहीं निकल सकता। ऐसे ही तपस्वी थे परशुराम,दुर्वासा। ऐसे ही तपस्वियों से भारतीय पुराण भरे पड़े हैं। जरा-सा कुछ हुआ नहीं
कि क्रोध धधक उठा। जरा-सा चोट लगी नहीं कि काम बाहर बदसूरत होकर आ गया। ऐसे ही ऋषि थे- च्यवन, सौभरी। तप करते गए। तपस्वी बाबा हो गये।
संसार में ख्याति हो गयी। सुकन्या रूपी अबोध लड़की को देखते ही काम कुरूप होकर बाहर निकल आया। मछली को देखकर सौभरी का काम बाहर आ गया।
जितना अपने तथाकथित रूप से संसार का भला नहीं किया उससे ज्यादा इस संसार का अनिष्ट कर दिया। अपने तप का प्रभाव दिखाकर, अपने श्राप का भय
दिखाकर, अपनी सिद्धियों का लोभ दिखाकर। इस तरह के नमूने वर्तमान में भी
कम नहीं है। इनकी संख्या में वृद्धि हो रही है। खैर हर समय साधु-पुरुष, सद्गुरु
की संख्या नगण्य ही रही है। जिन्हें पहचानना संसार एवं संसारी के लिए अत्यन्त
कठिन है। चूँकि मानव ने सदा से असहजता में विश्वास किया है। सहजता से मानो उसे बैर है। वह सोचता है सद्गुरु कहीं जल में खड़ा तप करता होगा। कहीं गर्मी
में पंचाग्नि लेता होगा। कहीं हिमालय की बर्फ में नंग-धड़ंग खड़ा होगा। वह इस संसार में क्यों आयेगा ? क्या जरूरत है जो हमारे साथ है, सहजता से है फिर उसमें हममें क्या अन्तर है। कभी भी उसके अन्तर तल में उतरने की हिम्मत नहीं करते।बस साधारण, अति साधारण व्यक्ति समझकर उससे दूर ही रहना चाहते या उपेक्षा करने या समय पर निन्दा करने से भी नहीं बाज आते। कहते हैं वह महात्मा बनता है। कबीर, नानक, दादू, पलटू, राम हो या कृष्ण। बताओ इनमें क्या विशेषता है।इनका भी घर है, परिवार है, बच्चे हैं, कामधन्धा है। बहुत बनता है, भगवान का
नाम लेकर ठगता है। अपने को साधु कहता है। यह तो ढकोसले वाला है इत्यादिप्रकार के व्यंग रूपी बार्णो से व्यथित करने का प्रयत्न करते हैं। कभी उसके नज़दीक जाकर उसकी आँखों में झाँकने तक की कोशिश नहीं करते। इस प्रकार समय चूक जाते हैं। जब वह महामानव यहाँ से जा चुका होता है। बस पछतावा हाथ लगता है। चूँकि हम जीवन-भर तो दौड़े, वहाँ, जहाँ कुछ नहीं था। हाथ लगा भी तो क्रोध, काम, लोभ, अहंकार। ऐसे ही साधु पुरुष थे- राजा अम्बरीष। जिन्हें लोग पहचानते नहीं थे। जन-साधारण तो क्या ऋषि दुर्वासा तक नहीं पहचाने। एक अतिसाधारण व्यक्ति से जो व्यवहार अपेक्षित है, वह भी अम्बरीष से नहीं किया गया। सद्गुरु जैसे ही शिष्य में उतरता है। उसकी ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन प्रारम्भ होता है। अन्यथा वह काम केन्द्र मूलाधारचक्र स्वाधिष्ठान चक्र पर ही घूमता रहता है। उसका दमन होता है। जो अवसर पाते ही बाहर निकल आता है। ऋषि का सारा तप क्षणभर में स्वाहा हो जाता है। सद्गुरु इसी काम को ब्रह्मचर्य में बदलने की कला प्रदान करता है।
क्रमशः....