साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

विश्वमित्र का यज्ञ

    महर्षि विश्वमित्र सिद्धाश्रम में रहकर तप ध्यान करते हुए नित नये-नये विश्व कल्याणमूलक अनुसन्धान करने लगे। यह सिद्धाश्रम वर्तमान बक्सर था। जो चौरासी कोस में फैला था। पूर्व में सोन नदी तथा पश्चिम में मोहनियाँ जहाँ भगवान् ने मोहिनी रूप धारण किया था, फैला था। इनके साथ चौरासी हज़ार शिष्य रहते थे। इससे यह अन्दाज लगाया जा सकता है कि कितने शिक्षक सेवक रहे होंगे। आज भी इतनी बड़ी संख्या वाला कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है। उस विश्व-विद्यालय में सभी वर्गों के छात्र योग्यतानुसार शिक्षा ग्रहण करते थे। जिसके कुलश्रेष्ठ थे-विश्वमित्र। इस विश्वविद्यालय में देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर संस्कृति के लोग भी विद्याध्ययन करते रहे। यह विद्यालय मानवता का प्रतीक बन गया। इसकी ख्याति त्रिलोक में शीघ्र ही फैल गयी। सभी अपने बच्चों का दाखिला इस विद्यालय में कराना चाहते थे, जिसका परिणाम था आध्यात्मिक, नैतिक, आर्थिक, शारीरिक विकास ।

       यह विद्यालय प्रेम का निर्झर बन गया जिसमें सभी समभाव से स्नान कर सुस्वादु एवं सुरूचि जल का पान करते। सभी विषमता का परित्याग कर प्रेम के आलिंगन में बद्ध हो गये। यह भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने विशाल विद्यालय का खर्च कैसे चलता था? क्या अयोध्या या काशी, मगध जैसा छोटा राज्य इसका खर्च वहन कर सकता था? यह कदापि सम्भव नहीं था। आखिर खर्च चलता कैसे था ? क्या भिक्षाटन से। बहुत सोच-विचार के पश्चात् यही ज्ञात होता है कि इसके खर्च के लिए विश्वमित्र ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। इनका राज्य ही इस आश्रम हेतु अर्पित था। जिसके विश्वविद्यालय में अनेक छात्र पढ़ते थे। वे समभाव शिक्षा के प्रेमी थे। वे अहिंसक थे। अतएव वे भी हिंसापूर्ण यज्ञ का विरोध करते रहे। ऐसा कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने कभीकिसी भी प्रकार की हिंसा (हत्या) करी हो हाँ, देवर्षि एवं देवगण अवश्य हिंसा करते एवं ऐसे ही यज्ञों का अनुष्ठान करते, कराते। जिसका वे भरपूर विरोध करते अंत में इस तरह के यज्ञ बन्द ही हो गये। महर्षि विश्वमित्र की कीर्ति तीनों लोकों में समभाव से फैल गयी। सभी इनकी स्तुति वन्दना करने लगे।

   "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः" के अनुसार गायत्री यज्ञ के साथ ज्ञान यज्ञ के प्रचार-प्रसार ने जोर पकड़ लिया। सभी कुल, वर्ण, गरीब, धनी के लड़के समान रूप से ज्ञान पाने लगे। यही था "विश्वमित्र का यज्ञ।"

      वशिष्ठ की कूटनीति

    आप काम चाहे कितना ही अच्छा करें, उसमें कुछ-न-कुछ अवरोध आना भी निश्चित ही है। चूँकि कुछ लोग ऐसे होते ही हैं जिन्हें सबका विकास, सबका आनन्द अच्छा नहीं लगता। उनके अहंभाव पर चोट लगती है तो उनके अहंकार की, ऊँच-नीच की, गरीब-धनी की, समान असमान की व्यवस्था गिरते नज़र आती है जिससे उनका आहत होना स्वाभाविक है। उन्हें कष्ट होने लगता है सभी पढ़ जायेंगे तो आखिर हमारा भविष्य क्या होगा ? हमारा खानदान क्या करेगा ? हमें कौन पूछेगा ? हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा इत्यादि प्रश्न से आबद्ध होकर छटपटाने लगते हैं। भयभीत हो अपनी रक्षा हेतु नाना प्रकार की कूटनीति का आश्रय लेने लगते हैं। भले ही उसमें बहुतों का क्षय है। वहाँ तो स्वार्थ की रक्षा के लिए कोई भी कदम उठाना धर्म-सा प्रतीत होता है। अपने अस्तित्व की रक्षा करना ही उन्हें परम कर्तव्य मालूम होने लगता है। यही कारण था विश्वमित्र से जलन का। उस समय के देवर्षि लोगों के यज्ञ एवं विद्यालय बन्द होने लगे थे। वशिष्ठ, भृगु, विश्रवा, अगस्त्य, आदि देवर्षि का अस्तित्व खतरे में नज़र आ रहा था। अतएव किसी भी तरह विश्वमित्र के विद्यालय को बन्द कराना ही इनका उद्देश्य हो गया। वशिष्ठ के नेतृत्व में देवलोक में मन्त्रणा होने लगी। सभी देवता किसी भी तरह महाराज रावण को अपने पक्ष में मिलाने के लिए विचार-विमर्श करने लगे। चूँकि रावण का मैत्री सम्बन्ध था मानव संस्कृति से। उसने अपने पितामह ब्रह्मा से आशीर्वाद भी लिया था कि मेरी मृत्यु देवताओं से, राक्षसों, गन्धवों एवं यक्षों से नहीं हो चूँकि उसे मानव संस्कृति की नैतिकता एवं चरित्र पर अटूट विश्वास था। वह इनके ही सान्निध्य में रहना चाहता था। जो देवता आज तक रावण से खिन्न थे। एकाएक उससे प्रसन्न हो गये। उसी का गुणगान शुरू कर दिया। सारे देवगणों ने उसी के यहाँ खेमा डाल दिया। उसके श्रीवृद्धि से लेकर, सड़क की सफाई तक का काम स्वयं करने लगे। धीरे-धीरे देवगणों ने उसके राज्य का सारा काम स्वेच्छाहसे उन्हें प्रसन्न करने हेतु सँभाल लिया। पहले तो उन्हें अटपटा-सा लगा कि ये संवता इतने सेवा निपुण एवं अनुशासित कैसे हो गये ? परन्तु कालान्तर में रावण को श्री अच्छा लगने लगा। किसे नहीं अच्छा लगेगा कि कोई उसके राज्य का सारा काम ही सँभाल ले। पानी बरसाने से लेकर सीमा सुरक्षा तथा गाँव नगर की सफाई के साथ-साथ कोष की वृद्धि भी करता हो। रावण की हर आज्ञा का पालन होता हो। यहीं महाराज रावण चूक गये। अन्यथा उनका राज्य आज तक स्थिर होता। चन्द्रमा से एकाएक कालिमा हट जाये तो महान् उपद्रव समझना चाहिए कि कोई अनहोनी घटना अवश्य घटेगी। दुष्कर्मी व्यक्ति एकाएक रामनामी ओढ़कर घूमने लगे तो समझना चाहिए अवश्य कोई खतरा करने वाला है। यही हुआ महाराज रावण के साथ। वशिष्ठ की कूटनीति ने साथ दिया। वशिष्ठ जैसा कूटनीतिज्ञ इस पृथ्वी पर अभी तक नहीं हुआ। कूटनीतिज्ञ किसी तरह राज्य के शीर्ष पर रहना चाहता है। भले ही उसके लिए कोई माध्यम हो। वह उसमें पाप-पुण्य नहीं देखता। उसका उद्देश्य ही महत्वपूर्ण होता है। विधि गौण हो जाती है। भले ही मानवता को दाँव पर लगाना पड़े।

   महाराज रावण का देवताओं के वश में हो जाना

      महाराज रावण स्वयं स्वरोदय शास्त्र के ज्ञाता थे। सम्भवतः वे ही उस समय इस पृथ्वी पर स्वर साधक (स्वरोदय) शास्त्र के ज्ञाता थे। उनका ज्योतिष पर भी अनुसन्धान था जो रावण संहिता के रूप में है। तंत्र पर भी खोज थी जो रावण तंत्र के रूप में है। वे विश्वमित्र के सान्निध्य में रहकर नित नये-नये अनुसन्धान में जुटे रहते एवं मानव के सुख-सुविधा, चरित्र निर्माण मूलक, कार्य करते रहते। परन्तु देवताओं ने उन्हें अपनी सेवा से इतना खुश कर दिया कि रावण ने अपने राज्य की सुधि तक खो दी। शनि देव तक अपनी वक्र दृष्टि का परित्याग कर लंका की नींव का निर्माण कार्य करने लगे। विश्वकर्मा नये-नये महल (मन्दिर) वाटिका, तालाब का निर्माण करने लगे। देवेन्द्र स्वयं अप्सराओं के साथ निवास करने लगे। प्रजा चूँकि पहले से देव संस्कृति की थी ही अतएव देव संस्कृति को फैलते देर नहीं लगी। रावण देवताओं के चंगुल में धीरे-धीरे कसते गये। अब वे तंत्र-तप भूलकर दिन-रात देवताओं के साथ सोमरस का पान एवं अप्सराओं के साथ रमण में संलग्न हो गये। प्रजा का कल्याणमूलक कार्य भूलने लगे। देव प्रजा उनका साथ देने लगी। शासन की बागडोर धीरे-धीरे देवगण के हाथ आ गयी। देव विहित यज्ञ का पुनः श्रीगणेश होने लगा।

     यह भी पहले अगस्त्य एवं विश्रवा के क्षेत्र में ही प्रारम्भ हुआ। इन यज्ञों मेंपुनः पशुबलि से लेकर सोमरस का प्रावधान शुरू हो गया। धीरे-धीरे इनका उत्पात दण्डकारण्य से लेकर किष्किंधा, चित्रकूट, प्रयागराज होते हुए आगे बढ़ चला। मानवता पुनः सशंकित हो उठी। जिससे विश्वमित्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था। जो ताड़िका, मारीच, सुबाहू विश्वविद्यालय की रक्षा का कार्य करते थे वे भक्षक से बन गये। मानवता एक बार फिर लज्जित हो गयी। इधर देवर्षियों को सन्तोष हुआ। विश्वमित्र के ज्ञान यज्ञ में नित्य नये-नये विघ्न उत्पन्न होने लगे। कभी शिक्षकों का अपहरण, कभी विद्यार्थियों का। विश्वविद्यालय रूपी ज्ञान का अस्तित्व खतरे में नज़र आने लगा। रावण के द्वारा जो भी धन मुहैया किया जाता था, बन्द कर दिया गया। उधर वशिष्ठ के नेतृत्व में अश्वमेघ, गोमेघ, नरमेध यज्ञ प्रारम्भ कर दिया गया। सोमरस का प्रचलन शुरू हो गया। शराब किसी हद तक मनुष्य पचा भी सकता है परन्तु यह औरतों के लिए अत्यन्त खतरनाक है। ताड़िका एवं स्वर्णरेखा जैसी राजपरिवार की कन्याएँ सोमरस पान करके वीभत्स कामवती हो गयीं तो और औरतों की स्थिति का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। शराब, माँस के नशे में इन औरतें ने "पुरुष मनोहर निरखत नारी।" की कहावत चरितार्थ कर दी। काम पिपासिनी ताड़िका एवं उसके सहकर्मियों के चलते विश्वविद्यालय के छात्रों का जन-जीवन संकटापन्न हो गया। विश्वमित्र अत्यन्त उद्विग्न हो गये। अब क्या किया जाये। इन देवगणों एवं देवर्षियों ने अपनी क्षुद्र आशंका पूर्ति हेतु पूरी मानवता को खतरे में डाल दिया। बार-बार सोचने लगे कौन शिष्य बीड़ा उठायेगा उनके खिलाफ, कौन बिगुल बजायेगा। कौन है इतना सशक्त, दृढ़ प्रतिज्ञ एवं चरित्रवान ?

"गाधी तनय मन चिन्ता व्यापी, हरि बिनु मानहि न निश्चर पापी।"

यह हरि कौन हो सकता है? जो मानवता के दुःखों का हरण करे। सद्‌गुरु को खोज होती है ऐसे ही हरि की। सद्‌गुरु यदि दृढ़ प्रतिज्ञ है, विश्वकल्याण की भावना से ओत-प्रोत है तो अवतरित कर ही लेगा किसी शिष्य में हरि को परन्तु पात्रता भी तो चाहिये। विश्वमित्र में यह क्षमता है कि पूरी सृष्टि को क्षण-मात्र में नष्ट कर दें। यक्ष, किन्नर, गन्धर्व को विनष्ट कर दें। इस शक्ति से वे भी परिचित हैं। इसी से विश्वमित्र से प्रत्यक्ष कोई भिड़ना नहीं चाहता। विश्वमित्र बहुत चिन्तन मनन के पश्चात् अयोध्या के लिए प्रस्थान करते हैं।

     राम में रामत्व का आना

     राम तीर्थयात्रा से भाइयों के साथ लौट आये हैं। उनकी अवस्था लगभग पन्द्रह वर्ष आठ माह की है। अपने भवन में विरक्त की तरह रह रहे हैं। भाइयों को, सेवकोंको, दासियों को उपदेश दे रहे हैं। संसार मिथ्या है। नाता-रिश्ता भ्रम है माया महल में हम सब भूले हैं। क्या यहाँ खुशी मनाना ? क्यों एवं किसलिए दुःखी होना? अपना वस्त्र-आभूषण सब सेवकों में बाँट देते हैं। सदैव एकान्तता ही उन्हें अच्छी लगती है। निर्जन जगह पर ध्यानस्थ हो जाते हैं। अपने स्वरूप में स्थित हो आनन्दित हो जाते हैं। विशेष जानकारी के लिए योग वशिष्ठ या वाल्मीकीय रामायण देख सकते हैं। परिहास होने पर वे प्रसन्न नहीं होते। न भोगों में उनकी आसक्ति है, न किसी कार्य में प्रवृत्ति ही। वे सदा मौन रहते हैं। खाने-पीने से भी विरक्त हैं। संन्यासी आचरण है। प‌द्मासन पर शून्यचित्त हो बैठे रहते हैं। शरीर क्षीण हो गया है। उनका अनुसरण करने वाले लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न भी उसी अवस्था को उपलब्ध होते जा रहे हैं। इस स्थिति को देखकर राजा चिन्तित हो जाते हैं। वे सोचते हैं चौथे पन ये पुत्र हुआ, वह भी संन्यासी हो गया। अब यह राज कौन देखेगा ? यही चिन्ता तो प्रत्येक बाप को होती है। किसी तरह इसे बाँधो। साधु होना, संन्यासी होना अच्छी बात है, परन्तु हमारा लड़का न हो। यही कुण्ठा प्रत्येक माँ-बाप में रहती है। खैर राजा दशरथ अपने पुरोहित वशिष्ठ एवं वामदेव को बुलाते हैं। राम के विषय में कहते हैं तथा उनकी शादी कर देना उचित समझते हैं। अपने मंत्रीगण से यही सलाह करते हैं। वशिष्ठ जी मंत्रणा के पश्चात् कहते हैं कि राम की शादी पश्चिम एवं उत्तर में होगी।

       महर्षि विश्वमित्र पहुँच जाते हैं। द्वारपाल से सन्देश देते हैं। राजा को सूचित करो विश्वमित्र मिलना चाहते हैं। द्वारपाल राजा को शीघ्र ही सूचित करता है। जैसे ही राजा दशरथ सुनते हैं महर्षि विश्वमित्र का आगमन हुआ है। राजा अपने मंत्रीगण के समेत नंगे पैर दौड़ते हैं। महर्षि को सप्रेम दण्डवतकर राजमहल लौटते हैं। उनकी पूजा-अर्चना कर, कुशल क्षेम पूछते हैं। महर्षि भी एक-एक कर सबका कुशल पूछते हैं। सभी सभासद, मंत्रीगण, अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। राजा दशरथ कहते हैं- "महर्षि आप हमारे खानदान के गुरु भी हैं। आपकी कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त है। आपका तप-बल सूर्य के प्रकाश की तरह चारों तरफ फैला है। जैसे गंगा में स्नान करने पर प्रसन्नता होती है उसी तरह आपके दर्शन से प्रसन्नता होती है। मैं आपका पूजन-दर्शन कर उसी तरह प्रसन्न हूँ जैसे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र अपने आप में नहीं समाता। अपने तट की सीमा लाँघकर आगे बढ़ जाता है। हे मुनिवर ! आप हमारे पूज्य गुरु हैं। आपका जो कार्य हो, जिस प्रयोजन से आप पधारे हैं, उसे आप सिद्ध हुआ ही समझिये। आपके लिए मुझे कुछ भी अदेय नहीं है। हे भगवन्! आप जैसे सत्पात्र को दी हुई वस्तु, प्राप्त हो कर ही सार्थक होती है। मैं आपका सारा कार्य पूर्ण करूंगा। आप हमारे परम आराध्य देव हैं, गुरु हैं, भगवान् हैं।" दशरथ जी हर्षातिरेक होकर एक स्वर में सब कुछ कह गये। चूँकिविश्वमित्र जी सम्भवतः अयोध्या में तीसरी दफा आये थे। एक बार सत्यव्रत को दिशा देने। दूसरी बार गायत्री यज्ञ करने। तीसरी बार अब राम को लेने। दो बार तो देने आये थे। अतएव वे सोचते होंगे- गुरु तो हर समय देता ही है। इसे क्या लेना है परन्तु इस बार यह सद्‌गुरु लेने ही पहुँच गया है। साधक शिष्य को यह सोचना चाहिए कि सद्‌गुरु के कुछ लेने में, माँगने में भी मंगल ही छिपा है। जो आपको अभी तत्काल नहीं दिखाई पड़ता। कालान्तर में ज्ञात हो जायेगा। अतएव सच्चा शिष्य सहर्ष तन-मन अर्पण कर देता है। सैकड़ों जन्मों का पुण्य, उदय होता है तब ही आप से गुरु कुछ माँगता है। आपका समर्पित होना ही आपका परम सौभाग्य है।
क्रमशः....