साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

आइए, अब हम देखें आखिर निष्काम योग है क्या?

एक बच्चा दौड़ रहा है। उसकी माँ पकड़कर पूछती है बेटा क्यों दौड़ रहा है। बेटे के पास कोई उत्तर नहीं है। वह दौड़ना जानता है। उस बच्चे के पास न उस दौड़ का उद्देश्य है न ही किसी प्रकार के फल की कामना। वह मात्र दौड़ना जानता है। उस बच्चे का दौड़ना निष्काम दौड़ हुई। जब कोई व्यक्ति समग्र की सेवा में बिना फल के आकांक्षा में जुट जाता है तो यह हो जाती है निष्काम सेवा। जब साधक अपनी समग्र चित्तवृत्तियों को, समग्र चेतनता को उस अनन्त से जोड़ लेता है तब उस अनन्त का ही फैलाव उसके चारों तरफ हो जाता है। तब साधक अनुभव करता है कि हम ही बच्चे के रूप में हँसते हैं, फूल के रूप में मुस्कुराते हैं, पत्ती के रूप में हिलते हैं, पशु के रूप में दौड़ते हैं, कीड़े के रूप में रेंगते हैं। करुणावश साधक जो कुछ करता है। अनन्त के द्वारा अनन्त के लिए करता है। यही निष्काम योग है। इसमें न कोई कामना है, न कोई याचना। जो कुछ हो रहा है, परमपिता परमात्मा के द्वारा हो रहा है, परमपिता परमात्मा के लिए हो रहा है। यही है कृष्ण का निष्काम योग।

सांख्य एवं योग

श्री कृष्ण कहते हैं-
"लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम ॥"

हे निष्पाप अर्जुन- "इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की ज्ञान योग से और योगियों की निष्काम कर्मयोग से।"

कृष्ण यहाँ अर्जुन को निष्पाप कहकर सम्बोधित करते हैं। ऐसा क्यों ? हमारे यहाँ एक मनोवैज्ञानिक धारणा है। गंगा स्नान कर लो सारे पाप धुल जायेंगे। क्या गंगा में पाप धोने वाला कोई रसायन है? कोई वैज्ञानिक मानने पर तैयार नहीं होगा। बद्रीनाथ का दर्शन कर लो, मुक्त हो जाओगे। इसमें वैज्ञानिक तथ्य हो या नहीं परन्तु
मनोवैज्ञानिक तथ्य अवश्य है। जब आदमी गंगा स्नान करता है, पूरे मन से भावना से करता है कि मेरा सारा पाप धुल रहा है। मैं निष्पाप हो रहा हूँ। स्नान के बाद क्षणभर के लिए अब वह पहले वाला व्यक्ति नहीं रहता। वह बदला हुआ रहता है। उस क्षण उससे कोई पाप कर्म सम्भव नहीं है। इसी से सारे तीर्थों के बाद बद्रीनाथ का ही तीर्थ करने को कहा गया है जिससे साधक सब तीर्थों में स्नान करते-करते पूजा करते-करते समग्र रूपेण भावना बना लेता है कि अब मैं निष्पाप हो गया। सारे पाप धुल गये। बद्रीनाथ के तप्त कुण्ड में बचे-खुचे संस्कार भी जल गये। अब मैं जीते जी मुक्त हो गया। अब हमसे हिंसा नहीं होगी। अब हमसे समाज विरोधी कार्य नहीं होगा। बद्रीनाथ से वापस लौटा व्यक्ति वह नहीं होता जो पहले था। यदि पहले जैसा ही लौटा है तो बद्रीनाथ का दर्शन ठीक से नहीं किया। तप्त कुण्ड में ठीक से स्नान नहीं किया। अलकनन्दा का ठीक से आलिंगन नहीं किया। हो सकता है वह ठीक-ठाक, घर से ही नहीं गया हो। हो सकता है यों ही चला गया हो बिना महत्व समझे। बिना भावना के। अतः भावना की प्रबलता की आवश्यकता है। जो व्यक्ति ठीक से बद्रीनाथ का दर्शन करे, तप्त कुण्ड में स्नान करे। अलकनन्दा के शीतल जल में स्नान करे और मन शीतल न हो। यह कैसे सम्भव है? जरूर कुछ खोट रह गया होगा स्नान करने, दर्शन करने में। इसी भारतीय परम्परा का अनुकरण करते हुए ईसा ने कहा है-तुम अपने पापों को स्वीकार कर लो, तुम सारे पाप से मुक्त हो जाओगे। मन से स्वीकार करने की बात है। अक्सर व्यक्ति पाप को छिपाते हैं। इसी का अनुकरण कोर्ट-कचहरी में किया गया है-कटघरे में कहलवाया जाता है तीन बार जो कुछ मैं कहूँगा वह सत्य कहूँगा, सत्य के सिवाय कुछ नहीं कहूँगा। जितने बार दोहराया जाये। वह उतना ही गहरा होता जाता है। सत्य अपने-आप ऊपर आ जाता है। अतएव शुरू-शुरू में अधिकतर न्यायालय गंगा के किनारे या किसी नदी के किनारे बसाये गये।

इसी से कृष्ण अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। इसके पहले नहीं कहते हैं। सम्भवतः अर्जुन की भावना निष्पाप हो गयी है। सम्भव है जमुना स्नान कर गया हो। गुरु रूपी कृष्ण, अर्जुन को उस क्षण पकड़ कर अपना तंत्र देना उचित समझता है। गुरु ठीक समय के इन्तजार में रहता है। ठीक समय ठीक या उचित स्थान, उचित पात्र मिलने पर गुरु चूकता नहीं। अतएव गुरु तंत्रोक्त विधि दे ही डालता है। अब और अधिक इन्तजार नहीं करता। हो सकता है शिष्य का प्रश्न अभी बाकी हो, हो सकता है उचित समय आने पर ही शिष्य पीछा छोड़ना चाहता हो। जैसे अर्जुन। बार-बार प्रश्न किये जा रहा है। सोचता है किसी तरह पिण्ड छूट जाये परन्तु गुरु कसते जाता है। अब छोड़ने को राजी नहीं होता। कहता है पूछ लो अभी ही,
जितना तुझे पूछना है। आगे कहते हैं दो ही निश्ठा हैं-एक ज्ञान की, दूसरी कर्म को। एक सांख्य की दूसरी योग की। दुनिया के सारे दर्शन के दो ही रूप हैं। एक ज्ञान को उपलब्ध हो जाओ। दूसरा कर्म को। योग युक्त हो कर्म को उपलब्ध हो जाओ।

स्वभाव में स्थित होना या निष्काम को उपलब्ध होना

नकर्मणामनार भ्यान्नैष्कर्म्य पुरुषो श्नुते। न च संन्यासनादेव सिद्धि समधिगच्छति॥

मनुष्य न तो कर्मों को करने से निष्कामता को प्राप्त होता है और न कर्मों को त्यागने मात्र से भगवत् साक्षात्‌कार रूप सिद्ध को प्राप्त होता है।

कृष्ण ने बहुत ही विद्रोही एवं क्रान्तिकारी शब्द कहे हैं। इन शब्दों से तथाकथित त्यागी, महात्यागी को सबक लेना चाहिये। अक्सर हम कर्म के न करने को ही निष्कर्म समझते हैं। निष्क्रियता को ही निष्कर्ष समझते हैं। तथाकथित साधु-महात्मा चुपचाप काम के भय से मन्दिर में बैठ जाते हैं। कहते हैं मैं निष्कर्म को उपलब्ध हो गया। पुनः उन्हें भूख सताती है तो कहते हैं-दान दो। क्या दान देना कर्म नहीं है या दान लेना कर्म नहीं है। यह बिल्कुल ढोंग के सिवाय कुछ और नहीं है। यदि यही निष्कर्ष होता तो आलसी सबसे पहले निष्कर्ष को उपलब्ध होते। मुर्दे, पत्थर भी निष्कर्म को उपलब्ध हो, परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते। निष्कर्ष वह है-जहाँ भीतर करने वाला "मैं" मौजूद नहीं है। निष्कर्म कर्म का अभाव नहीं कर्तापन का अभाव है। यदि तू पकड़े रहे कि "मैं" कर रहा हूँ तो कर्म से भाग भी जाये तो भागना भी तेरा कर्म बन जाता है। जब यह ज्ञात हो जाये कि मेरे करने का कोई सवाल ही नहीं, परमात्मा कर रहा है। जो है "वह" कर रहा है। सारा व्यक्तित्व ही बह रहा है। जहाँ "मैं" हवा में हिलते हुए एक तिनके की तरह हूँ। जहाँ मैं डोल ही नहीं रहा। हवा डोल रही है। वही डोला रही है। अब "मैं" नहीं-वही निष्कर्म है।

अब कर्म चलता है। कर्ता चला जाता है। इसी से कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन। जिन्हें तू सोचता है कि तू मारेगा, मैं तुझे कहता हूँ कि वे पहले ही मारे जा चुके हैं। तू तो निमित्तमात्र है। वे तो तेरे बिना भी मरेंगे। कृष्ण एक नया द्वार खोलते हैं। कहते हैं कर्म जारी रखो, कर्ता भाव से मुक्त हो जाओ। कर्तापन से मुक्त होना ही निष्कर्म की उपलब्धता है। पुनश्चः

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। यह सूत्र अत्यन्त महत्व का है। यदि इस सूत्र को ठीक से समझ लें तो आगे का रास्ता सहज हो जाता है। हम इस सूत्र को भी समझते नहीं, गाये चले जाते हैं, अन्धे की तरह। इस सूत्र में हमें समझना है- स्वधर्म क्या है? परधर्म क्या है? धर्म क्या है? स्वधर्म-स्वभाव, प्रकृति, अन्तः प्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव अलग-अलग होता है। पिता-पुत्र का स्वभाव, पति-पत्नी का स्वभाव कभी एक नहीं होता और कभी भी ये अपना स्वभाव समझने की कोशिश भी नहीं करते, इसी से गृह रूपी आश्रम कलह का आश्रय बन जाता है। स्वभाव को जानने के लिए अन्तर्मुखी होना पड़ता है। जो अत्यन्त कठिन होता है। जब तक बीज अपने-आप में बन्द है, बेचैन है। जब वह बीज अंकुरित होता है, वृक्ष के रूप में ऊपर उठने लगता है। एक दिन वृक्ष बन फूल ग्रहण करता है। मुस्कुराता है, सुगन्ध बिखेरता है, परमात्मा के चरणों में अपनी समग्रता को अर्पित कर देता है। इस प्रक्रिया में इसे टूटना पड़ता है। अनजान रास्ते की तरफ पैर बढ़ाना पड़ता है। यही है स्वधर्म। परधर्म-दूसरे का धर्म। कहीं बुद्ध ने तप कर लिया है। महावीर ध्यानस्थ हो लिया है। नानक एकाग्र हो गया है। हम उसका अनुसरण करते जा रहे हैं। बुद्ध की तरह आसन पर बैठ जाते हैं। नकल कर लेते हैं। आँख बन्द कर लेते हैं। कपड़ा पहन लेते हैं। जब कृष्ण के मन्दिर जाते हैं तो कृष्ण के मन्दिर के बाहर बाँसुरी बिक रही होती है। हम भी खरीद लेते हैं। होठों पर रख धुन निकाल लेते हैं। पीताम्बर ओढ़ लेते हैं। कृष्ण होने की कल्पना कर लेते हैं। हम अपने अन्दर जाने का कतई प्रयास नहीं करते। नकल करना चाहते हैं। टू कॉपी बनना चाहते हैं। कार्बन कॉपी बनना चाहते हैं। अभी-अभी मैं हिमालय पर गया था। देखा गुरुगोविन्दसिंह ने हेमकुण्ड पर तप किया था। तप लायक जगह अच्छी थी। जिसे उनके तथाकथित अनुयायिओं ने बर्बाद कर दिया। वे महीनों समय बर्बाद कर वहाँ जाते हैं। बस माथा टेकते हैं, भाग चले आते हैं वहाँ से। अन्यथा कुछ हो जायेगा। रास्ते में एक औरत रोती हुई मिली, मैंने उससे पूछा क्यों रो रही हो बहन, वह बोली मैं लुट गई। देखो स्वामी जी हमारे पति हेमकुण्ड साहब से लौटते ही खून फेंक कर मर गये। छोटा लड़का है। कौन देखेगा? मैंने पूछा क्यों आयी थीं तुम यहाँ? वह बोली कि माथा टेकने से पुण्य मिलता है। मैंने कहा उसी पुण्य का प्रभाव है वह यहीं रह गये। लाश तुम को दे दिए। वह हिम से आच्छादित जगह है। वहाँ भी जनरेटर चलाकर कोलाहल पैदा कर दिया। धुँआ कर प्रदूषण कर दिया। शायद कसम खा ली है कि आप किसी दूसरे को तप नहीं करने देंगे या अब दूसरे को करने की जरूरत ही नहीं। यही स्थिति बद्रीनाथ, व्यासगुफा, केदार नाथ की भी

है। जहाँ अब तप नहीं कर सकते। दर्शन कर सकते हैं। दूसरे का धर्म समझ कर।

दूसरे में बचाव है। सिक्युरिटी है। भय रहित है। मन्दिर में शास्त्र पढ़ा जा रहा है।

घण्टी बज रही है। भोग लग रहा है। भय नहीं है। सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध है। यही

परधर्म है जो कृष्ण कहते हैं अत्यन्त ही भयावह है। यह वैसे ही है जैसे गुलाब चाहे

कि मैं कमल की तरह खिल जाऊँ। कमल चाहे कि मैं गुलाब की तरह। उसी

प्रयास में पूरी ऊर्जा का नाश कर दे। खिल तो सकता नहीं। खिलने के पहले ही

चल दे। परधर्म, धर्म तक तो नहीं पहुँचा सकता परन्तु अधर्म में अवश्य ला पटकेगा।

स्वधर्म एक दिन धर्म में ला खड़ा करेगा। जहाँ तुम जो हो वही, उसी तरह खिल

जाओगे। हँसोगे, खुले आकाश में। इसी से कृष्ण कहते हैं हे अर्जुन जो तेरा धर्म

है, उसे पहचानो। तू जो हो सकता है वही होने का निर्णय कर ले। तब उसी होने

में लग जाना। तब कहीं तुम अपने मुकाम पर पहुँच सकते हो। परन्तु उस मुकाम

का तब तक पता नहीं चलता जब तक फूल खिल नहीं जाता। पता नहीं चलता।

परन्तु इस यात्रा पर मर जाना ही श्रेयस्कर है। चलो फिर जन्म लेंगे। अब यहाँ से

आगे की यात्रा तो प्रारम्भ होगी।

परधर्म अत्यन्त भयावह है परन्तु दूर से वही लुभाता है क्योंकि वह खिला हुआ दिखाई देता है। उसके पीछे सैकड़ों लोगों की लम्बी कतार है। केवल बाहर से ही वेद मन्त्र पढ़ लेना है, गुरुवाणी पढ़ लेना है। यदि स्वयं नहीं पढ़ना आता तो भी काम चलेगा। वहाँ पढ़ने वाला भी पहले से बैठा है। धर्म की चादर ओढ़ रखी है। मात्र तुझे जाना है। कुछ चढ़ावा चढ़ाना है। वह मन्त्र पढ़ देगा। जैसे बीज किसी वृक्ष का हो, डाली किसी वृक्ष की उसके ऊपर आरोपित कर दी जाये। आम का बीज हो। पुजारी उसके सिर पर बबूल की डाली रख दे। कह दे जाओ तुम से डाली निकल आयी। अब बीज को भी कौतुहल होने लगता है। क्या यही हमारी डाली है। हाँ प्रमाण तो है। पुजारी कह रहा है, शास्त्र कह रहा है तुझे टूटने की, सड़ने की कोई जरूरत नहीं। एकाएक डाली उग गयी। यही है परधर्म। जो बाहर से ठीक जैचता है। सब जाना-पहचाना लगता है। कोई खतरा नहीं। प्रमाण-पत्र भी मिल जाता है। हाँ तू धार्मिक है।

स्वधर्म में भटकाव है। गुरु इंगित कर सकता है। इशारा कर सकता है। देखो पर्वत के ऊपर चन्द्रमा है अब पर्वत के ऊपर देखना तुम्हारा कर्तव्य है। हालांकि पर्वत के ऊपर चन्द्रमा नहीं है। ऊपर देखो चन्द्रमा दिख जायेगा। परन्तु पर्वत की ऊँचाई देखने में भय लगता है। खतरे का एहसास होता है। अतएव पर्वत को पूजा कर लेना माथा टेक लेना ही उचित जँचता है। यही कारण है कि जिन महापुरुषों ने इशारा किया देखो ऊपर। अब ऊपर देखने की हिम्मत नहीं रही। अतः उसी की पूजा-अर्चना शुरू हो गयी। हम नई-नई दुकानें उनके नाम पर खोलते गये। अब दुकानदार बन ठीक से बेचने में फँस गये। अब अपनी-अपनी दुकान के लिए खून के प्यासे भी बनते गये। आदमी को आनन्द उसी दिन मिल सकता है। जिस दिन उसके अन्दर का फूल खिल जाता है। तब वह कह पाता है कि प्रभु तेरी अनुकम्पा है, धन्यभागी हूँ कि तूने पृथ्वी पर भेजा है। अन्यथा हम जीवन भर कहते हैं मेरे साथ अन्याय हुआ है। मुझे तूने क्यों भेजा। अब मैं देख रहा हूँ कृष्ण का बाँसुरी बजाना, नाचना, तो कहीं बुद्ध की परम शान्ति, तो कहीं दुःख से, पीड़ा से भरे परधर्म में बढ़ते जन-समूह। इसी से कृष्ण कहते हैं स्वधर्म में मर जाना श्रेयस्कर है। स्वधर्म, परधर्म के विपरीत है। एवं धर्म-अधर्म के विपरीत। अतएव परधर्म से स्वधर्म की यात्रा की जा सकती है। यदि सजग प्रहरी गुरु मिले तब स्वधर्म से धर्म तक की यात्रा की जाती है। अतएव जो व्यक्ति स्वधर्म से यात्रा प्रारम्भ करेगा वह धर्म को उपलब्ध हो ही जायेगा। जो व्यक्ति परधर्म नहीं छोड़ेगा वह अधर्म को अवश्य ही उपलब्ध हो जायेगा। यही कारण है कि तथाकथित पुजारी, महंत, धर्माधिकारी आज तक धर्म को उपलब्ध नहीं हुए। इन्हीं के चलते पृथ्वी कुरूप होती जा रही है। मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों के भार से पृथ्वी दबती जा रही है।

जब व्यक्ति को आनन्द की, धर्म की खोज होती है तो भागता है अकेले पर्वत पर, गुफा में, जंगल में। आनन्द को, धर्म को अकेले उपलब्ध हुआ जा सकता है। परन्तु परधर्म को दो के साथ। अधर्म अकेले नहीं, इसमें दो की जरूरत होती है वासना में काम में क्रोध में दो की जरूरत होती है। बिना दो के सम्भव ही नहीं है। धर्म नितान्त अकेला है। आनन्द नितान्त अकेला है। अपने-आप अपने अन्दर से निःसरित होता है। अधर्म में सदा ही दूसरे के द्वारा पहुँचते हैं। अधर्म तक जाने में परधर्म सहयोगी है परन्तु धर्म तक जाने में स्वधर्म। इसी से धर्म तक जाने वाला आदमी एकान्त में चला जाता है। जहाँ दूसरा तो क्या दूसरे का चित्र भी न हो। इसी से बुद्ध जंगल में तो महावीर पहाड़ पर, मुहम्मद भी पहाड़ पर, मूसा साइनाई के पर्वत पर खो जाते हैं। धर्म खोजी चुपचाप दूसरे से हट जाता है। कृष्ण का यह सूत्र अत्यन्त ही महत्व का है। यदि इसे ही ठीक से समझ लिया जाये तो आगे की समझ अत्यन्त सीधी, सरल हो जाती है।

क्रमशः.....