साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

सिद्धाश्रम 

सिद्धाश्रम के संबंध में बहुत-सी भ्रान्तियां हैं। आधुनिक विद्वान, तांत्रिक, मांत्रिक मनोविनोदी मन का बाण चलाते हैं। इसे अदृश्य हिमालय में बताते हैं। तो कुछ पृथ्वी एवं आकाश के मध्य में प्रत्येक विषय में अपना अनुभव, योग युक्ति आलोक गुरुकृपा से प्राप्त दिव्यदृष्टि ही सत्यासत्य का अवलोकन कराता है। दूर दृष्टि बहुत सार्थक नहीं है। विद्वान लोग दूरदर्शन को ही दिव्यदृष्टि मान लेते हैं। जैसे महाभारत के पात्र संजय को दूरदृष्टि प्राप्त थी। जिससे वह कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का दर्शन करते थे एवं धृतराष्ट्र को बताते थे। उन्हें दिव्यदृष्टि नहीं थी। दिव्यदृष्टि गुरु के सेवा से प्राप्त अनुकंपा का फल है।

जिस साधक को दिव्यदृष्टि प्राप्त होगी वही पुराणोक्ति को समझ सकता है। देख सकता है। साधक स्व के त्रिनेत्र से सत्यासत्य को समझने में सक्षम हो सकता है। वाराह पुराण में लिखा है-

'कृते सिद्धाश्रमः प्रोक्तः व्रेतायां वामनाश्रमः । द्वापरे वेदगर्भेति कलौ व्याघ्रसरः स्मृतम् ॥ 4 ॥"

अर्थात् सत्ययुग में सिद्धाश्रम नाम कहा जाता था, और त्रेतायुग में वामनाश्रम

तथा द्वापर युग में वेदगर्भा और कलियुग में व्याघ्रसर नाम कहा गया है। व्याघ्रसर

से अपभ्रंश होकर बक्सर शब्द बना है।

श्री वाराहजी इसी पुराण में कहते हैं-

"सत्यं सत्यं पुनः सत्यं भुजमुत्थाय चोच्यते । सिद्धाश्रमसमं तीर्थं न भूतं न भविष्यति ॥ सिद्धाश्रमेति नामापि भस्य वाचि प्रवर्तते ।

भस्मी भवन्ति तस्माशु महापातकराशयह ॥" मैं सत्य-सत्यभुजा उठाकर सत्य कहता हूं कि बक्सर के समान तीर्थ न हुआ है न होगा सिद्धाश्रम (बक्सर) यह नाम भी जिसकी वाणी पर आ जाता है, उसका शीघ्र ही महापातक राशि हो जाता है।

"विश्रामे व्याधुसि भगीरथ्यां च सङ्गमे । विश्वमित्र स्नात्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥'

 अर्थात् बक्सर (व्याघ्रसर) के विश्राम कुण्ड जो कोयिरि पुरवा में है। व्याघ्रसर तालाब ( गजाधरगंज स्टेशन के पास) रामरेखा घाट गंगा और ठोरा नदी गंगा का संगम तथा बक्सर चरित्र वन में विश्वमित्रहृद में स्नान करके फिर से जन्म नहीं होता है।

ब्रह्मवेद पुराण के 118-58 में कहा है-धन्यं यशस्यं पुण्यं च पुण्यक्षेत्रे च भारते। सिद्धाश्रमं महापुण्य क्षेत्रं मोक्ष प्रदं शुभम ॥ 1 ॥

अर्थात् पुण्य क्षेत्र भारत वर्ष में धन्य, यश पूज्य, शुभ और मोक्ष देने वाला

महापुण्य क्षेत्र सिद्धाश्रम (बक्सर) है। भगवान सनत्कुमार यहीं सिद्ध हुए, स्वयं ब्रह्मा यहीं तपस्या करके सिद्ध हुए।

योगेन्द्र, मुनीन्द्र और सिद्धेन्द्र कपिलादिक सिद्धाश्रम (बक्सर) में ही सिद्ध हुए। यह तीर्थ सबको दुर्लभ है। बक्सर में सर्वथा गणेश का अधिष्ठान है। नाग गण, मानव, दैत्य, गन्धर्व, राक्षस, सिद्धेन्दु मुनीन्द्रगण, तथा योगीन्द्र सनकादिक महर्षि बक्सर में पूजा करते हैं। भगवान शिव मां पार्वती, कार्तिकेय के साथ यहीं निवास करते हैं। प्रजापिता ब्रह्मा भी यहीं तप किये। यही पातंजलि महर्षि नाचते हुए शिव की उपासना करते हैं। यह सब ब्रह्म पुराण एवं स्कंध पुराण में लिखा है।

स्कंध पुराण में लिखा है-यत्र सिद्धि परां प्राप्तों हनुमान् पननात्मजः, ब्रह्मचारी सदाचारी यतिः सर्वार्थसाधकः ॥ तिष्ठति पदैवहः सर्व कामार्थ सिद्धये ॥ 2 ॥

अर्थात् जिस चरित्र वन में पवन पुत्र हनुमान ने परासिद्धि को प्राप्त किया, वह

महावीर, ब्रह्मचारी, सदाचारी यति और सर्वार्थ साधक है। परम द्वैवज्ञ हनुमान सब

काम और अर्थ की सिद्धि के लिए वर्तमान हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी देवता, दानव, यक्ष, गंधर्व, महर्षि विश्वमित्र के आश्रम में ही सिद्धि ग्रहण करने आते थे चूंकि स्कंध पुराण 6-212-3-70 तक में कहा गया है- समुद्र के तथा पृथ्वी के और ताराओं के भी पार देखा जा सकता है। परंतु हे द्विजोत्तम । इस लोक में विश्वामित्र मुनि के गुणों का पार नहीं देखा जाता है। कोई भी विश्वामित्र महर्षि के पार को नहीं देख सकता है। वे गुणों में समुद्र की तरह अथाह हैं। ये क्षत्रिय से ब्राह्मण बने हैं। चाण्डालता प्राप्त त्रिशंकु राजा के यज्ञ के भाग को भोजन करने वाले देवताओं को प्रयत्क्ष जिन्होंने निर्माण किया। इन्होंने पहले ब्रह्मा की स्पर्धा (व्यवहार से खिन्न होकर) नई सृष्टि प्रारंभ किया। इसके बाद देवताओं के प्रार्थना, शरणागत से इसका निवारण किये विश्वामित्र के तप से यह तीर्थ सर्वपातक नाश करने वाला है। इन्होंने बिना शस्त्र अपने हाथ से विश्वमित्रहृद नामक कुण्ड बनाये हैं। चरित्रवन में चारों तरफ से भूपृष्ठ को विदाकर पाताल से  पाताल गंगा नदी को लाये हैं। इस पाताल गंगा का अत्यंत निर्मल जल, विश्वमित्र

के प्रभाव से मनुष्य लोक में आ गया। विश्वमित्र हृद्ध का जल सुंदर, स्वच्छ युक्त है। इसमें स्नान करने से सब पाप का नाश हो जाता है। चरित्रवन (बक्सर), में पातक नाशनी गुफा है, जहां पर पवित्र चित्त वाले ऋषि लोग और सिद्धयोग सर्वदा रहते हैं। भगवान शंकर कहते हैं हे देवि । जो

मनुष्य चरित्रवन में जाकर दर्शन करता है। वह सब पापों से मुक्त होकर चान्द्रायण  व्रत के फल को पाता है।
आनंद रामायण में शिवजी कहते हैं कि भगवान राम लक्ष्मण भूख-प्यास को दूर करने वाली बला और अति बला और वाण ग्राम को विश्व मित्र से प्राप्त किये। चरित्रवन में भी सभी राक्षसों को मार कर अपने गुरु विश्वमित्र का यज्ञ पूर्ण किये।यही से गुरु दक्षिणा में सदविप्र रूपी रणयज्ञ प्रारंभ किया।


अध्यात्म रामायण में लिखा है। विश्वमित्र राम-लक्ष्मण पर पर अति प्रसन्न हुए। आंसुओं से उनके नेत्र भर गए। यज्ञ पूरा हुआ। राम-लक्ष्मण को अपनी गोदी में बैठा कर खुशी से अलिंगन किया। अर्थात् गुरु अपने अंक में भर कर अपनी सारी विद्या को एक ही क्षण में हस्तांरित कर दिया। राम-लक्ष्मण अद्वितीय तेज से भर गए। देवगण पुष्पों की वर्षा करने लगे। गुरु अनुकंपा से राम-लक्ष्मण भर आए। तुरंत दोनों भाई हर्षातिरेक से अपना मस्तक गुरु के चरणों में रख दिये। विश्वमित्र का गुरुत्व राम-लक्ष्मण में स्वतः प्रवाहित हो गया। बक्सर सिद्धाश्रम स्वतः सिद्ध हो गया। यहीं पर रामत्व रूपी फल से राम परिपूर्ण हो गये।

यजुर्वेद अ. २० मं. २५ मे यत्र ब्रह्मा च क्षत्रण्च सम्यज्चो चरतः सह ॥ अर्थात् जिस बक्सर चरित्रवन में ब्राह्मण विश्वमित्र और क्षत्रिय रामचन्द्र ये दोनों पूजित साथ ही घूमते हैं। विश्वमित्र राम को नित्य नये-नये चरित्र सिखाते हैं। जिससे सद्विप्र रूपी यज्ञ पूर्ण हो सके। उसकी शिक्षाभूमि, परीक्षा भूमि तथा सदविप्र यज्ञ की प्रारंभ भूमि सिद्धाश्रम (बक्सर) ही है।

ब्रह्माण्ड महापुराण में लिखा है कि देवी पार्वती दुःख से पीड़ित अति उद्विग्न मन से कौण्डिन्य मुनि से पूछी - शिव की सन्निधि मुझे कैसे प्राप्त होगी। तब कौण्डिन्य मुनि ने दयाद्रचित से देवी से कहे। हे देवी शिव में शुद्ध भाव करके तुम 'बक्सर में शिव की भक्ति करो। तब तेरा शिव पति होगा। तब पार्वती बक्सर आयी सोहनी पट्टी में तुरंत वेद विधि से शिव की मूर्ति की स्थापना की। वहीं गौरी शंकर के नाम से शिवजी स्थित हैं। पार्वती को विवाह करने के लिए वरदान दिये।

भगवान शंकर उसके पूर्व बक्सर से दक्षिण कोपवां नामक ग्राम में तप कर रहे थे। जहां कामदेव उनके तप को भंग कर रहे थे। तब वे क्रोध करके अपना 
त्रिनेत्र खोले। कामदेव वहीं भस्म हो गये। उस गांव का नाम भगवान शिव के कोप (क्रोध) से कोपवा बन गया। जब काम की पत्नी रति को ज्ञात हुआ तब वह रोती हुई शिव की आराधना की। भगवान शिव एवं रति की मूर्ति उस ग्राम में अति प्राचीन मौजूद हैं। भगवान शिव रति को आशीर्वाद दिये कि तुम्हारा पति कृष्णावतार में प्रद्युम्न के रूप में अवतरित होगा। तुम उनकी पत्नी बनोगी। इस गांव में तुम्हारे ही वंशज रहेंगे। तुम इनकी कुल देवी बनोगी।

ब्रह्माण्ड पुराण में लिखा है कि सिद्धाश्रम (बक्सर) में स्नान करने वाला मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है। जो बक्सर में मरा वह स्वतः मोक्ष को प्राप्त करेगा। वेद को जानने वाले वेद व्यास ने और बुद्धिमान भरद्वाज ने विश्वामित्र ने राम ने तथा गर्गाचार्य ने और सुमन्त तथा नारद, वसिष्ठ और महात्मा गालब ने अच्छी प्रकार से कहा है कि यह बक्सर तीर्थ चारों दिशाओं में बीस कोस में है। जो अदीक्षित मनुष्य गुरु द्वारा बक्सर में मंत्र की दीक्षा को ग्रहण करेगा वह बिना मंत्र जपे हुए सिद्ध हो जायेगा। इस विषय में विचार नहीं करने योग्य है। जो मनुष्य वहां तिल मिश्रित जल पितरों के लिए तर्पण करते हैं, वे लोग सौ वर्षों तक गया श्राद्ध कर चुके ऐसा जानना चाहिए। इस विषय में जरा भी संशय नहीं है।

प्रबुद्ध व्यक्ति स्वेच्छा से जन्म लेता है। उसी के अनुरूप ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त हो जाते हैं। परंतु प्रबुद्ध व्यक्ति स्वेच्छा से मां-बाप का चुनाव यदि गलत कर लेता है। तब प्रकृति उसे रोकती है। अपने अनुरूप ग्रहण करने को बाध्य करती है। भगवान महावीर कपिल-वस्तु के क्षत्रिय कुण्ड ग्राम के एक ब्राह्मणी के गर्भ में चले गये थे। जिन्हें निकाल कर राजा शुद्धोधन की पत्नी त्रिशाला के गर्भ में डाला गया है। भगवान कृष्ण का जन्म अपने ननिहाल के कारागार में हुआ। जन्म के बाद इनका स्थान्तरण नन्दबाबा के गृह में किया गया। प्रकृति उस महापुरुष को बचाती भी है तथा विभिन्न कष्टों के मध्य उनका पालन-पोषण भी करती हैं। कष्टों से, समस्याओं से, उन्हें पकाती हैं। सुंदर बनाती हैं। वे उन कष्टों को, समस्याओं को हंस कर स्वीकार करते हैं। उन्हीं से खेलते हैं जिससे विपरीत परिस्थिति में भी सम रहना उनका स्वभाव बन जाता है।

विद्युत धारा प्रवाहित होने के लिए ऋणात्मक और धनात्मक दो तारों की आवश्यकता होती है। एक से न बल्ब चलेगा न मोटर चलेगा। दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। विशेष परिस्थिति में केवल धनात्मक तार ही खींच कर अपने घर पर लाया जाता है। अपने घर के हैण्डपम्प से या एक लौह टुकड़े का जमीन में पानी डालकर ऋणात्मक बना लेते हैं। बल्ब जला देते हैं और अपना कार्य कर लेते हैं। लेकिन विद्युत खम्भे से या ट्रांस्फारमर से केवल ऋणात्मक तार लाये,

 तथा अपने घर पर धनात्मक ऊर्जा की सहज व्यवस्था नहीं कर सकते हैं। न ही बल्व ही जला सकते हैं। धनात्मक ऊर्जा के लिए विद्युत ट्रांस्फारमर की जरूरत है। उसी तरह धनात्मक ऊर्जा के लिए व्यक्ति को गुरु की जरूरत है। जो गोविंद का प्रतिरूप होता है। समाज में सर्वत्र ऋणात्मक ऊर्जा ही है। जिस व्यक्ति में ऋणात्मक ऊर्जा ज्यादा होती है। वह क्षण-क्षण अपना निर्णय बदलता रहता है। जिससे वह किसी कार्य में सफल नहीं होता है। जिस व्यक्ति में धनात्मक ऊर्जा ज्यादा होती है, वह पक्का उसूल व निर्णय का होता है। वह किसी भी कठिनाई से घबराता नहीं है। गुरु का आवलम्बन दृढ़ता से पकड़ता है। गोविंद को साकार कर लेता है।

मेरा जन्म भी विभिन्न परिस्थितियों में अपने ननिहाल में हुआ। जो बक्सर से मात्र दो कोस है। दहीवर ग्राम है। जहां दधीचि ऋषि ने तप किया था। यह ग्राम अहिल्यावली से मात्र एक कोस पर है। मेरे नाना जमींदार थे। उन्हें एक ही लड़का एक लड़की थी। द्वार पर घोड़ा, बैल, भैंस, गाय, नौकर-चाकर रहते थे। इन्हीं परिस्थितियों में मेरा जन्म दिनांक 8-12-1949 को रात्रि दस बजे दिन गुरुवार को हुआ था। जन्म के समय मेरा नाम श्रीकृष्ण रखा गया। चूंकि मेरे दादा एवं दादीजी उस समय चारों धाम की यात्रा पूर्ण कर मथुरा पहुंचे थे। उन्होंने उसी खुशी में श्रीकृष्ण नाम रखा कि मैं भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया अतः वे हमारे घर में पधारे हैं। मेरा संबंध जाने-अनजाने सिद्धाश्रम से स्वयं होता गया।

मैं विद्याध्ययन करने के पश्चात् साधु-महात्माओं की सत्संग एवं तपस्या में विभिन्न जगहों पर भटकता रहा। अन्त में अपने पितामह जो मेरे पिताजी के जन्म के पांच वर्ष के बाद ही संन्यास ले लिये थे की शरण में गया। योग की विभिन्न क्रियायों को संपन्न किया।

कुण्डलिनी जागरण के समय ऐसा प्रतीत हुआ कि विभिन्न तरह का वाद्य एक साथ बज रहा है। घंटा, शंख, घड़ियाल, नगाड़ा, बांसुरी के साथ-साथ सैकड़ों सूर्यों का प्रकाश भी भीतर-बाहर हो रहा है। विशाल सर्प जो स्वर्ण-मणियों से युक्त है। उससे भी विभिन्न प्रकार का प्रकाश निकल रहा है। जो बिलकुल सीधा खड़ा हो गया है। उसके सहस्रों सिर हैं। इस दृश्य से क्षणिक भयभीत होता तो कभी आनन्दित होता। कभी मन प्रश्न करता क्या यह दिवास्वप्न तो नहीं है। गंगा तट पर गुफा में बैठा था। वहां से मात्र कुछ ही कदमों की दूरी पर गुरुदेव ध्यान में बैठे थे। मेरा गुफा अंदर से बंद था। मैं आंखें खोल दिया। गुफा में भी वही दृश्य दिखाई दे रहा था। ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। सहसा गुरुदेव की आकृति दीवार से बाहर आते • दिखाई दी। वे मुस्कुराते हुए बोले- तुम आखें बंद रखो। ध्यान से देखो। मैं तुम्हारे साथ हूं। आज ही कुण्डालिनी यात्रा पूरी करनी है। इस स्थिति में सर्वसाधारण

 साधक को पहुंचने में जन्मों जन्म लग जाते हैं। तुम तो मात्र इक्कीस दिन में यात्रा पूरा कर रहे हो। मैं आंखें बंद कर लिया। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास से भर गया मन गिर गया। विचार रूक गया। समय भान भूल गया। पता नहीं कब तक समाधि में रहता। कोई सिर पर हाथ रखा। उठो! अब तुम पूर्ण हो गये।

मैं उठना नहीं चाहता था। उसी स्थिति में वर्षों रहना चाहता था। जैसे किसी ने झकझोर कर उठाना चाहा। मैं खुमारी से भरा था। अनचाहे आंखें खोला। सामने गुरुदेव खड़े थे। मैं अपना सिर उनके पैरों पर रखकर साष्टांग प्रणाम किया। उनके पैरों से ऊर्जा प्रवाहित होकर मेरे सिर से संपूर्ण शरीर में फैल गयी। मैं से परिपूर्ण था। कुछ देर के बाद उठा। गुफा में दूधिया प्रकाश था। परंतु न बल्ब थान दीपक। धीरे-धीरे प्रकाश भी छंट रहा था। यह क्या? कहां है गुरुदेव ? मैं जल्दबाजी में गुफा तक पहुंचा। दरवाजा खोला। बाहर अंधेरा था। बादल घने थे। वर्षा हो रही थी। ठीक द्वार के मध्य में नागदेव खड़े थे। छत्र ऊपर उठाए थे। मेरी तरफ अपलक देख रहे थे। क्या वर्षा के चलते ये गुफा के अंदर प्रवेश करना चाहते हैं? दूर-दूर तक कोई नहीं था। सर्वत्र सन्नाटा था। कदमों का गर्जना एवं चमक से आवाज तथा प्रकाश फैल जाता था।

उस नाग को अपलक देख रहा था। उसके ऊपर खड़ाऊं का चिह्न था। जिहा लपलप कर रही थी। उसकी आंखें चमक रही थीं। मैं हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। रास्ता छोड़ने के लिए निवेदन किया कि मैं गुरुदेव का दर्शन करना चाहता हूं। आप मेरे एवं गुरुदेव के मध्य दीवार न बने। मैं हर समय गुरु का ही स्मरण करता। कठिन से कठिन समय में भी गुरुदेव की ही आराधना करता। देवी-देवता में मेरी कभी अभिरुचि नहीं हुई। इसका अर्थ यह नहीं कि उनसे घृणा थी। वे भी तो उसी परम पुरुष के कर्ताधर्ता हैं वे भी तो मेरे ही हित के लिए परमपुरुष के द्वारा नियुक्त है।

मेरा निवेदन तत्क्षण नाग देवता सुन लिये घोर मूसलाधार वृष्टि प्रारंभ हो गई। समय ज्ञात नहीं हो रहा था। चूंकि घड़ी नहीं था। नागदेव सरपट गुरुदेव के कक्ष की तरफ चल दिए। जिन्हें विद्युत के चमक में दिखता था। मैं सीढ़ियों को पार करते हुए तट पर मंदिर के पास पहुंचा। नागदेवता मंदिर का परिक्रमा करने लगे। मैं उन्हीं का अनुसरण किया। वे द्वार पर दस्तक देने के बाद एक प्रकाश लौ में बदल गये। वह प्रकाश धीरे-धीरे ऊपर उठने लगा। मैं मूसलाधार वृष्टि में भी वर्षा का भान भूल कर अपलक देखता रहा। एकाएक जोर से गर्जना हुई विद्युत चमकी। मेरी आंखें बंद हो गईं। दोनों हाथ दोनों कान पर पहुंचे। ऐसा प्रतीत हुआ कि वज्रपात मेरे सिर पर ही हुआ।

क्रमशः...