साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

दीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

???? आवाज आई। स्वामी जी! मैं ही नंदी हूं। मैं भगवान शिव के द्वार पर बैठा रहता हूं। उनके ज्योर्तिमय प्रकाश पर त्राटक करता हूं। मैं हठयोगी हूं। भगवान शंकर मेरे गुरु हैं। अतएव द्वार पर निरंतर बैठा उनकी सेवा करता हूँ। आंखों से त्राटक एवं कानों से उन्हीं का प्रणव सुनता हूं। जिह्वा से पंचाक्षर का जाप करता हूँ। कभी-कभी आप जैसे स्वामी का स्वागत का भी अवसर मिल ही जाता है। आपके लिए भगवान शंकर इंतजार कर रहे हैं। आप अंदर जाएं। द्वार खुला है।

चन्द्रमा सा कान्तिपूर्ण प्रकाश सर्वत्र फैल रहा था। मैं अंदर चला गया। कुछ देर के लिए सब भूल गया। जब स्मरण वापस आया तब देखता हूं, सामने नील वर्ण, विशाल वक्ष, ललाट, जटाजूट, मन मोहक व्यक्ति पद्मासन पर बैठे हैं। आंखें बड़ी-बड़ी सूर्य की तरह तेज निकल रहा था मैं नम्रतापूर्वक दण्डवत करते हुए पूछा, "प्रभु आप ही भगवान शंकर हैं।" वे मुस्कुरा कर स्वागत किए। मैंने कहा- " आपको बार-बार मेरा प्रणाम है। आपकी पुरी में जगह-जगह स्वागत से भी मैं अति प्रसन्न हूं। आपको भी मेरे तरफ से अनन्त बार प्रणाम एवं स्वागत स्वीकार हो। हे प्रभु मां भगवती कहां है? आपका लोक अति सुंदर एवं अनुशासित है। आपके कक्ष में आकर मैं भाव विह्वल हो गया था। "

भगवान शंकर-" हे स्वामी जी! आपका काशीपति की तरफ से स्वागत है। आप यहां आकर सोच रहे होंगे कि शंकर श्मशान में नहीं है। विशाल भवन में है। शरीर में सर्पों का माला नहीं है। ये सब मात्र प्रतीक है। आप मेरे तरफ देख रहे हैं। मेरा शरीर पारदर्शी है। जो भी आत्म शरीर में रहता है, उसका शरीर पारदर्शी होता है। नील अर्थात् आकाश वर्णी है। नवों नाड़ियां स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं। ऊर्जा कुण्डलिनी मूलाधार चक्र से अनाहद चक्र में घेरा डालकर ज्ञान गंगा अर्थात् सिर पर सहस्त्रदल कमल ही ज्ञान गंगा है। जहां मैं हर समय रमण करता हूं। वहां से सदैव अमृत झरते रहता है। जिसको सर्पिणी पीते रहती है। यह सर्प का कुण्डल है। अंदर कुंटस्थ से सहस्त्रार तक ज्योर्तिलिंग पर अनवरत ध्यान ही ज्योर्तिलिंग है। बाहर आंख खोलने पर भी वही दिखाई देता है। यही कारण है कि मेरे निवास स्थल को काशी कहा जाता है। व्यक्ति के काया के मध्य में भी द्वादश दल कमल पर मेरी काशी है। जो साधक उस काशी का दर्शन कर लेता है। वह भी इस काशी में प्रवेश कर सकता है। मैं माया के मध्य में हैं। तीन लोक मेरे नीचे है। तीन हमसे ऊपर है। जो साधक गुरु कृपा से इस काशी में पहुंच जाता है। उसे त्राटक मंत्र देता हूं। अर्थात् में जिस महल में रहता हूं, वही शिवालय कहलाता है। उस निर्गुण- निराकार पर ब्रह्म जो परम ब्रह्म का प्रतिनिधि है का ध्यान देता हूं। वह काशी में रहकर उर्द्धगमन कर सकता है। जो मुझे ही अन्तिम मानकर काशी में रहकर सुख- सुविधा का उपभोग कर अपने पुण्य को क्षय कर लेता है। वह पुनः नीचे के लोकों में लौटा दिया जाता है। ऊपर का लोक आदिशक्ति, हम त्रिदेवों की मां परमा, प्रकृति का लोक है। उसके ऊपर आत्म लोक है। तथा सबसे ऊपर सतलोक है। जहां सत्पुरुष रहते हैं। सद्गुरु सीधे उन्हीं का आराधना करता है। उन्हीं का रास्ता बताता है। हम लोग भी उसी सद्गुरु के कृपा के आकांक्षी है।"

मानवी प्राणी वासना के दल-दल में इतना बुरी तरह आबद्ध है कि अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु छोटे-छोटे देवी-देवताओं के आराधना में मरकट के नाई भटकते रहता है। जो काल का ग्रास बनता है। काल निरंजन का आदेश है कि ये मानव हमारे ग्रास है। अतएव जैसे बकरे को नित्य नई-नई घासें खाने के लिए दी जाती हैं। जिससे उसके दाता समय पर अपना ग्रास बना सकें। यदि बकरा यह समझ ले कि मेरा मालिक कारुणिक है। तब यह उसका भ्रम है। भ्रम स्वरूप हो वह सभी कुछ भूलकर मैं, मैं करता रहता है। उसी तरह जगत् के मानव है। जो अपनी इन्द्रिय सुख के लिए विभिन्न देवी-देवताओं का नित्य अनुष्ठान करते रहते हैं। ये देवता भी उन्हें सांसारिक माया उपलब्ध कराते रहते हैं। समय पर ये उनका ग्रास बनते हैं। हमारे प्रतिनिधि भी संसार में शास्त्रों का शस्त्र लेकर फैले हैं। वे गांव-गांव पंडा, पुरोहित, मौलाना, पादरी, ग्रंथी के रूप में फैले हैं। जो यजमान के सांसारिक वासना माया पूर्ति हेतु प्रतिदिन नए-नए कथा सुनाते हैं। उन्हें देवी-देवता का अनुष्ठान बताते हैं, कराते हैं। जिससे उसका एवं हम सभी का व्यापार चलता रहता है।

इस पृथ्वी पर प्रथम बार सत्य का उद्घाटन सद्गुरु कबीर साहब किए हैं। इसके बाद तो संतों ने वास्तविक रहस्य को पकड़ ही लिया, तब नानक, दादू, दरिया, पलटू, रविदास इत्यादि ने उसी सत्यपुरुष की पूजा-अर्चना पर जोर दिया। इससे काल निरंजन चिंतित हो गए।

एक समय में हम लोगों के साथ गुप्त सभा किए कि क्या होगा ? सभी •बन्धनमुक्त हो जाएंगे। सभी लोग हमारे लोकों से भागकर सत्यलोक चले जाएंगे। फिर हमी लोगों पर शासन करेंगे। तब कुछ करना चाहिए। बहुत विचार कर यह निर्णय किया गया कि जैसे ही ये दो चार संत सत्य लोक चले जाए, फिर हमारे पुरोहित, मुल्ला, पांडे उस धर्म में प्रवेश कर जाए। फिर उन्हीं के नाम पर झूठा नाम झूठा तंत्र, झूठा कर्मकाण्ड, झूठी उपासना दी जाए। तथा कबीर के ही प्रतिरूप देवी-देवता विभिन्न साधु-संतों को दीक्षा दी जाए। जिसे प्रचारित किया जाए कि हमें प्रकट होकर कबीर साहब ही दीक्षा दिए हैं। इतना ही नहीं कबीर साहब का अवतार, बुद्ध, महान भी व्यक्ति विशेष में बार-बार आने को प्रचारित कर उन्हें भी वणिक बना दिया जाए। जिससे जीव सहज ही भटक जाएगा। हमारी खेती चलती रहेगी, यही हुआ। जब-जब सद्गुरु इस पृथ्वी पर आए हैं। उन्हें शिष्य हम लोग नहीं मिलने दिए। उनके जाने के बाद हमारे ही प्रचारक उन्हें आत्मसात कर जाते हैं। अब आप ही देखें बुद्ध का भी नित्य जन्म हो रहा है। कृष्ण सोलह कला ही नहीं चौंसठ कला में आ रहे हैं। नित्य नए-नए सद्गुरु आ रहे हैं। जो देवताओं का ही कार्य करते हैं। देवता लोग उनके धर्म को प्रचारित करते हैं। ऋद्धि-सिद्धि से भरते हैं।

कुछ कहते हैं कि मेरा ही शरीर ब्रह्मा का है। इसमें ही शिव आ गए हैं। मैं ही गोता कहा हूं। आप ही समझे जब किसी पातकी के शरीर में प्रेत प्रवेश करता है तब वह प्रेत उसके आत्मा पर हावी होकर अपना कार्य करता है। क्या शिव भी प्रेत हैं। कोई देवी, देवता खेलता है। यदि खेलता भी है तब स्वामी जी उस व्यक्ति की आत्मा तो शिव नहीं न बनी। उस पातकी के तरह ही झूठा बवंडर फैला कर, लोगों को भ्रम जाल में डालकर स्वयं भ्रमित होकर चली गई। उसके उपासक अब उसे ही सत्य मानकर आगे चल पड़े। उनका काफिला ज्यादा होता है। इस तरह काल भगवान की खेती में लोग करते रहते हैं। काल भगवान भी बकरे की तरह इन्हें उपहार देते रहते हैं। इसी तरह पृथ्वी पर कोई ईसा, तो कोई शंकर, विभिन्न रूपों में अवतार होता रहता है। कोई भी साधक अपने जीवात्मा को पूर्ण परिछिन्न कर शिव, परम ब्रह्म के रूप में नहीं देखना चाहता है। यही माया है। ये सभी अवतारी माया के बंधन में बुरी तरह आबद्ध है।????

क्रमशः.......