आभार सद्विप्र विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

आभार सद्विप्र  विप्र  समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्यमय लोक से

ऊर्जा का बाढ़ आ जाता है। जिसमें साधक डूबने लगता है। इस ढूंढने में भी उबन नहीं है अपितु मस्ती है। आनंद है। वह जोश से भर जाता है। नदी पार करने लगता है। कुंडलिनी यात्रा करने लगती है। वह सभी चक्रों को पार करते हुए सहस्रार में पहुंच जाती है। यही है--नाग का छाया करना। वसुदेव सूप (टोकरी) में रख कर सिर पर ले जाते हैं। अर्थात अपूर्व श्रद्धा-समर्पण रूपी सूप में रखे हैं। वह परमात्मा (मैं) सहस्त्रार पर खेल रहा है। जिसमें वसुदेव (साधक) मस्तक है। श्रद्धा-प्रेम रुपी स्त्रेण चित रूपी यशोदा के गोद में रख दिया गया। अर्थात भक्ति स्त्रैण है। भक्ति की गोद में ही मैं निवास करता हूं। मैं भक्तों के अधीन रहता हूं। उनके प्रेम में मैं नाचता हूं। गाता हूं। उनके गायों (इंद्रियों) को मैं ही चराता हूं। उनका सारा कार्य मैं करता हूं। उनका योग क्षेम मैं सहर्ष करता हूं। उसे करने में मुझे खुशी होती है।

मैंने हाथ जोड़कर कहा--प्रभु! अब मैं आपकी लीला को समझ गया। आपके आहट से ही साधक का पुनर्जन्म होता है। आपके अवतरण "होने से ही ब्राम्हण बनता है। फिर वही ब्राम्हण भक्ति रूपी नदी में गोता लगाता है। जिसमें आप ही जल बनकर भक्तों को आहवादित करते हैं। भक्त  अहोभाव से भर जाता है।

भगवान आपके ही अनु ग्रहण पर साधक को गुरु प्राप्त होता है। आप ही गुरु रूप में उस पर प्रसन्न होकर उपदेश देते हैं। फिर उसे तन-मन-धन अर्पित करने को विवश करते हैं। जिस परआप की कृपा हो जाती है। वह तन मन धन गुरु पर समर्पित कर स्वयं निश्चिंत हो जाता है। आप ही गुरु के माध्यम से दीक्षा संस्कार करके उसे द्विज बना देते हैं। फिर आप गुरु के साकार रूप में प्रकट दिखाई देते रहते हैं। उसकी सेवा, उपासना को ग्रहण करते रहते हैं। जैसे ही उस में पूर्ण पात्रता आ जाती है-फिर आप निराकार रूप में उसमें भर जाते हैं। फिर वह निराकार-साकार में आपको ही देखने लगता है। आप धन्य हैं। आप की महिमा धन्य है।

व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। अपने कर्मानुसार बार-बार जन्म लेने एवं दुख-सुख भोगने को बाध्य होता है। योनि और जन्म बदलने से उसके बौद्धिकता पर कोई अंतर नहीं पड़ता। सदगुरु कबीर कहते हैं।
माया मरी न मन मरा, मरि-मरि गया शरीर।
आशा तृष्णा नहीं मरी, कह गए दास कबीर।।

मन माया में उलझा रहता है। उसी के साथ ताना-बाना बुनते रहता है। आशा तृष्णा में पूरा जीवन बर्बाद करता है। मरते समय मन आशा-तृष्णा एवं माया को सूक्ष्म रूप में एकत्र कर लेता है। इस जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़कर निकल जाता है। पुनः दूसरा शरीर धारण करता है। दूसरे शरीर में पुनः वही मन-माया, आशा-तृष्णा का कार्य प्रारंभ करता है। इसी तरह चक्र चलते रहता है। बौद्धिक जन इसे पुनर्जन्म नहीं मानते। यह तो शरीर का पुनर्जन्म हुआ। सिद्धार्थ को जैसे ही ज्ञान प्राप्त हुआ, वे बुद्ध हो गए। बुद्धत्व ही वास्तविक पुनर्जन्म होता है। यही कारण है कि संन्यासियों का नाम, वस्त्र, गोत्र बदल दिया जाता है। सन्यास व्यक्ति का पुनर्जन्म है। वह गुरु के वस्त्र, नाम, गोत्र से जाना जाने लगता है। यही कारण है कि भारतीय परंपरा के संयासी को घर-परिवार के लिए मरा हुआ समझते हैं। गुरु के द्वारा सन्यास देकर उसको पुनर्जन्म दिया जाता है। वह  अहोभाव से इतना भर जाता है कि माया-मन गिर जाता है। वह गुरु  का ही होकर रह जाता है। इसी से सदगुरु कबीर कहते हैं--

"सद्गुरु के परिचय बिना चारो बरन चमार "।

सद्गुरु से परिचय माया एवं मन के द्वारा नहीं बनाया जा सकता है। इससे संबंध बनाना तो चमार पन है। अर्थात चमड़ीगत (मायाजाल) संबंध है। जैसे ही शिष्य गुरु के चरणों में तन मन धन के साथ स्वयं को समर्पित करता है। गुरु उस पर वैसे ही बरसने लगता है। तभी तो सदगुरु कबीर कहते हैं----

पहले दाता शिष्य माया, तन मन-धन आपा जाहि।  पाछे दाता गुरु माया, तीन लोक का संपदा दिया बताएं।।

गुरु तो दाता है। वह तीनों लोको से भी कीमती संपदा को देने के लिए आतुर है। शिष्य की तरफ से देर है।

साधक सोया हुआ सिद्ध है। बोलने में वाणी की जरूरत है। मौनता में वाणी और विवेक दोनों की जरूरत है। साधक का अगला कदम सिद्ध का ही है। जिसमें वाणी मौन हो जाती है। विवेक से भर जाता है। उसे ऐसा ज्ञात होता है, वह तो मिला ही हुआ था। उसे जान गए। इसे जन्मों-जन्म से नहीं जान पाए थे। गुरु के कृपा-प्रसाद से क्षणभर में पा गए। वह नाच उठता है। वह गुरु-गोविंद को धन्यवाद देते नहीं थकता है।

अब उसके नाच में कृष्ण का नृत्य होता है। उसके गीत में मीरा का गीत होता है। राधा की थिरकन होती है। चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन होता है। शंकर के डमरू का वाद्य होता है। कबीर की सहज समाधि का भाव होता है। बुद्ध की करुणा होती है। महावीर की मस्ती भरा आनंद होता है। सभी के साथ अपनेपन का भाव होता है। यही है वास्तविक पुनर्जन्म।